Wednesday, April 15, 2020

सेवा का प्रतिफल

मनुष्य इस संसार में अपने औलाद से कितने अरमान पाले रहता है, इसको स्वयं मनुष्य का मन ही जानता है और यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। यह लगभग हर मनुष्य के लिए एक सामान्य बात है। ऐसे ही ढेर सारे  अरमानों को अखंड बाबू, अपने बेटे अमर से पाल रखे थे। वह जब से स्कूल जाना शुरू किया तब से एक तरह से वह उसकी ही नींद सोते थे और उसकी नींद उठते थे। वह अपने खर्च में कतरब्योंत कर लेते थे, किंतु अमर की पढ़ाई में किसी भी तरह का कतरब्योंत न करते थे। इस तरह अमर एक - एक दर्जे की पढ़ाई करते हुए, देश के प्रतिष्ठित इंस्टीट्यूट से कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करने के साथ अमेरिका के एक कंपनी में नौकरी करने लगा। अमर बाबू के मन में अब एक अरमान था कि अमर की शादी  शुशील लड़की से हो जाय, जो उनकी बेटी की ही तरह शुशील हो। वह हमेशा इसी उधेड़बुन में लगे रहते थे कि कोई उनकी बेटी जैसे सुशील लड़की नजर आ जाए, जिससे की अमर की शादी की जा सके।
   इधर अमर जब से अमेरिका गया था, तब से उसको फुर्सत ही नहीं मिल पा रहा था कि अपने माता पिता से मिलने अपने घर आ सके। फोन ही एक सहारा था उससे ही माता पिता से हाल चाल व समाचार मिलता रहता था। उसके ज्ञान और कार्य की लगन शीलता को देखते हुए कंपनी उसको एक से एक ऊंचे पद देती जा रही थी। वह जब भी छुट्टी की बात करता कंपनी नए नए प्रोजेक्ट का हवाला देकर अगले आने वाले समय में छुट्टी देने की बात करती। इस तरह दिन बितता रहा और अमर का वहां के कई भारतीय परिवारों से आना जाना मेल मिलाप व सामाजिक संपर्क होता जा रहा था। इन भारतीय परिवारों के वहां पड़ने वाले सामाजिक कार्यक्रमों, तीज त्योहारों व वैवाहिक कार्यक्रमों में अमर का अक्सर जाना होता रहता था। इसी तरह एक वैवाहिक कार्यक्रम में अमर की मुलाकात एक अमेरिकन लड़की से हुई और कुछ ऐसा संयोग हुआ या कहिए की परिस्थितियां बनी की अमर ने उस अमेरिकन लड़की के साथ अपना घर बसा लिया। जब ये बात अखंड बाबू और उनकी पत्नी को पता चला तो उनको लगा कि जैसे उन लोगों के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई है। उन लोगों के अरमानों पर पानी फिर गया था। शायद उन लोगों का अरमान था कि बेटे की शादी अपनी बेटी की तरह ही किसी शुशील लड़की से करेंगे जो आकर इस घर को मंदिर में बदल दे और अमर के जीवन में खुशियां भर दे और अमर को खुशहाल रखे। लेकिन अमेरिकन लड़की से विवाह की खबर ने जैसे दोनों कि खुशियों पर पानी फेर दिया था। अमर भी अपने माता पिता की इच्छा  के अनुसार भारतीय लड़की से अपना शादी करना चाहता था। किंतु कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी अमर को उस अमेरिकन लड़की से शादी करना पड़ा। इस तरह पहले ऑफिस के कार्य के कारण अब माता-पिता के द्वारा इस शादी को पसंद ना किए जाने के कारण अमर अपने माता-पिता से मिलने न जा पा रहा था। किंतु अमर की पत्नी सोफिया बार-बार अमर से जिद्द करती रहती थी अपने सास और ससुर से मिलने के लिए। एक बार सोफिया  के बहुत जिद करने पर अमर हिम्मत करके अपने घर दीपावली पर आया वो भी बिना अपने माता पिता को बताए। अमर को पहले से ही पता था कि मां और पिता जी दोनों ही उससे नाराज हैं। इस कारण से वह अपनी पत्नी को  घर की गेट पर ही रोककर घर के अंदर दाखिल हुआ और जैसे ही काल बेल बजाया तो उनकी माता जी ने दरवाजा खोला तो एकाएक अमर को देखकर वो अवाक सी हो गई और पता नहीं उनको ये याद था कि नहीं कि अमर ने एक गोरी लड़की से विवाह कर लिया है जो उनके नाराजगी का मूल कारण था अमर से। जैसे ही अमर अपनी माता जी का पैर छूने के लिए झुका उसको उसकी माता जी ने गले लगा लिया और भावनाओं का ऐसा बहाव चला कि मां का कंधा भीग गया तो अमर का शर्ट, शायद यह एक दूसरे से गीले सीकवे दूर होने की निशानी थी या एक मां का अपने बेटे से तो एक बेटे का अपने मां से इतने सालों के बाद मिलने के कारण भावनाओं का अतिरेक था। जब दोनों ने अपने को कुछ सम्हाला तो एकाएक उसकी मां को अमर की पत्नी की याद आई उसने अमर की ओर देखते हुआ पूछा कि बहू कहां है, बहू साथ नही आई है क्या। मां वो भी साथ आई है  लेकिन वो गेट पर ही रुकी हुई है, अरे बेशर्म तू बहू को गेट पर खड़ा किया हुआ है तुझे शर्म नहीं आ रही है घर की बहू गेट पर खड़ी हुई है। नहीं मां वह खुद ही घर में आने से डर रही थी। अरे वो इस घर की बहू है इस घर की इज्जत है और तू उसे गेट पर खड़ा करके चला आया है। कुछ दिनों पहले तक या यों कहें कि अमर का अपने मन के मुताबिक गोरी मेम से शादी कर लेने के कारण मां और बाप के मन में उसके प्रति जो नफरत कि ज्वाला पैदा हो गई थी वो उसके एक मुलाकात के साथ ही प्रेम में बदल गई थी। हमारे जीवन में ऐसे ही बहुत समय होता रहता है जब अपने बहुत ही नजदीकी व्यक्ति से किसी बात पर विवाद हो जाए या कभी किसी बात पर विभेद हो जाए तो बिल्कुल ही उधर से मुंह मोड़ लेते हैं,लेकिन जैसे ही  हम अपने मन में प्रेम का भाव भरकर उनसे मिलते हैं तो सारे गिले सिकवे दूर हो जाते हैं। इस बात का एहसास लगभग सभी व्यक्तियों में है लेकिन अपना अहम पहले कौन तोड़े इस भाव ने आज तक कितने रिश्तों को तोड़कर रख दिया है।

    इधर अमर अपनी पत्नी को गेट पर खड़ा करके घर के अंदर जैसे ही दाखिल हुआ उसकी पत्नी उत्सुक होकर घर के अंदर वहीं खड़े खड़े झांक कर देखने लगी कि देखें किससे मिलते हैं और इनका स्वागत कैसे किया जाता है या अभी भी मेरे कारण मां और पिता जी नाराज हैं। उसने देखा कि अमर के द्वारा कॉलबेल दबाने पर जैसे ही किसी महिला (शायद वो माता जी ही थी) ने दरवाजा खोला और जैसे ही झुक कर उस महिला का पैर छूने को हुआ तो उस महिला ने अमर को अपने गले से लगा लिया, यह उसके लिए एक आश्चर्य मिश्रित घटना थी जिसमें  औपचारिकता का कोई स्थान नहीं था, लगता था कि जैसे मां और बेटे में प्रेम की वर्षा हो रही थी। आज तक उसने अमेरिका में औपचारिकता को ही संबंधों में महशूश किया था जहां संबंधों में मधुरता व प्रेम न होकर प्रेम प्रदर्शन ही ज्यादा होता है। अब अमर की पत्नी सोफिया को विश्वास हो गया था कि मां की नाराजगी  हम लोगों से दूर हो गई है।

    इस तरह के कुछ और तरह - तरह के विचार सोफिया के मन में चल रहे थे कि इतने में क्या देखती है कि मां और अमर की छोटी बहन दो थाली में थोड़ा पानी और फूल डालकर सोफिया के सामने उपस्थित हुए, अभी सोफिया कुछ समझ पाती कि अमर की बहन माधवी ने अपनी भाभी को गले लगा लिया, माधवी के द्वारा अपने भाभी को इस तरह से गले लगाने पर सोफिया दूसरा हाथ अपने बच्चे से छुड़ाकर कर माधवी से कुछ इस तरह से आलिंगन बद्घ हुई कि जैसे लग रहा था वो इस छड़ के लिए प्यासी थी। माधवी का एक तरफ का कन्धा भीग गया तो सोफिया का दूसरे तरफ का कन्धा भीग गया। थोड़ी देर बाद वो दोनों कुछ संयत हुई तो सोफिया अपने को सम्हालते हुए मां का पैर छूने के लिए आगे बढ़ी तो मां ने अपनी बहू को गले से लगा लिया और बोलने लगी यह दिन देखने के लिए आंखे तरस रही थी, और दोनों ने एक दूसरे ऐसे पकड़ कर गले लिया जैसे कोई मां और बेटी बहुत दिनों के बाद मिले हो। इधर अमर की बहन माधवी अमर के छोटे बेटे को गोद में लेकर तो बड़े बेटे के बालो व गालों पर हाथ फेरते हुए उनसे पूंछ रही थी कि अपने बाबा, दादी व बुआ से मिलने का मन नहीं हो रहा था क्या? इधर दोनों बेटे के लिए यह कौतूहल भरा दृश्य था। इतनी आत्मीयता और इतना प्रेम किसी बाहरी व्यक्ति या सगे संबंधियों द्वारा पहली बार महशूस हो रहा था। बच्चे भी प्यार को बहुत ही अच्छी तरह महशूस करते हैं और ये इन बच्चों के द्वारा महसूस किया जा रहा था। उधर अमर खड़ा - खड़ा अपने को कोश रहा था कि मैं क्यों नहीं पहले मिलने वहां से आ सका क्या होता बहुत होता माता जी और पिता जी थोड़ा नाराज ही न होते।फिर नाराजगी अपने आप ही धीमे - धीमे मेरे और सोफिया के अच्छे व्यवहार से दूर हो जाता। माता पिता अपने बच्चे को तो वैसे ही खुश देखना चाहते हैं उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है जैसे उनसे उनके बच्चें हंस कर दो शब्द बोल  दें उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है।इधर अमर के मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे कि अभी पिता जी से मिलेंगे तो उनका सामना किस तरह से करेंगे।

    उधर अमर की मां और उसकी बहू कुछ संयत हुई तो माधवी बोली आओ भाभी चलो घर में चले अपना पैर इन दोनो थाली में रख कर चलना, ससुराल में पहली बार बहू का पैर जमीन पर नहीं पड़ना चाहिए इसलिए अपना पैर इन थालियों में ही रखकर चलना। इस तरह थाली में पैर रखते हुए बहू घर के अंदर दाखिल हुई। मां ने अमर और बहू से बोला कि जल्दी से स्नान इत्यादि करके तैयार हो जाओ अभी तुम्हारे पिता जी भी आ रहे होंगे।इधर बेटे और बहू, ईशान और शशांक को लेकर स्नान इत्यादि करने चल दिए और उधर थोड़ी ही देर में अमर के पिता जी ने दरवाजे पर दस्तक दी।

         जैसे ही अमर के माता जी ने दरवाजा खोला, अमर के पिता जी ने प्रशनभरी नजरों से देख कर पूछा कि कोई आया है क्या, हां लेकिन मै अभी नहीं बताऊंगी, पहले आप अनुमान लगाइए और बताइए कौन है। मै ऐसे कैसे अनुमान लगा सकता हूं, लेकिन एक बात मै तुमसे सत्य में बोलता हूं आज ही भोर में मैंने सपना देखा है कि अचानक अमर घर पर बिन बताए ही आया है और तुमसे गले मिलकर तो मेरे चरणों पर गिर कर क्षमा प्रार्थी के भाव से बोल रहा है कि आप दोनों लोग मुझे क्षमा करिये, मै बस इसी कारण से घर पर नहीं आ रहा था कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं। तो मै उससे गले लगा कर  बोल रहा हूं कि कैसी नाराजगी बरखुरदार यह मेरे लिए कितने गर्व की बात है तूने जिसका एक बार हाथ पकड़ा कितनी भी विकट परिस्थिति आई, तूने उसका हाथ नहीं छोड़ा। तुम तो उसकी बहू को देखकर फूले नहीं समा रही हो। पता नही यह बात कितना सत्य है या होगा मै नहीं जानता। यह लो श्यामा ( अखंड बाबू की पत्नी) उधर से आ रहा था तो गणेश मिष्ठान भंडार से थोड़ा मीठा लेते आया था। आप का सपना बिल्कुल ही सत्य है। अमर और उसकी पत्नी तथा दोनों हमारे फूल से पोते भी आए हैं।अपने पोतों को देखकर मेरी आत्मा गौरवान्वित हो रही थी, सही बता रही हूं कि मैं अपने गोद से उनको छोड़ना नहीं चाह रही थी । अभी इस तरह की वार्ता हो रही थी कि इसी बीच अमर और उसकी पत्नी बच्चों के साथ बैठक में प्रवेश करते हैं। जैसे ही अमर ने अपने पिता जी को देखा कुछ संकोच किन्तु सम्मान भरी नजरों से अपने पिता की ओर बढ़ा और अपने पिता जी का चरण छूने के लिए आगे झुका ही था कि पिता जी ने अमर को उठाकर गले लगा लिया और पीठ पर थपकी देते हुए तथा अमर का मुख अपने मुख के सामने करते हुए बोले कि याद नहीं आ रही थी क्या चलो मेरी याद नही तो अपने मां की तो याद आती रहती होगी। पापा अब न ही कुछ बोलिए जो भी गलती है वो मेरी गलती है। सोफिया का हाथ पकड़ लेने के बाद मुझे लगा कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं इसी डर के नाते मैं आ नहीं रहा था, जबकि सोफिया बार बार आप लोगों से मिलने का जिद्द करती रहती थी।
  वही जिद्द करके आप लोगों से मिलने के लिए लेकर आई है, मुझे तो फिर भी डर लग रहा था कि आप कुछ उसके सामने उसको लेकर अपनी नाराजगी न प्रकट करें। अभी दोनों लोगों के बीच ये आपस के गीले सिक्वे की वार्ता हो ही रही थी कि सोफिया अपने दोनों बच्चों के साथ आगे बढ़ी और अपने फादर इन ला ( ससुर ) का चरण स्पर्श करने हेतु आगे झुकी ही थी कि अमर बाबू ने बहू दूर हटते हुए बहू से बोले नहीं बेटी ऐसा नहीं, तुम लोगों को देखने के लिए ये आंखें तरस रही थी। ये पता नहीं किस पुण्य का प्रताप है कि बहू तुम लोगों के कदम बिना किसी आशा के अचानक ही इस घर में पड़े। इधर अखंड बाबू भावनाओं का अतिरेक अपनी बातों से प्रकट कर रहे थे, उधर उनके पोते अपने बाबा का चरण स्पर्श करने के लिए आगे बढ़े तो अखंड बाबू ने झुक कर दोनों को गले लगा लिया कि जैसे उनके जिगर का टुकड़ा मिल गया, और ऐसे ही कुछ देर तक सीने से चिपकाए रखा जैसे लगता था जिस सुख से आज तक वंचित रह गए थे उसको छोड़ना नहीं चाहते थे। यह सारा दृश्य सोफिया को हैरानी में डालने वाला था, क्योंकि अभी तक उसने जिस प्रेम को देखा था, अनुभव किया था उसमें दिखावटीपन और बुद्धिगत प्रेम ज्यादा था, उसमें इस तरह का आत्मीय प्रेम का कोई दर्शन न था। वह बार बार अपने को कोस रही थी मै क्यों नहीं अमर को लेकर यहां मिलने आ सकी मै इतने दिनों तक इस आत्मीय सुख से वंचित रही और मम्मी पापा को भी इस आत्मीय सुख से वंचित रखी,इस तरह के तमाम भाव सोफिया के मन में चल रहे थे।
      वह वहीं एक किनारे खड़े होकर अपने मन की इन भावनाओं से ओत प्रोत सी हो गई थी। अब उसकी स्थित ऐसी हो गई थी कि उसके कंठ और आखों में एक संग्राम सा हो चला था कि कौन पहले एक दूसरे पर विजय पाता है। अन्त में आसुओं ने विजय पाई। कुछ देर तक सोफिया ऐसे ही अपना शुद्ध बुध खोकर यों ही खड़ी थी कि माधवी कमरे में प्रवेश कर बोली कि आइए खाना तैयार है और जब वह अपने भाभी के तरफ मुखातिब हुई तो दखती है कि भाभी के आखों से आसूं झर रहें हैं,वह अपने भाभी के पास जाकर इन खुशी के आसुओं पोंछ कर भाभी को उसने गले लगाया तो भाभी उससे बोल पड़ी कि क्या बताऊं जिस सुख का मैं यहां आकर आनंद ले सकती थी और आप लोगों को आनंद दे सकती उस सुख से कितने सालों तक मैं वंचित रही और आप लोग भी वंचित रहे, वो भी केवल एक काल्पनिक डर के कारण, अच्छा भाभी अब चलिए डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं।
      जब सभी लोग डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने लगे तो अमर के पापा ने बहू की तरफ मुखातिब होते हुए बोला की बहू काल्पनिक भय ने इस दुनिया में रिश्तो के बीच में जो नुकसान पहुंचाया है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ठीक यही बात अमर और तुम्हारे साथ भी हुआ। हां जरूर शुरू में मैं अमर से नाराज था किंतु नाराजगी के बावजूद जब मैंने देखा की अमर ने तुम्हारा हाथ को नहीं छोड़ा तो मैं अंदर ही अंदर इतना खुश हुआ कि उसको मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूं। इसका कारण केवल एक और एक था कि सनातन संस्कृति में यदि आप एक बार जिसका हाथ पकड़ ले जीवनसाथी बनाने के लिए तो उसका हाथ कितना भी विकट परिस्थिति आये छोड़ना नहीं है, और इस बात को मैंने अमर में देखा यह मेरे को एक गौरवान्वित करने वाली बात थी। बहू इस बात को सनातनी शादी विवाह में भी देखा जा सकता है। जब शादी के मंडप में दूल्हा और दुल्हन का शादी की रस्में पूरी हो रही होती हैं तो वहां पर थाल में धान का भूना हुआ लावा रखा हुआ होता है जो इस बात को दर्शाता है कि कितनी भी विकट परिस्थिति आ जाए किन्तु जिसका आप ने हाथ थामा है उसको छोड़ना नहीं है, क्योंकि धान अर्थात पैडी को भूनने पर भी उसका छिलका लावे को छोड़ता नहीं है वो उसको पकड़े ही रहता है। वैसे भी सनातनियों में विवाह एक संस्कार है न कि एक समझौता है।
      अमर की बहन ने अपने पिता की बात को बीच में काटते हुए बोला कि पापा आप भी न भाभी को आज पूरे सनातन धर्म का पाठ पढ़ा देंगे। हमें भी भाभी से बात करने का समय दीजिए न। अरे क्यों नहीं और मै कोई पाठ नहीं पढ़ा रहा हूं बस एक तुक की बात आई तो मैं अपने मन की भावों को व्यक्त कर दिया और कोई बात न थी, अच्छा ठीक है अब तुम अपनी भाभी से बात करो। जैसे ही खाना खा कर डाइनिंग टेबल से उठे माधवी अपने भाभी को लेकर अपने कमरे में चली गई और दोनों आपस में एक से एक बात करने में मशगूल हो गई जैसे लगता था कि अरसे बाद दो सहेलियां मिली हो और उनकी बातों का ही अंत न हो। अच्छा भाभी ये बताओ कि भैया से आप कैसे मिली, मै नहीं बताऊंगी। नहीं आप को बताना पड़ेगा नहीं तो मै आप को छोडूंगी नहीं। अच्छा छोटी चलो जिद्द कर रही हो तो बताए  देती हूं।
     मेरे घर के बगल में एक भारतीय परिवार रहता था उनके घर मेरा आना जाना था। उनके पारिवारिक कार्यक्रमों में मेरा आना जाना रहता था, उन कार्यक्रमों और तीज त्यौहारों को मैं दिल से इतना पसंद करती थी कि उनको मै अपनी शब्दों में या फिर अपनी भावनाओं के द्वारा भी नहीं व्यक्त कर पाऊंगी। पता नहीं वो तीज त्यौहार वो पारिवारिक प्यार, परिवार का एक दूसरे के प्रति समर्पण ने क्या जादू कर रखा था कि मैं अनायास ही उन तीज त्यौहारों के प्रति दीवानी सी रहती थी कि उनमें शामिल होने के लिए व्याकुल से रहती थी और जबतक मै उसमे शामिल नहीं हो जाती थी तो मन में एक अजीब सी बैचैनी बनी रहती थी उसे मैं शब्दों में नहीं ब्यक्त कर सकती। होली, दीपावली और रक्षाबंधन की तो बात ही न पूछो। होली की हुड़दंग, दीपावली की जगमगाहट और खुशियों ने मुझको समोहित कर रखा था तो रक्षाबंधन का मुझे जैसे इंतजार सा रहता था, रक्षाबंधन वाले दिन मै भी अपने भाई को राखी बांधती थी और अभी भी बांधती हूं और खूब ढेर सारे गिफ्ट लेती हूं और साल भर के लिए बहुत सारे गिफ्ट का वादा भी करवा लेती हूं। कभी कभी मेरे दिल में ये बात आती थी कि काश मेरे वहां भी ऐसे ही तीज त्यौहार होते पर इस तरह के त्यौहारों का जैसे अभाव सा है जिसमें जीवंतता हो, एक दूसरे को ख्याल रखने के जज्बे हों। नहीं भाभी तुम मुझे बातों में उलझाओ नहीं, अपनी बातों को लम्बा करके मुझे छोटे बच्चों जैसे भूलवाने का प्रयास न करो। बस तुम मुझे ये बताओ कि तुम भैया से कैसे मिली, छोटी थोड़ा धैर्य रखो अभी बताती हूं, नहीं आप को अभी बताना होगा आप सोच रही होंगी छोटी को धर्म की अच्छी अच्छी बातों को बता कर बातों को लम्बा चौड़ा करते जाऊंगी और इसको नीद आ जाएगी तो इसके द्वारा पूछी गई बातें इधर से उधर हो गई ऐसा न होने पाएगा। छोटी मै तुझे पलझा या भूलवा नहीं रही हूं तुझे मै हिन्दू दर्शन व उन तीज त्यौहारों के बारे में बता रही हूं जिनके बारे में हमारे ही देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में एक दीवानापन सा है। मेरी बातों पर विश्वास करो यदि सामाजिक वर्जनाएं न हो तो बहुत से व्यक्ति अपने धर्म के साथ इस धर्म की आध्यात्मिकता और इसके तीज त्यौहारों को कबका आत्मसात कर चुके होते और कुछ तो सामाजिक वर्जनाओं के बावजूद भी इसकी बहुत सी बातों को आत्मसात कर चुके हैं। क्या छोटी कोई ऐसा भी धर्म है जो यह बताता हो कि सारा विश्व एक परिवार है, सभी लोग सुखी रहें सभी लोग निरोग रहें, मंत्रों के द्वारा ऐसी कामना करें। इसी तरह के दर्शन के कारण सनातन धर्म ने, अन्य धर्मों से उच्च स्थान पा लिया है।
      इस विश्व में तो ऐसे ऐसे मजहब हैं जो यह बताते हैं कि अगर उनका मजहब कोई नहीं मानता है तो उसे जीने का अधिकार नहीं है और शायद इसी लिए वो सारे विश्व में हमेशा मारकाट मचाए रहते हैं और वो लोग दिन रात इसी छल कपट में पड़े रहते हैं कि कैसे अपने मजहब का फैलाव करें, जिस देश में लोक तन्त्र है, वहां का परिवेश उनके लिए सबसे अनुकूल सा मिल गया है।  वहां पर वे अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर ध्यान देते हैं जैसे ही जनसंख्या थोड़ी ज्यादा हो जाती है वो लोग एक जुट होकर वहां के मूल निवासियों से मार काट व अदावत करने लगते हैं जब तक कि उस देश में अपना मजहबी कानून न लागू करवा लें।
      छोटी सनातन या फिर कहो हिन्दू धर्म की बस एक ही बुराई के बारे में मैंने सुन रखा है, और वो  है जात - पात यहां पर कुछ लोग ऊंची जाति के हैं तो कुछ लोग नीची जाती के हैं और वो आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर खाते पीते नहीं हैं, इसी कारण से इस धर्म का इंडिया में पतन होता जा रहा है जबकि हमारे अपने देश अमेरिका में हिंदुओं को ये पता ही नही है कि वो किस जाति के हैं वो बस एक अच्छे इंसान हैं और यही उनकी पहचान है और वो आपस में ही नहीं सारे अमेरिकन के साथ ऐसे घुल मिल कर रहते हैं जैसे मिल्क में सुगर मिल जाता है और दूध को ऐसा स्वादिष्ट बना देता है कि लोग उसके बिना दूध नहीं पी पाते हैं। ठीक ऐसे ही अमेरिकन भी अब हिन्दुओं के बिना और हिन्दू जीवन शैली व दर्शन के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। भाभी तुम ठीक बोल रही हो यहां पर अभी भी जात -  पात का भेद भाव है लेकिन पहले से बहुत ही कम हुआ है लेकिन मुझे अभी भी लगता है इसको दूर करने के लिए हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को काफी काम करने की आवश्यकता हैं। मुझे लगता है कि इसके धर्म ग्रंथो में यदि कुछ विभाजनकारी बातें लिखी हुई हैं तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए। लेकिन यदि कुछ प्रबुद्ध जन धर्म ग्रंथों में लिखी हुई  विभाजनकारी जानकारी बातों को हटाना चाहते हैं, तो कुछ स्वयंभूत धर्म के धर्माधिकारी उन विभाजनकारी बातों को हटाने का विरोध करने लगते हैं, यह एक बहुत बड़ी बाधा बनकर खड़ी हुई है, धार्मिक सुधारों व विभाजन कारी बातों के विरुद्ध, समाज के रूढ़ियों को तोड़ना इतना आसान काम नहीं है फिर भी कुछ धर्म सुधारक और समाजसेवी व्यक्ति और संगठन इसको हटाने के प्रयास में जुटे हुए हैं आज नहीं तो कल सफलता अवश्य मिलेगी फिर देखना भाभी यह धर्म विश्व गुरु का दर्जा अवश्य ही पाएगा। चलो छोटी तुम्हारी कही हुई बातें सत्य हो ऐसी मैं आशा करती हूं और विश्व का कल्याण हो।चलो  भाभी अब तो बताओ मेरी पूछी बातों का जवाब दो, हां - हां जवाब देती हूं। लेकिन सही बात बताऊं मुझे बताने में शर्म सी आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, छोटी चलो सोते हैं नीद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, नहीं अब सो जाओ मुझे नींद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा अच्छा लो सुनो, बात ऐसी है कि एक बार मेरे घर के बगल के घर में मैरेज का कार्यक्रम था उसमे हमारा परिवार भी आमंत्रित था। उस मैरेज सेरेमनी में हमारे पूरे परिवार को वहां हो रहे रिचुअल्स ने जैसे सम्मोहित सा कर दिया। और मेरे मन मस्तिष्क में कहीं न कहीं ये बात घर कर गई थी कि मेरी भी मैरिज इसी रिचुअल्स से होता तो कितना अच्छा होता। और शायद यह ईश्वर का लिखित विधान था कि उसी मैरेज सेरेमनी में तुम्हारे भैया अमर भी आए थे। जब जयमाल की सेरेमनी हो रही थी तो मेरे फ्रेंड ने अमर से परिचय कराया तो मैं अमर से सेक हैन्ड करते हुए उसे एक बुत की तरह निहारे जा रही थी, कुछ क्षणों के पश्चात जब मैं इस अवस्था से बाहर निकली तो अपने ऊपर लज्जा का भाव अनुभव करते हुए कुछ औपचारिक बातें करते हुए हम दोनों शादी में हों रहे तमाम रिचुअल्स को साथ- साथ देखने में मसगूल हो गए। इसके साथ ही मैं अमर से वहां हो रहे रिचुअल्स के बारे में कुछ पूछती तो अमर रिचुअल्स के महत्व और उनकी प्रसंगिकता का समय-समय पर वर्णन करते जाते थे। मैं उनकी बातों को सुनकर इतना मुग्ध थी कि मैं उसका वर्णन न कर पाऊंगी। इसके पश्चात हम दोनों ने एक साथ डिनर किया। फिर काफी रात को अपने अपने घर को लौट आए।
      किन्तु इस दिन के पश्चात मुझे लगा जैसे अमर के व्यक्तित्व ने मुझे सम्मोहित सा कर लिया है। मैं उससे बात किए बिना रह ना पा रही थी, जैसे लगता था मेरा चैन कहीं खो गया है, मेरी मन की शांति उसके सांसों में बसती है, उसके दिल में बसती है। मुझे लगता था मैं उसके बिना रह ना पाऊंगी। किंतु मैं ऐसा महसूस करती थी कि अमर मुझसे बात करने में झींझक महसूस करता है। वह जल्दी से मुझसे बात करके छुट्टी पा लेना चाहता था। उसका यह शर्मिला व झिझक भरा व्यवहार मुझे और उसकी तरफ आकर्षित करने का कार्य करता था। वह मुझसे जितना दूर जाने का प्रयास करता था, मैं उसकी ओर  उतनी ही बढ़ती जाती थी, आकर्षित होती जाती थी। यह इत्तेफाक था या यों कहिए कि यह ईश्वर का एक विधान था की मेरा और अमर का घर एक ही रास्ते पर था तथा ऑफिस भी उसके ऑफिस के बगल में ही था। अब मेरा मन बातचीत से ही न भरता था, अब मुझे उससे मिले बिना चैन भी ना मिलता था। अब मैं ऑफिस से जल्दी सें निकल कर उस बस स्टॉप पर  पहुंच जाया करती थी, जहां से अमर भी घर लौटने के लिए बस पकड़ते थे। हलांकि हमारा अमर के साथ इस तरह साथ आना जाना, उनका शर्माना, झिझकना, नजरों का झुका होना मैं स्पष्ट रूप से महसूस करती थी। और यह व्यवहार मुझे और भी रिझाती थी। इस तरह कुछ दिनों के बाद मैं ऐसा महसूस करने लगी कि मैं अमर के बिना रह न पाऊंगी, उनके बिना जीवन की कल्पना करना, किसी मछली को पानी से निकाल लेने के समान था। इस तरह मैंने अपने मन को मजबूत करके एक दिन मैंने अपने मन की बात को अमर के सामने रखा कि अमर क्या मुझे अब भी अपनी बातों को और ज्यादा खुलकर के थे रखना पड़ेगा, क्यों मेरे तरफ से इतना मुंह मोड़े रहते हो, क्यों मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो।    मुझे कई बार ऐसा महसूस होता है की मैं अंग्रेजीन हूं, क्रिश्चियन हूं, इस कारण से भी तुम मुझसे मुंह मोड़े रहते हो। हां मैं मानती की  कि मैं जन्म से क्रिश्चियन हूं, अंग्रेजीन हूं और यह सही भी है लेकिन  यह भी जान लो कि मन से तुमसे ज्यादा हिंदू होऊंगी। अब तुम चाहे जो कुछ भी समझो अब मैं तुम्हारे बिना एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती, मेरा एक - एक पल एक - एक युग के समान बित रहा  है और तुम्हें क्या बताऊं। पहले तुम्हारे धर्म ने और अब तुमने मुझ को सम्मोहित सा कर दिया है अब इस जीवन में मै तुम्हारे सिवाय और किसी की कल्पना भी नहीं कर सकती हूं। नहीं तो यह जीवन ऐसे ही अकेलेपन में कटेगा। अमर तुम कुछ बोलते क्यों नहीं कुछ तो बोलो....., अमर ने बीच में बात काटते हुए बोला कि सोफिया तुम समझ रही हो क्या बोल रही हो। हिंदू धर्म में शादी, विवाह कोर्ट में, या किसी जमात के सामने किया गया समझौता नहीं है। यह मन से स्वीकारा हुआ सात जन्मों का बंधन है, हम लोगों का ऐसा विश्वास है यह बंधन बस इसी एक जन्म भर के लिए नहीं है, यह जन्म जन्मांतर का बंधन होता है, इसके अलावे हम लोगों का ऐसा विश्वास है कि जोड़ी ईश्वर के द्वारा बनाया गया है, यहां पर विवाह हम लोगों को मिलाने का एक माध्यम है, और यह जन्म जन्मांतर के लिए होता है। इस जन्म के बाद भी जब भी हम लोग इस धरती पर आएंगे फिर इसी तरह बंधन बधकर बंधन को निभाएंगे ऐसा हम लोगों का विश्वास है। अमर तुम्हारे कहने का आशय क्या है, मैं समझी नहीं। मेरे कहने का आशय तुम भी खुब समझ रही हो। अमर तुम्हें जो कुछ भी बात बोलना हो उसे स्पष्ट बोलो उसे फ्रेजल वाक्य ( मुहावरे युक्त वाक्य) के रूप में न बोलो। मेरे कहने का आशय तुम खूब समझ रही हो, तुम देखती नहीं हो कि यहां पर आज जो भी मैरिज होता है पता नहीं है कितने दिन के लिए हो रहा है। पता नहीं यहां के लोग  किसी के साथ स्वार्थ बस मैरिज के बंधन में पड़ते हैं या फिर शारीरिक आकर्षण से यह तो वही लोग जानते होंगे। कारण जो कुछ भी हो लेकिन यहां का मैरिड लाइफ में बहुत ही अस्थिर देखता हूं।

      तो इस कारण से तुम मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो आज मुझे समझ आया। नहीं यह बात नहीं है एक बात मेरे मन में थी वह मैंने तुम्हारे सामने रखा, इसको अपने संदर्भ में न लो, जो यहां के समाज में मैं देखता हूं वही बात मैंने तुम्हारे सामने रखी है और इसको रखने का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना या किसी समाज को किसी समाज से उच्च बताना नहीं है बल्कि इन क्रियाओं को देखकर मुझे आश्चर्य होता है कि एक सभ्य समाज में कैसे इस तरह की बातें स्वीकार है। रही तुम्हारे साथ शादी की बात तो मैं अपने मन की बात तुमसे साझा करना चाहता हूं कि जब तुम मुझसे पहली बार मिली तो मुझे लगा कि ईश्वर ने मुझे उस लड़की से मिलवाया जिसका मुझे आज तक इन्तजार था लेकिन संकोच वश मैं तुमसे अपनी इस बात को प्रकट ना कर सका, मेरे फादर की यह इच्छा है की मेरी शादी उस लड़की से करेंगे जो व्यवहार में मेरी बहन माधवी की तरह होगी और मैं अपनी बहन का दर्शन मैं तुम्हारे मे करता हूं।

      भाभी तुम भी ना मुझे बनाओ नहीं...., छोटी मैं तुम्हें बना नहीं रही हूं अमर के द्वारा कहे गए शब्दशः बातों को तुम्हारे सामने बोल रही हूं। अच्छा ठीक है भाभी और आगे बताओ, और आगे क्या बताना है इसके बाद तुम सारी घटनाक्रमों को जानती ही हो मेरे फादर - मदर तथा ब्रदर जैक के द्वारा मेरी अमर से शादी के लिए बार - बार आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा बार-बार इंकार करने पर तथा कई बार अमर के द्वारा भी पापा व मम्मी से आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा इंकार कर देने पर तथा मेरे द्वारा अमर से तथा अपने फैमिली में यह स्पष्ट बता देंने पर कि मैं जब भी मैरिज करूंगी अमर के साथ नहीं तो बिना मैरिज के ही लाइफ गुजारूगी। इस कारण से अमर भी मजबूर होकर मेरे साथ शादी के बंधन में बंधने को बाध्य हो गया। और एक बहुत ही साधारण से समारोह में हम दोनों शादी के बंधन में बंध गए। बहन देखना इस घर की किसी परंपराओं का यदि मेरे द्वारा अनजाने में कोई उल्लंघन होता हो, तो तुम मुझे वहीं टोंक देना, मैं सोचती हूं कि मुझसे अनजाने में कोई गलती ना हो जाए और मम्मी पापा के भावनाओं को  कोई ठेस लग जाए। मम्मी पापा मेरे में ठीक तुम्हारी ही छवि का दर्शन करें और अमर के चुनाव पर गर्व कर सकें। ठीक है भाभी तुम डरो नहीं तुमसे कोई गलती नहीं होगा, तुम देवी हो, पूज्यनीय हो। मै तुम्हारी बातों से, तुम्हारे अभी तक किए गए व्यवहारों के द्वारा  समझ गई हूं और मम्मी पापा भी इन बातों को अच्छी तरह समझ गए हैं। अच्छा चलो अब सोते हैं।

      इसी तरह कुछ दीपावली की तैयारी में तो कुछ आपसी बातचीत हंसी मनोरंजन में दस दिन का समय कब बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। ग्यारहवें दिन दीपावली का त्यौहार था सुबह से घर पर एक से एक अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर व  विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य व्यक्तियों, के साथ मेहनतकश मजदूरों, कामगारों का जैसे तांता लग गया था। कोई भी आता पहले अखंड बाबू का चरण स्पर्श करता और कुछ ना कुछ उपहार स्वरूप मीठा इत्यादि भेंट भी करता जाता था। अखंड बाबू इधर मीठा लेत और उधर मजदूरों, कामगारों, मेहनतकशों को उपहार स्वरूप मीठा देकर विदा करते जाते थे। यह लोग  बाबू के द्वार पर हर तीज त्योहार पर बाबू से मिलने अवश्य ही आते थे। वो किसी आशा या लालच में बाबू से मिलने नहीं आते थे। बल्कि बाबू का निश्चल प्रेम, बाबू के द्वारा समय-समय पर उनकी सहायता करना, उनके बच्चों के पढ़ाई लिखाई का प्रबंध करना इत्यादि कार्यों के कारण उनका बाबू से ऐसा भावनात्मक लगाव हो गया था की वो अपने को तीज त्यौहार व सामान्य अवसरों पर बिना बाबू से मिले रह न पाते थे। अखंड बाबू आने जाने वाले गणमान्य व सामान्य व्यक्तियों से अमर का परिचय करवाते जाते थे। इन लोगों से बातों बातों में अमर अब जान चुका था की उसके पिताजी ने इन लोगों के लिए कितना त्याग भरा कार्य किया है, जहां समाज में एक से एक अच्छे लोग किसी गरीब गुरबा के लिए एक पैसा न खर्च करते हों वहां इतने परिवार को बच्चों को न केवल पढ़ाना लिखाना बल्कि समय-समय पर उनकी सहायता करना एक संत सरिखा, निस्वार्थ कार्य उनके पिता के द्वारा किया जाने से अमर अपने पिता के प्रति जिस गर्व का अनुभूत कर रहे थे इसका जबान से वर्णन करना जबान को लज्जित करने के सामान था।

      दीपावली के अगले दिन जब सोफिया और अमर सबके साथ नाश्ते कर कर रहे थे तो सोफिया ने अपने सास-ससुर की तरफ मुखातिब होते हुए बोली कि मम्मी पापा मुझे गर्व है कि मैं इस परिवार की बहू हूं ढेर सारी सुखद यादों को लेकर कल अमेरिका चली जाऊंगी। ये सुखद यादें मुझे वहां भी गर्वानीत  करती रहेंगी, मैं इसे ईश्वर का आशीर्वाद समझती हूं कि मुझे उसने आप लोगों की बहू बनाया। नहीं बहू ऐसे न बोलो पता नहीं किस अच्छे कार्य या पुण्य का  फल है कि हम लोगों की तुम बहू बनी।

      जिस दिन अमर, बहू व बच्चों के साथ वापस अमेरिका जाने के लिए निकल रहे थे केवल परिवार के लोगों के ही आंखों में ही आसूं न था, लग रहा था जैसे घर भी रो रहा था और पूछ रहा था भैया अब कब आओगे। जब अमर परिवार सहित हवाई अड्डे पर पहुंचे तो उन लोगों को वहां पर विदा करने के लिए पहले से ही सैकड़ों शुभचिंतक मौजूद थे। यह सारे लोग शायद अखंड बाबू व अमर को सर प्राइस देकर विदा करने के लिए एकत्रित थे। अमर सबसे हाथ मिलाते हुए और सोफिया हाथ जोड़कर और आंखों में खुशी व कृतज्ञता का आंसू लेकर तथा हाथ हिलाकर विदाई का संकेत देते हुए एयरपोर्ट की अंदर चलें गये। अखंड बाबू की
 सहज बुद्धि उनको बता रही थी यह सब कुछ केवल और केवल समाज के गरीब दबे कुचलों  के सेवा का प्रतिफल है।


यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।

गोविंद प्रसाद कुशवाहा

   

   

   

   

   

 

   









Thursday, April 9, 2020

कन्याभोज का प्रसाद

यदि व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक पैसा, नवसंबृद्धि व नवधनाढपन आ जाए और उसके साथ यदि धार्मिक बुद्धि का जुड़ाव न हो तो शायद यह सम्बृद्धि अपनों से ही इतना दूर कर देता है कि अपने भी पराये लगने लगते हैं। इसी तरह के लोगों की अधिकता से भरपूर नव निर्मित गोमती विहार कॉलोनी विकसित होकर अपना बृहद आकर लेने के क्रम में अग्रसर थी। इस कालोनी में एक से एक आलीशान मकान उसमे रहने वालों के वैभव  का बखान कर रहे थे। तो उनका पहनावा इत्र फूलेल व गहने आदि उनके शान ओ शौकत का बखान करते रहते थे।
 इस कालोनी के वासी अपने को एक दूसरे से किसी भी मायने में अपने को कमतर नहीं आकते थे।क्या मजाल कि कोई अपने गेट से बाहर निकले और अपने अड़ोस - पड़ोस वाले की तरफ नजर उठाकर अभिवादन के दो शब्दों को बोल दे। बोलना तो दूर अगर नजर मिल गया तो हाथ हिलाना भी एक दूसरे को गवारा तक न था। उनका एक दूसरे से मिलना किसी तीज त्यौहार या फिर कालोनीवासियों के निश्चित मीटिंग के दौरान ही होता था। इस तरह के मिलन में मिठास कम तो दिखावटी गर्म जोशी व औपचारिकता ज्यादा होती थी।
  उस कालोनी में जहां के मकान, सड़क, छोटे - मोटे  हॉट बाज़ार और शाम को हॉट बाज़ार में आने वाले लोग उस कालोनी के निवासियों के वैभव की गाथा गाते थे तथा दर्शन कराते थे, उसी कालोनी में खाली प्लाटों पर जगह - जगह झुंगी झोपड़ियां  दिखती रहती थी। जो उसमे रहने वालों की  दूर्भिक्षिता को दर्शाती रहती थी। क्या जाड़ा क्या गर्मी उसमे किसी भी मौसम में सुख का अनुभव नहीं किया जा सकता था, वर्षा के मौसम का कहना ही क्या था उन दिनों में वहां  दुर्भिक्षिता ही दुर्भिक्षिता दिखती थी।  वो उन्हीं लोगों का निवास स्थान था जो यहां रहने वाले वैभवशाली लोगों के लिए अपने कमजोर से दिखने वाले कंधो पर ईट, बजरी, बालू, मोरन,सीमेंट, पटरा और बल्ली ढोकर इन आलीशान महलों का निर्माण कार्य को पूरा करते थे। लेकिन उनके खुद के भाग्य में झोपड़पट्टी भी नहीं बल्कि पन्नीपट्टी ही लिखा था। फिर भी उसमें रहने वाले उनके बच्चे उन्हीं झूंगी झोपड़ियों में ही खुश नजर आते थे। उनके छोटे - छोटे बच्चों की सुबह सुखी रोटी से शुरू होती और दिन अपने मां बाप के इर्द गिर्द बीतता था। उनकी माएँ दिन भर गारा मिट्टी व बालू ढूलती थी तो उनके बच्चों को वही गारा मिटटी में खिलौनौ का दर्शन होता था, और उसी में खेलते हुए उनका सुबह से शाम हो जाता था न तो उनको और न ही उनके  मां - बाप को समय का पता चलता था कि सुबह से कब शाम हो गया। और फिर शाम को वो समय हो जाता था जब चिड़िया भी अपने घोसालों की तरफ लौटने लगती हैं तो ठीक उसी समय वो भी अपने घारौदों की तरफ लौटते हुए आटा,  चावल - दाल, नमक, तेल का खरीदारी करते हुए अपने घरौदों पर लौटते थे। चाहे कितना भी गर्मी या ठंडक हो यही उनकी दिनचर्या होती थी। इस तरह रात का खाना-पीना बनाना खा पीकर सो जाना फिर सुबह इसी तरह एक नये दिन के दिनचर्या  शुरुआत होती थी। फिर वही कार्य वहीं दिनचर्या यह उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया था जैसे लगता था उनके तथा उनके बच्चों के जीवन में पढ़ाई - लिखाई, अमोद - प्रमोद व मनोरंजन का कोई स्थान ही नहीं था। उन लोगों का यह हाल उस कॉलोनी में था जहां रहने वाले नव धनाढ्य व पुस्तैनी धनाढ्य लोगों का जीवन अमोद - प्रमोद व विलासिता से भरा हुआ था।
   मनुष्य का जीवन इतनी काल्पनिक विश्वासों से भरा हुआ है कि तार्किक व्यक्तियों की सोचने की सीमा के बाहर जान पड़ता है। तार्किक व्यक्ति जहां हर बातों व घटनाओं को अपने तर्क की कसौटी पर कसता है और धार्मिक व्यक्ति के कर्मकांडो को निरा मूर्खतापूर्ण ही लगता है। वहीं धार्मिक व्यक्ति को अपने कर्मकांडो पर इतना विश्वास है कि उसे लगता है कि यदि उसने  अपने  धार्मिक कर्मकांडो का अनुपालन नहीं किया तो उसे लगता है कि उसे ईश्वर की नाराजगी के साथ समाज की भी नाराजगी झेलनी पड़ेगी और सामाजिक प्रतिष्ठा का नुकसान होगा जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी। यदि ईश्वर नाराज हो कर कुछ ऐसा अनिष्ट कर दे जिसकी भरपाई न हो सके तो सारा जीवन ही बेकार हो जाएगा। अनिष्ट की ये आशंका बहुत कुछ अनिच्छा पूर्वक करने के लिए मजबूर कर देती है तो बहुत धार्मिक कर्मकांड भविष्य में ईश्वर को प्रसन्न करके लाभ पाने की इच्छा कराती है।
   इन सब आशंकाओं, आशाओं व लालसाओं से युक्त इस  कॉलोनी में कई कई ऐसे परिवार रहते थे जो समय समय पर अपने तीज त्यौहारों व पर्वों को मिल बैठकर साथ मनाने का प्रयास करते थे। ऐसा ही एक पर्व नवरात्र पड़ा जिसमें कॉलोनी वासियों ने मां दुर्गे की प्रतिमा कॉलोनी में सामूहिक रूप से स्थापित करने के साथ-साथ अपने घर पर भी मां की पूजा की कलश की स्थापना की और  विधिवत विधि विधान से नौ दिन तक मां की पूजा अर्चना की और जितने भी रीति रिवाज, कर्मकांड थे सबको पूर्ण रूप से विधि विधान  अनुपालित  किए। रीति रिवाज, विधि विधान को अनुपालित करने में कोई भी कोताही कलश स्थापित करने वाले परिवारों ने न उठा रखी थी समस्या तब उत्पन्न हुई जिस दिन कन्या भोज का आयोजन किया जाना था। उसके एक दिन पहले जब कन्याओं को भोज के बारे में बोले जाने का समय आया। इसके लिए धार्मिक विधान के अनुसार नौ कन्याओं को भोज करना आवश्यक था किंतु ढूंढने पर कॉलोनी में कुल एक या दो कन्याओं की व्यवस्था हो पा रही थी। आश्चर्य की बात ये थी कि इस कालोनी के इतने वैभवशाली व आलीशान मकानों व महलों में केवल तीन से चार व्यक्ति ही रहने वाले थे। किसी परिवार में माता-पिता के अलावा एक बेटा तो किसी के वहां दो बेटा तो किसी का एक बेटा और एक बेटी थी। उस कॉलोनी में किसी भी ऐसे परिवार का दर्शन नहीं हो पा रहा था जिसकी की दो बेटियां हो। लोगबाग अपने परिचितों में आसपास के लोगों में कन्या  भोज करवाने हेतु कन्याओं को ढूंढ रहे थे। किंतु आसपास व परिचय में कन्या हो तब तो मिले अधिकतर लोगों के घर जो उनके घर के अगल गिर, बगल गीर के घर थे उनमें केवल एक या दो कन्याएं ही मिल पा रही थी। कन्या मिले भी कैसे जो समाज कन्याओं को बोझ समझता हो उनके घर में कन्या जन्म ही कैसे ले सकती है। हो भी ऐसा ही रहा था। कालोनी में पांच घर सात घर छोड़कर किसी एक घर में कन्या मिल जाती थी।
   अब कर्म कांड और रीति रिवाज पूर्ण न  कर पाने में समस्या आ खड़ी हुई थी। परिचितों से पूछताछ करने और  तमाम तजवीज करने पर भी जब कोई भी ऊपाय न बनता दिखा तो पंडित जी ने यजमान को ( अखंड प्रताप सिंह यही यजमान का नाम था) सलाह दिया कि क्यों न इन झोपड़पट्टियों से मजदूरों की कन्याओं को बुलाकर भोज करवाया जाए। अखंड बाबू किसी भी  कन्या में देवी का वास होता है चाहे वह अमीर की हो या फिर किसी गरीब की हो।  इससे इन गरीब कन्याओं को कम से कम एक समय अच्छा भोजन मिल जायेगा। भूखे को भोजन कराने से एक तरह से आप को कई गुना पुण्य लाभ होगा और यजमान के द्वारा कन्या भोज  का भी पुण्य लाभ भी मिल जाएगा।
   पहले तो अखंड बाबू को इस बात में अपनी हेठी नजर आ रही थी कि कोई मजदूर या उनके घर में आकर बर्तन धुलने वाली  की कन्या उनके घर में आकर भोजन करे ( उन्हीं मजदूरों की औरतें या बेटियां कालोनी के घरों में बर्तन धुलने का कार्य भी करती थी ) और वो सम्मान से उसको भोजन कराएं उसके पैर छुए यह उनके सामाजिक  सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान था किन्तु कोई काम न बनता देख और बहुत सोच विचार करने के बाद कि यदि पूजा विधि विधान से पूर्ण न हो पाए तो कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़ जाए, तमाम उधेड़बुन और पंडित जी के बातों पर गौर करने पर अखंड बाबू इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन झोपड़पट्टियों की कन्याओं को विधिविधान से भोज करवाया जाए। जहां अभी तक अखंड बाबू के राजसी मन में अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के नफे नुकसान को ध्यान में रखकर इन गरीब कन्याओं के भोज कराने में हिचकिचाहट थी तो अब उसी अखंड बाबू के दिल में पूजा पाठ को विधिविधान से पूर्ण करने की लालसा या फिर पंडित जी के सलाह ने उनके अंतरात्मा मैं एक परिवर्तन का भाव को जागृत कर दिया था।
   उसी शाम अखंड बाबू पण्डित जी के साथ आस पास के सभी झोपड़पट्टियों में जाकर उसमें रहने वाली  कन्याओं को कन्या भोज के लिए आमंत्रित करने के लिए पहुंचे तो झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर अखंड बाबू अंदर से इतने द्रवित हो गए कि लगता था जैसे उनके कंठ में नमक का रोड़ा अटक गया हो,शायद लगता था उनका कंठ अवरूद्ध हो गया था। लगता था उनके बुद्धि को लकवा मार गया हो और हत बुद्धि से होकर बाहर ही खड़े होकर ऐसी दशा में आ गए थे कि उनके आंखों के आसूं और कंठ की बोली में एक संघर्ष सा होने लगा था कि कौन पहले निकल पड़े। किंतु अखंड बाबू अपने को सम्हाले हुए तथा अपने को संयत करते हुए पंडित जी से बोले कि पंडित जी आज आप ने या फिर ईश्वर ने हमें जीवन के उस मार्ग पर चलने का रास्ता दिखा दिया है जो मेरे इस जीवन का शायद उद्धारक बनेगा। पंडित जी अखंड बाबू के द्वारा इस समय प्रसंग से हटकर बोली गई बात को उनकी समझ में न आने के कारण बोले की मै समझा नहीं यजमान...., पंडित जी बातों को बीच में काटते हुए  अखंड बाबू बोल पड़े समय आने पर सारी बातें समझ में आ जाएंगी पंडित जी। और कन्याओं को आमन्त्रित करने का काम आगे बढ़ाते हुए एक झोपड़पट्टी से दूसरी झोपड़पट्टी करने लगे।इस बीच पंडित जी ने अखंड बाबू  को टोकते हुए बोला कि बाबू कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को ही भोज कराने की आवश्यकता है, पर अखंड बाबू ने पंडित जी की ओर मुखातिब होकर पंडित जी से बोला कि पंडित जी मुझे पता है कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को भोज कराने की आवश्यकता है किंतु मै नौ कन्याओं के अलावा अन्य कन्याओं को अलग से बैठा कर भोज करना चाहता हूं। पंडित जी मैं पूजा के विधि विधान को पूर्ण करने के लिए ही अब केवल भोज नहीं कराना चाहता हूं।  पंडित जी कन्याओं को भोज के लिए आमंत्रित करते हुए उन झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर मेरी अंतरात्मा ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया है आप समझिये कि मेरी ज्ञान चक्षु कुछ कुछ खुल गई है। मेरा अपने समाज के प्रति, अपने आस पास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति कुछ दायित्व है और उन दायित्वों को इस भोज के माध्यम से और इसी क्रम में आगे और सामाजिक दायित्वों को निभा कर मै अपने जीवन का उद्धार  करना चाहता हूं। जो समाज मेरे पूजा को विधि-विधान को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी कन्याओं को दे रहा है उसके प्रति भी हमारा कुछ दायित्व है कि नहीं। नहीं तो मेरे वैभवशाली तथा सभ्य कहे जाने वाले समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल पड़ा है और अधिकतर परिवार कन्याओं से विहीन है। पता नहीं ईश्वर इन धनाढ्य परिवारों में कन्या का जन्म क्यों नहीं होने देता है यह ईश्वर ही जाने।
   कन्याओं को भोज पर आमंत्रित करने के पश्चात अखंड बाबू पंडित जी से कल निश्चित समय पर आकर यज्ञ आहुति पूर्ण कराने हेतु बोलकर बाजार की तरफ चल दिए। बाजार से कन्याओं को उपहार देने हेतु या यूं कहें कि कन्याओं का पैर पूजने हेतु बर्तन कपड़े तथा अपने सामर्थ्य व कल्पना के अनुसार जो भी समान ले सकते थे उन सारे सामानों को बाजार से खरीद कर अपने घर की तरफ चल दिए। घर पहुंचने पर पत्नी के द्वारा पूछने पर कि इतना सामान खरीद कर किसके लिए आप लाए हैं। उन्होंने बताया कि यह कल कन्या भोज के पश्चात कन्याओं के पैर पूजते समय उनको देने के लिए। भोज तो केवल केवल नौ कन्याओं को ही कराना है फिर इतना अधिक सामान आप क्यों लेकर आए हैं। हां श्यामा भोज हमें केवल नौ कन्याओं को कराना किंतु और भी कन्याओं को मैंने भोजन हेतु आमंत्रित  किया है। नौ कन्याओं के अतिरिक्त कन्याओं किनारे बैठा कर भोज कराने के पश्चात उन्हें उपहार देकर विदा किया जाएगा इससे जो संतुष्टि हम लोगों को मिलेगी उसका हम बखान नहीं कर सकते हैं। अपने समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल है, इस कारण से मैंने कन्याओं को भोज हेतु आमंत्रित करने के लिए जब मैं उनकी झोपड़ पट्टियों में जाकर उनको आमंत्रित कर रहा था, तो उन झोपड़पट्टियों की दशा देखकर मैं आत्म ग्लानि से भर गया था उन झोपड़पट्टी की दशा देखकर। जिसमें वह लोग रह रहे हैं, उसकी दशा अपने घर के कबाड़ खाने से भी बदतर महसूस हो रही थी। वह लोग उसी में अपने परिवार के साथ जीवन निर्वाह कर रहे हैं जैसे तैसे अपना जीवन गुजार रहे हैं किंतु वह इतने स्वाभिमानी हैं की हम लोगों के सामने आज तक कभी भी इतनी अभाव की स्थिति में भी हाथ नहीं फैलाते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने इन आलीशान कोठियों को बनाने में अपने श्रम से हम लोगों का सहयोग किया है बहुत ही थोड़े मजदूरी पर। जो अपने लिए तो कम और हम कॉलोनी वासियों के लिए ज्यादा काम करते हैं। आज यह कन्या भोज ठीक से निपट जाए तो इसके पश्चात इनके बच्चों लिए काम करने का मैंने निश्चय किया है। दूसरे दिन पंडित जी के आने पर कन्या भोज में आमंत्रित कन्याएं भी नियत समय पर आ गई। पंडित जी के द्वारा विधि विधान से हवन संपन्न करवाने के पश्चात अखंड बाबू कन्याओं को सम्मान से पूजन करने व भोजन करवाने के पश्चात सभी कन्याओं को अपनी श्रद्धानुसार उचित उपहार देकर विदा किए। अखंड बाबू के लिए यह केवल कन्या भोज का ही दिन ना था यह उनके जीवन में यह परिवर्तन लाने वाला दिन था। आज से अखंड बाबू का जीवन बिल्कुल सादगी से भरा हुआ जीवन था जिसमें आडंबर का कोई स्थान ना था। अब उनके जीवन में वैभवशाली पहनावे व दिखावे व विलासिता का कोई भी स्थान न था।
   अब ऑफिस के पहले सुबह का तथा ऑफिस के पश्चात शाम का जो भी समय मिलता था वह झोपड़पट्टी के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाने में तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में भेजने की व्यवस्था करने में लगे रहते थे। यह नेक कार्य देखकर बहुत से दानवीर उनके सहयोग में आ खड़े हुए। अब बच्चों को पढ़ाने व उनको स्कूल भेजने का कार्य दिन दूना रात चौगुना के पथ पर अग्रसर हो गया था। वहीं दूसरी तरफ जो बच्चे दिन भर इधर उधर घूमते फिरते थे उनको लगता था जैसे उड़ान के पंख लग गए थे। उनमें से कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि खुद उनको पढ़ाने वाले अपने दातों तले उंगली दबाते थे। यह जीवन का सत्य है कि आप कितना भी अच्छा से अच्छा आम इत्यादि के फलदार पेड़ों की बगिया लगा दें यदि उनको देख रेख़ करने वाला रखवाला नहीं है तो वो कभी देख रेख के अभाव में तो कभी किसी राहगीर के द्वारा बगिया का रखवाला न होने के कारण अनायास ही फलों पर ढेला चला तोड़ दिये जाते हैं। ठीक इसी तरह का वातावरण भी इनके बच्चों को भी मिलता था। दिन भर मां बाप काम में  व्यस्त रहते और बच्चे उद्देश्य हीन बच्चों के भांति इधर उधर घूमते रहते थे।उनको यह समझ ही नहीं आता था कि जिनके साथ वह इस तरह घूम फिर रहें हैं वो उनको नुकसान पहुंचा रहा है या फायदा। जैसे गेहूं के खेत में आप जब गेहूं कि बुआई कर देते हैं तो गेहूं के पौधों के साथ कुछ ऐसे पौधे भी उग आते हैं जो मिट्टी के खाद पानी को इतनी तेजी से सोखते हैं कि गेहूं का मूल पौधों का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पाता है जितनी तेजी से इन लम्हेरे पौधों का होता है और उस खेत की फसल मारी जाती है। यदि कोई जागरूक व जानकर किसान ऐसे खेत का मालिक हो तो वह प्राथमिक स्तर पर ही इन लम्हेरों को उखाड़ देगा और उसका खेत बिल्कुल ही लहलहा उठेगा और फिर उस खेत से भरपूर पैदेवार होगा।
   ठीक ऐसे ही अब इन बच्चों को अखंड बाबू के रूप में एक ऐसा माली मिल गया था जो इनको एक दिशा देने का प्रयास कर रहा था। समय समय पर इन बच्चों को खाद पानी के रूप में किताबें, स्कूल के अलावा सुबह शाम पढ़ाने के लिए प्राइवेट ट्यूटर आदि की व्यवस्था अखंड बाबू ने कर रखा था। अगर बच्चों कि शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नजर आती थी तो अखंड बाबू उसको भर्षक दूर करने का प्रयास करते रहते थे। कहते हैं कि उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से होती है। यही बात इनमें से कुछ बच्चों पर भी एक दम से ठीक बैठती थी।  इन बच्चों में भी कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि जिनकी प्रतिभा के सामने गुरुजनों से लेकर सुविधा संपन्न घरों के बच्चे तक सम्मान कि नजरों से देखते थे, प्रतिभा के साथ इनके मेहनत को देखकर लोग अपने दातों तले उंगली दबाते थे। ठीक ही किसी ने कहा है होनहर विरवान के होते चिकने पाथ हैं, कुछ बच्चों ऐसे परिश्रमी थे कि लगता था जैसे उनको एक सुगम पथ मिला हुआ है वो उस पर सरपट दौड़ रहे हैं। ऐसे परिश्रमी बच्चे एक - एक सीढ़ी के रूप में एक - एक कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा कि तरफ अग्रसर हो रहे थे।
   अब उनमें से कुछ बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद देश की उच्च कोटि के सम्मानित संस्थानों की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात और वहां से  अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात प्रतिवर्ष कुछ बच्चे देश और दुनिया की प्रतिष्ठित कंपनियों में अच्छे इंजीनियर तो कुछ उच्चकोटी का डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इस तरह प्रत्येक वर्ष कुछ ना कुछ बच्चे डॉक्टर इंजीनियर व प्रबंधक बनके देश-विदेश में अपने प्रतिभाओं का लोहा मनवा रहे थे साथ में अखंड बाबू का नाम रोशन कर रहे थे। अब कोई तीज त्यौहार हो तो अखंड बाबू के द्वार पर गाड़ियों का तांता लग जाता था। उपहार स्वरूप मिठाइयों की बात ही क्या करनी। वो तो ढेर के रूप में घर पर तीज त्योहारों पर लग जाया करती थी। अखंड बाबू को घूम घूम कर इन मिठाइयों को झोपड़पट्टियों में बांटने में ही कई दिन लग जाते थे। अब अखंड बाबू जब भी घर से बाहर निकलते तो जैसे अभिवादन करने वालों का तांता लगा रहता था। अखंड बाबू इसे कन्या भोज का प्रसाद समझते थे। और शायद इससे और ऊर्जा मिलती थी, दिन दूना रात चौगुना कार्य करने के लिए।


यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा

Wednesday, April 8, 2020

कन्याभोज से सेवा

यदि व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक पैसा, नवसंबृद्धि व नवधनाढपन आ जाए और उसके साथ यदि धार्मिक बुद्धि का जुड़ाव न हो तो शायद अपनों से ही इतना दूर  देता है कि अपने भी पराये लगने लगते हैं। इसी तरह के लोगों की अधिकता से भरपूर नव निर्मित गोमती विहार कॉलोनी विकसित होकर अपना बृहत आकर लेने के क्रम में अग्रसर थी। इस कालोनी में एक से एक आलीशान मकान उसमे रहने वालों के वैभव  का बखान कर रहे थे। तो उनका पहनावा इत्र फूलेल व गहने आदि उनके शान ओ शौकत का बखान करते रहते थे।
 इस कालोनी के वासी अपने को एक दूसरे से किसी भी मायने में अपने को कमतर नहीं आकते थे।क्या मजाल कि कोई अपने गेट से बाहर निकले और अपने अड़ोस पड़ोस वाले की तरफ नजर उठाकर अभिवादन के दो शब्दों को बोल दे। बोलना तो दूर अगर नजर मिल गया तो हाथ हिलाना भी एक दूसरे को गवारा तक न था। उनका एक दूसरे से मिलना किसी तीज त्यौहार या फिर कालोनीवासियों के निश्चित मीटिंग के दौरान ही होता था। इस तरह के मिलन में मिठास कम तो दिखावटी गर्म जोशी व औपचारिकता ज्यादा होती थी।
  उस कालोनी में जहां के मकान, सड़क, छोटे - मोटे  हॉट बाज़ार और शाम को हॉट बाज़ार में आने वाले लोग उस कालोनी के निवासियों के वैभव की गाथा गाते थे तथा दर्शन कराते थे, उसी कालोनी में खाली प्लाटों पर जगह - जगह झुंगी झोपड़ियां  दिख रही थी। जो उसमे रहने वालों की  दूर्भिक्षिता को दर्शा रही थी। क्या जाड़ा क्या गर्मी उसमे किसी भी मौसम में सुख का अनुभव नहीं किया जा सकता था, वर्षा के मौसम का कहना ही क्या था उन दिनों में वहां कि दुर्भिक्षिता के बारे में कहना ही क्या था।  वो उन्हीं लोगों का निवास स्थान था जो यहां रहने वाले वैभवशाली लोगों के लिए अपने कमजोर से दिखने वाले कंधो पर ईट, बजरी, बालू, मोरन,सीमेंट, पटरा और बल्ली ढोकर इन आलीशान महलों का निर्माण कार्य को पूरा करते थे। लेकिन उनके खुद के भाग्य में झोपड़पट्टी भी नहीं बल्कि पन्नीपट्टी ही लिखा था। फिर भी उसमें रहने वाले उनके बच्चे उन्हीं झूंगी झोपड़ियों में ही खुश नजर आते थे। उनके छोटे - छोटे बच्चों की सुबह मोटी रोटी से शुरू होती और दिन अपने मां बाप के इर्द गिर्द बीतता था। उनकी माएँ दिन भर गारा मिट्टी व बालू ढूलती थी तो उनके बच्चों को वही गारा मिटटी में खिलौनौ का दर्शन होता था, और उसी में खेलते हुए उनका सुबह से शाम हो जाता था न तो उनको और न ही उनके  मां - बाप को समय का पता चलता था कि सुबह से कब शाम हो गया। और फिर शाम को वो समय हो जाता था जब चिड़िया भी अपने घोसालों की तरफ लौटने लगती हैं तो ठीक उसी समय वो भी अपने घारौदों की तरफ लौटते हुए आटा,  चावल - दाल, नमक, तेल का खरीदारी करते हुए अपने घरौदों पर लौटते थे। चाहे कितना भी गर्मी या ठंडक हो यही उनकी दिनचर्या होती थी। इस तरह रात का खाना-पीना बनाना खा पीकर सो जाना फिर सुबह इसी तरह एक नये दिन के दिनचर्या  शुरुआत होती थी। फिर वही कार्य वहीं दिनचर्या यह उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया था जैसे लगता था उनके तथा उनके बच्चों के जीवन अमोद - प्रमोद व मनोरंजन का कोई स्थान ही नहीं था। उन लोगों का यह हाल उस कॉलोनी में था जहां रहने वाले नव धनाढ्य व पुस्तैनी धनाढ्य लोगों का जीवन अमोद - प्रमोद व विलासिता से भरा हुआ था।
   मनुष्य का जीवन इतनी काल्पनिक विश्वासों से भरा हुआ है कि तार्किक व्यक्तियों की सोचने की सीमा के बाहर जान पड़ता है। तार्किक व्यक्ति जहां हर बातों व घटनाओं को अपने तर्क की कसौटी पर कसता है और धार्मिक व्यक्ति के कर्मकांडो को निरा मूर्खतापूर्ण ही लगता है। वहीं धार्मिक व्यक्ति को अपने कर्मकांडो पर इतना विश्वास है कि उसे लगता है कि यदि उसने  अपने  धार्मिक कर्मकांडो का अनुपालन नहीं किया तो उसे लगता है कि उसे ईश्वर की नाराजगी के साथ समाज की भी नाराजगी झेलनी पड़ेगी और सामाजिक प्रतिष्ठा का नुकसान होगा जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी। यदि ईश्वर नाराज हो कर कुछ ऐसा अनिष्ट कर दे जिसकी भरपाई न हो सके तो सारा जीवन ही बेकार हो जाएगा। अनिष्ट की ये आशंका बहुत कुछ अनिच्छा पूर्वक करने के लिए मजबूर कर देती है तो बहुत धार्मिक कर्मकांड भविष्य में ईश्वर को प्रसन्न करके लाभ पाने की इच्छा कराती है।
   इन सब आशंकाओं, आशाओं व लालसाओं से युक्त इस  कॉलोनी में कई कई ऐसे परिवार रहते थे जो समय समय पर अपने तीज त्यौहारों व पर्वों को मिल बैठकर साथ मनाने का प्रयास करते थे। ऐसा ही एक पर्व नवरात्र पड़ा जिसमें कॉलोनी वासियों ने मां दुर्गे की प्रतिमा कॉलोनी में सामूहिक रूप से स्थापित करने के साथ-साथ अपने घर पर भी मां की पूजा की कलश की स्थापना की और  विधिवत विधि विधान से नौ दिन तक मां की पूजा अर्चना की और जितने भी रीति रिवाज, कर्मकांड थे सबको पूर्ण रूप से विधि विधान  अनुपालित  किए। रीति रिवाज, विधि विधान को अनुपालित करने में कोई भी कोताही कलश स्थापित करने वाले परिवारों ने न उठा रखी थी समस्या तब उत्पन्न हुई जिस दिन कन्या भोज का आयोजन किया जाना था उसके एक दिन पहले जब कन्याओं को भोज के बारे में बोले जाने का समय आया। इसके लिए धार्मिक विधान के अनुसार नौ कन्याओं को भोज करना आवश्यक था किंतु ढूंढने पर कॉलोनी में कुल एक या दो कन्याओं की व्यवस्था हो पा रही थी। आश्चर्य की बात ये थी कि इस कालोनी के इतने वैभवशाली व आलीशान मकानों व महलों में केवल तीन से चार व्यक्ति ही रहने वाले थे। किसी परिवार में एक बेटा तो किसी के वहां दो बेटा तो किसी का एक बेटा और एक बेटी थी। उस कॉलोनी में किसी भी ऐसे परिवार का दर्शन नहीं हो पा रहा था जिसकी की दो बेटियां हो। लोगबाग अपने परिचितों में आसपास के लोगों में कन्या  भोज करवाने हेतु कन्याओं को ढूंढ रहे थे। किंतु आसपास व परिचय में कन्या हो तब तो मिले अधिकतर लोगों के घर जो उनके घर के अगल गिर, बगल गीर के घर थे उनमें केवल एक या दो कन्याएं ही मिल पा रही थी। कन्या मिले भी कैसे जो समाज कन्याओं को बोझ समझता हो उनके घर में कन्या जन्म ही कैसे ले सकती है। हो भी ऐसा ही रहा था कालोनी में पांच घर सात घर छोड़कर किसी एक घर में कन्या मिल जाती थी।
   अब कर्म कांड और रीति रिवाज पूर्ण न  कर पाने में समस्या आ खड़ी हुई थी। परिचितों से पूछताछ करने और  तमाम तजवीज करने पर भी जब कोई भी ऊपाय न बनता दिखा तो पंडित जी ने यजमान को ( अखंड प्रताप सिंह यही यजमान का नाम था) सलाह दिया कि क्यों न इन झोपड़पट्टियों से मजदूरों की कन्याओं को बुलाकर भोज करवाया जाए। अखंड बाबू किसी भी  कन्या में देवी का वास होता है चाहे वह अमीर की हो या फिर किसी गरीब की हो।  इससे इन गरीब कन्याओं को कम से कम एक समय अच्छा भोजन मिल जायेगा। भूखे को भोजन कराने से एक तरह से आप को कई गुना पुण्य लाभ होगा और यजमान के द्वारा कन्या भोज  का भी पुण्य लाभ भी मिल जाएगा।
   पहले तो अखंड बाबू को इस बात में अपनी हेठी नजर आ रही थी कि कोई मजदूर या उनके घर में आकर बर्तन धुलने वाली  की कन्या उनके घर में आकर भोजन करे ( उन्हीं मजदूरों की औरतें या बेटियां कालोनी के घरों में बर्तन धुलने का कार्य भी करती थी ) और वो सम्मान से उसको भोजन कराएं उसके पैर छुए यह उनके सामाजिक  सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान था किन्तु कोई काम न बनता देख और बहुत सोच विचार करने के बाद कि यदि पूजा विधि विधान से पूर्ण न हो पाए तो कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़ जाए, तमाम उधेड़बुन और पंडित जी के बातों पर गौर करने पर अखंड बाबू इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन झोपड़पट्टियों की कन्याओं को विधिविधान से भोज करवाया जाए। जहां अभी तक अखंड बाबू के राजसी मन में अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के नफे नुकसान को ध्यान में रखकर इन गरीब कन्याओं के भोज कराने में हिचकिचाहट थी तो अब उसी अखंड बाबू के दिल में पूजा पाठ को विधिविधान से पूर्ण करने की लालसा या फिर पंडित जी के सलाह ने उनके अंतरात्मा मैं एक परिवर्तन का भाव को जागृत कर दिया था।
   उसी शाम अखंड बाबू पण्डित जी के साथ आस पास के सभी झोपड़पट्टियों में जाकर उसमें रहने वाली  कन्याओं को कन्या भोज के लिए आमंत्रित करने के लिए पहुंचे तो झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर अखंड बाबू अंदर से इतने द्रवित हो गए कि लगता था जैसे उनके कंठ में नमक का रोड़ा अटक गया हो,शायद लगता था उनका कंठ अवरूद्ध हो गया था। लगता था उनके बुद्धि को लकवा मार गया हो और हत बुद्धि से होकर बाहर ही खड़े होकर ऐसी दशा में आ गए थे कि उनके आंखों के आसूं और कंठ की बोली में एक संघर्ष सा होने लगा था कि कौन पहले निकल पड़े। किंतु अखंड बाबू अपने को सम्हाले हुए तथा अपने को संयत करते हुए पंडित जी से बोले कि पंडित जी आज आप ने या फिर ईश्वर ने हमें जीवन के उस मार्ग पर चलने का रास्ता दिखा दिया है जो मेरे इस जीवन का शायद उद्धारक बनेगा। पंडित जी अखंड बाबू के द्वारा इस समय प्रसंग से हटकर बोली गई बात को उनकी समझ में न आने के कारण बोले की मै समझा नहीं यजमान...., पंडित जी बातों को बीच में काटते हुए  अखंड बाबू बोल पड़े समय आने पर सारी बातें समझ में आ जाएंगी पंडित जी। और कन्याओं को आमन्त्रित करने का काम आगे बढ़ाते हुए एक झोपड़पट्टी से दूसरी झोपड़पट्टी करने लगे।इस बीच पंडित जी ने अखंड बाबू  को टोकते हुए बोला कि बाबू कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को ही भोज कराने की आवश्यकता है, पर अखंड बाबू ने पंडित जी की ओर मुखातिब होकर पंडित जी से बोला कि पंडित जी मुझे पता है कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को भोज कराने की आवश्यकता है किंतु मै नौ कन्याओं के अलावा अन्य कन्याओं को अलग से बैठा कर भोज करना चाहता हूं। पंडित जी मैं पूजा के विधि विधान को पूर्ण करने के लिए ही अब केवल भोज नहीं कराना चाहता हूं।  पंडित जी कन्याओं को भोज के लिए आमंत्रित करते हुए उन झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर मेरी अंतरात्मा ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया है आप समझिये कि मेरी ज्ञान चक्षु कुछ कुछ खुल गई है। मेरा अपने समाज के प्रति, अपने आस पास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति कुछ दायित्व है और उन दायित्वों को इस भोज के माध्यम से और इसी क्रम में आगे और सामाजिक दायित्वों को निभा कर मै अपने जीवन का उद्धार  करना चाहता हूं। जो समाज मेरे पूजा को विधि-विधान को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी कन्याओं को दे रहा है उसके प्रति भी हमारा कुछ दायित्व है कि नहीं। नहीं तो मेरे वैभवशाली तथा सभ्य कहे जाने वाले समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल पड़ा है और अधिकतर परिवार कन्याओं से विहीन है। पता नहीं ईश्वर इन धनाढ्य परिवारों में कन्या का जन्म क्यों नहीं होने देता है यह ईश्वर ही जाने।
   कन्याओं को भोज पर आमंत्रित करने के पश्चात अखंड बाबू पंडित जी से कल निश्चित समय पर आकर यज्ञ आहुति पूर्ण कराने हेतु बोलकर बाजार की तरफ चल दिए। बाजार से कन्याओं को उपहार देने हेतु या यूं कहें कि कन्याओं का पैर पूजने हेतु बर्तन कपड़े तथा अपने सामर्थ्य व कल्पना के अनुसार जो भी समान ले सकते थे उन सारे सामानों को बाजार से खरीद कर अपने घर की तरफ चल दिए। घर पहुंचने पर पत्नी के द्वारा पूछने पर कि इतना सामान खरीद कर किसके लिए आप लाए हैं। उन्होंने बताया कि यह कल कन्या भोज के पश्चात कन्याओं के पैर पूजते समय उनको देने के लिए। भोज तो केवल केवल नौ कन्याओं को ही कराना है फिर इतना अधिक सामान आप क्यों लेकर आए हैं। हां श्यामा भोज हमें केवल नौ कन्याओं को कराना किंतु और भी कन्याओं को मैंने भोजन हेतु आमंत्रित  किया है। नौ कन्याओं के अतिरिक्त कन्याओं किनारे बैठा कर भोज कराने के पश्चात उन्हें उपहार देकर विदा किया जाएगा इससे जो संतुष्टि हम लोगों को मिलेगी उसका हम बखान नहीं कर सकते हैं। अपने समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल है, इस कारण से मैंने कन्याओं को भोज हेतु आमंत्रित करने के लिए जब मैं उनकी झोपड़ पट्टियों में जाकर उनको आमंत्रित कर रहा था, तो उन झोपड़पट्टियों की दशा देखकर मैं आत्म ग्लानि से भर गया था उस झोपड़पट्टी की दशा देखकर जिसमें वह लोग रह रहे हैं, उसकी दशा अपने घर के कबाड़ खाने से भी बदतर महसूस हो रही थी और वह लोग उसी में अपने परिवार के साथ जीवन निर्वाह कर रहे हैं जैसे तैसे अपना जीवन गुजार रहे हैं किंतु वह इतने स्वाभिमानी हैं की हम लोगों के सामने आज तक कभी भी इतनी अभाव की स्थिति में भी हाथ नहीं फैलाते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने इन आलीशान कोठियों को बनाने में अपने श्रम से हम लोगों का सहयोग किया है बहुत ही थोड़े मजदूरी पर। जो अपने लिए तो कम और हम कॉलोनी वासियों के लिए ज्यादा काम करते हैं। आज यह कन्या भोज ठीक से निपट जाए तो इसके पश्चात इनके बच्चों लिए काम करने का मैंने निश्चय किया है। दूसरे दिन पंडित जी के आने पर कन्या भोज में आमंत्रित कन्याएं भी नियत समय पर आ गई। पंडित जी के द्वारा विधि विधान से हवन संपन्न करवाने के पश्चात अखंड बाबू कन्याओं को सम्मान से पूजन करने व भोजन करवाने के पश्चात सभी कन्याओं को अपनी श्रद्धानुसार उचित उपहार देकर विदा किया। अखंड बाबू के लिए यह केवल कन्या भोज का ही दिन ना था यह उनके जीवन में यह परिवर्तन लाने वाला दिन था। आज से अखंड बाबू का जीवन बिल्कुल सादगी से भरा हुआ जीवन था जिसमें आडंबर का कोई स्थान ना था। अब उनके जीवन में वैभवशाली पहनावे व दिखावे व विलासिता का कोई भी स्थान न था।
   अब ऑफिस के पहले सुबह का तथा ऑफिस के पश्चात शाम का जो भी समय मिलता था वह झोपड़पट्टी के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाने में तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में भेजने की व्यवस्था करने में लगे रहते थे। यह नेक कार्य देखकर बहुत से दानवीर उनके सहयोग में आ खड़े हुए। अब बच्चों को पढ़ाने व उनको स्कूल भेजने का कार्य दिन दूना रात चौगुना के पथ पर अग्रसर हो गया था। वहीं दूसरी तरफ जो बच्चे दिन भर इधर उधर घूमते फिरते थे उनको लगता था जैसे उड़ान के पंख लग गए थे। उनमें से कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि खुद उनको पढ़ाने वाले अपने दातों तले उंगली दबाते थे। यह जीवन का सत्य है कि आप कितना भी अच्छा से अच्छा आम इत्यादि के फलदार पेड़ों की बगिया लगा दें यदि उनको देख रेख़ करने वाला माली नहीं है तो वो कभी देख रेख के अभाव में तो कभी किसी राहगीर के द्वारा बगिया का रक्षक न होने के कारण अनायास ही फलों पर ढेला चला तोड़ दिये जाते हैं। ठीक इसी तरह का वातावरण भी इनके बच्चों को भी मिलता था। दिन भर मां बाप काम में  व्यस्त रहते और बच्चे उद्देश्य हीन बच्चों के भांति इधर उधर घूमते रहते थे।उनको यह समझ ही नहीं आता था कि जिनके साथ वह इस तरह घूम फिर रहें हैं वो उनको नुकसान पहुंचा रहा है या फायदा। जैसे गेहूं के खेत में आप जब गेहूं कि बुआई कर देते हैं तो गेहूं के पौधों के साथ कुछ ऐसे पौधे भी उग आते हैं जो मिट्टी के खाद पानी को इतनी तेजी से सोखते हैं कि गेहूं का मूल पौधों का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पाता है जितनी तेजी से इन लम्हेरे पौधों का होता है और उस खेत की फसल मारी जाती है। यदि कोई जागरूक व जानकर किसान ऐसे खेत का मालिक हो तो वह प्राथमिक स्तर पर ही इन लम्हेरों को उखाड़ देगा और उसका खेत बिल्कुल ही लहलहा उठेगा और फिर उस खेत से भरपूर पैदेवार होगा।
   ठीक ऐसे ही अब इन बच्चों को अखंड बाबू के रूप में एक ऐसा माली मिल गया था जो इनको एक दिशा देने का प्रयास कर रहा था। समय समय पर इन बच्चों को खाद पानी के रूप में किताबें, स्कूल के अलावा सुबह शाम पढ़ाने के लिए प्राइवेट ट्यूटर आदि की व्यवस्था अखंड बाबू ने कर रखा था। अगर बच्चों कि शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नजर आती थी तो अखंड बाबू उसको भर्षक दूर करने का प्रयास करते रहते थे। कहते हैं कि उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से होती है। यही बात इनमें से कुछ बच्चों पर भी एक दम से ठीक बैठती थी।  इन बच्चों में भी कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि जिनकी प्रतिभा के सामने गुरुजनों से लेकर सुविधा संपन्न घरों के बच्चे तक सम्मान कि नजरों से देखते थे, प्रतिभा के साथ इनके मेहनत को देखकर लोग अपने दातों तले उंगली दबाते थे। ठीक ही किसी ने कहा है होनहर विरवान के होते चिकने पाथ हैं, कुछ बच्चों ऐसे परिश्रमी थे कि लगता था जैसे उनको एक सुगम पथ मिला हुआ है वो उस पर सरपट दौड़ रहे हैं। ऐसे परिश्रमी बच्चे एक - एक सीढ़ी के रूप में एक - एक कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा कि तरफ अग्रसर हो रहे थे।
   अब उनमें से कुछ बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद देश की उच्च कोटि के सम्मानित संस्थानों की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात और वहां से  अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात प्रतिवर्ष कुछ बच्चे देश और दुनिया की प्रतिष्ठित कंपनियों में अच्छे इंजीनियर तो कुछ उच्चकोटी का डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इस तरह प्रत्येक वर्ष कुछ ना कुछ बच्चे डॉक्टर इंजीनियर व प्रबंधक बनके देश-विदेश में अपने प्रतिभाओं का लोहा मनवा रहे थे साथ में अखंड बाबू का नाम रोशन कर रहे थे। यह बच्चे अखंड बाबू के लड़के अमर की कमी को इस तरह से पूर्ति कर रहे थे।
   अखंड बाबू का बेटा अमर कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करने के साथ ही अमेरिका के एक प्रतिष्ठित कम्पनी में काम करते हुए अमेरिका में ही सेटल हो गया था और वही पर एक अमेरिकन लड़की के साथ अपना घर बसा लिया था। जब ये बात अखंड बाबू और उनकी पत्नी को पता चला तो उनको लगा कि जैसे उन लोगों के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई है। उन लोगों के अरमानों पर पानी फिर गया था। शायद उन लोगों का अरमान था कि बेटे की शादी अपनी बेटी माधवी की तरह ही किसी शुशील लड़की से करेंगे जो आकर इस घर को मंदिर में बदल दे और अमर के जीवन में खुशियां भर दे और अमर को खुशहाल रखे। लेकिन अमेरिकन लड़की से विवाह की खबर ने जैसे दोनों कि खुशियों पर पानी फेर दिया था। अमर भी अपने माता पिता की इच्छा के के अनुसार अपना शादी करना चाहता था। किंतु कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी जिस कारण उसे अपनी माता पिता की अनुपस्थित में ही एक अमेरिकन लड़की से शादी करना पड़ा। माता-पिता की नाराजगी के डर से वह कई सालों से घर पर न आ सका था। हालांकि इस दौरान उसके दो बच्चे भी हो चुके थे।
   बहुत सोच विचार के पश्चात अमर अपनी शादी के कई साल बाद अपनी पत्नी के साथ अपने माता - पिता से मिलने अपने घर आया वो भी बिना किसी को बताए।अमर को पहले से ही पता था कि मां और पिता जी दोनों ही उससे नाराज हैं। इस कारण से वह अपनी पत्नी को  घर की गेट पर ही रोककर घर के अंदर दाखिल हुआ और जैसे ही काल बेल बजाया तो उनकी माता जी ने दरवाजा खोला तो एकाएक अमर को देखकर वो अवाक सी हो गई और पता नहीं उनको ये याद था कि नहीं कि अमर ने एक गोरी लड़की से विवाह कर लिया है जो उनके नाराजगी का मूल कारण था अमर से। जैसे ही अमर ने अपनी माता जी का पैर छूने के लिए झुका उसको उसकी माता जी ने गले लगा लिया और भावनाओं का ऐसा बहाव चला कि मां का कंधा भीग गया तो अमर का शर्ट, शायद यह एक दूसरे से गीले सीकवे दूर होने की निशानी थी या एक मां का अपने बेटे से तो एक बेटे का अपने मां से इतने सालों के बाद मिलने के कारण भावनाओं का अतिरेक था। जब दोनों ने अपने को कुछ सम्हाला तो एकाएक उसकी मां को अमर की पत्नी की याद आई उसने अमर की ओर देखते हुआ पूछा कि बहू कहां है, बहू साथ नही आई है क्या। मां वो भी साथ आई है लेकिन वो गेट पर ही रुकी हुई है, अरे बेशर्म तू बहू को गेट पर खड़ा किया हुआ है तुझे शर्म नहीं आ रही है घर की बहू गेट पर खड़ी हुई है। नहीं मां वह खुद ही घर में आने से डर रही थी। अरे वो इस घर की बहू है इस घर की इज्जत है और तू उसे गेट पर खड़ा करके चला आया है। कुछ दिनों पहले तक या यों कहें कि अमर का अपने मन के मुताबिक गोरी मेम से शादी कर लेने के कारण मां और बाप के मन में उसके प्रति जो नफरत कि ज्वाला पैदा हो गई थी वो उसके एक मुलाकात के साथ ही प्रेम में बदल गई थी। हमारे जीवन में ऐसे ही बहुत समय होता रहता है जब अपने बहुत ही नजदीकी व्यक्ति से किसी बात पर विवाद हो जाए या कभी किसी बात पर विभेद हो जाए तो बिल्कुल ही उधर से मुंह मोड़ लेते हैं,लेकिन जैसे ही  हम अपने मन में प्रेम का भाव भरकर उनसे मिलते हैं तो सारे गिले सिकवे दूर हो जाते हैं। इस बात का एहसास लगभग सभी व्यक्तियों में है लेकिन अपना अहम पहले कौन तोड़े इस भाव ने आज तक कितने रिश्तों को तोड़कर रख दिया है।
    इधर अमर अपनी पत्नी को गेट पर खड़ा करके घर के अंदर जैसे ही दाखिल हुआ उसकी पत्नी उत्सुक होकर घर के अंदर वहीं खड़े खड़े झांक कर देखने लगी कि देखें किससे मिलते हैं और इनका स्वागत कैसे किया जाता है या अभी भी मेरे कारण मां और पिता जी नाराज हैं। उसने देखा कि अमर के द्वारा कॉलबेल दबाने पर जैसे ही किसी महिला (शायद वो माता जी ही थी) ने दरवाजा खोला वैसे ही झुक कर उस महिला का पैर छूने को हुआ तो उस महिला ने अमर को अपने गले से लगा लिया, यह उसके लिए एक आश्चर्य मिश्रित घटना थी जिसमें  औपचारिकता का कोई स्थान नहीं था, लगता था कि जैसे मां और बेटे में प्रेम की वर्षा हो रही थी। आज तक उसने अमेरिका में औपचारिकता को ही संबंधों में महशूश किया था जहां संबंधों में मधुरता व प्रेम न होकर प्रेम प्रदर्शन ही ज्यादा होता था। अब अमर की पत्नी सोफिया को विश्वास हो गया था मां की नाराजगी  हम लोगों से दूर हो गई है।
    इस तरह के कुछ और तरह - तरह के विचार सोफिया के मन में चल रहे थे कि इतने में क्या देखती है कि मां और अमर की छोटी बहन दो थाली में थोड़ा पानी और फूल डालकर सोफिया के सामने उपस्थित हुए, अभी सोफिया कुछ समझ पाती कि अमर की बहन माधवी ने अपनी भाभी को गले लगा लिया, माधवी के द्वारा अपने भाभी को इस तरह से गले लगाने पर सोफिया दूसरा हाथ अपने बच्चे से छुड़ाकर कर माधवी से कुछ इस तरह से आलिंगन बद्घ हुई कि जैसे लग रहा था वो इस छड़ के लिए प्यासी थी। माधवी का एक तरफ का कन्धा भीग गया तो सोफिया का दूसरे तरफ का कन्धा भीग गया। थोड़ी देर बाद वो दोनों कुछ संयत हुई तो सोफिया अपने को सम्हालते हुए मां का पैर छूने के लिए आगे बढ़ी तो मां ने अपनी बहू को गले से लगा लिया और बोलने लगी यह दिन देखने के लिए आंखे तरस रही थी, और दोनों ने एक दूसरे ऐसे पकड़ कर गले लिया जैसे कोई मां और बेटी बहुत दिनों के बाद मिले हो। इधर अमर की बहन माधवी अमर के छोटे बेटे को गोद में लेकर तो बड़े बेटे के बालो व गालों पर हाथ फेरते हुए उनसे पूंछ रही थी कि अपने बाबा, दादी व बुआ से मिलने का मन नहीं हो रहा था क्या? इधर दोनों बेटे के लिए यह कौतूहल भरा दृश्य था, इतनी आत्मीयता और इतना प्रेम किसी बाहरी व्यक्ति या सगे संबंधियों द्वारा पहली बार महशूस हो रहा था। बच्चे भी प्यार को बहुत ही अच्छी तरह महशूस करते हैं और ये इन बच्चों के द्वारा महसूस किया जा रहा था। उधर अमर खड़ा - खड़ा अपने को कोश रहा था कि मैं क्यों नहीं पहले मिलने वहां से आ सका क्या होता बहुत होता माता जी और पिता जी थोड़ा नाराज ही न होते।फिर नाराजगी अपने आप ही धीमे - धीमे मेरे और सोफिया के अच्छे व्यवहार से दूर हो जाता। माता पिता अपने बच्चे को तो वैसे ही खुश देखना चाहते हैं उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है जैसे उनसे उनके बच्चें हंस कर दो शब्द बोल  दें उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है।इधर अमर के मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे कि अभी पिता जी से मिलेंगे तो उनका सामना किस तरह से करेंगे।
    उधर अमर की मां और उसकी बहू कुछ संयत हुई तो माधवी बोली आओ भाभी चलो घर में चले अपना पैर इन दोनो थाली में रख कर चलना, ससुराल में पहली बार बहू का पैर जमीन पर नहीं पड़ना चाहिए इसलिए अपना पैर इन थालियों में ही रखकर चलना। इस तरह थाली में पैर रखते हुए बहू घर के अंदर दाखिल हुई। मां ने अमर और बहू से बोला कि जल्दी से स्नान इत्यादि करके तैयार हो जाओ अभी तुम्हारे पिता जी भी आ रहे होंगे।इधर बेटे और बहू, ईशान और वेदांत को लेकर स्नान इत्यादि करने चल दिए और उधर थोड़ी ही देर में अमर के पिता जी ने दरवाजे पर दस्तक दी।
         जैसे ही अमर के माता जी ने दरवाजा खोला, अमर के पिता जी ने प्रशनभरी नजरों से देख कर पूछा कि कोई आया है क्या, हां लेकिन मै अभी नहीं बताऊंगी, पहले आप अनुमान लगाइए और बताइए कौन है। मै ऐसे कैसे अनुमान लगा सकता हूं, लेकिन एक बात मै तुमसे सत्य में बोलता हूं आज ही भोर में मैंने सपना देखा है कि अचानक अमर घर पर बिन बताए ही आया है और तुमसे गले मिलकर तो मेरे चरणों पर गिर कर क्षमा प्रार्थी के भाव से बोल रहा है कि आप दोनों लोग मुझे क्षमा करिये, मै बस इसी कारण से घर पर नहीं आ रहा था कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं। तो मै उससे गले लगा कर  बोल रहा हूं कि कैसी नाराजगी बरखुरदार यह कितने गर्व की बात है तूने जिसका एक बार हाथ पकड़ा कितनी भी विकट परिस्थिति आई, तूने उसका हाथ नहीं छोड़ा। यह मेरे लिए गर्व की बात है और तुम तो उसकी बहू को देखकर फूले नहीं समा रही हो। पता नही यह बात कितना सत्य है या होगा मै नहीं जानता। यह लो श्यामा ( अखंड बाबू की पत्नी) उधर से आ रहा था तो गणेश मिष्ठान भंडार से थोड़ा मीठा लेते आया था। आप का सपना बिल्कुल ही सत्य अमर और उसकी पत्नी तथा दोनों हमारे फूल से पोते भी आए हैं।अपने पोतों को देखकर मेरी आत्मा गौरवान्वित हो रही थी, सही बता रही हूं कि मैं अपने गोद से उनको छोड़ना नहीं चाह रही थी । अभी इस तरह की वार्ता हो रही थी कि इसी बीच अमर और उसकी पत्नी बच्चों के साथ बैठक में प्रवेश करते हैं। जैसे ही अमर ने अपने पिता जी को देखा कुछ संकोच किन्तु सम्मान भरी नजरों से अपने पिता की ओर बढ़ा और अपने पिता जी का चरण छूने के लिए आगे झुका ही था कि पिता जी ने अमर को उठाकर गले लगा लिया और पीठ पर थपकी देते हुए तथा अमर का मुख अपने मुख के सामने करते हुए बोले कि याद नहीं आ रही थी क्या चलो मेरी याद नही तो अपने मां की तो याद आती रहती होगी। पापा अब न ही कुछ बोलिए जो भी गलती है वो मेरी गलती है। सोफिया का हाथ पकड़ लेने के बाद मुझे लगा कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं इसी डर के नाते मैं आ नहीं रहा था, जबकि सोफिया बार बार आप लोगों से मिलने का जिद्द करती रहती थी। वही जिद्द करके आप लोगों से मिलने के लिए लेकर आई है, मुझे तो फिर भी डर लग रहा था कि आप कुछ उसके सामने उसको लेकर अपनी नाराजगी न प्रकट करें। अभी दोनों लोगों के बीच ये आपस के गीले सिक्वे की वार्ता हो ही रही थी कि सोफिया अपने दोनों बच्चों के साथ आगे बढ़ी और अपने फादर इन ला ( ससुर ) का चरण स्पर्श करने हेतु आगे झुकी ही थी कि अमर बाबू ने बहू दूर हटते हुए बहू से बोले नहीं बेटी ऐसा नहीं, तुम लोगों को देखने के लिए ये आंखें तरस रही थी। ये पता नहीं किस पुण्य का प्रताप है कि बहू तुम लोगों के कदम बिना किसी आशा के अचानक ही इस घर में पड़े। इधर अखंड बाबू भावनाओं का अतिरेक अपनी बातों से प्रकट कर रहे थे, उधर उनके पोते अपने बाबा का चरण स्पर्श करने के लिए आगे बढ़े तो अखंड बाबू ने झुक कर दोनों को गले लगा लिया कि जैसे उनके जिगर का टुकड़ा मिल गया, और ऐसे ही कुछ देर तक सीने से चिपकाए रखा जैसे लगता था जिस सुख से आज तक वंचित रह गए थे उसको छोड़ना नहीं चाहते थे। यह सारा दृश्य सोफिया को हैरानी में डालने वाला था, क्योंकि अभी तक उसने जिस प्रेम को देखा था, अनुभव किया था उसमें दिखावटीपन और बुद्धिगत प्रेम ज्यादा था, उसमें इस तरह का आत्मीय प्रेम का कोई दर्शन न था। वह बार बार अपने को कोस रही थी मै क्यों नहीं अमर को लेकर यहां मिलने आ सकी मै इतने दिनों तक इस आत्मीय सुख से वंचित रही और मम्मी पापा को भी इस आत्मीय सुख से वंचित रखी,इस तरह के तमाम भाव सोफिया के मन में चल रहे थे।
      वह वहीं एक किनारे खड़े होकर अपने मन की इन भावनाओं से ओत प्रोत सी हो गई थी। अब उसकी स्थित ऐसी हो गई थी कि उसके कंठ और आखों में एक संग्राम सा हो चला था कि कौन पहले एक दूसरे पर विजय पाता है। अन्त में आसुओं ने विजय पाई। कुछ देर तक सोफिया ऐसे ही अपना शुद्ध बुध खोकर यों ही खड़ी थी कि माधवी कमरे में प्रवेश कर बोली कि आइए खाना तैयार है और जब वह अपने भाभी के तरफ मुखातिब हुई तो दखती है कि भाभी के आखों से आसूं झर रहें हैं,वह अपने भाभी के पास जाकर इन खुशी के आसुओं पोंछ कर भाभी को उसने गले लगाया तो भाभी उससे बोल पड़ी कि क्या बताऊं जिस सुख का मैं यहां आकर आनंद ले सकती थी और आप लोगों को आनंद दे सकती उस सुख से कितने सालों तक मैं वंचित रही और आप लोग भी वंचित रहे, वो भी केवल एक काल्पनिक डर के कारण, अच्छा भाभी अब चलिए डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं।
      जब सभी लोग डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने लगे तो अमर के पापा ने बहू की तरफ मुखातिब होते हुए बोला की बहू काल्पनिक भय ने इस दुनिया में रिश्तो के बीच में जो नुकसान पहुंचाया है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ठीक यही बात अमर और तुम्हारे साथ भी हुआ। हां जरूर शुरू में मैं अमर से नाराज था किंतु नाराजगी के बावजूद जब मैंने देखा की अमर ने तुम्हारा हाथ को नहीं छोड़ा तो मैं अंदर ही अंदर इतना खुश हुआ कि उसको मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूं। इसका कारण केवल एक और एक था कि सनातन संस्कृति में यदि आप एक बार जिसका हाथ पकड़ ले जीवनसाथी बनाने के लिए तो उसका हाथ कितना भी विकट परिस्थिति आये छोड़ना नहीं है, और इस बात को मैंने अमर में देखा यह मेरे को एक गौरवान्वित करने वाली बात थी। बहू इस बात को सनातनी शादी विवाह में भी देखा जा सकता है। जब शादी के मंडप में दूल्हा और दुल्हन का शादी की रस्में पूरी हो रही होती हैं तो वहां पर थाल में धान का भूना हुआ लावा रखा हुआ होता है जो इस बात को दर्शाता है कि कितनी भी विकट परिस्थिति आ जाए किन्तु जिसका आप ने हाथ थामा है उसको छोड़ना नहीं है, क्योंकि धान अर्थात पैडी को भूनने पर भी उसका छिलका लावे को छोड़ता नहीं है वो उसको पकड़े ही रहता है। वैसे भी सनातनियों में विवाह एक संस्कार है न कि एक समझौता है।
      माधवी ने अपने पिता की बात को बीच में काटते हुए बोला कि पापा आप भी न भाभी को आज पूरे सनातन धर्म का पाठ पढ़ा देंगे, हमें भी भाभी से बात करने का समय दीजिए न। अरे क्यों नहीं और मै कोई पाठ नहीं पढ़ा रहा हूं बस एक तुक की बात आई तो मैं अपने मन की भावों को व्यक्त कर दिया और कोई बात न थी, अच्छा ठीक है अब तुम अपनी भाभी से बात करो। जैसे ही खाना खा कर डाइनिंग टेबल से उठे माधवी अपने भाभी को लेकर अपने कमरे में चली गई और दोनों आपस में एक से एक बात करने में मशगूल हो गई जैसे लगता था कि अरसे बाद दो सहेलियां मिली हो और उनकी बातों का ही अंत न हो। अच्छा भाभी ये बताओ कि भैया से आप कैसे मिली, मै नहीं बताऊंगी। नहीं आप को बताना पड़ेगा नहीं तो मै आप को छोडूंगी नहीं। अच्छा छोटी चलो जिद्द कर रही हो तो बताए  देती हूं।
     मेरे घर के बगल में एक भारतीय परिवार रहता था उनके घर मेरा आना जाना था। उनके पारिवारिक कार्यक्रमों में मेरा आना जाना रहता था, उन कार्यक्रमों और तीज त्यौहारों को मैं दिल से इतना पसंद करती थी कि उनको मै अपनी शब्दों में या फिर अपनी भावनाओं के द्वारा भी नहीं व्यक्त कर पाऊंगी। पता नहीं वो तीज त्यौहार वो पारिवारिक प्यार, परिवार का एक दूसरे के प्रति समर्पण ने क्या जादू कर रखा था कि मैं अनायास ही उन तीज त्यौहारों के प्रति दीवानी सी रहती थी कि उनमें शामिल होने के लिए व्याकुल से रहती थी और जबतक मै उसमे शामिल नहीं हो जाती थी तो मन में एक अजीब सी बैचैनी बनी रहती थी उसे मैं शब्दों में नहीं ब्यक्त कर सकती। होली, दीपावली और रक्षाबंधन की तो बात ही न पूछो। होली की हुड़दंग, दीपावली की जगमगाहट और खुशियों ने मुझको समोहित कर रखा था तो रक्षाबंधन का मुझे जैसे इंतजार सा रहता था, रक्षाबंधन वाले दिन मै भी अपने भाई को राखी बांधती थी और अभी भी बांधती हूं और खूब ढेर सारे गिफ्ट लेती हूं और साल भर के लिए बहुत सारे गिफ्ट का वादा भी करवा लेती हूं। कभी कभी मेरे दिल में ये बात आती थी कि काश मेरे वहां भी ऐसे ही तीज त्यौहार होते पर इस तरह के त्यौहारों का जैसे अभाव सा है जिसमें जीवंतता हो, एक दूसरे को ख्याल रखने के जज्बे हों। नहीं भाभी तुम मुझे बातों में उलझाओ नहीं, अपनी बातों को लम्बा करके मुझे छोटे बच्चों जैसे भूलवाने का प्रयास न करो। बस तुम मुझे ये बताओ कि तुम भैया से कैसे मिली, छोटी थोड़ा धैर्य रखो अभी बताती हूं, नहीं आप को अभी बताना होगा आप सोच रही होंगी छोटी को धर्म की अच्छी अच्छी बातों को बता कर बातों को लम्बा चौड़ा करते जाऊंगी और इसको नीद आ जाएगी तो इसके द्वारा पूछी गई बातें इधर से उधर हो गई ऐसा न होने पाएगा। छोटी मै तुझे पलझा या भूलवा नहीं रही हूं तुझे मै हिन्दू दर्शन व उन तीज त्यौहारों के बारे में बता रही हूं जिनके बारे में हमारे ही देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में एक दीवानापन सा है। मेरी बातों पर विश्वास करो यदि सामाजिक वर्जनाएं न हो तो बहुत से व्यक्ति अपने धर्म के साथ इस धर्म की आध्यात्मिकता और इसके तीज त्यौहारों को कबका आत्मसात कर चुके होते और कुछ तो सामाजिक वर्जनाओं के बावजूद भी इसकी बहुत सी बातों को आत्मसात कर चुके हैं। क्या छोटी कोई ऐसा भी धर्म है जो यह बताता हो कि सारा विश्व एक परिवार है, सभी लोग सुखी रहें सभी लोग निरोग रहें, मंत्रों के द्वारा ऐसी कामना करें। इसी तरह के दर्शन के कारण सनातन धर्म ने, अन्य धर्मों से उच्च स्थान पा लिया है।
      इस विश्व में तो ऐसे ऐसे मजहब हैं जो यह बताते हैं कि अगर उनका मजहब कोई नहीं मानता है तो उसे जीने का अधिकार नहीं है और शायद इसी लिए वो सारे विश्व में हमेशा मारकाट मचाए रहते हैं और वो लोग दिन रात इसी छल कपट में पड़े रहते हैं कि कैसे अपने मजहब का फैलाव करें, जिस देश में लोक तन्त्र है, वहां का परिवेश उनके लिए सबसे अनुकूल सा मिल गया है।  वहां पर वे अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर ध्यान देते हैं जैसे ही जनसंख्या थोड़ी ज्यादा हो जाती है वो लोग एक जुट होकर वहां के मूल निवासियों से मार काट व अदावत करने लगते हैं जब तक कि उस देश में अपना मजहबी कानून न लागू करवा लें।
      छोटी सनातन या फिर कहो हिन्दू धर्म की बस एक ही बुराई के बारे में मैंने सुन रखा है, और वो  है जात - पात यहां पर कुछ लोग ऊंची जाति के हैं तो कुछ लोग नीची जाती के हैं और वो आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर खाते पीते नहीं हैं, इसी कारण से इस धर्म का इंडिया में पतन होता जा रहा है जबकि हमारे अपने देश अमेरिका में हिंदुओं को ये पता ही नही है कि वो किस जाति के हैं वो बस एक अच्छे इंसान हैं और यही उनकी पहचान है और वो आपस में ही नहीं सारे अमेरिकन के साथ ऐसे घुल मिल कर रहते हैं जैसे मिल्क में सुगर मिल जाता है और दूध को ऐसा स्वादिष्ट बना देता है कि लोग उसके बिना दूध नहीं पी पाते हैं। ठीक ऐसे ही अमेरिकन भी अब हिन्दुओं के बिना और हिन्दू जीवन शैली व दर्शन के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। भाभी तुम ठीक बोल रही हो यहां पर अभी भी जात -  पात का भेद भाव है लेकिन पहले से बहुत ही कम हुआ है लेकिन मुझे अभी भी लगता है इसको दूर करने के लिए हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को काफी काम करने की आवश्यकता हैं। मुझे लगता है कि इसके धर्म ग्रंथो में यदि कुछ विभाजनकारी बातें लिखी हुई हैं तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए। लेकिन यदि कुछ प्रबुद्ध जन धर्म ग्रंथों में लिखी हुई  विभाजनकारी जानकारी बातों को हटाना चाहते हैं, तो कुछ स्वयंभूत धर्म के धर्माधिकारी उन विभाजनकारी बातों को हटाने का विरोध करने लगते हैं, यह एक बहुत बड़ी बाधा बनकर खड़ी हुई है, धार्मिक सुधारों व विभाजन कारी बातों के विरुद्ध, समाज के रूढ़ियों को तोड़ना इतना आसान काम नहीं है फिर भी कुछ धर्म सुधारक और समाजसेवी व्यक्ति और संगठन इसको हटाने के प्रयास में जुटे हुए हैं आज नहीं तो कल सफलता अवश्य मिलेगी फिर देखना भाभी यह धर्म विश्व गुरु का दर्जा अवश्य ही पाएगा। चलो छोटी तुम्हारी कही हुई बातें सत्य हो ऐसी मैं आशा करती हूं और विश्व का कल्याण हो।चलो  भाभी अब तो बताओ मेरी पूछी बातों का जवाब दो, हां - हां जवाब देती हूं। लेकिन सही बात बताऊं मुझे बताने में शर्म सी आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, छोटी चलो सोते हैं नीद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, नहीं अब सो जाओ मुझे नींद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा अच्छा लो सुनो, बात ऐसी है कि एक बार मेरे घर के बगल के घर में मैरेज का कार्यक्रम था उसमे हमारा परिवार भी आमंत्रित था। उस मैरेज सेरेमनी में हमारे पूरे परिवार को वहां हो रहे रिचुअल्स ने जैसे सम्मोहित सा कर दिया। और मेरे मन मस्तिष्क में कहीं न कहीं ये बात घर कर गई थी कि मेरी भी मैरिज इसी रिचुअल्स से होता तो कितना अच्छा होता। और शायद यह ईश्वर का लिखित विधान था कि उसी मैरेज सेरेमनी में तुम्हारे भैया अमर भी आए थे। जब जयमाल की सेरेमनी हो रही थी तो मेरे फ्रेंड ने अमर से परिचय कराया तो मैं अमर से सेक हैन्ड करते हुए उसे एक बुत की तरह निहारे जा रही थी, कुछ क्षणों के पश्चात जब मैं इस अवस्था से बाहर निकली तो अपने ऊपर लज्जा का भाव अनुभव करते हुए कुछ औपचारिक बातें करते हुए हम दोनों शादी में हों रहे तमाम रिचुअल्स को साथ- साथ देखने में मसगूल हो गए। इसके साथ ही मैं अमर से वहां हो रहे रिचुअल्स के बारे में कुछ पूछती तो अमर रिचुअल्स के महत्व और उनकी प्रसंगिकता का समय-समय पर वर्णन करते जाते थे। मैं उनकी बातों को सुनकर इतना मुग्ध थी कि मैं उसका वर्णन न कर पाऊंगी। इसके पश्चात हम दोनों ने एक साथ डिनर किया। फिर काफी रात को अपने अपने घर को लौट आए।
      किन्तु इस दिन के पश्चात मुझे लगा जैसे अमर के व्यक्तित्व ने मुझे सम्मोहित सा कर लिया है। मैं उससे बात किए बिना रह ना पा रही थी, जैसे लगता था मेरा चैन कहीं खो गया है, मेरी मन की शांति उसके सांसों में बसती है, उसके दिल में बसती है। मुझे लगता था मैं उसके बिना रह ना पाऊंगी। किंतु मैं ऐसा महसूस करती थी कि अमर मुझसे बात करने में झींझक महसूस करता है। वह जल्दी से मुझसे बात करके छुट्टी पा लेना चाहता था। उसका यह शर्मिला व झिझक भरा व्यवहार मुझे और उसकी तरफ आकर्षित करने का कार्य करता था। वह मुझसे जितना दूर जाने का प्रयास करता था, मैं उसकी ओर  उतनी ही बढ़ती जाती थी, आकर्षित होती जाती थी। यह इत्तेफाक था या यों कहिए कि यह ईश्वर का एक विधान था की मेरा और अमर का घर एक ही रास्ते पर था तथा ऑफिस भी उसके ऑफिस के बगल में ही था। अब मेरा मन बातचीत से ही न भरता था, अब मुझे उससे मिले बिना चैन भी ना मिलता था। अब मैं ऑफिस से जल्दी सें निकल कर उस बस स्टॉप पर  पहुंच जाया करती थी, जहां से अमर भी घर लौटने के लिए बस पकड़ते थे। हलांकि हमारा अमर के साथ इस तरह साथ आना जाना, उनका शर्माना, झिझकना, नजरों का झुका होना मैं स्पष्ट रूप से महसूस करती थी। और यह व्यवहार मुझे और भी रिझाती थी। इस तरह कुछ दिनों के बाद मैं ऐसा महसूस करने लगी कि मैं अमर के बिना रह न पाऊंगी, उनके बिना जीवन की कल्पना करना, किसी मछली को पानी से निकाल लेने के समान था। इस तरह मैंने अपने मन को मजबूत करके एक दिन मैंने अपने मन की बात को अमर के सामने रखा कि अमर क्या मुझे अब भी अपनी बातों को और ज्यादा खुलकर के रखना पड़ेगा, क्यों मेरे तरफ से इतना मुंह मोड़े रहते हो, क्यों मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो। मुझे कई बार ऐसा महसूस होता है की मैं अंग्रेजीन हूं, क्रिश्चियन हूं, इस कारण से भी तुम मुझसे मुंह मोड़े रहते हो। हां मैं मानती की  कि मैं जन्म से क्रिश्चियन हूं, अंग्रेजीन हूं और यह सही भी है लेकिन  यह भी जान लो कि मन से तुमसे ज्यादा हिंदू होऊंगी। अब तुम चाहे जो कुछ भी समझो अब मैं तुम्हारे बिना एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती, मेरा एक - एक पल एक - एक युग के समान बित रहा  है और तुम्हें क्या बताऊं। पहले तुम्हारे धर्म ने और अब तुमने मुझ को सम्मोहित सा कर दिया है अब इस जीवन में मै तुम्हारे सिवाय और किसी की कल्पना भी मैं नहीं कर सकती हूं। नहीं तो यह जीवन ऐसे ही अकेलेपन में कटेगा। अमर तुम कुछ बोलते क्यों नहीं कुछ तो बोलो....., अमर ने बीच में बात काटते हुए बोला कि सोफिया तुम समझ रही हो क्या बोल रही हो। हिंदू धर्म में शादी, विवाह कोर्ट में, या किसी जमात के सामने किया गया समझौता नहीं है। यह मन से स्वीकारा हुआ सात जन्मों का बंधन है, हम लोगों का ऐसा विश्वास है यह बंधन बस इसी एक जन्म भर के लिए नहीं है, यह जन्म जन्मांतर का बंधन होता है, इसके अलावे हम लोगों का ऐसा विश्वास है कि जोड़ी ईश्वर के द्वारा बनाया गया है, यहां पर विवाह हम लोगों को मिलाने का एक माध्यम है, और यह जन्म जन्मांतर के लिए होता है। इस जन्म के बाद भी जब भी हम लोग इस धरती पर आएंगे फिर इसी तरह बंधन बधकर बंधन को निभाएंगे ऐसा हम लोगों का विश्वास है। अमर तुम्हारे कहने का आशय क्या है, मैं समझी नहीं। मेरे कहने का आशय तुम भी खुब समझ रही हो। अमर तुम्हें जो कुछ भी बात बोलना हो उसे स्पष्ट बोलो उसे फ्रेजल वाक्य ( मुहावरे युक्त वाक्य) के रूप में न बोलो। मेरे कहने का आशय तुम खूब समझ रही हो, तुम देखती नहीं हो कि यहां पर आज जो भी मैरिज होता है पता नहीं है कितने दिन के लिए हो रहा है। पता नहीं यहां के लोग  किसी के साथ स्वार्थ बस मैरिज के बंधन में पड़ते हैं या फिर शारीरिक आकर्षण से यह तो वही लोग जानते होंगे। कारण जो कुछ भी हो लेकिन यहां का मैरिड लाइफ में बहुत ही अस्थिर देखता हूं।
      तो इस कारण से तुम मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो आज मुझे समझ आया। नहीं यह बात नहीं है एक बात मेरे मन में थी वह मैंने तुम्हारे सामने रखा, इसको अपने संदर्भ में न लो, जो यहां के समाज में मैं देखता हूं वही बात मैंने तुम्हारे सामने रखी है और इसको रखने का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना या किसी समाज को किसी समाज से उच्च बताना नहीं है बल्कि इन क्रियाओं को देखकर मुझे आश्चर्य होता है कि एक सभ्य समाज में कैसे इस तरह की बातें स्वीकार है। रही तुम्हारे साथ शादी की बात तो मैं अपने मन की बात तुमसे साझा करना चाहता हूं कि जब तुम मुझसे पहली बार मिली तो मुझे लगा कि ईश्वर ने मुझे उस लड़की से मिलवाया जिसका मुझे आज तक इन्तजार था लेकिन संकोच वश मैं तुमसे अपनी इस बात को प्रकट ना कर सका, मेरे फादर की यह इच्छा है की मेरी शादी उस लड़की से करेंगे जो व्यवहार में मेरी बहन माधवी की तरह होगी और मैं अपनी बहन का दर्शन मैं तुम्हारे मे करता हूं।
      भाभी तुम भी ना मुझे बनाओ नहीं...., माधवी मैं तुम्हें बना नहीं रही हूं अमर के द्वारा कहे गए शब्दशः बातों को तुम्हारे सामने बोल रही हूं। अच्छा ठीक है भाभी और आगे बताओ, और आगे क्या बताना है इसके बाद तुम सारी घटनाक्रमों को जानती ही हो मेरे फादर - मदर तथा ब्रदर जैक के द्वारा मेरी अमर से शादी के लिए बार - बार आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा बार-बार इंकार करने पर तथा कई बार अमर के द्वारा भी पापा व मम्मी से आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा इंकार कर देने पर तथा मेरे द्वारा अमर से तथा अपने फैमिली में यह स्पष्ट बता देंने पर कि मैं जब भी मैरिज करूंगी अमर के साथ नहीं तो बिना मैरिज के ही लाइफ गुजारूगी। इस कारण से अमर भी मजबूर होकर मेरे साथ शादी के बंधन में बंधने को बाध्य हो गया। और एक बहुत ही साधारण से समारोह में हम दोनों शादी के बंधन में बंध गए। बहन देखना इस घर की किसी परंपराओं का यदि मेरे द्वारा अनजाने में कोई उल्लंघन होता हो, तो तुम मुझे वहीं टोंक देना, मैं सोचती हूं कि मुझसे अनजाने में कोई गलती ना हो जाए और मम्मी पापा के भावनाओं को  कोई ठेस न लग जाए। मम्मी पापा मेरे में ठीक तुम्हारी ही छवि का दर्शन करें और अमर के चुनाव पर गर्व कर सकें। ठीक है भाभी तुम डरो नहीं तुमसे कोई गलती नहीं होगा मैं जान गई हूं तुम देवी हो, पूज्यनीय हो। मै तुम्हारी बातों से, तुम्हारे अभी तक किए गए व्यवहारों के द्वारा  समझ गई हूं और मम्मी पापा भी इन बातों को अच्छी तरह समझ गए हैं। अच्छा चलो अब सोते हैं।
      इसी तरह कुछ होली की तैयारी में तो कुछ आपसी बातचीत हंसी मनोरंजन में दस दिन का समय कब बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। ग्यारहवें दिन होली का त्यौहार था सुबह से घर पर एक से एक अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर व  विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य व्यक्तियों, के साथ मेहनतकश मजदूरों, कामगारों का जैसे तांता लग गया था। कोई भी आता पहले अखंड बाबू का चरण स्पर्श करता और कुछ ना कुछ उपहार स्वरूप मीठा इत्यादि भेंट भी करता जाता था। अखंड बाबू इधर मीठा लेत और उधर मजदूरों, कामगारों, मेहनतकशों को उपहार स्वरूप मीठा देकर विदा करते जाते थे। यह लोग  बाबू के द्वार पर हर तीज त्योहार पर बाबू से मिलने अवश्य ही आते थे। वो किसी आशा या लालच में बाबू से मिलने नहीं आते थे। बल्कि बाबू का निश्चल प्रेम, बाबू के द्वारा समय-समय पर उनकी सहायता करना, उनके बच्चों के पढ़ाई लिखाई का प्रबंध करना इत्यादि कार्यों के कारण उनका बाबू से ऐसा भावनात्मक लगाव हो गया था की वो अपने को तीज त्यौहार व सामान्य अवसरों पर बिना बाबू से मिले रह न पाते थे। अखंड बाबू आने जाने वाले गणमान्य व सामान्य व्यक्तियों से अमर का परिचय करवाते जाते थे। इन लोगों से बातों बातों में अमर अब जान चुका था की उसके पिताजी ने इन लोगों के लिए कितना त्याग भरा कार्य किया है, जहां समाज में एक से एक अच्छे लोग किसी गरीब गुरबा के लिए एक पैसा न खर्च करते हों वहां इतने परिवार को बच्चों को न केवल पढ़ाना लिखाना बल्कि समय-समय पर उनकी सहायता करना एक संत सरिखा, निस्वार्थ कार्य उनके पिता के द्वारा किया जाने से अमर अपने पिता के प्रति जिस गर्व का अनुभूत कर रहे थे इसका जबान से वर्णन करना जबान को लज्जित करने के सामान था।
      होली के अगले दिन जब सोफिया और अमर सबके साथ नाश्ते कर कर रहे थे तो सोफिया ने अपने सास-ससुर की तरफ मुखातिब होते हुए बोली कि मम्मी पापा मुझे गर्व है कि मैं इस परिवार की बहू हूं ढेर सारी सुखद यादों को लेकर कल अमेरिका चली जाऊंगी। ये सुखद यादें मुझे वहां भी गर्वानीत  करती रहेंगी, मैं इसे ईश्वर का आशीर्वाद समझती हूं कि मुझे उसने आप लोगों की बहू बनाया। नहीं बहू ऐसे न बोलो पता नहीं किस अच्छे कार्य या पुण्य का  फल है कि हम लोगों की तुम बहू बनी।
      जिस दिन अमर बहू व बच्चों के साथ वापस अमेरिका जाने के लिए निकल रहे थे केवल परिवार के लोगों के ही आंखों में ही आसूं न था, लग रहा था जैसे घर भी रो रहा था और पूछ रहा था भैया अब कब आओगे। जब अमर परिवार सहित हवाई अड्डे पर पहुंचे तो उन लोगों को वहां पर विदा करने के लिए पहले से ही सैकड़ों शुभचिंतक मौजूद थे। यह सारे लोग शायद अखंड बाबू व अमर को सर प्राइस देकर विदा करने के लिए एकत्रित थे। अमर सबसे हाथ मिलाते हुए और सोफिया हाथ जोड़कर और आंखों में खुशी व कृतज्ञता का आंसू लेकर तथा हाथ हिलाकर विदाई का संकेत देते हुए एयरपोर्ट की अंदर चलें गये। अखंड बाबू यह समझ न पा रहे थे कि यह सम्मान कन्या भोज के कारण है कि सेवा का प्रतिफल है। शायद यह सम्मान कन्या भोज से सेवा का प्रतिफल था।

यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा