Tuesday, May 26, 2020

उदार मन

उदार मन
                       
सफलता की आशा और विश्वास ही इस संसार में मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। यदि मनुष्य को यह पता हो कि वह जो कर्म कर रहा हैं उसका अच्छा फल प्राप्त नही होगा तो शायद ही कोई वह कर्म करने को तैयार होगा। लेकिन केवल कर्म करना ही मनुष्य के बस में हैं परिणाम पर शायद उसका कोई बस नहीं है। इस संसार में प्रकृति पर किसी का नियंत्रण नहीं है वह मनुष्य के लिए नित नए-नए चुनौतियों को  पैदा करती रहती है। प्रकृति कहती है तू पुरुषार्थी है कर्मशील हैं तो इस बाधा को चीर कर आगे बढ़ जो इस चुनौती को स्वीकार करता है और आगे बढ़ कर बाधा को पार करके नए नए प्रतिमान स्थापित करता है उसी की यह दुनिया पूजा करती है तथा सर आंखों पर बिठाती है।
  देश के उत्तर क्षेत्र का एक नगर अपने कृषि उत्पादों के लिए प्रसिद्ध था। वहां के कृषक इस साल अपने खेतों में जब अपनी फसलों को लहलहाते हुए देखते तो जैसे उनकी छाती चौड़ी हो जाती थी। धान के फसलों की जड़ों को देखकर किसानों को लगता था कि उसकी जड़े उनके मुठ्ठे में ही ना आ पाएंगी। इसको देखकर  किसान आपस में यह चर्चा किया करते थे कि इस बार यदि बीघा पीछे पन्र्दह हजार की आमदनी न हुई तो समझो कुछ भी ना हुआ। वह आपस में तरह-तरह की चर्चाएं करते थे। चर्चाओं के दौरान एक बैठकी में एक किसान ने बोला ऊपर वाला बड़ा कारसाज हैं, देखो पिछले साल फसल सूखे से मारी गई थी किंतु इस बार ईश्वर ने समय-समय पर बारिश की है। और हम लोगों के घर में पैसे के रूप में अन्न से भर देंगे जो पिछली साल हम लोगों का घाटा हुआ था वह इस बार इस फसल के साथ ईश्वर देने को तैयार हैं। इसी दौरान दूसरे किसान ने कुछ ज्यादा ही बिचार युक्त बात रखी की जब तक फसल किसान के घर में ना आ जाए तब तक इतना खुश न होना चाहिए, किसानों को कोई खुश नहीं देखना चाहता है चाहे वह ईश्वर हो चाहे वह इस देश की सरकार हो। तभी कोई विचार युक्त किसान ने पहले किसान के समर्थन में अपनी बात को इस तरह तार्किक रूप से रखा और सभी किसानों को उसकी बात पर हामी भरना पड़ा, अरे किसान की गृहस्थी कब पक्की हुई हुई है उसकी तो गृहस्थी हमेशा कच्ची ही रहती है। बारिश कम हुआ अर्थात सूखा पड़ गया तो उत्पादन ही कम हुआ और फसल का दाम बढ़ा तो सरकार विदेश से वह चीज लाकर इतना स्टाक कर देगी कि जो दो चार पैसे की आमदनी होनी थी उस पर रोक लग जाएं और यदि ईश्वर बारिश ठीक कर दे फसल ठीक ठाक हो जाए तो उसका दाम ही इतना कम हो जाएगा कि शायद उत्पादन लागत भी किसान को न मिल पा पाए। वहां इकट्ठे किसानों के जितनी मुंह उतनी बातें कुछ खुश फहमी तो निराशजनक तर्क वितर्क, इस तरह से किसानों का समय कट रहा था।
  कहते हैं लोग ईश्वर बड़ा कारसाज हैं वह जो जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार उसको फल देता है लेकिन एक बात समझ में नहीं आती है कि किसान ने ही उसका क्या बिगाड़ रखा है जब वह बारिश की आशा करता है तो बारिश नहीं यदि बारिश समय से हो गई फसल ठीक-ठाक हुई तो बाढ़ के रूप में ऐसा तांडव मचा देता है कि उसकी सारी फसल नष्ट हो जाती है। इधर किसानों में अपनी फसल को लेकर तरह-तरह की चर्चा थी, खुशफहमी थी, उधर बारिश ने ऐसा जोर पकड़ा कि बारिश खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी सब नदी, नाले, ताल व तालाब भर गए थे और बाढ़ की स्थिति बन गई थी। क्षेत्र में सरकार के द्वारा नेपाल के समीपवर्ती इलाके में सिंचाई के लिए बनाई गई  बैराज भी पूरी तरह लबालब भर चुका था। और बारिश और बारिश अब और कुछ यह बैराज झेलने को तैयार न था। इधर बारिश थमने का नाम न ले रही थी उधर बैराज में पानी सीमा से ज्यादा होने लगा यहां तक कि पानी अब ओवरफ्लो होकर बहने लगा अब ऐसा लगता था कि यदि बैराज का फाटक न खोला गया तो फाटक टूटकर क्षेत्र में तबाही का मंजर मचा देगा। अभी इस पर चर्चा हो ही रही थी तभी किसी ने सूचना दी बैराज का फाटक टूट गया है और क्षेत्र में तबाही का मंजर शुरू हो गया है। जब तक अगल बगल के गांव इलाकों तक यह सूचना जाती कि बैराज का फाटक टूट चुका है आप लोग सुरक्षित स्थानों पर चले जाएं।  तब तक तो बाढ़ ने तबाही का मंजर दिखाना शुरू कर दिया था।
  यह कैसा मंजर था जो बाढ़ की विभीषिका व विकरालता को देखा हो वह ही इसकी कल्पना कर सकता है। जब तक आदमी संभले अपने घर की डेहरियों से कुछ अनाज समेटे, कपड़े लत्ते, पैसे कौड़ियों, गृहस्ती व मवेशियों को समेट कर किसी ऊंचे स्थान पर शरण ले तब तक बाढ़ ने इलाके में तबाही का मंजर मचा दिया था। जिधर नजर दौड़ाई जाए उधर बर्बादी का आलम ही नजर आता था कहीं रास्ते कटे नजर आ रहे थे तो  कहीं नंदी के ऊंचे ऊंचे तट बंध कटे नजर आ रहे थे। गांव के गांव डूब गए थे। कमजोर मकान ढहे नजर आ रहे थे। तो झोपड़िया, बड़े-बड़े पेड़ तो कहीं वृक्षों के तनों के लट्ठे, तो कहीं मवेशीयां बहते हुए नजर आ रही थी। कोई चाह कर भी कोई सहायता नहीं पहुंचा पा रहा था सब असहाय ही नजर आए थे। इलाके के गांव के लोग अपने बर्बादी का आलम अपनी आंखों के सामने देख रहे थे और कुछ कर भी ना पा रहे थे। अपनी आंखों के सामने  अपने बर्बादी का आलम देखना है शायद इसी का नाम प्राकृतिक आपद है। वह अपनी धन-संपत्ति बचाएं कि अपने परिवार , बच्चों व इष्ट मित्रों को बचाएं। गांव वालों का आश्रय या तो रेल लाइन का किनारा, रेलवे स्टेशन या फिर सड़क का किनारा था जोकि थोड़े ऊंचाई पर था। अगर गांव में कोई रुका था तो वह व्यक्ति जिसका पक्का मकान था वह भी अपने छत पर किसी सहायता के आस में था।
  जैसे ही शहर में यह खबर फैली की शहर से सटे गांव के इलाके बाढ़ से डूब गए हैं चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है, शहरवासी बाढ़ ग्रस्त इलाकों को देखने के लिए निकल पड़े। शायद ही इसके पहले किसी शहरवासी ने इस तरह के बाढ़ का मंजर देखा हो। लोग बर्बादी का यह मंजर देखते और गांव वालों पर तरस खाते हैं। कोई कहता बेचारों की सारी गृहस्थी चली गई, सब बर्बाद हो गए सब ऊजड़ गए अब पता नहीं बेचारों की गृहस्थी बाढ़ के बाद कैसे चलेगी। शहर से बाढ़ देखने एक से एक धन्ना सेठ आते बाबू साहब व जमीदार आते लेकिन कोई भी अफसोस प्रकट करने, ईश्वर को कोसने के अलावा एक पैसे की सहायता न कर रहा था। अगर कुछ सहायता दिख रही थी तो सरकार की तरफ से भोजन के पैकेट का वितरण, फंसे हुए ग्रामीणों को उनके घरों से बाहर लाकर उनको किसी ऊंचे स्थान पर सुरक्षित ठहराना। जिनको इलाज व दवा की जरूरत थी उनके लिए डॉक्टरों का कैंप लगवाना इत्यादि। अगर और कोई सहायता करता हुआ नजर आ रहा था तो कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं और प्रचार की भूखी संस्थाएं क्योंकि उसमें सहायता का भाव कम तथा अपने संस्था का प्रचार व फोटो बाजी के भाव के ज्यादा दर्शन हो रहे थे।
  इस समय जो भी बाढ़ पीड़ित थे उनका एक अलग समुदाय था ना तो उनमें कोई गरीब दिख रहा था और ना ही कोई अमीर। सब मांगता ही नजर आ रहे जैसे ही भोजन का पैकेट, बिस्कुट, पानी, भुना चना तथा लईया कोई भी सहायता सामग्री आती  लूट पड़ जाती थी। गांव के गरीब गुरवे यह देखकर बहुत चकित थे जिनको वो आज तक बहुत बड़ा खेतिहर व बड़का घर के भैया व बाबू के नाम से जानते थे वह लोग भी हाथ फैलाने को मजबूर थे। शायद भूख छोटे बड़े का भेद मिटा देता है और यहां यह स्पष्ट दिख रहा था।
  शहर वालों के लिए लगता था जैसे यह पर्यटन स्थल बन गया था, कोई भी बाढ़ पीड़ितों के साथ संवेदना प्रकट करने के अलावा एक पैसे की सहायता ना कर पा रहा था। उसी शहर से गांवों की बाढ़ व बेहाली का हाल सुनकर सेठ अमृतलाल जिनकी शहर में कपड़े की दुकान थी, वह भी बाढ़ का दृश्य देखने पहुंचे। सेठ जी जिधर भी अपनी नजर घुमा रहे थे उधर बर्बादी का आलम ही नजर आ रहा है। कहीं गृहस्ती के समान डूबे व किनारे बिखरे पड़े थे, तो कहीं कोई मवेशी किनारे मरा हुआ पड़ा था। वहां सेठ जी जिसको भी देख रहे थे सब मांगता ही नजर आ रहा था। लगता था, इस बाढ़ ने एक से एक स्वाभिमानी व्यक्तियों के स्वाभिमान को पद दलित कर दिया था, वहां कोई भी कुछ सहायता करने के लिए पहुंचता तो सब इसी आशा में दिखाई देते थे कि कुछ सहायता हमे भी मिल जाती। अगर खाने पीने की कोई सामग्री पहुंचती तो जैसे उसके ऊपर टूट पड़ जाता था।
  यह सब दृश्य देखकर सेठ जी का हृदय इतना द्रवित हो गया की उनको लगा की संचित किये गये अपने धन संपत्ति का उपयोग इस समय नहीं किया गया तो यह तिजोरी या बैंक में पड़ा हुआ कूड़ा करकट के ही सामान होगा। सेठ जी यहां से तुरंत अपने घर को चल दिए और अपनी पत्नी से वहां के हृदय विदारक दृश्यों का वर्णन करते हुए कहने लगे की यदि इस धन-संपत्ति का उपयोग बाढ़ पीड़ितों की सहायता में नहीं किया जा सका तो यह धन कूड़ा करकट के समान ही समझो। उनकी पत्नी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी उन्होंने भी बाढ़ पीड़ितों की हर संभव सहायता करने की इच्छा व्यक्त की। अब सेठ जी के लिए क्या था वह तुरंत बाजार से आटा, दाल, चावल, नमक, तेल, आलू, प्याज का पैकेट बनवा कर ट्रक पर लादकर बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए बाढ़ पीड़ितों को टिकाए गए स्थल पर पहुंच गए। और घूम घूम कर परिवार परिवार में एक पैकेट देने लगे और यह कहते जाते थे कि मैं अभी लौट कर आता हूं और जो आवश्यकता होगा मुझे बताइएगा मुझसे जो बन पड़ेगा वह मैं सब करूंगा यदि इस विपत्ति में भी मैं आप लोगों के काम ना आ सकता तो धिक्कार है इस जीवन का। इस तरह वह सहायता करते जाते थे और आवश्यकताओं को पूछते जाते और हर संभव बाढ़ पीड़ितों को मदद का प्रयास कर रहे थे। यहां तक कि बाढ़ खत्म हो जाने पर जब बाढ़ पीड़ित अपने गांव घरों में लौट आए तब भी वह घर गृहस्ती को सुचारू रूप से चलाने के लिए पीड़ित व्यक्तियों की मदद करते रहे यहां तक कि मदद करते करते उनका दुकान कपड़ों से खाली नजर आने लगा था। यह सब देख कर उनकी पत्नी को टोकना पड़ा की बच्चों के लिए और अपने लिए भी कुछ रखिएगा या सब खाली कर दीजिएगा।
  मनसा (सेठ जी की पत्नी) तुमको याद है जब हम लोग इस शहर में आए थे तो गृहस्ती के नाम पर एक लोटा भी ना था। जो कुछ भी हम लोगों ने कमाया है वह इन्हीं लोगों की देन है और आज इस विपत्ति में इन लोगों को छोड़ दूं तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी करेगी और कहेगी जिन लोगों ने तुम्हें इस स्तर तक पहुंचाया है, जिनके कारण तुम आज नगर सेठ कहलाते हो, तुम उन लोगों को इस मुसीबत में केवल इसलिए छोड़ रहे हो कि तुम्हारी कुछ दमड़ी न खर्च हो जाए। मैं ऐसा नहीं कर सकता मैं इन लोगों को इस मुसीबत में नहीं छोड़ सकता जब तक मेरे पास सहयोग करने लायक एक एक पाई होगा तब तक मैं इन लोगों का सहयोग करूंगा। आगे का ईश्वर सब देखेगा। सेठ जी अपने वचन पर कायम रहे यहां तक पूरा दुकान खाली हो गया घर का खर्च जैसे तैसे चल पा रहा था। पर सेठ जी के मुख पर मुस्कान और प्रसन्नता का जरा भी आभाव न था। जब सेठ जी कुछ इस सहायता कार्य से स्थिर हुए और उन्होंने अपना दुकान खोला तो दुकान बिल्कुल खाली नजर आ रही थी। उनके प्रतिद्वंदी दुकानदार यह देख कर अंदर ही अंदर प्रसन्न थे की अब दुकान में कोई माल नहीं है और यह हाथ से भी खाली हो गए हैं, अभी तक जो दुकान पर भीड़ लगी रहती थी अब इनकी दुकान पर समान ना होने के कारण हम लोगों के वहां भीड़ लगेगी। मन ही मन प्रतिद्वंदी दुकानदार चर्चा किए करते थे चले थे राजा हर्षवर्धन बनने चले थे,अब देखते हैं इनकी सहायता कौन करता है।
  कहते हैं जब तक हुनर आपके साथ हैं, आपकी सम व्यवहारिक बुद्धि आपके साथ हैं, ईश्वर आपके साथ है, आप कर्म करने के लिए तैयार हैं, तब तक कोई कितना भी आपका अनिष्ट चाहे आपका अनिष्ट होने वाला नहीं है। सेठ अमृत लाल की साख अभी बाजार में थी उन्होंने जिस भी थोक विक्रेता व्यापारी से कपड़ा भेजने का आग्रह किया थान के थान व गट्ठर के गट्ठर दुकान पर माल की आवक होने लगी दुकान फिर से भरने लगी दुकान मैं पुनः रौनकता लौटाई आई। पैसा देने की बारी थी व्यापारियों को तो सेठ जी की साख अभी बैंक में बनी हुई थी। जब तक मुट्ठी बंद है तब तक वह करोड़ों की है जैसे ही मुट्ठी खुलेगी शायद वह खाक की  हो जाय। सेठ जी की मुट्ठी अभी भी बंद थी, वह करोड़ों की थी यानी सेठ जी की साख अभी बैंक मे थी। बैंक ने भी उनके एक जबान पर लोन दे दिया। सेठ जी अपनी देन दारियों को निपटाना शुरू कर दिया। सेठ जी के दुकान में पुनः रौनकता लौट आई थी। अब गांव वाले बाढ़ से थोड़ा थोड़ा निवृत्त हो चुके थे उनके दिलो-दिमाग में सेठ जी अपना घर बना चुके थे। गांव वालों को लगता था सेठ जी की दुकान अपनी दुकान है अब पहले से दोगुनी क्या कहें चौगुनी भीड़ नजर आती थी सेठ जी के दुकान पर यहां तक कि सेठ जी को दुकान बंद करने के लिए हाथ जोड़कर दूसरे दिन आने के लिए के लिए आग्रह करना पड़ता था। वह अपने बकायों को धीमे-धीमे चुकाते जाते थे। इसी में से कुछ  धन अब गरीब गुरबों की सहायता में लगाना अपनी नियमित दिनचर्या का हिस्सा बना लिए थे।
   प्रतिद्वंदी दुकानदार उनसे ईर्ष्या और डाह में जले जा रहे थे। इधर सेठ जी समुद्र के भांति शांत और उदार मन से अपने काम में तल्लीन नजर आते थे ना किसी से ईर्ष्या था ना तो किसी से द्वेष था। मन में इच्छा थी तो केवल और केवल समाज के जरूरतमंदों की उदार मन से सहायता करते रहना।
 
  गोविंद प्रसाद कुशवाहा