Monday, July 20, 2020

ईश्वरीय विधान

                                                                ईश्वरीय विधान

हिंदू धर्म या फिर कहिए सनातन धर्म की मान्यता है कि पिछले जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार ही आपका अगला जन्म विभिन्न योनियों में होता है। उसी योनि में आपको अपने पिछले जन्म के अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं।  जब आपका कर्म इतना अच्छा हो की ईश्वर भी आपके कर्मों में कोई बुराई न ढूंढ पाए तो आपको स्थान ईश्वर के समकक्ष मिल जाता है और ईश्वर आपको अपने साथ बैठा लेते हैं और इस भवसागर से आपका पार लग जाता है। संभव हो यह धारणा समाज में इसलिए फैलाई गई हो कि व्यक्ति जीते जी अच्छा कर्म करें जिससे समाज व देश उन्नति करें और आगे बढ़े।  सच्चाई जो कुछ भी हो किंतु इसी समाज में कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनको देखकर कभी कभी व्यक्ति का ईश्वरी विधान पर से विश्वास उठ जाता है तो कभी उसको महसूस होता है कि  ईश्वर के दरबार में देर है अंधेर नहीं है।
  ऐसे किसी भी विधानो की खिल्ली उड़ाना बाबू राम सिंह का काम था। जो अपने क्षेत्र के दबंगों में गिने जाते थे। जबरदस्ती किसी भी चीज को पाने के लिए अनाधिकार चेष्टा करना उनके प्राथमिक गुणों में से था। पता नहीं यह उनके जातीय गर्व के कारण था या फिर अनाधिकार चेस्टात्मक रूप से किसी चीज को प्राप्त करने को लेकर था। बात जो कुछ भी हो उनके इस गुण के कारण उनके हितैषी से लेकर उनके ऊपर से लेकर नीचे तक के सहयोगी कर्मचारी हमेशा परेशान रहते थे।
  बाबू राम सिंह एक सरकारी विभाग के कार्यशाला में इंचार्ज सुपरवाइजर स्तर के मुलाजिम थे, जहां पर लोहे से भिन्न भिन्न प्रकार की पार्ट पुर्जों का निर्माण किया जाता था और वहां से साइट पर उपयोग करने के लिए भेज दिया जाता था। इसके अलावे बहुत से उपकरणों/पार्ट पुर्जों का कई जगहों से निजी कल कारखानों से खरीदना पड़ता था क्योंकि यह सरकारी कार्यशाला सारे उपकरणों की पूर्ति न कर पा रही थी। इन सारी क्रियाकलापों को देखते हुए बाबू राम सिंह के मन में एक विचार आया की क्यों न मैं भी अपने किसी सगे संबंधी के नाम पर एक कारखाना खोल लूं और अपने कारखाने से मैं खुद ही विभिन्न प्रकार के उपकरणों तथा पार्ट पुर्जों को बनाकर विभाग को सप्लाई किया करूं। कहते हैं कि विचार ही किसी भी कार्य की प्रथम जननी है इसका प्रस्फुटन बाबू राम सिंह के विचारों में हो चुका था। उन्होंने जल्द ही अपने विचारों को क्रियात्मक रूप में परिवर्तित किया और कुछ ही महीनों में शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स के नाम से कारखाना बनकर तैयार हो गया।  अब शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स विभिन्न विभागों से निविदा के माध्यम से भिन्न भिन्न प्रकार के उपकरणों और कंपोनेंट्स का निर्माण करके विभागों को सप्लाई करना शुरू कर दिया। जब से शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स ने अपना काम शुरू किया तब से सरकारी कारखाने के कर्मचारियों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया की उनके भंडार से लोहे की छड़, प्लेट, चादर पता नहीं कब कहां गायब हो जाया करती थी।
  किसी भी सरकारी विभाग की एक प्रमुख विशेषता है की आप काम कुछ कम करें यह चलेगा इसके तमाम जवाब हैं किंतु कागज में जो अंकित भंडार संख्या है, वह आपके भंडार की वास्तविक संख्या के बराबर ही मिलना चाहिए। यदि यह वास्तविक संख्या से थोड़ा भी कम या ज्यादा है तो इसके लिए भंडार धारक पूर्ण रूप से जिम्मेदार है और विभागीय कार्यवाही जो की जाएगी वह रिकवरी से लेकर नौकरी से बर्खास्तगी तक की सजा है। यहां भंडार में थोड़ी बहुत कमी हो अर्थात दाल में नमक के बराबर हेरफेर हो तो कुछ इधर उधर खपत दिखा करके ठीक किया जा सकता था, किंतु यहां पर तो लगता था जैसे नमक में ही दाल बन रही थी।
  इस तरह की घटनाओं से चिंतित होकर रात में कुछ कर्मचारीयों ने दिन के अनुसार चौकीदार के अलावा खुद भी चौकीदारी करने का निर्णय लिया। लेकिन पता नहीं क्या बात हुआ दूसरे दिन रात में एक कर्मचारी मृत्यु दशा में कारखाने के पास पाया गया। लगता था उसकी मृत्यु किसी वाहन कुचल जाने के कारण से हो गई थी। आदमियों को इस घटना में दाल में कुछ काला नजर आ रहा था किंतु भयवश कहें या फिर बहुत सटीक जानकारी ना होने के कारण कोई अपना मुंह खोलना नहीं चाह रहा था। अब रात में कर्मचारियों ने अपने स्वयं के चौकीदारी करने के निर्णय को परित्याग कर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया। निर्बल के आश्रम इस संसार में बस ना दिखाई देने वाले भगवान का ही हैं। निर्बल के साथ इस संसार में शायद ही कोई खड़ा दिखे, समाज को वैसे भी छोड़ दीजिए वह यह जानते हुए भी क्या गलत है क्या सही है उसका किसके साथ स्वार्थ सिद्धि है उसी का साथ देती है। सरकारी कामकाज में तमाम नियम कानून हैं यदि कोई थाना पुलिस भी करें तो किस आधार पर करें जब सुबह कारखान खुलते समय मेन गेट पर लगा हुआ ताला व सील टूटा हुआ न पाया जाता था तो यह सब करने का कोई आधार ही ना था। वैसे भी जब चोर घर में हो तो पकड़ना इतना आसान काम नहीं है।
  अब कर्मचारी सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर अपने काम में जुटे हुए दिखते थे। कर्मचारियों ने इन दिनों बाबू राम सिंह के व्यवहार में एक और बदलाव देखा कि अब वह रिवाल्वर के साथ कारखाना में आना शुरू कर दिए थे और जब कभी अपने चेंबर में बैठते तो अपने मेंज पर रिवाल्वर को निकाल कर रख दिया करते थे। इसके अलावा महीने या पन्र्दह दिन में कभी कारखाने में घूमते हुए किसी पेड़ पर कोई पक्षी दीख जाती थी तो अनायास ही उस पर रिवाल्वर से फायर कर दिया करते थे यह सब देख कर कर्मचारियों में तथा कारखाने के सुपरवाइजरों में एक भय का वातावरण व्याप्त रहता था। यह सब क्रियाएं वह किस लिए कर रहे थे यह तो बाबू राम सिंह का ही मन अच्छी तरह से जानता होगा। वैसे भी कुछ कुछ कारखाने के कर्मचारी भी उनकी क्रियाकलापों को समझ रहे थे कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।
  कहते हैं कि भगवान के घर देर है किंतु अंधेर नहीं है। मजबूरी वश ऐसा ही विश्वास कारखाने के कर्मचारियों को भी हो गया था। ऐसे ही कारखाने में चिड़ियों के ऊपर फायर करने के दौरान बाबू राम सिंह का रिवाल्वर एक बार ऐसा फंसा कि रिवाल्वर का ट्रिगर दबाने के बावजूद भी उसमें से गोली फायर नहीं हो पा रही थी। बाबूराम सिंह से जो प्रयास हो सकता था वह उन्होंने किया की ट्रिगर दबाने से फायर हो जाए किंतु रिवाल्वर कुछ ऐसा फंसा था की फायर ना हो सका। लगता था इसी रिवाल्वर में ही बाबू राम सिंह की जान अटकी हुई थी वो तुरंत रिवाल्वर को लेकर रिवाल्वर बनाने  वाले दुकानदार के पास पहुंचे। वहां पर रिवाल्वर की नली को अपनी तरफ करके उन्होंने दुकानदार को समझाना शुरू किया कि इसका ट्रिगर दबाने पर रिवाल्वर से फायर नहीं हो पा रहा है। दुकानदार अपने हाथ में रिवाल्वर को लेकर देखना चाह रहा था किंतु उन्होंने रिवाल्वर को दुकानदार को देने के बजाय एक बार ट्रिगर दबा कर उसको दिखाना चाहा जैसे ही उन्होंने ट्रिगर दबाया रिवाल्वर से तुरंत फायर हो गया। रिवाल्वर की गोली बाबू राम सिंह का सीना चीर कर बाहर हो चुकी थी बाबूराम दुकान पर अचेत होकर गिर गए थे, उनकी धड़कन व नाड़ी गायब हो चुकी। साथ में आए हुए लोग आनन फानन में उनके मृत शरीर को लेकर अस्पताल पहुंचे डॉक्टरों ने आले से चेक करने व नाड़ी के धड़कन गायब होने पर तुमको मृत्यु घोषित कर दिया। यह खबर बिजली की गति से कारखाने में पहुंची वहां के कर्मचारी अस्पताल की ओर दौड़े किंतु कोई भी कुछ शोक का एक भी शब्द बोलने को तैयार न था। सबके मन में यही एक मौन स्वीकृति थी कि यही ईश्वरी विधान लिखा था।

यह मेरी मूल व अप्रकाशित रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
9044600119
 
  

Thursday, July 2, 2020

दिखावटी भोज

दिखावटी भोज
जब देश में कोरोनावायरस ने महामारी के रूप में आक्रमण किया तो सरकार ने वायरस फैलाव को रोकने के लिए देश में एकाएक लाकडाउन की घोषणा कर दी। तो तमाम उदार से छद्म उदार, सेवाभावी से छद्म सेवाभावी असहाय, गरीबों तथा दिहाड़ी मजदूरों की सहायता करते हुए मैदान में दिखने लगे। अधिकतर लोग सेवाभावी समूह बनाकर सेवाभावी होने का नाटक करने लगे, उनके अंदर सेवा भाव कम तथा प्रचार तंत्र ज्यादा दिख रहा था। वह लोग किसी को खाने का एक पैकेट या फिर एक फल ही प्रदान करते तो पांच से सात सेवाभावी हाथ लगाकर फोटो खिंचवाते हुए दिख जाते थे।  इस सेवा भाव को देखकर पता नहीं जरूरतमंद शर्मिंदा हो जाता था या नहीं लेकिन ईश्वर इन सेवा भावियों की सेवा को देखकर इनके ऊपर तो नही अपने ऊपर जरूर तरस खा रहा होगा की मैंने इस संसार में कैसे कैसे महा पापियों को जीवन दे रखा है। महापाप केवल वह नहीं जिसमें समाज या मनुष्य की सीधे क्षति पहुंचाये महापाप यह भी है की महान कार्य न करते हुए भी इतिहास में महान कार्य करने वालों में नाम दर्ज कराने का प्रयास किया जाए। यानी यह बिल्कुल ऐसी बात है कि उंगली कटवा कर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी में नाम दर्ज करवा लेना। दूसरी ओर ऐसा भी  सेवाभावी थे जो शांति से बिना किसी प्रचार, बिना किसी दिखावे के जरूरतमंदों की सेवा करने में तल्लीन रहते थे, इनको अपने नाम और प्रसिद्धि की बिल्कुल ही फिक्र न था। यानी ईश्वर ने इस आपदा ने मनुष्य को देवता( कुछ देने वाला ) बनने का अवसर दिया था लेकिन कुछ लोग दिखावटी देवता बने तो कुछ लोग इस धरती पर वास्तविक देवता के रूप में सेवा भाव करते हुए दिखे।
 ऐसी ही सेवा भावियों की तरह दो मित्र प्रतिद्वंदी थे आमोद सिंह व प्रमोद सिंह, जो कभी एक साथ बड़े-बड़े भवन निर्माण का काम करते थे। किंतु आपसी समझ में फर्क पड़ जाने पर जाने के कारण अपना अलग-अलग भवन निर्माण का व्यवसाय स्थापित कर लिए थे। उन दोनों मित्रों में से एक मित्र आमोद सिंह देखने में भाव से सरल, वाक्यपटु, चेहरे पर मुस्कान लिए हुए किंतु दिल से स्पष्ट व्यक्ति नहीं थे। कुल मिलाकर कहें तो कुछ अच्छे व्यवसायिक गुणों के साथ दिल से साफ नहीं थे। इसके विपरीत दूसरा मित्र प्रमोद सिंह स्पष्ट बोलने वाला, चेहरे पर स्पष्ट भाव लिए हुए एक सहृदय व्यक्ति थे। किंतु कभी-कभी असमय बोले गए अपने स्पष्ट बातों के कारण सामने वाले को ठेस भी पहुंचा देते थे। कुल ले देकर कहें तो उसके अंदर उदार एवं स्पष्ट व्यक्तित्व के साथ व्यवसायिक गुणों का अभाव था। किंतु एक खास बात यह थी की वो अपने कर्मचारियों, मजदूरों, हित मित्रों, परिचितों के सुख दुख में उनके साथ बने रहते थे, और भरसक जो भी सहायता हो सकती थी वह करते रहते थे।
  जैसे ही सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की उसके दूसरे दिन से सारा प्रोजेक्ट का कार्य बंद हो जाने के कारण मजदूरों के सामने दो से चार दिन के बाद ही रोजी के साथ रोटी की भी समस्या खड़ी हो गई। इस समस्या को देखते हुए दोनों मित्रों ने अपने-अपने बुद्धि विवेक व व्यक्तित्व के अनुसार समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया।
  जहां आमोद ने अपने संपर्क के लोगों के सोशल मीडिया ग्रुप में यह पोस्ट करना शुरू कर दिया की उनकी विशाल कंस्ट्रक्शन कंपनी ने लॉकडाउन पीरियड में गरीब असहायों के लिए भोजन बनवाने वितरण करवाने की योजना बनाई है आप सभी से आशा है की आप लोग उदारता से कंपनी का सहयोग करेंगे जिससे कंपनी भोजन बनवाने वितरण करने के पुनीत कार्य में आप लोगों को साथ में लेकर  भागीदार बना सके और ईश्वर आप लोगों को इस पुण्य कार्य के प्रतिफल में हजारों गुना लाभ दे। जैसे ही लोगों ने सुना कि आमोद जी इस लॉकडाउन पीरियड में गरीबों, असहाय व मजदूरों के लिए प्रतिदिन भोजन की व्यवस्था करवा रहे हैं। वैसे ही लोग उदार मन से अपना सहयोग देने लगे। बहुत से व्यक्ति पहले से भी इस लाकडाऊन पीरियड में सहयोग करना चाहते हैं किन्तु कहां सहयोग करें यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था, उनके लिए अमोद सिंह ने एक शुगम रास्ता प्रदान कर दिया। लोग बढ़-चढ़कर उनको सहयोग करते हुए नजर आ रहे थे। आमोद सिंह प्रतिदिन दोपहर और शाम को खाना पैक करवा कर अपने सोशल ग्रुप में पोस्ट करते जाते थे। लोगों को लगता था कि जैसे उनके पैसे का सही सदुपयोग हो रहा है। इधर आमोद सिंह को गरीब गुरबा, असहाय के रूप में केवल अपने मजदूर ही नजर आते थे उन खानों का वितरण वह अपने मजदूरों के बीच ही करते थे। जब यह बात सहायता कर रहे लोगों को जानकारी हुई तो लोगों को लगा कि इनकी सहायता केवल उन्हीं गरीब गुरबों तक सीमित है जिनसे इनके व्यवसायिक हितों की पूर्ति हो रही है। लोगों को लगा अपने मजदूरों को तो इनको स्वयं का पैसा खर्च करके खिलाना पिलाना चाहिए। जो मजदूर इनके लिए साल भर खटते हैं उनको खिलाने के लिए हम लोगों से गरीबों के नाम पर पैसे लेकर भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं। लोगों को लगा जैसे आमोद सिंह ने हम लोगों के साथ एक प्रकार से विश्वासघात किया है। हम लोगों ने पैसा गरीब - गुरबों, असहाय जरूरतमंदों को भोजन की व्यवस्था के लिए दिया किंतु इनकी नजर में गरीब गुरवे केवल वही जिनसे इनका व्यवसायिक हित पुर्ति हो रही थी। लोगों ने सहायता देना बंद कर दिया। अब आमोद सिंह को लगा कि जैसे उनके दिखावटी भोज का राज खुल गया है। समाज में जो बदनामी हुई उसकी चर्चा ही क्या किया जाए। अमोद सिंह आज तक पैसा कमाने के अलावा सामाजिक कार्य में शायद ही एक पैसा खर्च किये हों या फिर सामाजिक दायित्व के रूप में अपने मजदूरों के ऊपर शायद ही कभी एक पैसा खर्च किये हों। वह तो केवल व्यवसायिक गुणों के धनी थे जिनसे उनका व्यवसायिक हित सधता था, उनसे हंसकर मृदुता से बात करके अपना लाभ सिद्ध कर लेना बस एक ही काम आज तक उन्होंने सीखा था। जैसे तैसे कुछ दिन तक और यह भोज का कार्यक्रम चलता रहा वो भी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मजबूरी बस। लेकिन शायद उनके स्वभाव में था कि किसी के ऊपर एक पैसा खर्च करना या उसको दान करना उनको कर्महीन बनाना है। इस सिद्धांत का आश्रय लेकर उन्होंने इस भोज को बंद करने का निर्णय लिया। और अंततोगत्वा उन्होंने भोजनालय को बंद कर दिया। जो मजदूर आज तक सोच रहे थे मालिक के सहारे  लॉक डाउन का पीरियड कट जाएगा वह सभी बेसहारा हो गए। यह सारे लोग अपने पुरुषार्थ से थोड़ा या बहुत कमाने वाले थे। इनको किसी अन्य के सामने हाथ फैलाने में झिझक होने लगी तब सारे मजदूरों ने अपने गांव की ओर रुख करना उचित समझा और सभी मजदूर एक एक कर अपने गांव को प्रस्थान कर गये।
  दूसरी तरफ प्रमोद सिंह ने जब देखा सरकार ने करोना महामारी के कारण लाक डॉऊन कर दिया है तो सबसे पहले उन्होंने ने अपने कंपनी में कार्य करने वाले मजदूरों के लिए एक अन्नपूर्णा भोजनालय को खोला जिसमें उनके मजदूरों के अलावा और भी कोई भूखा आ जाता था तो वहां से वह अपनी आत्मा को तृप्त कर के ही जाता था। इस दौरान वो अपने मजदूरों और कंपनी  से संबंधित कर्मचारियों व सगे संबंधियों  से हाल चाल समय-समय पर लेते रहे थे तथा सहायता व जरूरत के बारे में पूछते रहते थे और उन लोगों को ताकीद करते रहते थे कि आप मुझसे बेझिझक इस आपात परिस्थिति में सहायता के लिए बोलेंगे मेरे पास जितनी सामर्थ होगा मैं आप लोगों की सहायता करने में कोई उठा ना रखूंगा और समय-समय पर अपनी तरफ से जो समझ में आता था वह सहायता करते भी रहते थे।आपके दोस्त, मित्र, हितैषी की परख आपके बुरे समय में उसके रवैया से होती हैं।
 प्रमोद सिंह दिल के उदार थे किंतु स्पष्ट वादी होने के कारण समय-समय पर बिना किसी लाग लपेट के अपनी बातों को सीधे व सपाट रूप में अपनी बातों को प्रकट कर दिया करते थे। इस कारण से वह अपने सभी संबंधियों व ग्राहकों के दिल पर कभी-कभी चोट कर दिया करते थे, यही उनका एक सामाजिक व व्यवसायिक अवगुण था। वैसे भी समाज में सत्य किन्तु अप्रिय बात सुनना ही कौन चाहता है।
  इस तरह सरकार इस आशा में आज नहीं तो कल इस रोग पर नियंत्रण पा लिया जाएगा लाक डाउन पीरियड को बढ़ाते बढ़ाते जब दो महीने तक कर चुकी और बहुत ज्यादा आशा के अनुरूप परिणाम मिलता नहीं दिखलाई दिया और जनता में त्राहिमाम की स्थिति दिखने लगी तो अंततोगत्वा सरकार को यह निर्णय करना पड़ा कि लाकडाउन को खत्म करके व्यापारी अपना व्यापार सोशल डिस्टेंसिंग सुरक्षा के साथ चालू करें। व्यापारिक गतिविधियों के साथ सरकार ने कंस्ट्रक्शन कार्य में लगे कंपनियों को भी अपना कार्य चालू करने का आदेश दे दिया। जैसे ही मकान निर्माण के कार्य का आदेश सरकार के तरफ से मिला और प्रमोद सिंह ने अपने आदमियों को बताया तो आदमियों को लगा कि जैसे उनके लिए एक नया सूर्य का उदय हो गया है। आदमियों में उत्साह की लहर दौड़ गई वह प्रमोद सिंह से एक आवाज में बोलने लगे मालिक अब देरी करने की जरूरत नहीं है और कल से ही काम शुरू करवाइए। आदमियों के चेहरे पर एक अलग उत्साह दिख रहा था, लगता था वह चाह रहे थे कि इसी बहाने कुछ अच्छा कार्य करके जो कुछ मालिक का एहसान उतारा जा सके हम लोग उतार दें। हम लोग जो थोड़ा बहुत ऋण से उऋण हो जाए वह तो हो जाए।
  मनुष्य कितने गलतफहमी का शिकार है वह सोचता है कि मैं किसी एहसान के बदले में उसका कोई काम कर दूं तो मैं उसके एहसान को उतार दूंगा, या उसके कुछ भाग को उतार दूंगा शायद ऐसा मनुष्य के विचार में हो सकता है पर ईश्वर के दरबार में ऐसा असंभव है। जिस विकट परिस्थिति में अच्छे-अच्छे उद्योगपतियों, पैसे वालों ने अपने कर्मचारियों, मजदूरों व सहायकों को छोड़ दिया, ऐसे आंख फेर लिया जैसे उनको पहचानते ही ना हो उस परिस्थिति में भी प्रमोद सिंह ने अपने आदमियों को यह आश्वासन दे रखा था जब तक उनके पास पैसा है तब तक यह अन्नपूर्णा भोजनालय ऐसे ही चलता रहेगा इस विकट परिस्थिति में हम आपके साथ हैं आप लोग अपने को अकेला बेसहारा न समझिए। किसी मालिक का यह कहना कि आज मैं जो कुछ भी हूं वह आप लोगों के सहारे हूं और इस विकट परिस्थिति में मैं आप लोगों को छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता चाहे कंगाल क्यों ना हो जाऊं। जो आदमी इस स्तर तक जाकर अपने पर निर्भर व्यक्तियों की सहायता करने को तैयार हो उसको ईश्वर अकेला कैसे छोड़ सकते हैं। शायद ऐसे आदमी के द्वारा किए गए नेक कार्य का कर्ज कोई नहीं उतार सकता।
  अगले ही दिन से प्रमोद सिंह का काम रफ्तार पकड़ने लगा। चार से छह दिन में काम पूरे रौ में आ गया। पूरे शहर से लेकर समाचार पत्र तक प्रमोद बाबू की जय जय कार हो रही थी। वह समाज में नजीर के रूप में, उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे थे, देखें जा रहे थे। देखे भी क्यों न जाए उन्होंने विकट परिस्थिति में अपने आदमियों की सहायता की थी, जिस परिस्थिति में अच्छे-अच्छे पैसे वालों ने अपने कर्मचारियों से मुंह मोड़ लिया था कि कहीं कोई एक पैसा न मांग ले भविष्य किसने देखा है। कुछ ही दिनों में उनका कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा मकान व फ्लैट खरीददारों की उनके वहां भीड़ लगी रहती थी। अब उनकी कड़ी बातों को कोई बुरा भी नहीं मानता था उन कड़ी बातों में लोग उनकी सच्चाई व ईमानदारी का दर्शन करते थे। अब समाज में प्रभावशाली लोग, प्रबुद्ध जन अपने वहां किसी कार्यक्रम में उनकी उपस्थित पर गर्व का अनुभव करते थे। किसी सामाजिक कार्यक्रम में इनकी उपस्थित से लगता था जैसे कार्यक्रम की शोभा में चार चांद  लग गया है। लोग इनको किसी ना किसी बहाने अपने यहां होने वाले कार्यक्रमों में आमंत्रित करने का बहाना ढूंढते रहते थे।
  उधर आमोद सिंह के कंपनी में जैसा लगता था गमी का माहौल हो गया था। जिसके चेहरे पर देखिए उसी के चेहरे पर उदासी के भाव थे। वो मजदूरों के पास काम करने के संदेशा भेजते थे लेकिन कोई भी मजदूर काम पर आने को तैयार नहीं था उनके दिल में बस एक ही भाव ने अपना स्थान बना दिया था कि जब मालिक ने हम लोगों का विकट परिस्थितियों में साथ छोड़ दिया तो हम लोग ऐसे मालिक के साथ काम ही क्यों करें।इस समाज में सब को एक दूसरे के सहारे की जरूरत है चाहे वह अमीर हो या गरीब हों सब एक दूसरे के पूरक हैं और सब एक दूसरे की सहायता से अपना काम चलाते हैं व विकास करते हैं। यह समय समय की बात है कब किसको किस से सहायता की जरूरत पड़ जाए। कभी नाव गाड़ी पर होती है तो कभी गाड़ी नाव पर यह तो समय समय की बात है। आमोद बाबू आदमियों की व्यवस्था की जितना तजवीज कर सकते थे सारा कर चुके थे किन्तु आदमियों की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। मजदूरों में  यह बात फैल गई थी कि यह आदमी ठीक नहीं है। यह इतना गिरा आदमी है कि अपने मजदूरों को जो खाने की व्यवस्था किया था, वो भी दूसरों के सहायता के पैसे से किया था। अपने टेट से एक पैसे खर्च नहीं करना चाह रहा था। जब लोगों को वास्तिविक स्थिति के बारे में पता चला तो लोगों ने सहायता देना बंद कर दिया, तो इस व्यक्ति ने भी अपने मजदूरों को खाना खिलाना बंद कर दिया। ऐसे आदमी पास कौन जाएगा काम करने।
  आमोद बाबू के करोड़ों करोड़ों रुपए के कई प्रोजेक्ट पर काम ठप हो गया था। बैंक वालों के लोन का ब्याज दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था, इधर न तो कोई तैयार फ्लैट का खरीदार ही मिल रहा था न हीं एक पैसे की कहीं से आवक ही दिख रही थी। कुछ स्थाई कर्मचारियों की तनख्वाह, बिजली का खर्च, ऑफिस का किराया हर महीने देना ही था। ये स्थाई खर्चे और बैंक से लिए गए लोन का ब्याज रात भर सोने ना देता था। वह कभी-कभी सोचते थे  क्या यह मेरे दिखावटी भोज का शाप है या मजदूरों का आह है वह समझ ना पा रहे थे।

यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा