Wednesday, October 11, 2017

jawab dehi ka abhav

मोहन और रमेश दो सेगे  भाई थे , दोनों की उम्र में दो साल का अन्तर था। मोहन ,रमेश दो साल बड़ा था। दोनों की पढाई एक साधारण से स्कूल में हुई थी।स्कूली पढाई के बाद दोनों ने आईटीआई कर लिया ,आईटीआई  के बाद दोनों को रोजी रोटी की चिंता सताने लगी जैसा कि एक की साधारणतया एक मध्य वर्गीय परिवार में होता है यदि लडके को सरकारी नौकरी मिल जाय तो समझो उसके जीवन में सोने पे सुहागा मिलने के समान हो जाता है। यानि की व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बढने के साथ - साथ किसी अच्छे घर में अच्छी लड़की से  उसके शादी विवाह की प्रवल सम्भावना हो जाती है। जहाँ कहीं भी उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी के लिए वैकेंसीज के बारे में पता चलता दोनों भाई फॉर्म भरते और अपनी योग्यता के अनुसार अच्छी तैयारी करके प्रतियोगी परीक्षा में बैठते। लेकिन क्या करियेगा जब दोनों भाई परिणाम देखते और अपना नाम न पाते तो मोहन बोलता हमें और परिश्रम करने की आवश्कयता है तो रमेश तंज कसता भइया पढाई से ही तो किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल नहीं हुआ जा सकता है इसके लिए हम लोगों को अन्य विधा को भी अपनाना चाहिए,जो हम लोगों के पास  नहीं है ।  लेकिन मोहन वास्तविक बातों को समझता था की अभी तैयारी को वो स्तर नहीं पाया था जिससे सफल अभ्यर्थियों में उसका नाम आ सके और  उसे महशूश होता था की  कही न कहीं तैयारी में कोई न कोई खोट अभी भी है।वह  इस बात को समझता था कि प्रतियोगी परीक्षा  में सफल होने के लिए कुछ इधर उधर की पैरवी मिल   जाय तो वो सफल होने की संभावना  बढ़ा देगा किन्तु उसका विश्वास था कि यदि मै  सब सही सही उत्तर देकर आऊंगा  तो कौन  सफल प्रतियोगियों की लिस्ट में से मेरा नाम  काट ही सकता है। उसका पूरा विश्वास था कि प्रतियोगी परीक्षा में  शामिल प्रतियोगीओं में से उत्तम को चुना जाता होगा इस बात को ध्यान में रख कर वो अपनी तैयारी में लगा रहता था और उसका विश्वास था कि  एक न  एक दिन  परीक्षा में सफल हो कर रहेगा। जहाँ मोहन को अपने पढ़ाई के द्वारा सफलता  प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने में विश्वास था वही रमेश का विश्वास था पैरवी पर दोनों अपने अपने विश्वास पर अडिग रहते हुए तैयारी में लगे थे। इस विश्वास पर अक्सर दोनों में बहस हो जाया कराती थी मोहन किसी तरह रमेश को पढ़ाई की तरफ मोटिवेट करना चाहता था लेकिन उसका विश्वास तो पैरवी पर बना था जो उसके मन को पढाई में एकाग्रचित न होने देता था। मोहन ,रमेश को  बार-बार समझाता रहता था कि अगर पैरवी हम लोगों के पास नहीं है तो उसके बारे में हम लोगों को सोचने की जरुरत नहीं है। इस तरह कभी बहस में कभी पढ़ाई में समय बीतता जा रहा था और इसी बीच रेलवे में एक असिस्टेंट लोको पायलेट की भर्ती के लिए वांट निकला जो दोनों भाइयों की शिक्षा में बिल्कुल ठीक बैठता था ,दोनों ने इस पद के लिए फॉर्म भरा और दोनों परीक्षा की तैयारी में जुट गए। जहाँ मोहन के दिमाग में परीक्षा में सफलता अपने परिश्रम के बल पर निर्भर था वही रमेश के दिमाग में सफलता बिना पैरवी के संभव नहीं थी दोनों भाई अपने अपने विश्वाश के साथ जुटे रहे परीक्षा का समय आया दोनों भाई परीक्षा में शामिल हुए। निश्चित समय पर   परीक्षा का परिणाम आया। जहाँ मोहन का नाम सफल प्रतियोगिओं की सूची में था वहीं रमेश की नाम का कहीं अता-पता ही नहीं था। हो भी कैसे जिसका विश्वास ये हो कि परीक्षा में सलेक्शन बिना पैरवी के नहीं हो सकता है, उसकी पढ़ाई और तैयारी तो केवल दिखावटी ही है क्योकिं उसका दिमाग उसकी पढाई में क्या सहयोग करेगा जिसने अपने दिमाग में पहले से ही ये भर दिया हो की परीक्षा में सलेक्शन बिना पैरवी के न होगा और हुआ भी वही जिसका जैसा विश्वास था उसका वैसा परिणाम आया।
     मोहन  ने अपनी नौकरी ज्वाइन किया तथा निर्धारित ट्रेनिंग करने के पश्चात अपना काम पुरे लगन व मनोयोग से करने लगे , यह देख उनके अधिकारी उनसे खुश रहते तथा समय के साथ या उनकी लगनशीलता को देखते हुए उनका प्रमोशन लोको पायलट में  कर दिया गया। इधर रमेश परीक्षा पर परीक्षा दिए जा रहा था किन्तु सलेक्शन का  नमो निशान न था। शायद इस संसार में मनुष्य का कल्याण उसी  विधि से होना है जिस विधि में उसका विश्वास हो , रमेश का विश्वास अपनी पढाई में कम पैरवी में ज्यादा था , बुद्धि पढाई में सहयोग न  कर पा रही थी क्योंकि  गलत विश्वास के कारण वो लगनशीलता अंदर से नहीं उत्पन्न हो पा रही थी। समय बीतता रहा इसी दौरान रेलवे में अप्रेंटिस खलासी की भर्ती के लिए वैकेन्सी निकली जिसका पता मोहन बाबू को चला , मोहन  इसमें अच्छा अवसर नजर आया। मोहन अपना कोई भी काम ईमानदारी ,मेहनत व लगन से करते थे किन्तु  अपने भाई के कल्याण के लिए के लिए किसी भी स्तर की पैरवी  शिफारिश  गलत न समझते थे।  मोहन बाबू को इस परीक्षा में रमेश के सलेक्शन की सम्भावन भी कुछ ज्यादा नजर आ रही थी क्योकि रेलवे कर्मचारिओं के घर के बच्चों के लिये कुछ स्थान सुरक्षित थे। इसके साथ मोहन बाबू की खुद की क्रेडिबिलिटी भी थी। इस पोस्ट के लिए रमेश का फॉर्म भरने के कुछ ही दिनों के पश्चात परीक्षा की तिथि भी आ गई ,सभी बच्चों के साथ  रमेश ने भी परीक्षा दिया। परीक्षा का परिणाम निश्चित समय पर आया बहुत से बच्चे परीक्षा में सफल घोषित किये गए किन्तु सफल परीक्षार्थिओं में सबसे शीर्ष पर नाम रमेश का था।  कार्यालय में तरह - तरह की चर्चायें लोग कर  रहे थे , कोई बोलता था देखा आपने मोहन बाबू का भाई रमेश  जिसका सलेक्शन कही नहीं हो पा रहा था वो अपने वहां अप्रेंटिस खलासी की भर्ती परीक्षा में टॉप कर गया यह उसकी योग्यता का कमल नहीं है यह मोहन बाबू की अधिकारियों के साथ मधुर सम्बन्धों का फलसफा है। ऑफिस में तरह तरह की चर्चाएं थी जितनी मुँह उतनी बातें लेकिन सारी  बातें दबी कुची सी थी लोगों को लगता था कि कोई अधिकारी अगर मेरी बातों को सुन ले तो दण्डित न कर दे आखिर परिणाम तो परिणाम होता है।
    जॉइनिंग का समय आया सारे सफल  परीक्षार्थिओं ने अप्रेंटिस खलासी के पद पर ट्रेनिंग हेतु ज्वाइन किया और अपनी ट्रेनिंग  करना शुरू किया। ट्रेनिंग के पश्चात सफल उमीदवारों को विभिन्न विभागों में पोस्टिंग मिली , रमेश को भी अपने इच्छित विभाग यांत्रिक के अग्निशामक अनुभाग में पोस्टिंग हेतु आदेश मिला। रमेश बाबू ने ड्यूटी ज्वाइन किया और काम करना शुरू कर दिया किन्तु रमेश बाबू अपने को इस नौकरी से उच्च नौकरी के योग्य समझते थे। इसकी चर्चा वो अपने बड़े भाई मोहन से भी कभी - कभी किया करते रहते थे ,मोहन बाबू रमेश को बार - बार समझाया करते थे कि देखो  ये नौकरी भी बड़ी मुश्क्लि से मिली है , ये नौकरी अच्छी तरह करते हुए दूसरी अच्छी नौकरी के लिए प्रयास करते रहो किन्तु रमेश बाबू के दिमाग में तो ये बात बैठी थी कि मै तो इस नौकरी से अच्छी नौकरी के लिए योग्य हूँ।  जिसके मन में ये बाते  बैठी हों कि ये नौकरी मेरी योग्यता के अनुरूप नहीं है वो व्यक्ति काम क्या करेगा और वास्तव में होता भी यही था। वो काम पर समय से आते तो थे किन्तु उनका काम में कभी मन लगता न था। काम पर समय से आने के पीछे शायद उनकी मजबूरी थी की उनके डिपार्टमेंट में बिलकुल समय पर उपस्थित होने पर ही उपस्थित दर्ज होती थी नहीं तो अनुपस्थित दर्ज हो जाया  करती थी।  शायद ये मज़बूरी न होती तो वो कार्य पर समय से आते या न आते ये बातें  भविष्य के गर्भ में थी। जिसके दिमाग में इतनी सारी नकारात्मक बातें  बैठी हों वो काम क्या करेगा और होता भी था वास्तव में यही था। उनका मुख्या काम एक्सपायर हो चुके अग्निशामकों को साफ करके पुनः रिफिल करना था। वो अपने को मिले हुए कार्यों को किसी तरह ठेल ठुल कर करते रहते थे यद्यपि काम जिम्मेदारी का था किन्तु रमेश बाबू को अपने  जिम्मेदारी का अहसास न था वो काम को किसी तरह ठेल - ठुल कर बेमन से करते रहते थे। कहते हैं की आप का भाग्य  ठीक है तो आप का दिन ठीक ठाक बीतता रहता है। भाग्य ख़राब हुआ तो अच्छे से अच्छा काम करने के बावजूद भी परिणाम उल्टा हो जाता है ,यहाँ तो काम बेमन से किया जा रहा था जिसमे दुर्घटना होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।
अग्निशामक शॉप के द्वारा रिफिल किये गए अग्निशामको का प्रयोग रेलवे में कही इंजन पर तो कही व अन्य  स्थान पर किया जाता है जहाँ पर कि आग से कोई दुर्घटना होने की संभावना होती है। ऐसे ही समय बीतता रहा एक दिन गोंडा यार्ड में शंटिंग कर रहे इंजन में अचानक आग लग गया। इंजन पर लोको पायलट के रूप में मोहन बाबू कार्यशील थे उन्होंने तत्काल अग्निशामक यंत्र को उठाया और पूरी विधि से उसके पाइप को आग की दिशा करके टॉप पिन के ऊपर  जैसे ही हाथ से हिट किया गैस पाइप से न निकल कर एका एक अग्निशामक के ऊपरी ढक्कन को तोड़ते हुए तेजी से एक धड़ाके के साथ निकलने लगा तथा  सारा का सारा गैस मोहन बाबू के चेहरे पर जा पड़ा। अब कुछ लोग मोहन बाबू को सम्हालने में लगे तो कुछ दूसरे उपलब्ध अग्निशामको से आग बुझाने का प्रयास करने लगे ,किसी तरह एक पार्टी ने आग पर काबू पाया तो दूसरे ने मोहन बाबू को तत्काल अस्पताल में भर्ती करवाया। अस्पताल में प्राथमिक उपचार करने के दौरान पाया गया की उनके आँख से कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। उसके पश्चात आँख का विस्तृत जाँच करने पर पता चला की आँख की रोशनी अब वापस नहीं आ सकती। यह समाचार रेलवे में आग के भाति फ़ैल गई जो ही सुना वो अस्पताल में मोहन बाबू को देखने दौड़ा ,बस इस लिए नहीं की वो रेलवे के कर्मचारी थे। उनका ब्यवहार व कार्य के प्रति समर्पण के कारण  सारे अधिकारीयों व कर्मचारिओं से उनके आत्मीय संबंधन थे। तुरंत अधिकारीयों नेअग्निशामक का सूक्षम निरीक्षण किया तो पाया कीअग्निशामक के आउटलेट पाइप को जाम  पाया। अस्पताल में यह चर्चा का विषय था देखो यदि रिफिल करने वाले कर्मचारी ने आउट लेट पाइप को ठीक से साफ करके अग्निशामक की रिफिलिंग की होती तो यह दिन एक कर्मचारी को नहीं देखना पड़ता। लापरवाही किसी एक कर्मचारी के द्वारा किया गया और नुकसान किसी दूसरे कर्मचारी को उठाना पड़ा।
   मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्काल यह जांच का आदेश दिया गया की यह अग्निशामक किसने रिफिल किया है यह पता लगाया जाय ,पता करने पर पता चला की इस अग्निशामक की रिफिलिंग मोहन बाबू के भाई रमेश ने किया है। यह खबर किसी तरह  उड़ाती हुई  मोहन बाबू के कानो में पड़ी अब काटो तो मोहन बाबू को लगता था जैसे खून ही न निकलेगा ,यह खबर उनके ऊपर वज्रपात के सामान था ,इस लिए नहीं की उनकी आँख चली गयी थी। वो अब इस लिए परेशान थे की अब रमेश पर ठीक से काम न करने का इल्जाम लगेगा  अब रमेश को  नौकरी बचाना मुश्किल हो जाएगा। मनुष्य अपने पास के वर्तमान के नौकरी ,सामान इत्यादि की कद्र तबतक नहीं करता है जबतक वो नौकरी व सामान उसके पास है जैसे ही नौकरी व सामान उसके हाथ से गयी उसे उस  नौकरी व सामान के मूल्य का उसको अहसास होता है या यो कहिये की पता चलता है। जब रमेश को ये पता चला की उसके भरे हुए अग्निशामक से भईया के साथ हादसा हो गया है तो उन्हें अपने कार्य के तरीके पर अफशोस या यो कहे की पश्चाताप  करने के अलावे और कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। वो अपने कार्य स्थल से छुट्टी लेकर अपने भइया मोहन बाबू के देख भाल  के लिए पहुंचे जैसे ही वो मोहन बाबू के पास पहुँच कर मोहन बाबू को चरण स्पर्श किया आँख से न दिखाई देने के बावजूद मोहन बाबू ने तुरन्त पहचान लिया और तुरन्त बोले  कि बोलो बाबू और कैसे हो। मोहन बाबू भइया को देखते ही बिलख -बिलख कर रोने लगे,मोहन बाबू ने रमेश  बाबू से बोला बाबू अब रोने धोने से कुछ होने वाला नहीं है। हमें लगता है यही लिखा बदा था। अब भगवान जैसे रखेंगे वैसे ही रहना पड़ेगा। रमेश बाबू अब वहीं अस्पताल में रुककर  मोहन बाबू की देख भाल  व सेवा शुश्रूषा में चौबीसों घंटा लगे रहते थे लेकिन उनका मन ग्लानि से भरा रहता था।
    एक तरफ मोहन बाबू अस्पताल में इलाज चल रहा था तो दूसरी तरफ रमेश को इस दुर्घटना के लिए दोषी मानकर उनको मेजर पेनॉलिटी चार्जशीट जारी कर दिया गया।  तमाम तरह के कागजी  कार्यवाही  से गुजरने के बाद रमेश बाबू के ऊपर इल्जाम की पुष्टि  हो गई। दंड के तौर पर रमेश बाबू को नौकरी से डिशमिश कर दिया गया । जैसे ही मोहन बाबू ने यह बात सुना मनो उनके ऊपर पहाड़ टूट पड़ा और उनके अंदर छटपटाहट होने लगी मैं कैसे ठीक होऊं और जाकर अधिकारिओं से बात करके इस दण्ड को माफ  करवाऊँ, इधर मोहन बाबू अपने ठीक होने का इंतजार करते थे तो रामवश बाबू को पश्चाताप के अलावे और कुछ भी नहीं सूझता था।अब तक जिस नौकरी को अपने अंगूठे की नोक पर रखते थे, अब उसकी कीमत उनको समझ आ रही थी। अब पश्चाताप के अलावे कुछ नहीं सूझता , पश्चाताप हो भी क्यों न जब मनुस्य अपने कर्म से विमुख हो जाये उसके पास पश्चाताप के अलावे उसके पास  होता ही क्या  है।
  जैसे ही मोहन बाबू को अपनी तबियत ठीक महशूस हुई वो अस्पताल से छुट्टी लेकर इस कार्यालय से उस कार्यालय पैरवी के लिए दौड़ लगाने लगे, इधर रमेश बाबू भी इस गलती के लिए क्षमा प्रार्थना हेतु अपना प्रार्थना पत्र अपने अधिकारिओं को देते और हाथ जोड़ कर अधिकारिओं से बिनती करते लेकिन यह बात अपने दोस्तों में जाहिर न होने देते थे कि मैंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना किया है। लेकिन दोस्तों को किसी न किसी माध्यम से वास्तविक बातों का पता तो चल ही जाता था। दोस्त भी खूब चटकारे लेकर बातों को करते थे जब तक नौकरी थी तबतक बोलते थे की ये छोटी मोटी नौकरी को मै कुछ समझता ही न हूँ अब जब नौकरी चली गई है तो अधिकारिओं के आगे हाथ जोड़ रहे हैं कि किसी तरह पुनः नौकरी मिल जाय। बड़ा नौकरी को ठेंगें पर रखते थे अब पता चल रहा है। कार्यालय में चर्चा का माहौल गरम था सब कहते थे की अब जो कुछ भी उनके लिए अच्छा होगा अब मोहन बाबू  के ही पैरवी से होगा , यह चर्चा कार्यालय के प्रति दिन के चर्चा का मुख्य मुद्दा हो गया था।
  इन चर्चाओं के बीच एक दिन चीफ साहब ने बड़े बाबू को बुला कर आदेश दिया की बड़े बाबू ,रमेश की बर्खास्तगी को रद्द करने के सम्बन्ध तथा चेतावनी जारी करते हुए एक पत्र टाइप कर के लाइये। बड़े बाबू बताये गए मजमून के अनुसार पत्र टाइप कर के चीफ साहब के पास लेकर गए चीफ साहब ने पत्र पर अपना दस्खत बैठा दिया इस तरह रमेश बाबू की बर्खास्तगी रद्द कर के एक चेतावनी के साथ पुनः नौकरी ज्वाइन करने का आदेश दे दिया गया। रमेश बाबू ने पुनः ख़ुशी ख़ुशी नौकरी ज्वाइन कर लिया शायद अब उन्हें नौकरी का महत्व समझ आ रहा था और शायद इस बात का भी एह्शाश हो रहा था की जो कुछ भी छोटी  मोटी  चीज हमारे पास है उसका अनादर न करते हुए हमें उसका सम्मान करना चाहिए। किन्तु कार्यालय  में इस सारी उपलब्धि के पीछे मोहन बाबू को ही लोग मान  रहे थे कि इतनी जल्दी बर्खास्तगी का रद्द होना तथा एक चेतावनी के साथ पुनः नौकरी का ज्वाइन करवा देना इस सब के पीछे एक आदमी का सद  व्यवहार था और वो थे मोहन बाबू। अब रमेश को समझ में आ गया था कि इस सारी समस्या की जड़, कार्य के प्रति मेरी जवाब देहि का अभाव ही था।