Wednesday, January 23, 2008

दो रूप

दो रूप

रचना जब शादी के बाद पहली बार ससुराल से वापस मायकेे आई तो उसकी माँ ने  ससुराल की खैर ख़बर लेना शुरु किया  और उससे पूछा की क्यो खाना बनाने तथा बर्तन वैगेरह  धुलने में तुम्हारी दोनों ननदे साथ तो देती ही होंगी न | नही माँ वो लोग साथ क्या देंगी उन लोगो को तो अपनी पढाई तथा साज सिंगार से ही फुरसत नही रहती है | और देवेश तुझे अपने साथ ले जाने के लिए नही बोलते है क्या | वो अम्मा और बाबु जी का बहुत ख्याल रखते है वो तो मुझसे बोलते है कि देखना अम्मा बाबु जी को कोई परेशानी न हो | तो तुम उनसे क्यो नही बोलती हो की मैं आप की मेहरिया हूँ न की आप के अम्मा बाबु जी की | समय बिताता रहा जब कुछ समय के बाद रचना के भईया अविनाश जब उसके भाभी को अपने साथ लेकर कानपुर जाने की बात माँ से बोला तो उसकी माँ ने पुरा घर अपने शिर पर उठा लिया और ऊँची आवाज में  बोलने लगी देखो तो कैसा ज़माने आ गया है | अब बच्चे अपने माँ बाप को  क्या सुख देंगे वो अपने बिबियों  को अपने साथ रख कर बस सैर सपाटे करना चाहते है, मौज मस्ती मे अपने दिन गुजरना चाहते है | जब रचना ने अपनी माँ के इन बातो को सुना तो सोचने लंगी की शायद औरत का दो रूप होता है , एक माँ का दूसरा सास का, माँ के रूप मे वह अपनी बेटी को उसकी ससुराल मे किसी की दासी , चेरी या सेवक बनकर रहते हुए नही देखना चाहती है इसके बिपरीत सास के रूप मे वह हमेशा अपने बहु के ऊपर शासन करना चाहती है उसे दासी बनाकर, चेरी बनाकर तथा सेवक बनाकर रखना चाहती है |