Saturday, December 30, 2023
Sewa Dham (सेवा धाम )
Saturday, November 11, 2023
दिखावे का दान
Sunday, October 22, 2023
योग से व्यापार
योग से व्यापार
स्वामी श्यामानंद का नाम समाज में एक पहुंचे हुए योगी के रूप में प्रसिद्ध था । लोगों के अंदर एक आम धारणा थी कि जो रोग बड़े बड़े डाक्टर ठीक नही कर पाते हैं, उसे स्वामी जी अपने योग विद्या के द्वारा रोगियों को या तो योग करवाकर या फिर अपने वहां निर्मित दवाइयों से ठीक कर देते हैं। पता नही इन बातों में कितनी सत्यता थी यह एक शोध का विषय हो सकता है, किंतु आम जन में यही धारणायें बनी हुई थी कि बाबा एक से एक जटिल रोगों का इलाज बहुत ही आसानी से कर देते हैं।इस धारणा ने समाज में एक ऐसा स्थान बना लिया था कि बाबा के योग कार्यक्रमों में हजारों की भीड़ होने लगी इसके लिए समाज का अमीर तबका, बाबा के नजदीक पंक्तियों में बैठने का स्थान पाने के लिए ज्यादा से ज्यादा शुल्क चुका कर अपने जटिल रोगों से छुटकारा पा लेना चाहता था। शायद लोगों को यह पता ही नहीं कि रोग के कारण उनकी सोच, उनकी जीवन शैली, उनका आचार विचार व्यवहार और कुछ कुछ बाहरी परिस्थितियों व कुछ प्रारबद्ध तो कुछ तो कुछ मनुष्य के दुर्भाग्य की उपज हैं। लेकिन इस व्यवसायिक जगत में कौन अपने सोच, जीवन शैली, आचार विचार व व्यवहार पर ध्यान दें, व्यक्ति यदि अपना आचार विचार व अपने व्यवहार को ही सही कर ले अपने जीवन में अधिकतर समस्याओं को आने ही नही देगा ।
बात जो कुछ भी हो किन्तु समाज में इस बात ने इतनी गहराई से स्थान बना लिया था कि बाबा एक से एक जटिल रोगों को अपने योग विद्या के द्वारा नही तो अपने दवाइयों से ठीक कर देंगे। इस सोच ने बाबा को कमाई का एक ऐसा अवसर प्रदान किया की बाबा की कमाई दिन दूनी व रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी।बाबा की इस कमाई में उनका अथक प्रयास, परिश्रम, वाक्य पटुता व समझदारी का अद्भुत मेल था। बाबा जगह जगह , बड़े शहर से लेकर छोटे शहरों में योग कार्यक्रमों को आयोजित करते, इन योग कार्यक्रमों में इतनी भीड़ होती की मानो एक नए तरह के मेले का दर्शन होता था। कुछ रोगी थे जो रोगों के छुटकारे के आशा में तो कुछ भविष्य में कोई रोग न हो इस आशा में योग कार्यक्रमों में शामिल होते थे। इन योग कार्यक्रमों की सफलता और बाबा की दवाइयों का अद्भुत प्रभाव को सुनकर कुछ उद्यमी व्यक्तियों को बाबा के साथ व्यापार का अवसर नजर आ रहा था। वो सोचते थे कि बाबा का ब्राण्ड नाम उनको और पैसा बनाने का अवसर प्रदान कर सकता है । वो बाबा के साथ मिलकर बड़ी से बड़ी कंपनियों की स्थापना करना चाहते थे। इस निमित वो बाबा को अपने बड़े बड़े कारखानों मे घुमाते थे और उसमें लगे मशीनों की विशेषता बताते थे। कोई उद्यमी बाबा को अपने कारखाने में घुमाने के लिए ले जाता तो वह अपने मशीनों के कार्य करने की क्षमताओं व इसके द्वारा किए जा रहे कार्यों को इतना विस्तृत से वर्णन करता था कि बाबा भी अचंभित से हो जाते व आश्चर्य प्रकट करते हुए ऐसा प्रदर्शित करते थे कि जैसे उन्होंने ऐसा पहली बार देखा हो। पता नही उनके इस प्रकार आश्चर्य प्रदर्शन आपके पीछे कितनी सच्चाई थी यह तो वही जाने किंतु ऐसा लगता था कि यह एक प्रकार से उन उद्यमियों को आमंत्रण था की आप और ज्यादा से ज्यादा अपने कारखानो में मशीनरी द्वारा तैयार किए जा रहे वस्तुओं के बारे में बताएं। बाबा की मनसा को भांप कर उद्यमी और एक से एक गूढ़ रहस्यों को बताते तथा होने वाले फायदों को गिनाकर बाबा को अपने साथ लेकर नए नए कारखानों का सपना अपने मन में संजोए जाते थे। किन्तु किसी के मन में क्या बात चल रहा है इसको जानना तो इतना आसान काम नहीं है। शायद हम सभी लोग कभी एक दूसरे की शत प्रतिशत मन की बातों को पढ़ लेते या जान जाते तो इस पूरी दुनिया के लोगों के व्यवहार का स्वरूप क्या होता इसको बता पाना इतना आसान काम नही है।,
बाबा को अपने योग कार्यक्रमों करते हुए महीने में एक से दो बार नए - नए कारखानों में घूमना उनके बारीकियों को समझने के सुअवसर मिल जाया करता था। इस तरह से भिन्न - भिन्न कारखानों में घूमना, मशीनों की कार्य करने की बारीकी को समझना, कार्य की उत्पादकता में बढ़ावा देने व वस्तुओं लागत में कम करने वाले तरीकों को समझना तथा उन मशीनों से होने वाले फायदो को देखने व अध्ययन करने का अवसर बाबा को बार बार मिल रहा था। बाबा के पास छोटा मोटा आयुर्वेदिक दावा बनाने का कारखाना था। यह कारखाना कुल ले देकर एक घरेलू उद्योग के रूप मे था, जिसमे कुल ले देकर रूढ़िगत तरीकों का ही आयुर्वेदिक दवा व छोटे मोटे घरेलू सामानों को बनाने में प्रयोग होता था। जो शायद ही बाजार में मांग की पूर्ति नहीं कर पा रही थी व बड़े-बड़े कंपनियों की तरह पैकिंग तथा प्रस्तुतीकरण भी नहीं कर पा रही थी।
देश के बड़े-बड़े उद्योगपति जो बाबा को अपने कारखाने में घूमाने ले जाते थे वह लोग बाबा से कई बार साथ में व्यापार करने की मनसा प्रकट कर चुके थे और बाबा के ब्रांड नाम का फायदा उठाना चाहते थे किंतु बाबा के मन में कुछ और ही चल रहा था। बाबा के पास अब नाम के साथ पैसा भी पर्याप्त था तथा एक सामान्य बुद्धि जो एक प्रबंधक के पास होनी चाहिए उससे बाबा भरपूर थे। प्रबंधक का काम ही क्या है सही काम के लिए सही आदमी का चुनाव करना कार्य पर लगाना, सही समय पर सही निर्णय को लेना, बाजार के उतराव चढ़ा पर ध्यान देना, बाजार में हो रहे परिवर्तनों पर ध्यान देना, जनता के मूड और रुचियों पर ध्यान देना, और जो सबसे जरूरी गुड़ होना चाहिए वह था साहस इसका बाबा के पास अथाह भंडार था।
बाबा को विभिन्न कम्पनियों में घूमने व उनके प्रबंधकों व मालिकों से मिलने के कारण एक बृहद अनुभव का भंडार था ही ,उन्होंने इन अनुभवों और अपने साहस के बल पर एक बड़ी कम्पनी स्थापित करने का फैसला किया। कुछ ही महीने में कम्पनी बनकर तैयार हो गई उसमे उत्पादन शुरू हो गया जो लोग अभी तक बाबा के साथ मिलकर कम्पनी खोलना चाहते थे व साथ साथ ब्यापार करना चाहते थे अब बाजार में बाबा उनके प्रतिद्वंदी थे। अब बाबा का व्यापार दिन दूना रात चौगुना प्रगति पर था, उनके प्रतिद्वंदि जो पहले बाबा को अपने कारखाने व मशीनों की बारीकियों को बताने में अपना बड़प्पन दिखाने का प्रयास करते थे और बाबा के साथ व्यापार की आशा करते थे, अपने हाथों को मल रहे थे और एक जबरदस्त प्रतिद्वंदिता के साथ अपना अस्तित्व बचाने का प्रयास का रहे थे।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
Saturday, May 14, 2022
अफसरीयत
अफसरीयत
अफसरीयत या अधिकारीपन भी क्या चीज है। उसमें भी प्रमोटी अफसर की बात ही अलग है, कुछ व्यक्तियों का अपने नीचे के संवर्ग से अधिकारी के संवर्ग में जाते ही उनका बात व्यवहार ऐसे बदल जाता है जैसे लगता है कि वो अपने पूर्व के साथियों व सहकर्मी कर्मियों को बिल्कुल पहचानते ही नहीं है। शायद इस नव अफरीयतपन से उनके चालों में तेजी आ जाती है तो नजरें इस प्रकार सीधी हो जाती हैं कि वह अपने साथ काम किए साथी मित्रों को भी पहचान करना तक गवारा नहीं समझते हैं।
ऐसे ही नये प्रमोटी अधिकारी बने राम चरण पांडे जी इसी प्रकार के वर्णित नव गुणों से युक्त थे। जब से पांडे जी अधिकारी बने थे तब से ऑफिस में आते और ऑफिस से निकलते समय अपनी नजरें बिल्कुल इस प्रकार से रखें रहते थे कि किसी पूर्व परिचित कर्मचारी से नजरें मिल न जाये यदि किसी से मिल भी जाता था तो वो ऐसे नजरअंदाज करके आगे बढ़ जाते थे कि जैसे उन्होंने किसी को देखा ही न हो। यह व्यवहार उनके पूर्व परिचितों के बीच कौतूहल का विषय बना हुआ था तो कुछ के बीच में यह एक हंसी व ठिठोली करने माध्यम सा बन गया था। कुछ हुल्लड़ बाज कर्मचारी थे जिनका काम ऑफिस में काम करना कम हंसी मजाक ठिठोली करना ज्यादा था वह बार-बार टिप्पणी करते हंसी मजाक करते , देखें पांडे जबसे अफसर बन गया हैं हम लोगों की तरफ नज़रों को घुमा कर देखना भी पसंद नहीं करता है नहीं तो उसका गुजारा दिन भर हम लोगों के साथ होता था, कोई काम फंसता था तो हम ही लोगों से सहायता लेकर वह काम करता था। तो कुछ कर्मचारी अपने सीनियर्स से चुटकी लेते हुए मज़ा लेते थे और कहते थे सर जब आप भी अधिकारी बन जाइएगा तो हम लोगों की तरफ नज़रों को उठाकर नहीं देखिएगा और अपने चेंबर में बुलाकर बात बात पर घुड़की अलग से दीजिएगा। तो उसी में से कोई सीनियर कर्मचारी टिप्पणी करता हम धत्ता मारते हैं ऐसे अधिकारीपने को जो अपने सहकर्मियों से मुझको जुदा कर दे। इस तरह हंसी ठिठोली से ऑफिस के कर्मचारियों के दिन कट रहे थे तथा पांडे जी का अफसरियत का रुख दिन प्रतिदिन और कड़ा होता जाता है। अब ऑफिस के कर्मचारियों के लिए उनके रुख और व्यवहार में इस बदलाव पर कोई आश्चर्य न होता था, लोगों को यह समझ में आ गया था की पांडे जी के कैडर में बदलाव ही उनके रूख में बदलाव का मुख्य कारण न था बल्कि उनके अंदर वर्षों से जमा हुआ यह विचार रहा होगा की अफसर बन जाने पर अपने सहकर्मियों के साथ कैसा व्यवहार करना है उनको कैसे नियंत्रित करना है, अपना चाल ढाल व चाल ढाल व हुलिया बनाकर कैसे रखना है। उनके व्यवहार में इस बदलाव को लोग सहजता से लेने लगे थे, अब लोगों को उनके इस तरह के व्यवहार पर कोई आश्चर्य ना होता था।
इधर पांडे जी जब से अफसर बने थे अपने पूर्व सहकर्मियों से जितना दुराव रखने का प्रयास करते थे ठीक इसके विपरीत उतना ही अपने से बड़े अफसरों से लगाव रखने का प्रयास करते रहते थे, लेकिन जैसे उनका दुराव अपने से छोटे कर्मचारियों से था, ठीक वैसा ही दुराव बड़े अफसरों का उनके प्रति था। ये कितना भी बात व्यवहार अपने से बड़े अफसरों के साथ बढ़ाना चाह रहे थे किंतु उधर से रूखापन व्यवहार ही उनको मिलता था। आखिरकार रुखापन व्यवहार क्यों न मिले वह ठहरे क्लास वन अधिकारी और पांडे जी क्लास टू अधिकारी थे। अधिकारीपन भी क्या चीज है जो अपने में क्लास में क्लास संजोए हैं, मैं उससे ऊंचा हूं तो वह हमसे छोटा है मैं उसको अपने पास कैसे बैठा सकता हूं तो नीचे वाला सोचता है मैं उनके पास कैसे बैठ सकता हूं। शायद इसी तरह का वर्ग डिफरेंस या यों कहें अहम होने के कारण सरकारी विभाग में बहुत से काम समय पर तथा ठीक से ना हो पाते हैं। शायद यह भी एक कारण है सरकारी विभाग मे कार्य में शिथिलता ढिलाई का।शायद यह बिल्कुल वैसी ही व्यवस्था है जैसे सनातनीयों में जाति व्यवस्था है, मैं उससे ऊंची जाति का हूं, वह मेरे साथ कैसे बैठ व खा सकता है। मैं उससे बड़ा वह मुझसे छोटा ने इस संसार का जितना नुकसान किया है इसकी कल्पना ही करना मुश्किल है।
खैर यह एक अलग बात थी किंतु पांडे जी का अपने से छोटों के प्रति दुराव तथा अपने से बड़ों के प्रति लगाव ने न तो उनको नीचे वालों के साथ उठने बैठने खाने-पीने के लायक छोड़ रखा था न हीं वह अपने से बड़े अधिकारियों के साथ उठ बैठ व खा पी सकते थे। किंतु पांडे जी अब अधिकारी थे अधिकारीपने के ठसकपन से भरे हुए थे।
पांडे जी का परिवार में कुल तीन प्राणी थे जिनमें से वह उनकी पत्नी और एक बेटा, बेटा पढ़ने में ऐसा कुछ होनहार ना था किन्तु पांडे जी जब से अधिकारी बने थे,तब से बेटे के भविष्य को लेकर उनकी सोच कुछ ज्यादा ही ऊंची हो गई थी और होना भी चाहिए, किन्तु मनुष्य जैसा सोचता है अगर वैसा शत प्रतिशत हो जाए तो पूछना ही क्या है। पांडे जी बच्चे को डॉक्टरी पढ़ाना चाहते थे, किन्तु बच्चा कई दफे डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा देने के बावजूद भी डॉक्टरी की पढ़ाई में दाखिला लेने में सफल न हो सका। पांडे जी के मन में यह विचार था कि चलो लड़का परीक्षा देकर दाखिला ना ले सका तो क्या हुआ अब बहुत समय जाया ना करते हैं उसका दाखिला पिछले दरवाजे से करा कर डॉक्टरी का तमगा लड़के को हासिल कर लिया जाए। उन्होंने वैसा ही किया लड़के ने डॉक्टर की पढ़ाई पूरी की और डाक्टरी का तमगा हासिल कर कागज में डाक्टर बन गया, किन्तु डाक्टरी भी एक पेशा है जिसमें वास्तविक ज्ञान का महत्व कागज में हासिल किए हुए डिग्री से ज्यादा है। इस दुनिया में बहुत से डिग्री धारी डॉक्टर हैं जिनके पास केवल डिग्री ही है वह भी उन्हीं लोगों में से एक थे। अब पांडे जी के बेटे का नाम अतुल पांडे से डॉक्टर अतुल पांडे था, जो अपने क्लीनिक पर बैठ प्रैक्टिस करते थे। किंतु डॉक्टरी पेशा में वास्तविक व प्रयोगिक जिस ज्ञान की आवश्यकता थी शायद उस ज्ञान का डॉक्टर अतुल पांडे के पास अभाव था। कोई भी मरीज शायद एक से दो दफा ही उनकी क्लीनिक पर आता उसके पश्चात वह शायद ही कभी उनकी क्लीनिक की तरफ मुंह करता हो।
पांडे जी चालू पुर्जा आदमी थे, ऐसे आदमियों का समाज में शायद ही कोई काम रुकता हो। पांडे जी का बेटा अब अतुल पांडे से डॉक्टर अतुल पांडे हो गया था। अब उसके लिए कई रिश्तो की भरमार थी, उन्ही रिश्तो में से एक रिश्ता पांडे जी को बहुत ही पसंद आया। लड़की एमबीबीएस की हुई थी देखने में भी सुंदर थी उन्होंने पूरे परिवार की स्वीकृति लेने के पश्चात लड़की वालों को रिश्ते के लिए सहमति दे दी। विवाह बड़े धूमधाम से हुआ पैसा पानी की तरह दोनों खानदानों ने बहाया। आखिरकार पैसा होता ही किस लिए है यही सब अवसरों पर भी न खर्च किया जाए तो उसका उपयोग ही क्या है।
शादी के बाद दोनों परिवारों बेटे बहू में जो खुशी का माहौल होना चाहिए वह सब दर्शन हो रहा था। शादी के कुछ दिनों के पश्चात पांडे जी ने बेटे और बहू दोनों को मास्टर डिग्री कर लेने का सुझाव दिया तो दोनों ने मास्टर डिग्री में दाखिला के लिए फार्म भरा तथा परीक्षा दिया तो बहू का सिलेक्शन प्रथम प्रयास में ही हो गया। किंतु बेटे ने मास्टर डिग्री में सिलेक्शन हेतु कई प्रयास किया किंतु सिलेक्शन ना हो पाया। उधर बहू एम.डी. की डिग्री लेकर अपनी प्रैक्टिस तो आगे बढ़ा रही थी तो बेटा बैचलर डिग्री को लेकर अपनी प्रैक्टिस आगे बढ़ा रहा था। किंतु कुछ दिनों के पश्चात परिवार में सभी लोग महसूस कर रहे थे कि बहू का व्यवहार व नजरिया बेटे व परिवार के प्रति बदला बदला सा रहता है। बहू के मन में कहीं ना कहीं यह विचार घर कर गया था कि इनका कालेज में दाखिला बैकडोर से होने के कारण और साथ ही अच्छा ज्ञान ना होने के कारण न तो इनकी प्रैक्टिस ठीक चल पाती है और ना ही एमडी में कहीं एडमिशन हो पा रहा है। शायद इन्ही बातों को लेकर बहू का मन अपने पति से मेल न बैठा पा रहा था। कुछ दिनों के पश्चात बहू से परिवारिक तालमेल कुछ ऐसा बिगड़ा कि वह अपने ससुराल से जाने के पश्चात फिर आने को तैयार न हुई। इस बात का सदमा पांडेय जी के बेटे डॉक्टर अतुल पांडेय पर इतना गहरा पड़ा कि वह बिल्कुल अवसाद की स्थिति में चले गए। जब किसी परिवार में किसी बात को लेकर विवाद हो जाए तो इसका प्रभाव किसी एक व्यक्ति पर ना हो पूरे परिवार पर पड़ता है यह स्पष्ट यहां दिख रहा था पूरा परिवार मायूस रहता था परिवार से खुशी नदारदत थी परिवारिक वातावरण में एक अजीब उलझन और खुशियों का विलोप दिखता था। अवसाद की स्थित व्यक्ति के साथ परिवार पर कुछ ऐसा गुजर रही थी कि पांडे जी का बेटा ने कुछ ऐसा निर्णय लिया पूरे परिवार में कोहराम सा मच गया, एक सुबह जब बेटे को उठने मे देर हुई तो पाण्डे जी लड़के के कमरे में पहुंचे तो कमरे का दृश्य देखकर पांडे जी बिल्कुल हतप्रत से हो गए, पांडे जी ने देखा की लड़के के दिल की धड़कन गायब थी तो बदन बिलकुल ठंडा हो गया था परिवार के जो लोग जहां थे वहीं दहाड़ मार कर रो रहे थे , तो पांडे जी रोने के साथ अपने किए गए कर्मों पर पश्चाताप कर रहे थे कि काश मैं अपने लड़के की योग्यता के अनुसार की बहू का चुनाव करता किन्तु दिखावा ने मुझे इतना मजबूर कर दिया था कि बेमेल कहे या बेमेल बौद्धिक स्तर की लड़की के साथ मैंने अपने लाडले की शादी कर दी जिसके कारण सामंजस्य ना बन पा रहा था उस पर भी मैंने बहू को एमडी करा कर बेमेल पन और बढ़ा दिया जैसे करेला वैसे ही तीता होता है और नीम के पेड़ पर चढ़कर और तीता हो जाता है, यही हाल बहु के साथ हुआ।
यह अपार दुख पांडे जी के ऊपर आ पड़ा ही था किंतु शायद पांडे जी को अभी और दुनिया से सीख मिलने वाली थी पांडे जी जब से अधिकारी बने थे तब से अपने से छोटे कर्मचारियों के साथ उनका बात व्यवहार बहुत ही सीमित था और उन लोगों से बातचीत से बहुत ही दूर रहते थे तथा अपने से बड़े व समकक्ष अधिकारियों से ज्यादा मेल मिलाप की प्रयास में रहते थे किंतु इस विकट घड़ी में जो उनके समकक्ष अधिकारी या बड़े अधिकारी थे शायद ही किसी एक आदमी ने फोन करके उनको सांत्वना दिया हो नहीं तो बड़े अधिकारियों का व्यवहार उनके प्रति ऐसा था जैसे लगता था कि वह इनके साथ हुई घटनाओं से अनजान है। किन्तु जिन छोटे व अपने समकक्ष कर्मचारियों से वह दुराव रखते थे वही लोग इस दुख की घड़ी में उनके साथ खड़े थे तथा उनसे कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करने को तैयार थे। पांडे जी के लिए यह एक ऐसी सीख थी जो उनको अपने द्वारा किए गए व्यवहार पर सोचने को मजबूर कर रही थी तो दिल इनको धिक्कार रहा था जिनके साथ आपने ऐसा व्यवहार किया है वह लोग आपके दुख की घड़ी में आप के साथ खड़े हैं और जिन बड़े अधिकारियों की आप लल्लो चप्पो करते थे उनमें से अधिकतर ने तो संतावना तक की रश्म अदायगी कर अपना फर्ज निभाना उचित नहीं समझा तो कुछ ने सांत्वना दिया भी तो फीके मन से।
Saturday, June 19, 2021
भूल
भूल
कोई कहता है धर्म अफीम है तो सनातनी कहते हैं हर वो आचरण जिसको धारण करने से दुनिया व समाज का भला हो वही धर्म है। इसके विपरीत दुनिया के कुछ धर्म संप्रदाय जो इस संसार में अपने संप्रदाय का एकाधिकार चाहते हैं वो विभिन्न प्रकार के प्रपंच कर अपनी संख्या बढ़ाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके लिए उन्हें चाहे कितना भी नीचे गिर जाना पड़े, झूठ बोलना पड़े, फरेब करना पड़े वह इससे परहेज नहीं करते हैं। नीचे गिरने तक, झूठ बोलना तक, तो बात कुछ समझ में आती है किंतु ऐसे भी लोगों का संप्रदाय है जो अपनी संख्या बढ़ाने के लिए किसी की हत्या करना, समाज में दंगा फसाद मारकाट करने से जरा भी परहेज नहीं करते हैं। कुल ले देकर कहें तो ये लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए हर वो काम करते हैं जो जनसंख्या बढ़ाने में सहयोग करें, चाहे इससे दुनिया, देश, समाज का कितना भी नुकसान हो जाए। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर इन लोगों ने अपने धर्म के नियम इस प्रकार से आडंबर बद्ध कर कर रखें है कि दुनिया का भला हो ना हो इनकी संख्या बढ़नी चाहिए।
कुछ ने तो ऐसा आडंबर बना लिया है कि वह दिखते तो सेवाभावी हैं किंतु उनकी सेवा भाव के पीछे केवल और केवल एक उद्देश्य छुपा है कि कैसे जिसकी सेवा कर रहे हैं उसका धर्म परिवर्तन करा कर अपने धर्म संप्रदाय का अंग बना लिया जाये। ऐसे लोगों की निगाह समाज के गरीब, पिछड़े और दबे कुचले लोगों पर ज्यादा रहती है।
सनातनी अर्थात हिंदुओं को तो लगता है जैसे इन सब बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता है उनका यह सोच या घमंड कि हमारा धर्म सबसे पुराना सनातन धर्म है जिसका न शुरुआत कहां से हुई इसका पता है और न ही इसका कभी अंत हो सकता है, यह घमंड या विश्वास हिंदुओं या फिर कहे सनातनियों के जीवन में बना हुआ है, इसी के आड़ में इस धर्म के प्रबुद्ध लोग अपनी जात - पात, ऊंच-नीच के भेदभाव खत्म करने का कोई बीड़ा न उठा पा रहे हैं, शायद यह बात इस धर्म के पतन का मुख्य कारण कारण है। अगर यह घमंड ना होता तो इसके बड़े बड़े धार्मिक मुखिया लोग आगे आकर इस धर्म के धार्मिक कुरीतियों को समाप्त करने हेतु कब का एक संगठित अभियान छेड़ चुके होते। लगता है कि वह इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि इन्हीं कमियों के आड़ में उनको समाप्त करने का एक संगठित अभियान विभिन्न धर्मों के द्वारा चलाया जा रहा है। आदर्श शायद ही कभी कपट के सामने टीक पाएगा। जहां मजहब की संरचना इस आधार पर हो अपना फैलाव किस प्रकार करना है चाहे दुनिया को कितना भी नुकसान हो जाए वहां आदर्श कहां टीक पाएगा।
इन्हीं विषम परिस्थितियों के बीच रांची के झुरार गांव में एक परिवार रहता था जिसके मुखिया का नाम बाबूलाल था। जो शहरी व्यक्तियों के छल प्रपंच से दूर एक निहायत ही सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। इनको काम के बदले में जो थोड़ा बहुत मिल जाया करता था, वही पाकर संतुष्ट हो जाते हैं और उसी से अपना तथा अपने परिवार का जीवन यापन करते थे। इनका ज्यादातर समय या तो मेहनत मजदूरी में बितता या फिर अपने परिवार की परिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में बीता। समाज में क्या हो रहा है यह तो इनके पास सोचने का मौका ही न था या फिर उस क्षेत्र में इनके पास चिंतन का अभाव था।
गांव में तथा आसपास के गांव में ईसाई मिशनरियों ने कब अपना डेरा बना लिया यह शायद उस गांव के लोगों को पता तक ना चल पाया। गांव शहर से दूर होने के कारण यहां पर डॉक्टर, दवा - दारू की उपलब्धता ना के बराबर थी। मिशनरी को विदेशी पैसों की सहायता और समर्पित लोगों का एक समूह था जो इन दबे कुचले लोगों की समय-समय पर दवा दारू इत्यादि से सहायता करता रहता था। इससे वह उसके प्रभाव में आते जाते थे। इसी सेवा संस्कार के आड़ में इन लोगों ने धीमे धीमे अपने पूजा स्थलों (चर्चों) का भी निर्माण कर लिया। इन चर्चों के निर्माण के पीछे प्रार्थना का कार्यक्रम कम, कुछ संगठित छिपे हुए कार्य ज्यादा थे। अब कोई भोला भाला गांव वासी बीमार होता तो दवा दारू के साथ उनको चर्च की चंगाई प्रार्थना में शामिल किया जाता और स्वस्थ होने पर बोला जाता देखो जो रोग आपका वर्षों से नहीं ठीक हो रहा था उसको प्रभु यीशु ने चंद दिनों में ठीक कर दिया। और भी कई आडंबर युक्त कार्यक्रम प्रायः आयोजित किए जाते थे, जिसका मूल उद्देश्य उन कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों के दिमाग में अपने धर्म के बारे में हीनता का भाव उत्पन्न करना तथा क्रिश्चियन धर्म के बारे में उच्चता का भाव उत्पन्न करना था।
ऐसे ही कई कार्यक्रमों में शामिल हो चुके हैं बाबूलाल इन मिशनरी वाले लोगों के प्रभाव में आकर अपने परिवार के साथ धर्म परिवर्तन कर ईसाई धर्म को धारण कर लिये। क्रिस्चियन धर्म को धारण करने के पश्चात उनको इस बात का एहसास हुआ की जो धर्म दूर से देखने पर ऐश्वर्या युक्त लग रहा था और समय-समय पर जो उनकी सहायता करता और भविष्य में सहायता करते रहने का आश्वासन देता रहता था, अब धर्म धारण कर लेने के पश्चात उसका नजरिया उनके प्रति बदल गया था। अब वह इस धर्म को बहुत ही नजदीकी रूप से देख रहे थे उनको लगता था उनके जैसे लोगों को बस अपने धर्म में लाने के लिए यह सारे आडंबर किए जा रहे हैं। अभी तक इस धर्म के प्रचारको के द्वारा जो भी आडंबर किया जाता था उसमें उनको ऐश्वर्य नजर आता था किंतु अब वही ऐश्वर्या, आडंबर का पुलिंदा लगता था। किंतु अब हाथ मलने के अलावा उनके पास कोई भी आश्रय न बचा था, अब उनको लगता था उनकी हालत उस पक्षी जैसे हैं जो जहाज पर फुदक - फुदक कर आनंद के लिए अठखेलियां कर रही हो और इसी दौरान जहाज बीच समुद्र में चली गई हो जहां पर चारों तरफ पानी ही पानी है वह वहां से उड़कर कहीं भाग भी नहीं सकती है, उसका आश्रय केवल और केवल जहाज ही है। यही हाल अब बाबूलाल का था, जिनका नाम अब बीयल हेंब्रम था। अभी तक जिनके साथ वह मिलकर होली दिवाली मनाते थे अब वह उनसे कटे कटे रहते थे, शायद उन लोगों से अपनी नज़रें नहीं मिला पा रहे थे या फिर वह लोग भी इनसे कोई संबंध नहीं रखना चाह रहे थे। अब एक ही गांव में एक ही सहोदर के दो भाई अलग-अलग धर्म के आश्रय के तहत अपना जीवन यापन कर रहे थे। एक नकली पेड़ की पूजा करता था तो दूसरा प्रकृति के पेड़ पौधों फूल पत्तियों में विश्वास करता था। एक इसको आडंबर मानता था तो तो दूसरा इसी आडंबर में विश्व का कल्याण देखता था।एक के धर्म का बनावट इस प्रकार था की वह अपना विस्तार कैसे करें तो दूसरे के धर्म का बनावट इस प्रकार था की इस दुनिया में रहने वाले प्राणियों का कल्याण कैसे हो। एक आकर्षित और चकाचौंध भरे अपने की विस्तार वादी क्रियाकलापों से युक्त था तो दूसरा इस बात की परवाह से मुक्त केवल अपनी भगवान को मंदिरों में इसलिए खुश रखना चाहता था जिससे अपना और विश्व का कल्याण हो और अपने इस जीवन को इस विधि से सार्थक करना चाहता था।
अब बाबू बीएल हैंब्रान जी को दोनों धर्मों की अच्छाइयों और बुराइयों की एक एक बात समझ में आने लगी थी, और मन विभिन्न बातों पर तरह तरह से तर्क वितर्क करता और कभी वह अपने को कचोटते और उलाहना देते हैं की क्या तू भी कुछ पैसों के लिए कुछ लाभ के लिए अपने को बेच दिया तो कभी अपने को सांत्वना देते कि हमी तो ऐसे नहीं हैं इस संसार में बहुत से लोग हैं जो बहुत छोटी-छोटी बातों पर गिर जाते हैं और अपने ईमान धर्म को बेच देते हैं। हां हिंदू धर्म में कुछ ऊंच-नीच की बातें हैं जिनको उस धर्म में रहते हुए ही हम लोगों को उसके विरुद्ध लड़ना चाहिए था। तो कभी सोचते, इस दुनिया में कौन सा ऐसा धर्म है जिसमें ऊंचा - नीचा, काला - गोरा, अमीर - गरीब का भेद ना हो भेद हैं। भेद हर घर में है और वह किसी न किसी रूप में अवश्य ही है। जैसे इस संसार में कोई मनुष्य पूर्ण नहीं है उसी तरह से इस संसार में मानव निर्मित कोई धर्म या वस्तु भी पूर्ण नहीं है, उसमें हमेशा सुधार की संभावना है और रहेगी जो समय के साथ अपने को परिवर्तित कर लेगा उसका अस्तित्व बना रहेगा अन्यथा उसका अस्तित्व मिट जाएगा। यह बात केवल धर्म और वस्तु तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीव जंतुओं के बारे में भी उतना ही सत्य है जो जीव जंतु समय के अनुसार अपने में परिवर्तन नहीं ला पाता है उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है। लगता था इन विचारों से वह एक शोक में डूबे हुए थे जैसे ही उन्होंने कुछ अपने को संभाला लगा जैसे वह जग गए हैं और इनकी सुबुद्धि ने पुनः विचार करना शुरू किया क्या हुआ मुझसे एक बार गलती हुई अब इस गलती को सुधारना है और किसी तरह अपने मूल धर्म वापसी करनी है जो केवल अपना कल्याण नहीं चाहती हैं पूरे विश्व का कल्याण चाहती है। अब इसके लिए वह दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगे रहते थे कैसे अपने मूलधन में वापस आए। अब वह समय-समय पर अपने गांव में अपने पूर्वर्ती भाई बंधुओं के साथ मिलते जुलते तथा कभी-कभी अपने सहोदर भाई बंधुओं के तीज त्यौहार में शामिल होने लगे। उनके भाई बंधु तो यह पहले से ही चाहते थे किंतु जब उन्होंने इनमें यह परिवर्तन देखा तो लोगों में खुशी का ठिकाना न रहा। अब जब कभी किसी विशेष तीज त्योहार पर हेंब्रम बाबू न आते तो उनके भाई बंधुओं को हेंब्रम बाबू की कमी खलती और वह उनको बुलाने उनके घर पहुंच जाते। इस तरह का मान सम्मान पाकर हेंब्रम बाबू का हृदय प्रसन्नता से खिल उठता।
इस तरह की तीज त्यौहार में आने जाने के दौरान ही किसी भाई बंधुओं ने हेंब्रम बाबू को पता नहीं गंभीरता में या फिर हंसी - मजाक में कहा कि भैया आपके उपस्थित के बिना यह तीज त्यौहार अच्छा नहीं लगता है यदि आप बुरा ना मानो तो फिर से अपने घर में वापसी कर हम लोगों की हंसी खुशी और उल्लास को बढ़ाएं तो हम लोगों के लिए खुशी की बात होगी होगी। हेंब्रम बाबू ने जब यह बातें सुनी तो उनको अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरा कोई भाई बंधु फिर से अपने पूर्वर्ती घर में वापस आने को कह रहा है। वह तुरंत यह बात बोलने वाले अपने भाई राम लखन की तरफ मुड़े और उनको गले लगाते हुए बोले भैया आपने मेरे दिल की बात बोला है जो बात मैं नहीं बोल पा रहा था वह आपने बोल दिया है। भैया धर्म, शादी - विवाह, मित्रता, प्यार - मोहब्बत यह सब दिल में स्वीकृत होने की बात है। भैया कोई कितना भी पंडा - पुजारी, पादरी, मौलवी अपने धार्मिक रीति के अनुसार किसी का वैवाहिक संबंध करा दे यदि वह मन से स्वीकृत नहीं है तो वह विवाह नहीं है। इसी तरह कोई भी पादरी मौलवी अपने धर्म में किसी को जल छिड़क कर या कलमा पढ़ा कर उसका धर्म परिवर्तन नहीं करा सकता जब तक उस व्यक्ति के द्वारा मन से स्वीकार न कर लिया गया हो। यह मेरे द्वारा लालच में आकर लिया गया एक निर्णय था जो न तो मेरे मन द्वारा स्वीकार किया गया था और ना ही मैं उनके धर्म के विधि विधानों को अपने कर्म कांडों में शामिल कर पाया था। कल भी मैं सनातनी था आज भी मन से सनातनी हूं अब चाहे आप लोग जो भी समझें। इनकी बातों को सुनकर लगता था जैसे पानी के बूंद की यात्रा पूरी हुई वह वह सूर्य से गर्मी पाकर समुद्र से भाप बन कर उड़ी थी किंतु जीवन की वास्तविकताओं से जैसे ही टकराई वैसे ही पुनः वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आ गई और फिर नदियों का सहारा लेते हुए समुद्र के गोद में समा कर लहरों के रूप में अठखेलियां कर रही थी।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
मो. नं.- 9044600119
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उत्तर प्रदेश लखनऊ- 226028
यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।
Sunday, May 2, 2021
सही सोच का भाव
सही सोच का आभाव
इस दुनिया, देश, समाज व परिवार में सही सोच का अभाव होने के कारण कितनी विसंगतियां उत्पन्न होती है इसको झेलने वाला ही महसूस कर सकता है। इसी गलत सोच के कारण,परिवारों की, व्यक्तियों की, गांव समाज में कितनी जग हंसाई होती है, इसका अनुभव उसका सामना करने वाला ही जानता है। ऐसे ही विसंगतियों को वर्तमान में सामना करता हुआ, दो ऐसे भाइयों का परिवार था जो शुरू में एक मत थे, जब तक उनका परिवार एकमत था तब तक परिवार की प्रसिद्धि व सम्मान गांव में चारों तरफ फैली हुई थी। क्या शादी विवाह, क्या जग प्रयोजन। इन सब आयोजनों में द्वार पर लोगों का हूजूम ही इस घराने के प्रसिद्धि की गवाही करता था। बड़े भाई के स्वर्गवास के पश्चात पता नहीं छोटे भाई और बड़े भाई के परिवार में किस बात पर ऐसा मतभेद पैदा हो गया कि दोनों परिवार एक दूसरे से अलग होने के लिए हठ कर बैठे, रिश्तेदारों के तमाम समझाने बुझाने पर भी अपनी हठधर्मिता छोड़ने को तैयार न थे। कितना सगे संबंधियों व रिश्तेदारों ने उन दोनों भाइयों को परिवार की जग हंसाई के बारे में समझाया पर कोई समझाने को तैयार न था। पता नहीं वह इन बातों को समझ पा रहे थे या नहीं यह तो वही जानते होंगे। हो सकता है वह इनकी बातों को समझते हो पर हठधर्मिता उनको सही बात को समझने से दूर कर रही थी। वह रिश्तेदारों व सगे संबंधियों से एक दूसरे की दोष, कमियों व खोटों को ही बताते रहते थे या यूं कहिए कि वे एक-दूसरे की एक-एक कमियों को बताते रहते थे। घर परिवार को एकता में बांधे रहने वाला, टीन - टप्पल के समान होता है जो अपने ऊपर गिर रहे ठंडी, गर्मी, बरसात, आधी के झोंके व ओले के थपेड़ों को ऐसे सहन करता है कि उसमें रहने वाले के ऊपर कोई आंच नहीं आने देता है यही स्थिति शायद बड़े भाई की थी उनके जाते ही परिवार बिखर गया।
इसे ज़िद्द कहे या एक दूसरे से द्वेष ने घर के साम्मान और प्रतिष्ठा को दरकिनार करते हुए बरामदे में बंटवारे की दीवार खींच दी। अब तक जो बात थोड़ी अंदर थी वह खुलकर बाहर दिखने लगी थी। लोग कहते हैं कि समय के साथ बहुत कुछ भुला दिया जाता है लेकिन पट्टी दारी के द्वेष को पाटीदार शायद ही भूल सकते हैं वह तो एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं, अवसर,ढूंढते रहते है। जब मन में घृणा व द्वेश का स्थान एक दूसरे के प्रति आ जाए तो शायद वह व्यक्ति एक दूसरे को नीचा दिखाने का अवसर नहीं छोड़ना चाहता है। चाहे वह अवसर कितना भी शुभ क्यों न हो। द्वेष में व्यक्ति कितनी ओछी हरकत कर जाता है यह सामान्य व्यक्ति के कल्पना के बाहर है।
ऐसा ही एक शुभ अवसर था, जिसमें बड़े भाई के पोते शादी होनी थी। घर में खुशी का माहौल था सब चाहते थे कि पूरे घर की रंगाई पुताई करवाई जाएं जिससे घर की रौनक में चार चांद लग जाएं आने वाले रिश्तेदार भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएं कि चलो भले बरामदे में दीवार बन गई किंतु अभी भी मन में उस द्वेश का स्थान नहीं रहा जो हम लोगों ने सुन रखा था। जैसे ही बड़े भाई के बेटे ने अपने चाचा के बरामदे में पेंटिंग करवाने हेतु अपने चाचा से बोला उसके चाचा ने इनकारी भाव दिखाते हुए बोला कि बेटा शादी तुम्हारे बेटे का है न कि हमारे बेटे का या फिर उनके बेटों का है अतः सफेदी या पेंटिंग अपने हिस्से में कराओ। जिस दिन बरामदे में दीवाल खींच गई थी उसी घर की इज्जत मिट्टी में मिल गई थी अब ऊपरी ताप झाप से कोई फायदा नहीं है। जानने वाले सब जानते हैं की दोनों भाइयों का परिवार अब अलग-अलग रहता है। चाचा सब बात ठीक है, यह बीते दिनों की बात है। घर पर चार - छः रिश्तेदार और गांव जवार के लोग आएंगे जब सामने से आधा बरामदा साफ सफाई व पेंटिंग करा हुआ दिखेगा और आधा गंदा व मटमैला सा दिखेगा तो इसमें हम लोगों की और भद्द पटेगी। जो बात बीत गई उसको भूल कर अब आगे बढ़ा जाएं घर में एक शुभ कार्य हो रहा है उसको हंसी खुशी मिलजुल कर किया जाए। चाचा को नहीं मानना था उन्होंने अपने भतीजे के अनुनय विनय नहीं सुना और अंत में अपने बरामदे में साफ सफाई और पेंटिंग का कार्य नहीं करवाया।
निश्चित समय पर द्वार पर तिलक चढ़ाने के लिए लोगों का व रिश्तेदारों का आगमन हुआ घर में, रिश्तेदारों में हंसी खुशी का माहौल था किंतु जैसे ही नजर बरामदे के आधे भाग पर जाता लोग अपने मन में भतीजे( रमेश ) बुरा भला कहते और एक दूसरे से कहते कि यदि रमेश बरामदे के आधे भाग की और पेंटिंग करवा देते तो इनका कितना पैसा लग जाता। अरे कुछ पैसा ही लग जाता पर घर की रौनकता में चार चांद तो लग जाती। यही घर सामने से देखने पर कितना सुंदर लगता।
लोग आपस में इस बात को लेकर दबी जबान में बात कर रहे थे तथा कभी-कभी उनके चाचा से अपनी सहानुभूति भी जता देते थे कि यदि रमेश आपके बरामदे की पेंटिंग करवा देते तो कोई गरीब ना हो जाते हैं। चाचा जी भी उनकी बातों में हां में हां मिलाकर वहां से निकल जाया करते थे। उनको भी अपनी गलती का एहसास हो रहा था किंतु करते भी तो क्या करते अब समय बीत चुका था, सही समय पर उचित निर्णय न लिया जाए तो पछताने के अलावा हाथ में कुछ ना रहता है। यह बात सोच कर उनके अंदर निराशा भी आ रही थी किंतु क्या करते हाथ मलने के अलावा अब कुछ न था।
यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
मोबाइल नंबर 9044600119
Friday, August 21, 2020
मकान
मकान
मनुष्य को जीवन जीने की आवश्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान तीनों को सबसे प्रमुख माना जाता है। इसमें मकान अंतिम स्थान पर आता है। फिर भी मनुष्य जब मकान बनाता है तो उसको अपने हैसियत से बढ़कर बनवाने का प्रयास करता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि
मूर्ख आदमी बड़ा बड़ा मकान बनवाता है, बुद्धिमान आदमी उसमें किराएदार बनकर रहता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार मकान बनवा है उसकी सोच में यह बात रहती है कि मैं मकान लेकर कहीं जाऊंगा थोड़े ही।
श्याम बाबू कल अपनी पुरानी सोसाइटी में गये थे। वहां पर जब कभी वह जाते हैं तो उनकी कोशिश कोशिश होती थी कि अधिक से अधिक मित्रों से मिल लें इस दुनिया में मनुष्य क्या लेकर आया है क्या लेकर जाएगा यह एक बात व्यवहार ही है जो उसको इस दुनिया में उसे खुशी प्रदान करता है। इसलिए वह सोसाइटी के ज्यादा से ज्यादा पुराने मित्रों से मिलना चाहते थे, जब भी अपनी इस पुरानी सोसायटी पर आते थे।
जब वह अपनी पुरानी सोसाइटी के गेट पर पहुंच कर सोसाइटी के गार्ड से पुराने लोगों के बारे में अभी पूछताछ कर ही रहे थे तथा अंदर जाने के लिए आगंतुक रजिस्टर पर अपना इंद्राज भर रहे थे तभी एक पुराना हटा कट्ठा नौजवान उनके सामने आया जिसको उन्होंने पहचानते हुए बोला डब्बू तुम बताओ आंटी जी और विजय बाबू कैसे हैं।
साहब आंटी जी तो रही नहीं और विजय बाबू को अमेरिका की किसी बड़ी कंपनी में नौकरी मिल जाने पर वही नौकरी करने चले गए और वहीं पर बस गए हैं और वहां से उनका बहुत ही कम आना जाना होता है। आंटी जी जब जिंदा थी तब भी विजय बाबू का बहुत कम आना जाना होता था। आंटी जी की सेवा भाव हम पति पत्नी मिलकर किया करते थे। विजय बाबू बस वहां से पैसा भेज दिया करते थे। आंटी जी से विजय बाबू जब भी कहते थे की मां तुम यही अमेरिका चली आओ तो आंटी जी कभी अपनी जन्म भूमि का हवाला देकर तो कभी अपने इस मकान की देख रेख का हवाला देकर बोलती थी की तेरे पापा ने यह मकान को बड़े शौक से लिया था। यहां से चली जाऊंगी तो मकान पर कोई कब्जा कर लेगा यह उनकी निशानी है इसे मैं बेचना नहीं चाहती हूं। आंटी जी को इस मकान से बहुत लगाव था। विजय बाबू अमेरिका में अपने कार्य में इतने व्यस्त रहते हैं कि वह सालों साल आंटी जी से मिलने न आ पाते थे। यहां तक विजय बाबू आंटी जी के क्रिया कर्म में भी ना पहुंच पाए थे, हम लोगों ने उनका क्रिया कर्म किया। विजय बाबू कुछ दिन पहले यहां आए थे वह इसका देखरेख करने को मुझे बोल कर गए हैं और समय-समय पर सोसाइटी चार्ज तथा अन्य खर्चों को भेज दिया करते हैं जिनको मैं सोसाइटी में जमा कर देता हूं।
मैं अब अपना परिवार यही लेकर आ गया हूं। मेरे बच्चे भी इसी सोसाइटी में रहते हैं और यहीं बगल के स्कूल में पढ़ने जाते हैं। मैंने यही सोसाइटी के बगल में एक दुकान खोल लिया है। जिससे सोसाइटी के लोग अपने दैनिक आवश्यकता व किराना के सामान सामान ले जाते हैं और मुझे ठीक-ठाक आमदनी हो जाया करती है। इसी से मेरे परिवार का खर्च चल जाता है। गांव से भी कभी-कभी मेरा भाई कुछ अनाज सब्जी इत्यादि लाकर पहुंचा दिया करता है। अब मेरा जीवन ठीक-ठाक कट रहा है। भाइयों तथा गांव वालों को भी कभी कभार शहर में इलाज इत्यादि करवाना होता है तो वह यहीं आकर रुकते हैं मैं उन लोगों का भरसक सहायता करने का प्रयास करता हूं। लगता है यह ईश्वर ने आंटी जी को सेवा करने का प्रतिफल में मुझे दिया है।
श्याम बाबू, डब्बू की बातों को सुनकर ऐसा महसूस कर रहे थे कि मनुष्य को एक दिन सब कुछ छोड़ कर यहां से चले जाना है, फिर भी धन-संपत्ति, घर द्वार बनाने को लेकर मनुष्य हाय हाय किए रहता है। लगता है जैसे यह धन संपत्ति अपने साथ लेकर जाएगा। किसी ने ठीक ही कहा है की पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय। धन का उचित उपभोग यह है कि आवश्यक खर्चों के बाद जो धन बच जाए उसको गरीबों जरूरतमंदों की सेवा में लगाने में हीं सही सदुपयोग है। पता नहीं माताजी कितना पैसा बैंकों में छोड़ कर चली गई होंगी उसको कोई जानता ही नहीं होगा। माता जी भी इस मकान की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी। माताजी अपनी जिंदगी गुजार कर ईश्वर के पास चली गई यह मकान वैसे के वैसे खड़ा है और शायद यह हम लोगों को बतलाने की कोशिश कर रहा है कि कितने लोग इस पृथ्वी पर अपने नाम से धन संपत्ति वैभव के लालच में अपना उचित कर्म और उचित जीवन निर्वाह किये बिना इस पृथ्वी से चले जाएंगे और मैं वैसे के वैसे बना रहूंगा। माताजी शायद अपने बच्चे के पास चली गई होती तो अपने पोते पोतियों को खिलाने का आनंद लेते हुए अपने जीवन का अंतिम पहर गुजारती और पोते पोतियां भी दादी का प्यार दुलार पाकर निहाल हो जाते। केवल पोते पोतियां ही नहीं अपने दादी का प्यार और दुलार पाने से ही वंचित हो गई बल्कि माता जी भी अपने बेटे से मुखाग्नि पाने से वंचित हो गई। यह धन संपत्ति का माया मोह हमें किन-किन सुखों से वंचित कर देता है शायद मरने वाला नहीं जानता है वह तो मरकर इस दुनिया से विदा हो जाता है, किंतु इस संसार के प्राणी इस तरह की घटनाओं से कोई सबक न लेकर फिर उसी राह पर चलते रहते हैं। शायद ईश्वर ने माया मोह का ऐसा जाल बुन दिया है। जब तक व्यक्ति अपने बुद्धि से इस जाल को नहीं कटेगा तब तक इसमें फंसकर अपने सुकून व सुखों से वंचित होता रहेगा।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
Thursday, August 6, 2020
बेटियां
Tuesday, August 4, 2020
लक्ष्य हीन
Monday, July 20, 2020
ईश्वरीय विधान
हिंदू धर्म या फिर कहिए सनातन धर्म की मान्यता है कि पिछले जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार ही आपका अगला जन्म विभिन्न योनियों में होता है। उसी योनि में आपको अपने पिछले जन्म के अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं। जब आपका कर्म इतना अच्छा हो की ईश्वर भी आपके कर्मों में कोई बुराई न ढूंढ पाए तो आपको स्थान ईश्वर के समकक्ष मिल जाता है और ईश्वर आपको अपने साथ बैठा लेते हैं और इस भवसागर से आपका पार लग जाता है। संभव हो यह धारणा समाज में इसलिए फैलाई गई हो कि व्यक्ति जीते जी अच्छा कर्म करें जिससे समाज व देश उन्नति करें और आगे बढ़े। सच्चाई जो कुछ भी हो किंतु इसी समाज में कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनको देखकर कभी कभी व्यक्ति का ईश्वरी विधान पर से विश्वास उठ जाता है तो कभी उसको महसूस होता है कि ईश्वर के दरबार में देर है अंधेर नहीं है।
ऐसे किसी भी विधानो की खिल्ली उड़ाना बाबू राम सिंह का काम था। जो अपने क्षेत्र के दबंगों में गिने जाते थे। जबरदस्ती किसी भी चीज को पाने के लिए अनाधिकार चेष्टा करना उनके प्राथमिक गुणों में से था। पता नहीं यह उनके जातीय गर्व के कारण था या फिर अनाधिकार चेस्टात्मक रूप से किसी चीज को प्राप्त करने को लेकर था। बात जो कुछ भी हो उनके इस गुण के कारण उनके हितैषी से लेकर उनके ऊपर से लेकर नीचे तक के सहयोगी कर्मचारी हमेशा परेशान रहते थे।
बाबू राम सिंह एक सरकारी विभाग के कार्यशाला में इंचार्ज सुपरवाइजर स्तर के मुलाजिम थे, जहां पर लोहे से भिन्न भिन्न प्रकार की पार्ट पुर्जों का निर्माण किया जाता था और वहां से साइट पर उपयोग करने के लिए भेज दिया जाता था। इसके अलावे बहुत से उपकरणों/पार्ट पुर्जों का कई जगहों से निजी कल कारखानों से खरीदना पड़ता था क्योंकि यह सरकारी कार्यशाला सारे उपकरणों की पूर्ति न कर पा रही थी। इन सारी क्रियाकलापों को देखते हुए बाबू राम सिंह के मन में एक विचार आया की क्यों न मैं भी अपने किसी सगे संबंधी के नाम पर एक कारखाना खोल लूं और अपने कारखाने से मैं खुद ही विभिन्न प्रकार के उपकरणों तथा पार्ट पुर्जों को बनाकर विभाग को सप्लाई किया करूं। कहते हैं कि विचार ही किसी भी कार्य की प्रथम जननी है इसका प्रस्फुटन बाबू राम सिंह के विचारों में हो चुका था। उन्होंने जल्द ही अपने विचारों को क्रियात्मक रूप में परिवर्तित किया और कुछ ही महीनों में शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स के नाम से कारखाना बनकर तैयार हो गया। अब शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स विभिन्न विभागों से निविदा के माध्यम से भिन्न भिन्न प्रकार के उपकरणों और कंपोनेंट्स का निर्माण करके विभागों को सप्लाई करना शुरू कर दिया। जब से शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स ने अपना काम शुरू किया तब से सरकारी कारखाने के कर्मचारियों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया की उनके भंडार से लोहे की छड़, प्लेट, चादर पता नहीं कब कहां गायब हो जाया करती थी।
किसी भी सरकारी विभाग की एक प्रमुख विशेषता है की आप काम कुछ कम करें यह चलेगा इसके तमाम जवाब हैं किंतु कागज में जो अंकित भंडार संख्या है, वह आपके भंडार की वास्तविक संख्या के बराबर ही मिलना चाहिए। यदि यह वास्तविक संख्या से थोड़ा भी कम या ज्यादा है तो इसके लिए भंडार धारक पूर्ण रूप से जिम्मेदार है और विभागीय कार्यवाही जो की जाएगी वह रिकवरी से लेकर नौकरी से बर्खास्तगी तक की सजा है। यहां भंडार में थोड़ी बहुत कमी हो अर्थात दाल में नमक के बराबर हेरफेर हो तो कुछ इधर उधर खपत दिखा करके ठीक किया जा सकता था, किंतु यहां पर तो लगता था जैसे नमक में ही दाल बन रही थी।
इस तरह की घटनाओं से चिंतित होकर रात में कुछ कर्मचारीयों ने दिन के अनुसार चौकीदार के अलावा खुद भी चौकीदारी करने का निर्णय लिया। लेकिन पता नहीं क्या बात हुआ दूसरे दिन रात में एक कर्मचारी मृत्यु दशा में कारखाने के पास पाया गया। लगता था उसकी मृत्यु किसी वाहन कुचल जाने के कारण से हो गई थी। आदमियों को इस घटना में दाल में कुछ काला नजर आ रहा था किंतु भयवश कहें या फिर बहुत सटीक जानकारी ना होने के कारण कोई अपना मुंह खोलना नहीं चाह रहा था। अब रात में कर्मचारियों ने अपने स्वयं के चौकीदारी करने के निर्णय को परित्याग कर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया। निर्बल के आश्रम इस संसार में बस ना दिखाई देने वाले भगवान का ही हैं। निर्बल के साथ इस संसार में शायद ही कोई खड़ा दिखे, समाज को वैसे भी छोड़ दीजिए वह यह जानते हुए भी क्या गलत है क्या सही है उसका किसके साथ स्वार्थ सिद्धि है उसी का साथ देती है। सरकारी कामकाज में तमाम नियम कानून हैं यदि कोई थाना पुलिस भी करें तो किस आधार पर करें जब सुबह कारखान खुलते समय मेन गेट पर लगा हुआ ताला व सील टूटा हुआ न पाया जाता था तो यह सब करने का कोई आधार ही ना था। वैसे भी जब चोर घर में हो तो पकड़ना इतना आसान काम नहीं है।
अब कर्मचारी सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर अपने काम में जुटे हुए दिखते थे। कर्मचारियों ने इन दिनों बाबू राम सिंह के व्यवहार में एक और बदलाव देखा कि अब वह रिवाल्वर के साथ कारखाना में आना शुरू कर दिए थे और जब कभी अपने चेंबर में बैठते तो अपने मेंज पर रिवाल्वर को निकाल कर रख दिया करते थे। इसके अलावा महीने या पन्र्दह दिन में कभी कारखाने में घूमते हुए किसी पेड़ पर कोई पक्षी दीख जाती थी तो अनायास ही उस पर रिवाल्वर से फायर कर दिया करते थे यह सब देख कर कर्मचारियों में तथा कारखाने के सुपरवाइजरों में एक भय का वातावरण व्याप्त रहता था। यह सब क्रियाएं वह किस लिए कर रहे थे यह तो बाबू राम सिंह का ही मन अच्छी तरह से जानता होगा। वैसे भी कुछ कुछ कारखाने के कर्मचारी भी उनकी क्रियाकलापों को समझ रहे थे कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।
कहते हैं कि भगवान के घर देर है किंतु अंधेर नहीं है। मजबूरी वश ऐसा ही विश्वास कारखाने के कर्मचारियों को भी हो गया था। ऐसे ही कारखाने में चिड़ियों के ऊपर फायर करने के दौरान बाबू राम सिंह का रिवाल्वर एक बार ऐसा फंसा कि रिवाल्वर का ट्रिगर दबाने के बावजूद भी उसमें से गोली फायर नहीं हो पा रही थी। बाबूराम सिंह से जो प्रयास हो सकता था वह उन्होंने किया की ट्रिगर दबाने से फायर हो जाए किंतु रिवाल्वर कुछ ऐसा फंसा था की फायर ना हो सका। लगता था इसी रिवाल्वर में ही बाबू राम सिंह की जान अटकी हुई थी वो तुरंत रिवाल्वर को लेकर रिवाल्वर बनाने वाले दुकानदार के पास पहुंचे। वहां पर रिवाल्वर की नली को अपनी तरफ करके उन्होंने दुकानदार को समझाना शुरू किया कि इसका ट्रिगर दबाने पर रिवाल्वर से फायर नहीं हो पा रहा है। दुकानदार अपने हाथ में रिवाल्वर को लेकर देखना चाह रहा था किंतु उन्होंने रिवाल्वर को दुकानदार को देने के बजाय एक बार ट्रिगर दबा कर उसको दिखाना चाहा जैसे ही उन्होंने ट्रिगर दबाया रिवाल्वर से तुरंत फायर हो गया। रिवाल्वर की गोली बाबू राम सिंह का सीना चीर कर बाहर हो चुकी थी बाबूराम दुकान पर अचेत होकर गिर गए थे, उनकी धड़कन व नाड़ी गायब हो चुकी। साथ में आए हुए लोग आनन फानन में उनके मृत शरीर को लेकर अस्पताल पहुंचे डॉक्टरों ने आले से चेक करने व नाड़ी के धड़कन गायब होने पर तुमको मृत्यु घोषित कर दिया। यह खबर बिजली की गति से कारखाने में पहुंची वहां के कर्मचारी अस्पताल की ओर दौड़े किंतु कोई भी कुछ शोक का एक भी शब्द बोलने को तैयार न था। सबके मन में यही एक मौन स्वीकृति थी कि यही ईश्वरी विधान लिखा था।
यह मेरी मूल व अप्रकाशित रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
9044600119