आदत (Adat)
सुरेश बाबू रेलवे ऑफिस में बाबू के पद पर काम करते थे । इसके साथ ही वह अपने घर का खेती बाड़ी का काम भी करते रहते थे, तथा फसल व सब्जियों के उगाने, उसमे होने वाले खर्चे और उसमें हो रही परेशानियों से अच्छी तरह से परिचित थे । कभी-कभी तो अपने पत्नी व बच्चों से बोला करते थे कि खेती बाड़ी कोई फायदे का धंधा नहीं है यह तो उन लोगों के लिए ही है, जिनके पास कोई काम धन्धा नहीं है वही मजबूरी बस खेती-बारी करें और जो दो-चार पैसे मिल जाएं उसी से अपना गुजर बसर करें।
इस तरह का विचार से ओत प्रोत होने के बावजूद जब भी ऑफिस से घर लौटते तो अपने गांव के पास लगने वाले साप्ताहिक बाजार से जब भी सब्जी इत्यादि की खरीददारी करते तो बिना सब्जी वाले से मोलभाव किए नहीं खरीदते थे और जबतक सब्जी वाले से दो से चार रूपये छुड़वा नहीं लेते तबतक कोई खरीददारी नहीं करते थे। खरीददारी करने के पश्चात जब अपने घर आते तो अपनी पत्नी से अफसोस जता कर बोलते देखो लगता है कि मैं अपनी आदत से मजबूर हूं इतना सोच कर बाजार जाता हूं कि किसी (काश्तकार) किसान से सब्जी खरीदते समय मोलभाव नहीं करूंगा अगर वह उचित दाम बोलता है तो कोई मोलभाव नहीं करूंगा किन्तु जैसे ही बाजार पहुंचता हूँ लोगों को मोलभाव करते हुए देखता हूं, मैं अपने ब्रत को भूल कर मोलभाव करने लगता हूं। यह सब तब है जबकि मैं जनता हूं कि यह जो सब्जी मै खरीद रहा हूं किसान अपने उत्पादन लागत से कम दाम पर बेचने को मजबूर है क्योंकि यदि वह अपना सब्जी आज के आज न बेच सके तो उसकी सब्जियों को कोई कौड़ी के मोल भी न लेगा। इसके साथ मै ये भी जानता हूँ कि किसान से दो या चार रुपये कम करा लेने से हमे कोई बहुत फायदा नहीं देता है इसके उलट, उस किसान के लिये यही दो चार रुपये बहुत फायदेमंद होगा लेकिन लगता है मै अपनी आदत से मजबूर हूँ |
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