Sunday, May 2, 2021

सही सोच का भाव

 

                      सही सोच का आभाव
इस दुनिया, देश, समाज व परिवार में सही सोच का अभाव होने के कारण कितनी विसंगतियां उत्पन्न होती है इसको झेलने वाला ही महसूस कर सकता है। इसी गलत सोच के कारण,परिवारों की, व्यक्तियों की, गांव समाज में कितनी जग हंसाई होती है, इसका अनुभव उसका सामना करने वाला ही जानता है। ऐसे ही विसंगतियों को वर्तमान में सामना करता हुआ, दो ऐसे भाइयों का परिवार था जो शुरू में एक मत थे, जब तक उनका परिवार एकमत था तब तक परिवार की प्रसिद्धि व सम्मान गांव में चारों तरफ फैली हुई थी। क्या शादी विवाह, क्या जग प्रयोजन। इन सब आयोजनों में द्वार पर लोगों का हूजूम ही इस घराने के प्रसिद्धि की गवाही करता था। बड़े भाई के स्वर्गवास के पश्चात पता नहीं छोटे भाई और बड़े भाई के परिवार में किस बात पर ऐसा मतभेद पैदा हो गया कि दोनों परिवार एक दूसरे से अलग होने के लिए हठ कर बैठे, रिश्तेदारों के तमाम समझाने बुझाने पर भी अपनी हठधर्मिता छोड़ने को तैयार न थे। कितना सगे संबंधियों व रिश्तेदारों ने उन दोनों भाइयों को परिवार की जग हंसाई के बारे में समझाया पर कोई समझाने को तैयार न था। पता नहीं वह इन बातों को समझ पा रहे थे या नहीं यह तो वही जानते होंगे। हो सकता है वह इनकी बातों को समझते हो पर हठधर्मिता उनको सही बात को समझने से दूर कर रही थी। वह रिश्तेदारों व सगे संबंधियों से एक दूसरे की दोष, कमियों व खोटों को ही बताते रहते थे या यूं कहिए कि वे एक-दूसरे की एक-एक कमियों को बताते रहते थे। घर परिवार को एकता में बांधे रहने वाला, टीन - टप्पल के समान होता है जो अपने ऊपर गिर रहे ठंडी, गर्मी, बरसात, आधी के झोंके व ओले के थपेड़ों को ऐसे सहन करता है कि उसमें रहने वाले के ऊपर कोई आंच नहीं आने देता है यही स्थिति शायद बड़े भाई की थी उनके जाते ही परिवार बिखर गया।
   इसे ज़िद्द कहे या एक दूसरे से द्वेष ने घर के साम्मान और प्रतिष्ठा को दरकिनार करते हुए बरामदे में बंटवारे की दीवार खींच दी। अब तक जो बात थोड़ी अंदर थी वह खुलकर बाहर दिखने लगी थी। लोग कहते हैं कि समय के साथ बहुत कुछ भुला दिया जाता है लेकिन पट्टी दारी के द्वेष को पाटीदार शायद ही भूल सकते हैं वह तो एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं, अवसर,ढूंढते रहते है। जब मन में घृणा व द्वेश का स्थान एक दूसरे के प्रति आ जाए तो शायद वह व्यक्ति एक दूसरे को नीचा दिखाने का अवसर नहीं छोड़ना चाहता है। चाहे वह अवसर कितना भी शुभ क्यों न हो। द्वेष में व्यक्ति कितनी ओछी हरकत कर जाता है यह सामान्य व्यक्ति के कल्पना के बाहर है।
    ऐसा ही एक शुभ अवसर था, जिसमें बड़े भाई के पोते शादी होनी थी। घर में खुशी का माहौल था सब चाहते थे कि पूरे घर की रंगाई पुताई करवाई जाएं जिससे घर की रौनक में चार चांद लग जाएं आने वाले रिश्तेदार भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएं कि चलो भले बरामदे में दीवार बन गई किंतु अभी भी मन में उस द्वेश का स्थान नहीं रहा जो हम लोगों ने सुन रखा था। जैसे ही बड़े भाई के बेटे ने अपने चाचा के बरामदे में पेंटिंग करवाने हेतु अपने चाचा से बोला उसके चाचा ने इनकारी भाव दिखाते हुए बोला कि बेटा शादी तुम्हारे बेटे का है न कि हमारे बेटे का या फिर उनके बेटों का है अतः सफेदी या पेंटिंग अपने हिस्से में कराओ। जिस दिन बरामदे में दीवाल खींच गई थी उसी घर की इज्जत  मिट्टी में मिल गई थी अब ऊपरी ताप झाप से कोई फायदा नहीं है। जानने वाले सब जानते हैं की दोनों भाइयों का परिवार अब अलग-अलग रहता है। चाचा सब बात ठीक है, यह बीते दिनों की बात है। घर पर चार - छः रिश्तेदार और गांव जवार के लोग आएंगे जब सामने से आधा बरामदा साफ सफाई व पेंटिंग करा हुआ दिखेगा और आधा गंदा व मटमैला सा दिखेगा तो इसमें हम लोगों की और भद्द पटेगी। जो बात बीत गई उसको भूल कर अब आगे बढ़ा जाएं घर में एक शुभ कार्य हो रहा है उसको हंसी खुशी मिलजुल कर किया जाए। चाचा को नहीं मानना था उन्होंने अपने भतीजे के अनुनय विनय नहीं सुना और अंत में अपने बरामदे में साफ सफाई और पेंटिंग का कार्य नहीं करवाया।
     निश्चित समय पर द्वार पर तिलक चढ़ाने के लिए लोगों  का व रिश्तेदारों का आगमन हुआ घर में, रिश्तेदारों में हंसी खुशी का माहौल था किंतु जैसे ही नजर बरामदे के आधे भाग पर जाता लोग अपने मन में भतीजे( रमेश ) बुरा भला कहते और एक दूसरे से कहते कि यदि रमेश बरामदे के  आधे भाग की और पेंटिंग करवा देते तो इनका कितना पैसा लग जाता। अरे कुछ पैसा ही लग जाता पर घर की रौनकता में चार चांद तो लग जाती। यही घर सामने से देखने पर कितना सुंदर लगता।
     लोग आपस में इस बात को लेकर दबी जबान में बात कर रहे थे तथा कभी-कभी उनके चाचा से अपनी सहानुभूति भी जता देते थे कि यदि रमेश आपके बरामदे की पेंटिंग करवा देते तो कोई गरीब ना हो जाते हैं। चाचा जी भी उनकी बातों में हां में हां मिलाकर वहां से निकल जाया करते थे। उनको भी अपनी गलती का एहसास हो रहा था किंतु करते भी तो क्या करते अब समय बीत चुका था, सही समय पर उचित निर्णय न लिया जाए तो पछताने के अलावा हाथ में कुछ ना रहता है। यह बात सोच कर उनके अंदर निराशा भी आ रही थी किंतु क्या करते हाथ मलने के अलावा अब कुछ न था।

यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
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