Saturday, June 27, 2020

दिनचर्या


दिनचर्या
मनुष्य की वर्तमान स्थिति अच्छी है या खराब है ( पैसा, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि) यह उसके जीवन के विकास में बहुत बड़ा योगदान देती है। यह जीवन का एक पक्ष  है। जीवन का दूसरा पक्ष यदि व्यक्ति अच्छे पद पर ना हो, अच्छे आर्थिक स्थिति से संपन्न ना हो, अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा ना  हो फिर भी यदि उसकी सोच में प्रगतिशीलता है, प्रयत्न है, प्रयास हैं, अच्छी आदतों को वह दिन प्रतिदिन अपने व्यवहार में लाता है, नवीनतम जानकारियों उपायों को सीखने हेतु आतुर रहता है, एक एक क्षण के समय का सदुपयोग करने का प्रयास करता है, आदतों पर नियंत्रण रखता  है तो आज नहीं तो कल उसका और उसके बच्चों का भविष्य सुधारने से कोई रोक नहीं सकता है वर्तमान स्थिति से अच्छी स्थिति में पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता है।
  ऐसे ही कुछ विषम परिस्थितियों से घिरे महेश कुमार को  उनके दोस्त पता नहीं उनका मजाक उड़ाने के लिए यां फिर प्रेम से महेश बाबू के नाम से पुकारते थे। वे रेलवे में  मेंटेनर के पद पर कार्य करते थे, और अपने मुख्यालय पर ही रेलवे कॉलोनी में रहते थे। उसी कॉलोनी में उनके जैसे ही पद पर कार्यरत सैकड़ों कर्मचारियों का निवास स्थान था। जो समूह में कार्य पर जाते और समूह में कार्य करने के पश्चात अपने कालोनी में वापस आ जाते थे। यह उनकी दैनिक दिनचर्या का एक अंग था। इसके पश्चात शाम को कॉलोनी के पार्क के बेंचों पर जो चौपाल लगती उसका कहना ही क्या था इसमें अपने अधिकारियों, सुपरवाइजर व कार्यालय स्टाफ के  छिद्रान्वेशण के अलावा शायद ही कोई वार्ता होती थी। कुल ले देकर वार्ता का मुद्दा लब्बो लुआब यही तक सीमित रहता था कि आज बड़े साहब मुझसे एक काम करने को कहा तो मैंने उनको ऐसा जवाब दिया कि सारे कर्मचारी देखते रह गए। तो कोई दूसरा बोलता कि आज छोटे साहब ने मुझको वो काम करने को कहा तो मैंने ऐसा जवाब दिया कि वो पानी पानी हो गये। यदि वह कुछ पानीदार होंगे तो फिर हमसे काम करने के लिए ना बोलेंगे। उन लोगों की बातों से ऐसा लगता था की सरकार उनको वेतन काम करने के लिए नहीं बल्कि काम न करने के लिए देती थी। कुल ले देकर कहें तो उनका यह समय सेखी बाघारने और डिंग हांकने के लिए था और किसी के बातों में एक पैसे की सकारात्मकता का दर्शन नहीं होता था। शाम को  दो से ढाई घंटे इसी तरह अपनी-अपनी सेखी बघारने और एक दूसरे से बढ़-चढ़कर बात बोलने व नकारात्मक विचारों में ही बीत जाता था। पर कार्यस्थल की वास्तविकता इससे बहुत भिन्न हुआ करती थी।  वास्तव कार्यस्थल पर अपना-अपना बंटा हुआ काम करने पर ही कार्यस्थल से छुट्टी मिलती थी। शायद यही कारण था कि वे सभी लोग पार्क इकट्ठा होकर अपने अधिकारियों के प्रति वाणी से भड़ास निकालते थे। वैसे भी किसी संगठन के कर्मचारी एक साथ कार्यस्थल पर खाली अर्थात बिना कार्य के बोझ के हों तो उनका बस एक कार्य होता है अपने ऊपर के अधिकारियों व सुपरवाइजरों का छिद्रान्वेशण करना। यह काम वह अपने कार्यस्थल पर तो कर नहीं पाते थे उनके लिए सबसे मुफीद स्थान इनके कॉलोनी का पार्क ही मिलता था। महेश बाबू जो कि उन्हीं लोगों के स्तर के कर्मचारियों में से थे, वह इस तरह की गप्पबाजी व शेखीबघारने की वार्ता में कभी शामिल नहीं होते थे। इनके व्यवहार में अपने को मिले कार्य को अच्छी तरह से करना तथा अपने उच्च अधिकारियों का सम्मान करना भी था। इस कारण से यह लोग उनका मजाक भी उड़ाया करते थे।
  उधर महेश बाबू शाम को अपने कार्यस्थल से लौटते समय उधर से ही घर के लिए सब्जी इत्यादि जरूरी सामान घर के लिए खरीद कर लेते आते थे। घर पहुंच कर शाम को चाय पानी करने व स्नान करने के पश्चात संध्या वंदन यह उनका नित्य कर्म था। इसके पश्चात अपने दोनों बच्चों को बैठा कर पढ़ाना यह उनके नित्य व अटूट कर्मों या फिर कहें साधना में से था। इस तरह बच्चे एक कक्षा से दूसरी कक्षा दूसरी कक्षा से तीसरी कक्षा अच्छे नंबर से उत्तीर्ण करते जाते थे।वही कालोनीवासी जो महेश बाबू का मजाक उड़ाया करते थे, जब महेश बाबू के बच्चे जब अच्छे नंबर पाकर एक कक्षा से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करते थे तो अपने बच्चों को महेश बाबू के बच्चों से सीख लेने का उपदेश देते थे देखो उनके बच्चे पढ़ाई में कितना अच्छा  प्रदर्शन कर रहे हैं। अच्छे नंबर पाकर एक एक  कक्षा उत्तीर्ण करते जा रहे हैं और तुम लोग हो कि किसी तरह एक  कक्षा से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण कर पा रहे हो। वह लोग महेश बाबू के द्वारा अपने बच्चों को पढ़ाने में किये जा रहे परिश्रम को यहां तो जानते नहीं थे या फिर जानबूझकर अनदेखी करते थे। वह लोग यां तो यह समझ नहीं पा रहे थे यां फिर समझना नहीं चाहते थे कि महेश बाबू का एकनिष्ठ अपने बच्चों को खाली समय में पढ़ाने में लगे रहते हैं। जबकि वह लोग खाली समय में गप्पाबाजी, शेखी बघारना और डींग हांकने में लगे रहते हैं। हर एक मां-बाप की आशा अपने बच्चों से होती है कि वो पढ़ाई व जीवन के अन्य क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करें। अधिकतर मां बाप अपना कर्तव्य बच्चों का दाखिला स्कूल में करवाने तक ही समझते हैं। अधिकतर व्यक्ति समझते हैं कि बच्चे का एडमिशन करा दिया अब पढ़ना लिखना उसका काम है पढ़ाना अध्यापक का काम है। शायद वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि बगिया में फलदार पेड़ लगा देने से ही फल नहीं देने लगेगा इसके लिए उसकी बड़ी सेवा करनी पड़ेगी तभी वह समय पर फल देगा।
  इस तरह महेश बाबू के बच्चे एक एक कक्षा उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा की दहलीज पर आकर खड़े हो गए थे। और प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से उनका दाखिला देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों में हो गया। अब वो देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से अपनी पढ़ाई कर रहे थे।
   इधर महेश बाबू और उनके साथ के लोगों का प्रमोशन के लिए कार्यालय के द्वारा एक परीक्षा आयोजित की जा रही थी। जिसमें प्रमोशन के लिए उत्सुक सभी इच्छुक अभ्यर्थियों ने अपने प्रमोशन के लिए फार्म भरा। समय आने पर परीक्षा आयोजित की गई। परीक्षा में बहुत से प्रश्न कक्षा दस तक कि किताबों से आए थे। क्योंकि महेश बाबू अपने बच्चों को पढ़ाने का नियमित कार्य करते रहते थे, इस कारण से उनको यह प्रश्न पत्र बहुत ही सरल जान पड़ रहा था। उन्होंने अपने विभागीय प्रश्नों के अलावा करीब-करीब सभी प्रश्नों का सही उत्तर दिया और प्रसन्नता पूर्वक अपने मित्रों के साथ हाल से बाहर निकल आएं। जहां एक ओर उनके साथी मित्र पूछे गए किताबी सैद्धांतिक प्रश्नों के बारे में तरह तरह की वार्ताएं किए जा रहे थे। वही महेश बाबू शांत व गंभीर थे वह जान गए थे कि इस प्रमोशन की परीक्षा में उनका सिलेक्शन अवश्य होगा।
   कुछ समय के पश्चात लिखित परीक्षा का परिणाम आया जिसमें महेश बाबू का नाम सर्वोपरि था। उसके कुछ दिनों के पश्चात सफल अभ्यर्थियों का साक्षात्कार लेने के पश्चात अंतिम परिणाम घोषित किया गया। जिसमें महेश बाबू एक नंबर पर थे। महेश बाबू बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ था। महेश बाबू शर्म से गड़े जा रहे थे, उनको लगता था कि उन्होंने ऐसा कौन सा बड़ा काम कर दिया है और भी पांच लोगों ने तो परीक्षा में सफलता पाया है।
   दूसरी तरफ उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करके दो बड़ी-बड़ी कंपनियों में अच्छी नौकरी ज्वाइन कर अपनी नौकरी करने में मसगुल हो गए थे। उधर कॉलोनी में उनके साथ के कर्मचारियों के बच्चे बेरोजगार इधर उधर धूम रहे थे। वो कभी सरकार को अपनी बेरोजगारी के लिए दोष देते तो कभी अपने भाग्य को कोसते। उधर उनके साथ के कर्मचारी अपने बच्चों को कोसते थे कि देखते नहीं की महेश बाबू के लड़के पढ़ लिख कर कैसे इतनी अच्छी नौकरी कर रहे हैं और तुम लोग हो अभी भी लखेरा जैसे बेरोजगार इधर-उधर घूम रहे हो। वह लोग अपने अंदर की कमियों को न देख पा रहे थे, कि जिस समय उनको अपने बच्चों की सही देखभाल व परवरिश करनी थी उस समय हंसी ठहाका व गपबाजी में अपने कीमती समय को बर्बाद करते रहते थे। इसके विपरीत महेश बाबू की एक निश्चित दिनचर्या के साथ एक एक क्षण का सदुपयोग वह अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने से लेकर परिवार की उचित परवरिश व देखभाल में सदुपयोग करते थे। उनके परिवार की प्रगति समय का सही सदुपयोग तथा एक अच्छी  दिनचर्या का परिणाम था जो उनके  साथ में काम करने वाले कर्मचारी न समझ पा रहे थे या फिर समझने का प्रयास नहीं कर रहे थे।
यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
9044600119