Friday, August 21, 2020

मकान

 मकान

  मनुष्य को जीवन जीने  की आवश्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान तीनों को सबसे प्रमुख माना जाता है। इसमें मकान अंतिम स्थान पर आता है। फिर भी मनुष्य जब मकान बनाता है तो उसको अपने हैसियत से बढ़कर बनवाने का प्रयास करता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि

मूर्ख आदमी बड़ा बड़ा मकान बनवाता है, बुद्धिमान आदमी उसमें किराएदार बनकर रहता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार मकान बनवा है उसकी सोच में यह बात रहती है कि मैं मकान लेकर कहीं जाऊंगा थोड़े ही।


श्याम बाबू कल अपनी पुरानी सोसाइटी में गये थे। वहां पर जब कभी वह जाते हैं तो उनकी कोशिश कोशिश होती थी कि अधिक से अधिक मित्रों से मिल लें इस दुनिया में मनुष्य क्या लेकर आया है क्या लेकर जाएगा यह एक बात व्यवहार ही है जो उसको इस दुनिया में उसे खुशी प्रदान करता है। इसलिए वह सोसाइटी के ज्यादा से ज्यादा पुराने मित्रों से मिलना चाहते थे, जब भी अपनी इस पुरानी सोसायटी पर आते थे।

  जब वह अपनी पुरानी सोसाइटी के गेट पर पहुंच कर सोसाइटी के गार्ड से पुराने लोगों के बारे में अभी पूछताछ कर ही रहे थे तथा अंदर जाने के लिए आगंतुक रजिस्टर पर अपना इंद्राज भर रहे थे तभी एक पुराना हटा कट्ठा नौजवान उनके सामने आया जिसको उन्होंने पहचानते हुए बोला डब्बू तुम  बताओ आंटी जी और विजय बाबू कैसे हैं।

  साहब आंटी जी तो रही नहीं और विजय बाबू को अमेरिका की किसी बड़ी कंपनी में नौकरी मिल जाने पर वही नौकरी करने चले गए और वहीं पर बस गए हैं और वहां से उनका बहुत ही कम आना जाना होता है। आंटी जी जब जिंदा थी तब भी विजय बाबू का बहुत कम आना जाना होता था। आंटी जी की सेवा भाव हम पति पत्नी  मिलकर किया करते थे। विजय बाबू बस वहां से पैसा भेज दिया करते थे। आंटी जी से विजय बाबू जब भी कहते थे की मां तुम यही अमेरिका चली आओ तो आंटी जी कभी अपनी जन्म भूमि का हवाला देकर तो कभी अपने इस मकान की देख रेख का हवाला देकर बोलती थी की तेरे पापा ने यह मकान को बड़े शौक से लिया था। यहां से चली जाऊंगी तो मकान पर कोई कब्जा कर लेगा यह उनकी निशानी है इसे मैं बेचना नहीं चाहती हूं। आंटी जी को इस मकान से बहुत लगाव था। विजय बाबू अमेरिका में अपने कार्य में इतने व्यस्त रहते हैं कि वह सालों साल आंटी जी से मिलने न आ पाते थे। यहां तक विजय बाबू आंटी जी के क्रिया कर्म में भी ना पहुंच पाए थे, हम लोगों ने उनका क्रिया कर्म किया। विजय बाबू कुछ दिन पहले यहां आए थे वह इसका देखरेख करने को  मुझे बोल कर गए हैं और समय-समय पर सोसाइटी चार्ज तथा अन्य खर्चों को भेज दिया करते हैं जिनको मैं सोसाइटी में जमा कर देता हूं।

  मैं अब अपना परिवार यही लेकर आ गया हूं। मेरे बच्चे भी इसी सोसाइटी में रहते हैं और यहीं बगल के स्कूल में पढ़ने जाते हैं। मैंने यही सोसाइटी के बगल में  एक दुकान खोल लिया है। जिससे सोसाइटी के लोग अपने दैनिक आवश्यकता व किराना के सामान सामान ले जाते हैं और मुझे ठीक-ठाक आमदनी हो जाया करती है। इसी से मेरे परिवार का खर्च चल जाता है। गांव से भी कभी-कभी मेरा भाई कुछ अनाज सब्जी इत्यादि लाकर पहुंचा दिया करता है। अब मेरा जीवन ठीक-ठाक कट रहा है। भाइयों तथा गांव वालों को भी कभी कभार शहर में इलाज इत्यादि करवाना होता है तो वह यहीं आकर रुकते हैं मैं उन लोगों का भरसक सहायता करने का प्रयास करता हूं। लगता है यह ईश्वर ने आंटी जी को सेवा करने का प्रतिफल में मुझे दिया है।

  श्याम बाबू, डब्बू की बातों को सुनकर ऐसा महसूस कर रहे थे कि मनुष्य को एक दिन सब कुछ छोड़ कर यहां से चले जाना है, फिर भी धन-संपत्ति, घर द्वार बनाने को लेकर मनुष्य हाय हाय किए रहता है। लगता है जैसे यह धन संपत्ति अपने साथ लेकर जाएगा। किसी ने ठीक ही कहा है की पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय। धन का उचित उपभोग यह है कि आवश्यक खर्चों के बाद जो धन बच जाए उसको गरीबों जरूरतमंदों की सेवा   में लगाने में हीं सही सदुपयोग है। पता नहीं माताजी कितना पैसा बैंकों में छोड़ कर चली गई होंगी उसको कोई जानता ही नहीं होगा। माता जी भी इस मकान की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी। माताजी अपनी जिंदगी गुजार कर ईश्वर के पास चली गई यह मकान वैसे के वैसे खड़ा है और शायद यह हम लोगों को बतलाने की कोशिश कर रहा है कि कितने लोग इस पृथ्वी पर अपने नाम से धन संपत्ति वैभव के लालच में अपना उचित कर्म और उचित जीवन निर्वाह किये बिना इस पृथ्वी से चले जाएंगे और मैं वैसे के वैसे बना रहूंगा।  माताजी शायद अपने बच्चे के पास चली गई होती तो अपने पोते पोतियों को खिलाने का आनंद लेते हुए अपने जीवन का अंतिम पहर गुजारती और पोते पोतियां भी दादी का प्यार दुलार पाकर निहाल हो  जाते। केवल पोते पोतियां ही नहीं अपने दादी का प्यार और दुलार पाने से ही वंचित हो गई बल्कि माता जी भी अपने बेटे से मुखाग्नि पाने से वंचित हो गई। यह धन संपत्ति का माया मोह हमें किन-किन सुखों से वंचित कर देता है शायद मरने वाला नहीं जानता है वह तो मरकर इस दुनिया से विदा हो जाता है, किंतु इस संसार के प्राणी इस तरह की घटनाओं से कोई सबक न लेकर फिर उसी राह पर चलते रहते हैं। शायद ईश्वर ने माया मोह का ऐसा जाल बुन दिया है। जब तक व्यक्ति अपने बुद्धि से इस जाल को नहीं कटेगा तब तक इसमें फंसकर अपने सुकून व सुखों से वंचित होता रहेगा।

  


गोविंद प्रसाद कुशवाहा


Thursday, August 6, 2020

बेटियां

एक गर्भवती स्त्री ने अपने पति से कहा, "आप क्या आशा करते हैं लडका होगा या लडकी"

पति-"अगर हमारा लड़का होता है, तो मैं उसे गणित पढाऊगा, हम खेलने जाएंगे, मैं उसे मछली पकडना सिखाऊगा।" 

पत्नी - "अगर लड़की हुई तो...?" 
पति- "अगर हमारी लड़की होगी तो,
मुझे उसे कुछ सिखाने की जरूरत ही नही होगी"

"क्योंकि, उन सभी में से एक होगी जो सब कुछ मुझे दोबारा सिखाएगी, कैसे पहनना, कैसे खाना, क्या कहना या नही कहना।"

"एक तरह से वो, मेरी दूसरी मां होगी। वो मुझे अपना हीरो समझेगी, चाहे मैं उसके लिए कुछ खास करू या ना करू।"

"जब भी मै उसे किसी चीज़ के लिए मना करूंगा तो मुझे समझेगी। वो हमेशा अपने पति की मुझ से तुलना करेगी।"

"यह मायने नही रखता कि वह कितने भी साल की हो पर वो हमेशा चाहेगी की मै उसे अपनी baby doll की तरह प्यार करूं।"

"वो मेरे लिए संसार से लडेगी,
 जब कोई मुझे दुःख देगा वो उसे कभी माफ नहीं करेगी।"

पत्नी - "कहने का मतलब है कि, आपकी बेटी जो सब करेगी वो आपका बेटा नहीं कर पाएगा।"

पति- "नहीं, नहीं क्या पता मेरा बेटा भी ऐसा ही करेगा, पर वो सीखेगा।"

"परंतु बेटी, इन गुणों के साथ पैदा होगी।
किसी बेटी का पिता होना हर व्यक्ति के लिए गर्व की बात है।"

पत्नी -  "पर वो हमेशा हमारे साथ नही रहेगी...?"

पति- "हां, पर हम हमेशा उसके दिल में रहेंगे।"

"इससे कोई फर्क नही पडेगा चाहे वो कही भी जाए, बेटियाँ परी होती हैं"

"जो सदा बिना शर्त के प्यार और देखभाल के लिए जन्म लेती है।"

"बेटीयां सब के मुकद्दर में, कहाँ होती हैं

Tuesday, August 4, 2020

लक्ष्य हीन



एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी।
एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा।

यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली।

वह सोचने लगा, अहा ! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं ?

कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा.. भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता।

अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।

नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ।

सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई।

चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।

कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। 
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आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।

शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।
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जीत किसके लिए, हार किसके लिए
      ज़िंदगी भर ये तकरार किसके लिए..
जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
      

 

Monday, July 20, 2020

ईश्वरीय विधान

                                                                ईश्वरीय विधान

हिंदू धर्म या फिर कहिए सनातन धर्म की मान्यता है कि पिछले जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार ही आपका अगला जन्म विभिन्न योनियों में होता है। उसी योनि में आपको अपने पिछले जन्म के अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं।  जब आपका कर्म इतना अच्छा हो की ईश्वर भी आपके कर्मों में कोई बुराई न ढूंढ पाए तो आपको स्थान ईश्वर के समकक्ष मिल जाता है और ईश्वर आपको अपने साथ बैठा लेते हैं और इस भवसागर से आपका पार लग जाता है। संभव हो यह धारणा समाज में इसलिए फैलाई गई हो कि व्यक्ति जीते जी अच्छा कर्म करें जिससे समाज व देश उन्नति करें और आगे बढ़े।  सच्चाई जो कुछ भी हो किंतु इसी समाज में कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनको देखकर कभी कभी व्यक्ति का ईश्वरी विधान पर से विश्वास उठ जाता है तो कभी उसको महसूस होता है कि  ईश्वर के दरबार में देर है अंधेर नहीं है।
  ऐसे किसी भी विधानो की खिल्ली उड़ाना बाबू राम सिंह का काम था। जो अपने क्षेत्र के दबंगों में गिने जाते थे। जबरदस्ती किसी भी चीज को पाने के लिए अनाधिकार चेष्टा करना उनके प्राथमिक गुणों में से था। पता नहीं यह उनके जातीय गर्व के कारण था या फिर अनाधिकार चेस्टात्मक रूप से किसी चीज को प्राप्त करने को लेकर था। बात जो कुछ भी हो उनके इस गुण के कारण उनके हितैषी से लेकर उनके ऊपर से लेकर नीचे तक के सहयोगी कर्मचारी हमेशा परेशान रहते थे।
  बाबू राम सिंह एक सरकारी विभाग के कार्यशाला में इंचार्ज सुपरवाइजर स्तर के मुलाजिम थे, जहां पर लोहे से भिन्न भिन्न प्रकार की पार्ट पुर्जों का निर्माण किया जाता था और वहां से साइट पर उपयोग करने के लिए भेज दिया जाता था। इसके अलावे बहुत से उपकरणों/पार्ट पुर्जों का कई जगहों से निजी कल कारखानों से खरीदना पड़ता था क्योंकि यह सरकारी कार्यशाला सारे उपकरणों की पूर्ति न कर पा रही थी। इन सारी क्रियाकलापों को देखते हुए बाबू राम सिंह के मन में एक विचार आया की क्यों न मैं भी अपने किसी सगे संबंधी के नाम पर एक कारखाना खोल लूं और अपने कारखाने से मैं खुद ही विभिन्न प्रकार के उपकरणों तथा पार्ट पुर्जों को बनाकर विभाग को सप्लाई किया करूं। कहते हैं कि विचार ही किसी भी कार्य की प्रथम जननी है इसका प्रस्फुटन बाबू राम सिंह के विचारों में हो चुका था। उन्होंने जल्द ही अपने विचारों को क्रियात्मक रूप में परिवर्तित किया और कुछ ही महीनों में शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स के नाम से कारखाना बनकर तैयार हो गया।  अब शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स विभिन्न विभागों से निविदा के माध्यम से भिन्न भिन्न प्रकार के उपकरणों और कंपोनेंट्स का निर्माण करके विभागों को सप्लाई करना शुरू कर दिया। जब से शीतल इंजीनियरिंग वर्क्स ने अपना काम शुरू किया तब से सरकारी कारखाने के कर्मचारियों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया की उनके भंडार से लोहे की छड़, प्लेट, चादर पता नहीं कब कहां गायब हो जाया करती थी।
  किसी भी सरकारी विभाग की एक प्रमुख विशेषता है की आप काम कुछ कम करें यह चलेगा इसके तमाम जवाब हैं किंतु कागज में जो अंकित भंडार संख्या है, वह आपके भंडार की वास्तविक संख्या के बराबर ही मिलना चाहिए। यदि यह वास्तविक संख्या से थोड़ा भी कम या ज्यादा है तो इसके लिए भंडार धारक पूर्ण रूप से जिम्मेदार है और विभागीय कार्यवाही जो की जाएगी वह रिकवरी से लेकर नौकरी से बर्खास्तगी तक की सजा है। यहां भंडार में थोड़ी बहुत कमी हो अर्थात दाल में नमक के बराबर हेरफेर हो तो कुछ इधर उधर खपत दिखा करके ठीक किया जा सकता था, किंतु यहां पर तो लगता था जैसे नमक में ही दाल बन रही थी।
  इस तरह की घटनाओं से चिंतित होकर रात में कुछ कर्मचारीयों ने दिन के अनुसार चौकीदार के अलावा खुद भी चौकीदारी करने का निर्णय लिया। लेकिन पता नहीं क्या बात हुआ दूसरे दिन रात में एक कर्मचारी मृत्यु दशा में कारखाने के पास पाया गया। लगता था उसकी मृत्यु किसी वाहन कुचल जाने के कारण से हो गई थी। आदमियों को इस घटना में दाल में कुछ काला नजर आ रहा था किंतु भयवश कहें या फिर बहुत सटीक जानकारी ना होने के कारण कोई अपना मुंह खोलना नहीं चाह रहा था। अब रात में कर्मचारियों ने अपने स्वयं के चौकीदारी करने के निर्णय को परित्याग कर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया। निर्बल के आश्रम इस संसार में बस ना दिखाई देने वाले भगवान का ही हैं। निर्बल के साथ इस संसार में शायद ही कोई खड़ा दिखे, समाज को वैसे भी छोड़ दीजिए वह यह जानते हुए भी क्या गलत है क्या सही है उसका किसके साथ स्वार्थ सिद्धि है उसी का साथ देती है। सरकारी कामकाज में तमाम नियम कानून हैं यदि कोई थाना पुलिस भी करें तो किस आधार पर करें जब सुबह कारखान खुलते समय मेन गेट पर लगा हुआ ताला व सील टूटा हुआ न पाया जाता था तो यह सब करने का कोई आधार ही ना था। वैसे भी जब चोर घर में हो तो पकड़ना इतना आसान काम नहीं है।
  अब कर्मचारी सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर अपने काम में जुटे हुए दिखते थे। कर्मचारियों ने इन दिनों बाबू राम सिंह के व्यवहार में एक और बदलाव देखा कि अब वह रिवाल्वर के साथ कारखाना में आना शुरू कर दिए थे और जब कभी अपने चेंबर में बैठते तो अपने मेंज पर रिवाल्वर को निकाल कर रख दिया करते थे। इसके अलावा महीने या पन्र्दह दिन में कभी कारखाने में घूमते हुए किसी पेड़ पर कोई पक्षी दीख जाती थी तो अनायास ही उस पर रिवाल्वर से फायर कर दिया करते थे यह सब देख कर कर्मचारियों में तथा कारखाने के सुपरवाइजरों में एक भय का वातावरण व्याप्त रहता था। यह सब क्रियाएं वह किस लिए कर रहे थे यह तो बाबू राम सिंह का ही मन अच्छी तरह से जानता होगा। वैसे भी कुछ कुछ कारखाने के कर्मचारी भी उनकी क्रियाकलापों को समझ रहे थे कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।
  कहते हैं कि भगवान के घर देर है किंतु अंधेर नहीं है। मजबूरी वश ऐसा ही विश्वास कारखाने के कर्मचारियों को भी हो गया था। ऐसे ही कारखाने में चिड़ियों के ऊपर फायर करने के दौरान बाबू राम सिंह का रिवाल्वर एक बार ऐसा फंसा कि रिवाल्वर का ट्रिगर दबाने के बावजूद भी उसमें से गोली फायर नहीं हो पा रही थी। बाबूराम सिंह से जो प्रयास हो सकता था वह उन्होंने किया की ट्रिगर दबाने से फायर हो जाए किंतु रिवाल्वर कुछ ऐसा फंसा था की फायर ना हो सका। लगता था इसी रिवाल्वर में ही बाबू राम सिंह की जान अटकी हुई थी वो तुरंत रिवाल्वर को लेकर रिवाल्वर बनाने  वाले दुकानदार के पास पहुंचे। वहां पर रिवाल्वर की नली को अपनी तरफ करके उन्होंने दुकानदार को समझाना शुरू किया कि इसका ट्रिगर दबाने पर रिवाल्वर से फायर नहीं हो पा रहा है। दुकानदार अपने हाथ में रिवाल्वर को लेकर देखना चाह रहा था किंतु उन्होंने रिवाल्वर को दुकानदार को देने के बजाय एक बार ट्रिगर दबा कर उसको दिखाना चाहा जैसे ही उन्होंने ट्रिगर दबाया रिवाल्वर से तुरंत फायर हो गया। रिवाल्वर की गोली बाबू राम सिंह का सीना चीर कर बाहर हो चुकी थी बाबूराम दुकान पर अचेत होकर गिर गए थे, उनकी धड़कन व नाड़ी गायब हो चुकी। साथ में आए हुए लोग आनन फानन में उनके मृत शरीर को लेकर अस्पताल पहुंचे डॉक्टरों ने आले से चेक करने व नाड़ी के धड़कन गायब होने पर तुमको मृत्यु घोषित कर दिया। यह खबर बिजली की गति से कारखाने में पहुंची वहां के कर्मचारी अस्पताल की ओर दौड़े किंतु कोई भी कुछ शोक का एक भी शब्द बोलने को तैयार न था। सबके मन में यही एक मौन स्वीकृति थी कि यही ईश्वरी विधान लिखा था।

यह मेरी मूल व अप्रकाशित रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
9044600119
 
  

Thursday, July 2, 2020

दिखावटी भोज

दिखावटी भोज
जब देश में कोरोनावायरस ने महामारी के रूप में आक्रमण किया तो सरकार ने वायरस फैलाव को रोकने के लिए देश में एकाएक लाकडाउन की घोषणा कर दी। तो तमाम उदार से छद्म उदार, सेवाभावी से छद्म सेवाभावी असहाय, गरीबों तथा दिहाड़ी मजदूरों की सहायता करते हुए मैदान में दिखने लगे। अधिकतर लोग सेवाभावी समूह बनाकर सेवाभावी होने का नाटक करने लगे, उनके अंदर सेवा भाव कम तथा प्रचार तंत्र ज्यादा दिख रहा था। वह लोग किसी को खाने का एक पैकेट या फिर एक फल ही प्रदान करते तो पांच से सात सेवाभावी हाथ लगाकर फोटो खिंचवाते हुए दिख जाते थे।  इस सेवा भाव को देखकर पता नहीं जरूरतमंद शर्मिंदा हो जाता था या नहीं लेकिन ईश्वर इन सेवा भावियों की सेवा को देखकर इनके ऊपर तो नही अपने ऊपर जरूर तरस खा रहा होगा की मैंने इस संसार में कैसे कैसे महा पापियों को जीवन दे रखा है। महापाप केवल वह नहीं जिसमें समाज या मनुष्य की सीधे क्षति पहुंचाये महापाप यह भी है की महान कार्य न करते हुए भी इतिहास में महान कार्य करने वालों में नाम दर्ज कराने का प्रयास किया जाए। यानी यह बिल्कुल ऐसी बात है कि उंगली कटवा कर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी में नाम दर्ज करवा लेना। दूसरी ओर ऐसा भी  सेवाभावी थे जो शांति से बिना किसी प्रचार, बिना किसी दिखावे के जरूरतमंदों की सेवा करने में तल्लीन रहते थे, इनको अपने नाम और प्रसिद्धि की बिल्कुल ही फिक्र न था। यानी ईश्वर ने इस आपदा ने मनुष्य को देवता( कुछ देने वाला ) बनने का अवसर दिया था लेकिन कुछ लोग दिखावटी देवता बने तो कुछ लोग इस धरती पर वास्तविक देवता के रूप में सेवा भाव करते हुए दिखे।
 ऐसी ही सेवा भावियों की तरह दो मित्र प्रतिद्वंदी थे आमोद सिंह व प्रमोद सिंह, जो कभी एक साथ बड़े-बड़े भवन निर्माण का काम करते थे। किंतु आपसी समझ में फर्क पड़ जाने पर जाने के कारण अपना अलग-अलग भवन निर्माण का व्यवसाय स्थापित कर लिए थे। उन दोनों मित्रों में से एक मित्र आमोद सिंह देखने में भाव से सरल, वाक्यपटु, चेहरे पर मुस्कान लिए हुए किंतु दिल से स्पष्ट व्यक्ति नहीं थे। कुल मिलाकर कहें तो कुछ अच्छे व्यवसायिक गुणों के साथ दिल से साफ नहीं थे। इसके विपरीत दूसरा मित्र प्रमोद सिंह स्पष्ट बोलने वाला, चेहरे पर स्पष्ट भाव लिए हुए एक सहृदय व्यक्ति थे। किंतु कभी-कभी असमय बोले गए अपने स्पष्ट बातों के कारण सामने वाले को ठेस भी पहुंचा देते थे। कुल ले देकर कहें तो उसके अंदर उदार एवं स्पष्ट व्यक्तित्व के साथ व्यवसायिक गुणों का अभाव था। किंतु एक खास बात यह थी की वो अपने कर्मचारियों, मजदूरों, हित मित्रों, परिचितों के सुख दुख में उनके साथ बने रहते थे, और भरसक जो भी सहायता हो सकती थी वह करते रहते थे।
  जैसे ही सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की उसके दूसरे दिन से सारा प्रोजेक्ट का कार्य बंद हो जाने के कारण मजदूरों के सामने दो से चार दिन के बाद ही रोजी के साथ रोटी की भी समस्या खड़ी हो गई। इस समस्या को देखते हुए दोनों मित्रों ने अपने-अपने बुद्धि विवेक व व्यक्तित्व के अनुसार समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया।
  जहां आमोद ने अपने संपर्क के लोगों के सोशल मीडिया ग्रुप में यह पोस्ट करना शुरू कर दिया की उनकी विशाल कंस्ट्रक्शन कंपनी ने लॉकडाउन पीरियड में गरीब असहायों के लिए भोजन बनवाने वितरण करवाने की योजना बनाई है आप सभी से आशा है की आप लोग उदारता से कंपनी का सहयोग करेंगे जिससे कंपनी भोजन बनवाने वितरण करने के पुनीत कार्य में आप लोगों को साथ में लेकर  भागीदार बना सके और ईश्वर आप लोगों को इस पुण्य कार्य के प्रतिफल में हजारों गुना लाभ दे। जैसे ही लोगों ने सुना कि आमोद जी इस लॉकडाउन पीरियड में गरीबों, असहाय व मजदूरों के लिए प्रतिदिन भोजन की व्यवस्था करवा रहे हैं। वैसे ही लोग उदार मन से अपना सहयोग देने लगे। बहुत से व्यक्ति पहले से भी इस लाकडाऊन पीरियड में सहयोग करना चाहते हैं किन्तु कहां सहयोग करें यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था, उनके लिए अमोद सिंह ने एक शुगम रास्ता प्रदान कर दिया। लोग बढ़-चढ़कर उनको सहयोग करते हुए नजर आ रहे थे। आमोद सिंह प्रतिदिन दोपहर और शाम को खाना पैक करवा कर अपने सोशल ग्रुप में पोस्ट करते जाते थे। लोगों को लगता था कि जैसे उनके पैसे का सही सदुपयोग हो रहा है। इधर आमोद सिंह को गरीब गुरबा, असहाय के रूप में केवल अपने मजदूर ही नजर आते थे उन खानों का वितरण वह अपने मजदूरों के बीच ही करते थे। जब यह बात सहायता कर रहे लोगों को जानकारी हुई तो लोगों को लगा कि इनकी सहायता केवल उन्हीं गरीब गुरबों तक सीमित है जिनसे इनके व्यवसायिक हितों की पूर्ति हो रही है। लोगों को लगा अपने मजदूरों को तो इनको स्वयं का पैसा खर्च करके खिलाना पिलाना चाहिए। जो मजदूर इनके लिए साल भर खटते हैं उनको खिलाने के लिए हम लोगों से गरीबों के नाम पर पैसे लेकर भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं। लोगों को लगा जैसे आमोद सिंह ने हम लोगों के साथ एक प्रकार से विश्वासघात किया है। हम लोगों ने पैसा गरीब - गुरबों, असहाय जरूरतमंदों को भोजन की व्यवस्था के लिए दिया किंतु इनकी नजर में गरीब गुरवे केवल वही जिनसे इनका व्यवसायिक हित पुर्ति हो रही थी। लोगों ने सहायता देना बंद कर दिया। अब आमोद सिंह को लगा कि जैसे उनके दिखावटी भोज का राज खुल गया है। समाज में जो बदनामी हुई उसकी चर्चा ही क्या किया जाए। अमोद सिंह आज तक पैसा कमाने के अलावा सामाजिक कार्य में शायद ही एक पैसा खर्च किये हों या फिर सामाजिक दायित्व के रूप में अपने मजदूरों के ऊपर शायद ही कभी एक पैसा खर्च किये हों। वह तो केवल व्यवसायिक गुणों के धनी थे जिनसे उनका व्यवसायिक हित सधता था, उनसे हंसकर मृदुता से बात करके अपना लाभ सिद्ध कर लेना बस एक ही काम आज तक उन्होंने सीखा था। जैसे तैसे कुछ दिन तक और यह भोज का कार्यक्रम चलता रहा वो भी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मजबूरी बस। लेकिन शायद उनके स्वभाव में था कि किसी के ऊपर एक पैसा खर्च करना या उसको दान करना उनको कर्महीन बनाना है। इस सिद्धांत का आश्रय लेकर उन्होंने इस भोज को बंद करने का निर्णय लिया। और अंततोगत्वा उन्होंने भोजनालय को बंद कर दिया। जो मजदूर आज तक सोच रहे थे मालिक के सहारे  लॉक डाउन का पीरियड कट जाएगा वह सभी बेसहारा हो गए। यह सारे लोग अपने पुरुषार्थ से थोड़ा या बहुत कमाने वाले थे। इनको किसी अन्य के सामने हाथ फैलाने में झिझक होने लगी तब सारे मजदूरों ने अपने गांव की ओर रुख करना उचित समझा और सभी मजदूर एक एक कर अपने गांव को प्रस्थान कर गये।
  दूसरी तरफ प्रमोद सिंह ने जब देखा सरकार ने करोना महामारी के कारण लाक डॉऊन कर दिया है तो सबसे पहले उन्होंने ने अपने कंपनी में कार्य करने वाले मजदूरों के लिए एक अन्नपूर्णा भोजनालय को खोला जिसमें उनके मजदूरों के अलावा और भी कोई भूखा आ जाता था तो वहां से वह अपनी आत्मा को तृप्त कर के ही जाता था। इस दौरान वो अपने मजदूरों और कंपनी  से संबंधित कर्मचारियों व सगे संबंधियों  से हाल चाल समय-समय पर लेते रहे थे तथा सहायता व जरूरत के बारे में पूछते रहते थे और उन लोगों को ताकीद करते रहते थे कि आप मुझसे बेझिझक इस आपात परिस्थिति में सहायता के लिए बोलेंगे मेरे पास जितनी सामर्थ होगा मैं आप लोगों की सहायता करने में कोई उठा ना रखूंगा और समय-समय पर अपनी तरफ से जो समझ में आता था वह सहायता करते भी रहते थे।आपके दोस्त, मित्र, हितैषी की परख आपके बुरे समय में उसके रवैया से होती हैं।
 प्रमोद सिंह दिल के उदार थे किंतु स्पष्ट वादी होने के कारण समय-समय पर बिना किसी लाग लपेट के अपनी बातों को सीधे व सपाट रूप में अपनी बातों को प्रकट कर दिया करते थे। इस कारण से वह अपने सभी संबंधियों व ग्राहकों के दिल पर कभी-कभी चोट कर दिया करते थे, यही उनका एक सामाजिक व व्यवसायिक अवगुण था। वैसे भी समाज में सत्य किन्तु अप्रिय बात सुनना ही कौन चाहता है।
  इस तरह सरकार इस आशा में आज नहीं तो कल इस रोग पर नियंत्रण पा लिया जाएगा लाक डाउन पीरियड को बढ़ाते बढ़ाते जब दो महीने तक कर चुकी और बहुत ज्यादा आशा के अनुरूप परिणाम मिलता नहीं दिखलाई दिया और जनता में त्राहिमाम की स्थिति दिखने लगी तो अंततोगत्वा सरकार को यह निर्णय करना पड़ा कि लाकडाउन को खत्म करके व्यापारी अपना व्यापार सोशल डिस्टेंसिंग सुरक्षा के साथ चालू करें। व्यापारिक गतिविधियों के साथ सरकार ने कंस्ट्रक्शन कार्य में लगे कंपनियों को भी अपना कार्य चालू करने का आदेश दे दिया। जैसे ही मकान निर्माण के कार्य का आदेश सरकार के तरफ से मिला और प्रमोद सिंह ने अपने आदमियों को बताया तो आदमियों को लगा कि जैसे उनके लिए एक नया सूर्य का उदय हो गया है। आदमियों में उत्साह की लहर दौड़ गई वह प्रमोद सिंह से एक आवाज में बोलने लगे मालिक अब देरी करने की जरूरत नहीं है और कल से ही काम शुरू करवाइए। आदमियों के चेहरे पर एक अलग उत्साह दिख रहा था, लगता था वह चाह रहे थे कि इसी बहाने कुछ अच्छा कार्य करके जो कुछ मालिक का एहसान उतारा जा सके हम लोग उतार दें। हम लोग जो थोड़ा बहुत ऋण से उऋण हो जाए वह तो हो जाए।
  मनुष्य कितने गलतफहमी का शिकार है वह सोचता है कि मैं किसी एहसान के बदले में उसका कोई काम कर दूं तो मैं उसके एहसान को उतार दूंगा, या उसके कुछ भाग को उतार दूंगा शायद ऐसा मनुष्य के विचार में हो सकता है पर ईश्वर के दरबार में ऐसा असंभव है। जिस विकट परिस्थिति में अच्छे-अच्छे उद्योगपतियों, पैसे वालों ने अपने कर्मचारियों, मजदूरों व सहायकों को छोड़ दिया, ऐसे आंख फेर लिया जैसे उनको पहचानते ही ना हो उस परिस्थिति में भी प्रमोद सिंह ने अपने आदमियों को यह आश्वासन दे रखा था जब तक उनके पास पैसा है तब तक यह अन्नपूर्णा भोजनालय ऐसे ही चलता रहेगा इस विकट परिस्थिति में हम आपके साथ हैं आप लोग अपने को अकेला बेसहारा न समझिए। किसी मालिक का यह कहना कि आज मैं जो कुछ भी हूं वह आप लोगों के सहारे हूं और इस विकट परिस्थिति में मैं आप लोगों को छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता चाहे कंगाल क्यों ना हो जाऊं। जो आदमी इस स्तर तक जाकर अपने पर निर्भर व्यक्तियों की सहायता करने को तैयार हो उसको ईश्वर अकेला कैसे छोड़ सकते हैं। शायद ऐसे आदमी के द्वारा किए गए नेक कार्य का कर्ज कोई नहीं उतार सकता।
  अगले ही दिन से प्रमोद सिंह का काम रफ्तार पकड़ने लगा। चार से छह दिन में काम पूरे रौ में आ गया। पूरे शहर से लेकर समाचार पत्र तक प्रमोद बाबू की जय जय कार हो रही थी। वह समाज में नजीर के रूप में, उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे थे, देखें जा रहे थे। देखे भी क्यों न जाए उन्होंने विकट परिस्थिति में अपने आदमियों की सहायता की थी, जिस परिस्थिति में अच्छे-अच्छे पैसे वालों ने अपने कर्मचारियों से मुंह मोड़ लिया था कि कहीं कोई एक पैसा न मांग ले भविष्य किसने देखा है। कुछ ही दिनों में उनका कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा मकान व फ्लैट खरीददारों की उनके वहां भीड़ लगी रहती थी। अब उनकी कड़ी बातों को कोई बुरा भी नहीं मानता था उन कड़ी बातों में लोग उनकी सच्चाई व ईमानदारी का दर्शन करते थे। अब समाज में प्रभावशाली लोग, प्रबुद्ध जन अपने वहां किसी कार्यक्रम में उनकी उपस्थित पर गर्व का अनुभव करते थे। किसी सामाजिक कार्यक्रम में इनकी उपस्थित से लगता था जैसे कार्यक्रम की शोभा में चार चांद  लग गया है। लोग इनको किसी ना किसी बहाने अपने यहां होने वाले कार्यक्रमों में आमंत्रित करने का बहाना ढूंढते रहते थे।
  उधर आमोद सिंह के कंपनी में जैसा लगता था गमी का माहौल हो गया था। जिसके चेहरे पर देखिए उसी के चेहरे पर उदासी के भाव थे। वो मजदूरों के पास काम करने के संदेशा भेजते थे लेकिन कोई भी मजदूर काम पर आने को तैयार नहीं था उनके दिल में बस एक ही भाव ने अपना स्थान बना दिया था कि जब मालिक ने हम लोगों का विकट परिस्थितियों में साथ छोड़ दिया तो हम लोग ऐसे मालिक के साथ काम ही क्यों करें।इस समाज में सब को एक दूसरे के सहारे की जरूरत है चाहे वह अमीर हो या गरीब हों सब एक दूसरे के पूरक हैं और सब एक दूसरे की सहायता से अपना काम चलाते हैं व विकास करते हैं। यह समय समय की बात है कब किसको किस से सहायता की जरूरत पड़ जाए। कभी नाव गाड़ी पर होती है तो कभी गाड़ी नाव पर यह तो समय समय की बात है। आमोद बाबू आदमियों की व्यवस्था की जितना तजवीज कर सकते थे सारा कर चुके थे किन्तु आदमियों की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। मजदूरों में  यह बात फैल गई थी कि यह आदमी ठीक नहीं है। यह इतना गिरा आदमी है कि अपने मजदूरों को जो खाने की व्यवस्था किया था, वो भी दूसरों के सहायता के पैसे से किया था। अपने टेट से एक पैसे खर्च नहीं करना चाह रहा था। जब लोगों को वास्तिविक स्थिति के बारे में पता चला तो लोगों ने सहायता देना बंद कर दिया, तो इस व्यक्ति ने भी अपने मजदूरों को खाना खिलाना बंद कर दिया। ऐसे आदमी पास कौन जाएगा काम करने।
  आमोद बाबू के करोड़ों करोड़ों रुपए के कई प्रोजेक्ट पर काम ठप हो गया था। बैंक वालों के लोन का ब्याज दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था, इधर न तो कोई तैयार फ्लैट का खरीदार ही मिल रहा था न हीं एक पैसे की कहीं से आवक ही दिख रही थी। कुछ स्थाई कर्मचारियों की तनख्वाह, बिजली का खर्च, ऑफिस का किराया हर महीने देना ही था। ये स्थाई खर्चे और बैंक से लिए गए लोन का ब्याज रात भर सोने ना देता था। वह कभी-कभी सोचते थे  क्या यह मेरे दिखावटी भोज का शाप है या मजदूरों का आह है वह समझ ना पा रहे थे।

यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा

Saturday, June 27, 2020

दिनचर्या


दिनचर्या
मनुष्य की वर्तमान स्थिति अच्छी है या खराब है ( पैसा, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि) यह उसके जीवन के विकास में बहुत बड़ा योगदान देती है। यह जीवन का एक पक्ष  है। जीवन का दूसरा पक्ष यदि व्यक्ति अच्छे पद पर ना हो, अच्छे आर्थिक स्थिति से संपन्न ना हो, अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा ना  हो फिर भी यदि उसकी सोच में प्रगतिशीलता है, प्रयत्न है, प्रयास हैं, अच्छी आदतों को वह दिन प्रतिदिन अपने व्यवहार में लाता है, नवीनतम जानकारियों उपायों को सीखने हेतु आतुर रहता है, एक एक क्षण के समय का सदुपयोग करने का प्रयास करता है, आदतों पर नियंत्रण रखता  है तो आज नहीं तो कल उसका और उसके बच्चों का भविष्य सुधारने से कोई रोक नहीं सकता है वर्तमान स्थिति से अच्छी स्थिति में पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता है।
  ऐसे ही कुछ विषम परिस्थितियों से घिरे महेश कुमार को  उनके दोस्त पता नहीं उनका मजाक उड़ाने के लिए यां फिर प्रेम से महेश बाबू के नाम से पुकारते थे। वे रेलवे में  मेंटेनर के पद पर कार्य करते थे, और अपने मुख्यालय पर ही रेलवे कॉलोनी में रहते थे। उसी कॉलोनी में उनके जैसे ही पद पर कार्यरत सैकड़ों कर्मचारियों का निवास स्थान था। जो समूह में कार्य पर जाते और समूह में कार्य करने के पश्चात अपने कालोनी में वापस आ जाते थे। यह उनकी दैनिक दिनचर्या का एक अंग था। इसके पश्चात शाम को कॉलोनी के पार्क के बेंचों पर जो चौपाल लगती उसका कहना ही क्या था इसमें अपने अधिकारियों, सुपरवाइजर व कार्यालय स्टाफ के  छिद्रान्वेशण के अलावा शायद ही कोई वार्ता होती थी। कुल ले देकर वार्ता का मुद्दा लब्बो लुआब यही तक सीमित रहता था कि आज बड़े साहब मुझसे एक काम करने को कहा तो मैंने उनको ऐसा जवाब दिया कि सारे कर्मचारी देखते रह गए। तो कोई दूसरा बोलता कि आज छोटे साहब ने मुझको वो काम करने को कहा तो मैंने ऐसा जवाब दिया कि वो पानी पानी हो गये। यदि वह कुछ पानीदार होंगे तो फिर हमसे काम करने के लिए ना बोलेंगे। उन लोगों की बातों से ऐसा लगता था की सरकार उनको वेतन काम करने के लिए नहीं बल्कि काम न करने के लिए देती थी। कुल ले देकर कहें तो उनका यह समय सेखी बाघारने और डिंग हांकने के लिए था और किसी के बातों में एक पैसे की सकारात्मकता का दर्शन नहीं होता था। शाम को  दो से ढाई घंटे इसी तरह अपनी-अपनी सेखी बघारने और एक दूसरे से बढ़-चढ़कर बात बोलने व नकारात्मक विचारों में ही बीत जाता था। पर कार्यस्थल की वास्तविकता इससे बहुत भिन्न हुआ करती थी।  वास्तव कार्यस्थल पर अपना-अपना बंटा हुआ काम करने पर ही कार्यस्थल से छुट्टी मिलती थी। शायद यही कारण था कि वे सभी लोग पार्क इकट्ठा होकर अपने अधिकारियों के प्रति वाणी से भड़ास निकालते थे। वैसे भी किसी संगठन के कर्मचारी एक साथ कार्यस्थल पर खाली अर्थात बिना कार्य के बोझ के हों तो उनका बस एक कार्य होता है अपने ऊपर के अधिकारियों व सुपरवाइजरों का छिद्रान्वेशण करना। यह काम वह अपने कार्यस्थल पर तो कर नहीं पाते थे उनके लिए सबसे मुफीद स्थान इनके कॉलोनी का पार्क ही मिलता था। महेश बाबू जो कि उन्हीं लोगों के स्तर के कर्मचारियों में से थे, वह इस तरह की गप्पबाजी व शेखीबघारने की वार्ता में कभी शामिल नहीं होते थे। इनके व्यवहार में अपने को मिले कार्य को अच्छी तरह से करना तथा अपने उच्च अधिकारियों का सम्मान करना भी था। इस कारण से यह लोग उनका मजाक भी उड़ाया करते थे।
  उधर महेश बाबू शाम को अपने कार्यस्थल से लौटते समय उधर से ही घर के लिए सब्जी इत्यादि जरूरी सामान घर के लिए खरीद कर लेते आते थे। घर पहुंच कर शाम को चाय पानी करने व स्नान करने के पश्चात संध्या वंदन यह उनका नित्य कर्म था। इसके पश्चात अपने दोनों बच्चों को बैठा कर पढ़ाना यह उनके नित्य व अटूट कर्मों या फिर कहें साधना में से था। इस तरह बच्चे एक कक्षा से दूसरी कक्षा दूसरी कक्षा से तीसरी कक्षा अच्छे नंबर से उत्तीर्ण करते जाते थे।वही कालोनीवासी जो महेश बाबू का मजाक उड़ाया करते थे, जब महेश बाबू के बच्चे जब अच्छे नंबर पाकर एक कक्षा से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करते थे तो अपने बच्चों को महेश बाबू के बच्चों से सीख लेने का उपदेश देते थे देखो उनके बच्चे पढ़ाई में कितना अच्छा  प्रदर्शन कर रहे हैं। अच्छे नंबर पाकर एक एक  कक्षा उत्तीर्ण करते जा रहे हैं और तुम लोग हो कि किसी तरह एक  कक्षा से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण कर पा रहे हो। वह लोग महेश बाबू के द्वारा अपने बच्चों को पढ़ाने में किये जा रहे परिश्रम को यहां तो जानते नहीं थे या फिर जानबूझकर अनदेखी करते थे। वह लोग यां तो यह समझ नहीं पा रहे थे यां फिर समझना नहीं चाहते थे कि महेश बाबू का एकनिष्ठ अपने बच्चों को खाली समय में पढ़ाने में लगे रहते हैं। जबकि वह लोग खाली समय में गप्पाबाजी, शेखी बघारना और डींग हांकने में लगे रहते हैं। हर एक मां-बाप की आशा अपने बच्चों से होती है कि वो पढ़ाई व जीवन के अन्य क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करें। अधिकतर मां बाप अपना कर्तव्य बच्चों का दाखिला स्कूल में करवाने तक ही समझते हैं। अधिकतर व्यक्ति समझते हैं कि बच्चे का एडमिशन करा दिया अब पढ़ना लिखना उसका काम है पढ़ाना अध्यापक का काम है। शायद वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि बगिया में फलदार पेड़ लगा देने से ही फल नहीं देने लगेगा इसके लिए उसकी बड़ी सेवा करनी पड़ेगी तभी वह समय पर फल देगा।
  इस तरह महेश बाबू के बच्चे एक एक कक्षा उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा की दहलीज पर आकर खड़े हो गए थे। और प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से उनका दाखिला देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों में हो गया। अब वो देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से अपनी पढ़ाई कर रहे थे।
   इधर महेश बाबू और उनके साथ के लोगों का प्रमोशन के लिए कार्यालय के द्वारा एक परीक्षा आयोजित की जा रही थी। जिसमें प्रमोशन के लिए उत्सुक सभी इच्छुक अभ्यर्थियों ने अपने प्रमोशन के लिए फार्म भरा। समय आने पर परीक्षा आयोजित की गई। परीक्षा में बहुत से प्रश्न कक्षा दस तक कि किताबों से आए थे। क्योंकि महेश बाबू अपने बच्चों को पढ़ाने का नियमित कार्य करते रहते थे, इस कारण से उनको यह प्रश्न पत्र बहुत ही सरल जान पड़ रहा था। उन्होंने अपने विभागीय प्रश्नों के अलावा करीब-करीब सभी प्रश्नों का सही उत्तर दिया और प्रसन्नता पूर्वक अपने मित्रों के साथ हाल से बाहर निकल आएं। जहां एक ओर उनके साथी मित्र पूछे गए किताबी सैद्धांतिक प्रश्नों के बारे में तरह तरह की वार्ताएं किए जा रहे थे। वही महेश बाबू शांत व गंभीर थे वह जान गए थे कि इस प्रमोशन की परीक्षा में उनका सिलेक्शन अवश्य होगा।
   कुछ समय के पश्चात लिखित परीक्षा का परिणाम आया जिसमें महेश बाबू का नाम सर्वोपरि था। उसके कुछ दिनों के पश्चात सफल अभ्यर्थियों का साक्षात्कार लेने के पश्चात अंतिम परिणाम घोषित किया गया। जिसमें महेश बाबू एक नंबर पर थे। महेश बाबू बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ था। महेश बाबू शर्म से गड़े जा रहे थे, उनको लगता था कि उन्होंने ऐसा कौन सा बड़ा काम कर दिया है और भी पांच लोगों ने तो परीक्षा में सफलता पाया है।
   दूसरी तरफ उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करके दो बड़ी-बड़ी कंपनियों में अच्छी नौकरी ज्वाइन कर अपनी नौकरी करने में मसगुल हो गए थे। उधर कॉलोनी में उनके साथ के कर्मचारियों के बच्चे बेरोजगार इधर उधर धूम रहे थे। वो कभी सरकार को अपनी बेरोजगारी के लिए दोष देते तो कभी अपने भाग्य को कोसते। उधर उनके साथ के कर्मचारी अपने बच्चों को कोसते थे कि देखते नहीं की महेश बाबू के लड़के पढ़ लिख कर कैसे इतनी अच्छी नौकरी कर रहे हैं और तुम लोग हो अभी भी लखेरा जैसे बेरोजगार इधर-उधर घूम रहे हो। वह लोग अपने अंदर की कमियों को न देख पा रहे थे, कि जिस समय उनको अपने बच्चों की सही देखभाल व परवरिश करनी थी उस समय हंसी ठहाका व गपबाजी में अपने कीमती समय को बर्बाद करते रहते थे। इसके विपरीत महेश बाबू की एक निश्चित दिनचर्या के साथ एक एक क्षण का सदुपयोग वह अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने से लेकर परिवार की उचित परवरिश व देखभाल में सदुपयोग करते थे। उनके परिवार की प्रगति समय का सही सदुपयोग तथा एक अच्छी  दिनचर्या का परिणाम था जो उनके  साथ में काम करने वाले कर्मचारी न समझ पा रहे थे या फिर समझने का प्रयास नहीं कर रहे थे।
यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
9044600119


                

Tuesday, May 26, 2020

उदार मन

उदार मन
                       
सफलता की आशा और विश्वास ही इस संसार में मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। यदि मनुष्य को यह पता हो कि वह जो कर्म कर रहा हैं उसका अच्छा फल प्राप्त नही होगा तो शायद ही कोई वह कर्म करने को तैयार होगा। लेकिन केवल कर्म करना ही मनुष्य के बस में हैं परिणाम पर शायद उसका कोई बस नहीं है। इस संसार में प्रकृति पर किसी का नियंत्रण नहीं है वह मनुष्य के लिए नित नए-नए चुनौतियों को  पैदा करती रहती है। प्रकृति कहती है तू पुरुषार्थी है कर्मशील हैं तो इस बाधा को चीर कर आगे बढ़ जो इस चुनौती को स्वीकार करता है और आगे बढ़ कर बाधा को पार करके नए नए प्रतिमान स्थापित करता है उसी की यह दुनिया पूजा करती है तथा सर आंखों पर बिठाती है।
  देश के उत्तर क्षेत्र का एक नगर अपने कृषि उत्पादों के लिए प्रसिद्ध था। वहां के कृषक इस साल अपने खेतों में जब अपनी फसलों को लहलहाते हुए देखते तो जैसे उनकी छाती चौड़ी हो जाती थी। धान के फसलों की जड़ों को देखकर किसानों को लगता था कि उसकी जड़े उनके मुठ्ठे में ही ना आ पाएंगी। इसको देखकर  किसान आपस में यह चर्चा किया करते थे कि इस बार यदि बीघा पीछे पन्र्दह हजार की आमदनी न हुई तो समझो कुछ भी ना हुआ। वह आपस में तरह-तरह की चर्चाएं करते थे। चर्चाओं के दौरान एक बैठकी में एक किसान ने बोला ऊपर वाला बड़ा कारसाज हैं, देखो पिछले साल फसल सूखे से मारी गई थी किंतु इस बार ईश्वर ने समय-समय पर बारिश की है। और हम लोगों के घर में पैसे के रूप में अन्न से भर देंगे जो पिछली साल हम लोगों का घाटा हुआ था वह इस बार इस फसल के साथ ईश्वर देने को तैयार हैं। इसी दौरान दूसरे किसान ने कुछ ज्यादा ही बिचार युक्त बात रखी की जब तक फसल किसान के घर में ना आ जाए तब तक इतना खुश न होना चाहिए, किसानों को कोई खुश नहीं देखना चाहता है चाहे वह ईश्वर हो चाहे वह इस देश की सरकार हो। तभी कोई विचार युक्त किसान ने पहले किसान के समर्थन में अपनी बात को इस तरह तार्किक रूप से रखा और सभी किसानों को उसकी बात पर हामी भरना पड़ा, अरे किसान की गृहस्थी कब पक्की हुई हुई है उसकी तो गृहस्थी हमेशा कच्ची ही रहती है। बारिश कम हुआ अर्थात सूखा पड़ गया तो उत्पादन ही कम हुआ और फसल का दाम बढ़ा तो सरकार विदेश से वह चीज लाकर इतना स्टाक कर देगी कि जो दो चार पैसे की आमदनी होनी थी उस पर रोक लग जाएं और यदि ईश्वर बारिश ठीक कर दे फसल ठीक ठाक हो जाए तो उसका दाम ही इतना कम हो जाएगा कि शायद उत्पादन लागत भी किसान को न मिल पा पाए। वहां इकट्ठे किसानों के जितनी मुंह उतनी बातें कुछ खुश फहमी तो निराशजनक तर्क वितर्क, इस तरह से किसानों का समय कट रहा था।
  कहते हैं लोग ईश्वर बड़ा कारसाज हैं वह जो जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार उसको फल देता है लेकिन एक बात समझ में नहीं आती है कि किसान ने ही उसका क्या बिगाड़ रखा है जब वह बारिश की आशा करता है तो बारिश नहीं यदि बारिश समय से हो गई फसल ठीक-ठाक हुई तो बाढ़ के रूप में ऐसा तांडव मचा देता है कि उसकी सारी फसल नष्ट हो जाती है। इधर किसानों में अपनी फसल को लेकर तरह-तरह की चर्चा थी, खुशफहमी थी, उधर बारिश ने ऐसा जोर पकड़ा कि बारिश खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी सब नदी, नाले, ताल व तालाब भर गए थे और बाढ़ की स्थिति बन गई थी। क्षेत्र में सरकार के द्वारा नेपाल के समीपवर्ती इलाके में सिंचाई के लिए बनाई गई  बैराज भी पूरी तरह लबालब भर चुका था। और बारिश और बारिश अब और कुछ यह बैराज झेलने को तैयार न था। इधर बारिश थमने का नाम न ले रही थी उधर बैराज में पानी सीमा से ज्यादा होने लगा यहां तक कि पानी अब ओवरफ्लो होकर बहने लगा अब ऐसा लगता था कि यदि बैराज का फाटक न खोला गया तो फाटक टूटकर क्षेत्र में तबाही का मंजर मचा देगा। अभी इस पर चर्चा हो ही रही थी तभी किसी ने सूचना दी बैराज का फाटक टूट गया है और क्षेत्र में तबाही का मंजर शुरू हो गया है। जब तक अगल बगल के गांव इलाकों तक यह सूचना जाती कि बैराज का फाटक टूट चुका है आप लोग सुरक्षित स्थानों पर चले जाएं।  तब तक तो बाढ़ ने तबाही का मंजर दिखाना शुरू कर दिया था।
  यह कैसा मंजर था जो बाढ़ की विभीषिका व विकरालता को देखा हो वह ही इसकी कल्पना कर सकता है। जब तक आदमी संभले अपने घर की डेहरियों से कुछ अनाज समेटे, कपड़े लत्ते, पैसे कौड़ियों, गृहस्ती व मवेशियों को समेट कर किसी ऊंचे स्थान पर शरण ले तब तक बाढ़ ने इलाके में तबाही का मंजर मचा दिया था। जिधर नजर दौड़ाई जाए उधर बर्बादी का आलम ही नजर आता था कहीं रास्ते कटे नजर आ रहे थे तो  कहीं नंदी के ऊंचे ऊंचे तट बंध कटे नजर आ रहे थे। गांव के गांव डूब गए थे। कमजोर मकान ढहे नजर आ रहे थे। तो झोपड़िया, बड़े-बड़े पेड़ तो कहीं वृक्षों के तनों के लट्ठे, तो कहीं मवेशीयां बहते हुए नजर आ रही थी। कोई चाह कर भी कोई सहायता नहीं पहुंचा पा रहा था सब असहाय ही नजर आए थे। इलाके के गांव के लोग अपने बर्बादी का आलम अपनी आंखों के सामने देख रहे थे और कुछ कर भी ना पा रहे थे। अपनी आंखों के सामने  अपने बर्बादी का आलम देखना है शायद इसी का नाम प्राकृतिक आपद है। वह अपनी धन-संपत्ति बचाएं कि अपने परिवार , बच्चों व इष्ट मित्रों को बचाएं। गांव वालों का आश्रय या तो रेल लाइन का किनारा, रेलवे स्टेशन या फिर सड़क का किनारा था जोकि थोड़े ऊंचाई पर था। अगर गांव में कोई रुका था तो वह व्यक्ति जिसका पक्का मकान था वह भी अपने छत पर किसी सहायता के आस में था।
  जैसे ही शहर में यह खबर फैली की शहर से सटे गांव के इलाके बाढ़ से डूब गए हैं चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है, शहरवासी बाढ़ ग्रस्त इलाकों को देखने के लिए निकल पड़े। शायद ही इसके पहले किसी शहरवासी ने इस तरह के बाढ़ का मंजर देखा हो। लोग बर्बादी का यह मंजर देखते और गांव वालों पर तरस खाते हैं। कोई कहता बेचारों की सारी गृहस्थी चली गई, सब बर्बाद हो गए सब ऊजड़ गए अब पता नहीं बेचारों की गृहस्थी बाढ़ के बाद कैसे चलेगी। शहर से बाढ़ देखने एक से एक धन्ना सेठ आते बाबू साहब व जमीदार आते लेकिन कोई भी अफसोस प्रकट करने, ईश्वर को कोसने के अलावा एक पैसे की सहायता न कर रहा था। अगर कुछ सहायता दिख रही थी तो सरकार की तरफ से भोजन के पैकेट का वितरण, फंसे हुए ग्रामीणों को उनके घरों से बाहर लाकर उनको किसी ऊंचे स्थान पर सुरक्षित ठहराना। जिनको इलाज व दवा की जरूरत थी उनके लिए डॉक्टरों का कैंप लगवाना इत्यादि। अगर और कोई सहायता करता हुआ नजर आ रहा था तो कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं और प्रचार की भूखी संस्थाएं क्योंकि उसमें सहायता का भाव कम तथा अपने संस्था का प्रचार व फोटो बाजी के भाव के ज्यादा दर्शन हो रहे थे।
  इस समय जो भी बाढ़ पीड़ित थे उनका एक अलग समुदाय था ना तो उनमें कोई गरीब दिख रहा था और ना ही कोई अमीर। सब मांगता ही नजर आ रहे जैसे ही भोजन का पैकेट, बिस्कुट, पानी, भुना चना तथा लईया कोई भी सहायता सामग्री आती  लूट पड़ जाती थी। गांव के गरीब गुरवे यह देखकर बहुत चकित थे जिनको वो आज तक बहुत बड़ा खेतिहर व बड़का घर के भैया व बाबू के नाम से जानते थे वह लोग भी हाथ फैलाने को मजबूर थे। शायद भूख छोटे बड़े का भेद मिटा देता है और यहां यह स्पष्ट दिख रहा था।
  शहर वालों के लिए लगता था जैसे यह पर्यटन स्थल बन गया था, कोई भी बाढ़ पीड़ितों के साथ संवेदना प्रकट करने के अलावा एक पैसे की सहायता ना कर पा रहा था। उसी शहर से गांवों की बाढ़ व बेहाली का हाल सुनकर सेठ अमृतलाल जिनकी शहर में कपड़े की दुकान थी, वह भी बाढ़ का दृश्य देखने पहुंचे। सेठ जी जिधर भी अपनी नजर घुमा रहे थे उधर बर्बादी का आलम ही नजर आ रहा है। कहीं गृहस्ती के समान डूबे व किनारे बिखरे पड़े थे, तो कहीं कोई मवेशी किनारे मरा हुआ पड़ा था। वहां सेठ जी जिसको भी देख रहे थे सब मांगता ही नजर आ रहा था। लगता था, इस बाढ़ ने एक से एक स्वाभिमानी व्यक्तियों के स्वाभिमान को पद दलित कर दिया था, वहां कोई भी कुछ सहायता करने के लिए पहुंचता तो सब इसी आशा में दिखाई देते थे कि कुछ सहायता हमे भी मिल जाती। अगर खाने पीने की कोई सामग्री पहुंचती तो जैसे उसके ऊपर टूट पड़ जाता था।
  यह सब दृश्य देखकर सेठ जी का हृदय इतना द्रवित हो गया की उनको लगा की संचित किये गये अपने धन संपत्ति का उपयोग इस समय नहीं किया गया तो यह तिजोरी या बैंक में पड़ा हुआ कूड़ा करकट के ही सामान होगा। सेठ जी यहां से तुरंत अपने घर को चल दिए और अपनी पत्नी से वहां के हृदय विदारक दृश्यों का वर्णन करते हुए कहने लगे की यदि इस धन-संपत्ति का उपयोग बाढ़ पीड़ितों की सहायता में नहीं किया जा सका तो यह धन कूड़ा करकट के समान ही समझो। उनकी पत्नी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी उन्होंने भी बाढ़ पीड़ितों की हर संभव सहायता करने की इच्छा व्यक्त की। अब सेठ जी के लिए क्या था वह तुरंत बाजार से आटा, दाल, चावल, नमक, तेल, आलू, प्याज का पैकेट बनवा कर ट्रक पर लादकर बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए बाढ़ पीड़ितों को टिकाए गए स्थल पर पहुंच गए। और घूम घूम कर परिवार परिवार में एक पैकेट देने लगे और यह कहते जाते थे कि मैं अभी लौट कर आता हूं और जो आवश्यकता होगा मुझे बताइएगा मुझसे जो बन पड़ेगा वह मैं सब करूंगा यदि इस विपत्ति में भी मैं आप लोगों के काम ना आ सकता तो धिक्कार है इस जीवन का। इस तरह वह सहायता करते जाते थे और आवश्यकताओं को पूछते जाते और हर संभव बाढ़ पीड़ितों को मदद का प्रयास कर रहे थे। यहां तक कि बाढ़ खत्म हो जाने पर जब बाढ़ पीड़ित अपने गांव घरों में लौट आए तब भी वह घर गृहस्ती को सुचारू रूप से चलाने के लिए पीड़ित व्यक्तियों की मदद करते रहे यहां तक कि मदद करते करते उनका दुकान कपड़ों से खाली नजर आने लगा था। यह सब देख कर उनकी पत्नी को टोकना पड़ा की बच्चों के लिए और अपने लिए भी कुछ रखिएगा या सब खाली कर दीजिएगा।
  मनसा (सेठ जी की पत्नी) तुमको याद है जब हम लोग इस शहर में आए थे तो गृहस्ती के नाम पर एक लोटा भी ना था। जो कुछ भी हम लोगों ने कमाया है वह इन्हीं लोगों की देन है और आज इस विपत्ति में इन लोगों को छोड़ दूं तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी करेगी और कहेगी जिन लोगों ने तुम्हें इस स्तर तक पहुंचाया है, जिनके कारण तुम आज नगर सेठ कहलाते हो, तुम उन लोगों को इस मुसीबत में केवल इसलिए छोड़ रहे हो कि तुम्हारी कुछ दमड़ी न खर्च हो जाए। मैं ऐसा नहीं कर सकता मैं इन लोगों को इस मुसीबत में नहीं छोड़ सकता जब तक मेरे पास सहयोग करने लायक एक एक पाई होगा तब तक मैं इन लोगों का सहयोग करूंगा। आगे का ईश्वर सब देखेगा। सेठ जी अपने वचन पर कायम रहे यहां तक पूरा दुकान खाली हो गया घर का खर्च जैसे तैसे चल पा रहा था। पर सेठ जी के मुख पर मुस्कान और प्रसन्नता का जरा भी आभाव न था। जब सेठ जी कुछ इस सहायता कार्य से स्थिर हुए और उन्होंने अपना दुकान खोला तो दुकान बिल्कुल खाली नजर आ रही थी। उनके प्रतिद्वंदी दुकानदार यह देख कर अंदर ही अंदर प्रसन्न थे की अब दुकान में कोई माल नहीं है और यह हाथ से भी खाली हो गए हैं, अभी तक जो दुकान पर भीड़ लगी रहती थी अब इनकी दुकान पर समान ना होने के कारण हम लोगों के वहां भीड़ लगेगी। मन ही मन प्रतिद्वंदी दुकानदार चर्चा किए करते थे चले थे राजा हर्षवर्धन बनने चले थे,अब देखते हैं इनकी सहायता कौन करता है।
  कहते हैं जब तक हुनर आपके साथ हैं, आपकी सम व्यवहारिक बुद्धि आपके साथ हैं, ईश्वर आपके साथ है, आप कर्म करने के लिए तैयार हैं, तब तक कोई कितना भी आपका अनिष्ट चाहे आपका अनिष्ट होने वाला नहीं है। सेठ अमृत लाल की साख अभी बाजार में थी उन्होंने जिस भी थोक विक्रेता व्यापारी से कपड़ा भेजने का आग्रह किया थान के थान व गट्ठर के गट्ठर दुकान पर माल की आवक होने लगी दुकान फिर से भरने लगी दुकान मैं पुनः रौनकता लौटाई आई। पैसा देने की बारी थी व्यापारियों को तो सेठ जी की साख अभी बैंक में बनी हुई थी। जब तक मुट्ठी बंद है तब तक वह करोड़ों की है जैसे ही मुट्ठी खुलेगी शायद वह खाक की  हो जाय। सेठ जी की मुट्ठी अभी भी बंद थी, वह करोड़ों की थी यानी सेठ जी की साख अभी बैंक मे थी। बैंक ने भी उनके एक जबान पर लोन दे दिया। सेठ जी अपनी देन दारियों को निपटाना शुरू कर दिया। सेठ जी के दुकान में पुनः रौनकता लौट आई थी। अब गांव वाले बाढ़ से थोड़ा थोड़ा निवृत्त हो चुके थे उनके दिलो-दिमाग में सेठ जी अपना घर बना चुके थे। गांव वालों को लगता था सेठ जी की दुकान अपनी दुकान है अब पहले से दोगुनी क्या कहें चौगुनी भीड़ नजर आती थी सेठ जी के दुकान पर यहां तक कि सेठ जी को दुकान बंद करने के लिए हाथ जोड़कर दूसरे दिन आने के लिए के लिए आग्रह करना पड़ता था। वह अपने बकायों को धीमे-धीमे चुकाते जाते थे। इसी में से कुछ  धन अब गरीब गुरबों की सहायता में लगाना अपनी नियमित दिनचर्या का हिस्सा बना लिए थे।
   प्रतिद्वंदी दुकानदार उनसे ईर्ष्या और डाह में जले जा रहे थे। इधर सेठ जी समुद्र के भांति शांत और उदार मन से अपने काम में तल्लीन नजर आते थे ना किसी से ईर्ष्या था ना तो किसी से द्वेष था। मन में इच्छा थी तो केवल और केवल समाज के जरूरतमंदों की उदार मन से सहायता करते रहना।
 
  गोविंद प्रसाद कुशवाहा
 
 
  

Wednesday, April 15, 2020

सेवा का प्रतिफल

मनुष्य इस संसार में अपने औलाद से कितने अरमान पाले रहता है, इसको स्वयं मनुष्य का मन ही जानता है और यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। यह लगभग हर मनुष्य के लिए एक सामान्य बात है। ऐसे ही ढेर सारे  अरमानों को अखंड बाबू, अपने बेटे अमर से पाल रखे थे। वह जब से स्कूल जाना शुरू किया तब से एक तरह से वह उसकी ही नींद सोते थे और उसकी नींद उठते थे। वह अपने खर्च में कतरब्योंत कर लेते थे, किंतु अमर की पढ़ाई में किसी भी तरह का कतरब्योंत न करते थे। इस तरह अमर एक - एक दर्जे की पढ़ाई करते हुए, देश के प्रतिष्ठित इंस्टीट्यूट से कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करने के साथ अमेरिका के एक कंपनी में नौकरी करने लगा। अमर बाबू के मन में अब एक अरमान था कि अमर की शादी  शुशील लड़की से हो जाय, जो उनकी बेटी की ही तरह शुशील हो। वह हमेशा इसी उधेड़बुन में लगे रहते थे कि कोई उनकी बेटी जैसे सुशील लड़की नजर आ जाए, जिससे की अमर की शादी की जा सके।
   इधर अमर जब से अमेरिका गया था, तब से उसको फुर्सत ही नहीं मिल पा रहा था कि अपने माता पिता से मिलने अपने घर आ सके। फोन ही एक सहारा था उससे ही माता पिता से हाल चाल व समाचार मिलता रहता था। उसके ज्ञान और कार्य की लगन शीलता को देखते हुए कंपनी उसको एक से एक ऊंचे पद देती जा रही थी। वह जब भी छुट्टी की बात करता कंपनी नए नए प्रोजेक्ट का हवाला देकर अगले आने वाले समय में छुट्टी देने की बात करती। इस तरह दिन बितता रहा और अमर का वहां के कई भारतीय परिवारों से आना जाना मेल मिलाप व सामाजिक संपर्क होता जा रहा था। इन भारतीय परिवारों के वहां पड़ने वाले सामाजिक कार्यक्रमों, तीज त्योहारों व वैवाहिक कार्यक्रमों में अमर का अक्सर जाना होता रहता था। इसी तरह एक वैवाहिक कार्यक्रम में अमर की मुलाकात एक अमेरिकन लड़की से हुई और कुछ ऐसा संयोग हुआ या कहिए की परिस्थितियां बनी की अमर ने उस अमेरिकन लड़की के साथ अपना घर बसा लिया। जब ये बात अखंड बाबू और उनकी पत्नी को पता चला तो उनको लगा कि जैसे उन लोगों के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई है। उन लोगों के अरमानों पर पानी फिर गया था। शायद उन लोगों का अरमान था कि बेटे की शादी अपनी बेटी की तरह ही किसी शुशील लड़की से करेंगे जो आकर इस घर को मंदिर में बदल दे और अमर के जीवन में खुशियां भर दे और अमर को खुशहाल रखे। लेकिन अमेरिकन लड़की से विवाह की खबर ने जैसे दोनों कि खुशियों पर पानी फेर दिया था। अमर भी अपने माता पिता की इच्छा  के अनुसार भारतीय लड़की से अपना शादी करना चाहता था। किंतु कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी अमर को उस अमेरिकन लड़की से शादी करना पड़ा। इस तरह पहले ऑफिस के कार्य के कारण अब माता-पिता के द्वारा इस शादी को पसंद ना किए जाने के कारण अमर अपने माता-पिता से मिलने न जा पा रहा था। किंतु अमर की पत्नी सोफिया बार-बार अमर से जिद्द करती रहती थी अपने सास और ससुर से मिलने के लिए। एक बार सोफिया  के बहुत जिद करने पर अमर हिम्मत करके अपने घर दीपावली पर आया वो भी बिना अपने माता पिता को बताए। अमर को पहले से ही पता था कि मां और पिता जी दोनों ही उससे नाराज हैं। इस कारण से वह अपनी पत्नी को  घर की गेट पर ही रोककर घर के अंदर दाखिल हुआ और जैसे ही काल बेल बजाया तो उनकी माता जी ने दरवाजा खोला तो एकाएक अमर को देखकर वो अवाक सी हो गई और पता नहीं उनको ये याद था कि नहीं कि अमर ने एक गोरी लड़की से विवाह कर लिया है जो उनके नाराजगी का मूल कारण था अमर से। जैसे ही अमर अपनी माता जी का पैर छूने के लिए झुका उसको उसकी माता जी ने गले लगा लिया और भावनाओं का ऐसा बहाव चला कि मां का कंधा भीग गया तो अमर का शर्ट, शायद यह एक दूसरे से गीले सीकवे दूर होने की निशानी थी या एक मां का अपने बेटे से तो एक बेटे का अपने मां से इतने सालों के बाद मिलने के कारण भावनाओं का अतिरेक था। जब दोनों ने अपने को कुछ सम्हाला तो एकाएक उसकी मां को अमर की पत्नी की याद आई उसने अमर की ओर देखते हुआ पूछा कि बहू कहां है, बहू साथ नही आई है क्या। मां वो भी साथ आई है  लेकिन वो गेट पर ही रुकी हुई है, अरे बेशर्म तू बहू को गेट पर खड़ा किया हुआ है तुझे शर्म नहीं आ रही है घर की बहू गेट पर खड़ी हुई है। नहीं मां वह खुद ही घर में आने से डर रही थी। अरे वो इस घर की बहू है इस घर की इज्जत है और तू उसे गेट पर खड़ा करके चला आया है। कुछ दिनों पहले तक या यों कहें कि अमर का अपने मन के मुताबिक गोरी मेम से शादी कर लेने के कारण मां और बाप के मन में उसके प्रति जो नफरत कि ज्वाला पैदा हो गई थी वो उसके एक मुलाकात के साथ ही प्रेम में बदल गई थी। हमारे जीवन में ऐसे ही बहुत समय होता रहता है जब अपने बहुत ही नजदीकी व्यक्ति से किसी बात पर विवाद हो जाए या कभी किसी बात पर विभेद हो जाए तो बिल्कुल ही उधर से मुंह मोड़ लेते हैं,लेकिन जैसे ही  हम अपने मन में प्रेम का भाव भरकर उनसे मिलते हैं तो सारे गिले सिकवे दूर हो जाते हैं। इस बात का एहसास लगभग सभी व्यक्तियों में है लेकिन अपना अहम पहले कौन तोड़े इस भाव ने आज तक कितने रिश्तों को तोड़कर रख दिया है।

    इधर अमर अपनी पत्नी को गेट पर खड़ा करके घर के अंदर जैसे ही दाखिल हुआ उसकी पत्नी उत्सुक होकर घर के अंदर वहीं खड़े खड़े झांक कर देखने लगी कि देखें किससे मिलते हैं और इनका स्वागत कैसे किया जाता है या अभी भी मेरे कारण मां और पिता जी नाराज हैं। उसने देखा कि अमर के द्वारा कॉलबेल दबाने पर जैसे ही किसी महिला (शायद वो माता जी ही थी) ने दरवाजा खोला और जैसे ही झुक कर उस महिला का पैर छूने को हुआ तो उस महिला ने अमर को अपने गले से लगा लिया, यह उसके लिए एक आश्चर्य मिश्रित घटना थी जिसमें  औपचारिकता का कोई स्थान नहीं था, लगता था कि जैसे मां और बेटे में प्रेम की वर्षा हो रही थी। आज तक उसने अमेरिका में औपचारिकता को ही संबंधों में महशूश किया था जहां संबंधों में मधुरता व प्रेम न होकर प्रेम प्रदर्शन ही ज्यादा होता है। अब अमर की पत्नी सोफिया को विश्वास हो गया था कि मां की नाराजगी  हम लोगों से दूर हो गई है।

    इस तरह के कुछ और तरह - तरह के विचार सोफिया के मन में चल रहे थे कि इतने में क्या देखती है कि मां और अमर की छोटी बहन दो थाली में थोड़ा पानी और फूल डालकर सोफिया के सामने उपस्थित हुए, अभी सोफिया कुछ समझ पाती कि अमर की बहन माधवी ने अपनी भाभी को गले लगा लिया, माधवी के द्वारा अपने भाभी को इस तरह से गले लगाने पर सोफिया दूसरा हाथ अपने बच्चे से छुड़ाकर कर माधवी से कुछ इस तरह से आलिंगन बद्घ हुई कि जैसे लग रहा था वो इस छड़ के लिए प्यासी थी। माधवी का एक तरफ का कन्धा भीग गया तो सोफिया का दूसरे तरफ का कन्धा भीग गया। थोड़ी देर बाद वो दोनों कुछ संयत हुई तो सोफिया अपने को सम्हालते हुए मां का पैर छूने के लिए आगे बढ़ी तो मां ने अपनी बहू को गले से लगा लिया और बोलने लगी यह दिन देखने के लिए आंखे तरस रही थी, और दोनों ने एक दूसरे ऐसे पकड़ कर गले लिया जैसे कोई मां और बेटी बहुत दिनों के बाद मिले हो। इधर अमर की बहन माधवी अमर के छोटे बेटे को गोद में लेकर तो बड़े बेटे के बालो व गालों पर हाथ फेरते हुए उनसे पूंछ रही थी कि अपने बाबा, दादी व बुआ से मिलने का मन नहीं हो रहा था क्या? इधर दोनों बेटे के लिए यह कौतूहल भरा दृश्य था। इतनी आत्मीयता और इतना प्रेम किसी बाहरी व्यक्ति या सगे संबंधियों द्वारा पहली बार महशूस हो रहा था। बच्चे भी प्यार को बहुत ही अच्छी तरह महशूस करते हैं और ये इन बच्चों के द्वारा महसूस किया जा रहा था। उधर अमर खड़ा - खड़ा अपने को कोश रहा था कि मैं क्यों नहीं पहले मिलने वहां से आ सका क्या होता बहुत होता माता जी और पिता जी थोड़ा नाराज ही न होते।फिर नाराजगी अपने आप ही धीमे - धीमे मेरे और सोफिया के अच्छे व्यवहार से दूर हो जाता। माता पिता अपने बच्चे को तो वैसे ही खुश देखना चाहते हैं उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है जैसे उनसे उनके बच्चें हंस कर दो शब्द बोल  दें उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है।इधर अमर के मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे कि अभी पिता जी से मिलेंगे तो उनका सामना किस तरह से करेंगे।

    उधर अमर की मां और उसकी बहू कुछ संयत हुई तो माधवी बोली आओ भाभी चलो घर में चले अपना पैर इन दोनो थाली में रख कर चलना, ससुराल में पहली बार बहू का पैर जमीन पर नहीं पड़ना चाहिए इसलिए अपना पैर इन थालियों में ही रखकर चलना। इस तरह थाली में पैर रखते हुए बहू घर के अंदर दाखिल हुई। मां ने अमर और बहू से बोला कि जल्दी से स्नान इत्यादि करके तैयार हो जाओ अभी तुम्हारे पिता जी भी आ रहे होंगे।इधर बेटे और बहू, ईशान और शशांक को लेकर स्नान इत्यादि करने चल दिए और उधर थोड़ी ही देर में अमर के पिता जी ने दरवाजे पर दस्तक दी।

         जैसे ही अमर के माता जी ने दरवाजा खोला, अमर के पिता जी ने प्रशनभरी नजरों से देख कर पूछा कि कोई आया है क्या, हां लेकिन मै अभी नहीं बताऊंगी, पहले आप अनुमान लगाइए और बताइए कौन है। मै ऐसे कैसे अनुमान लगा सकता हूं, लेकिन एक बात मै तुमसे सत्य में बोलता हूं आज ही भोर में मैंने सपना देखा है कि अचानक अमर घर पर बिन बताए ही आया है और तुमसे गले मिलकर तो मेरे चरणों पर गिर कर क्षमा प्रार्थी के भाव से बोल रहा है कि आप दोनों लोग मुझे क्षमा करिये, मै बस इसी कारण से घर पर नहीं आ रहा था कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं। तो मै उससे गले लगा कर  बोल रहा हूं कि कैसी नाराजगी बरखुरदार यह मेरे लिए कितने गर्व की बात है तूने जिसका एक बार हाथ पकड़ा कितनी भी विकट परिस्थिति आई, तूने उसका हाथ नहीं छोड़ा। तुम तो उसकी बहू को देखकर फूले नहीं समा रही हो। पता नही यह बात कितना सत्य है या होगा मै नहीं जानता। यह लो श्यामा ( अखंड बाबू की पत्नी) उधर से आ रहा था तो गणेश मिष्ठान भंडार से थोड़ा मीठा लेते आया था। आप का सपना बिल्कुल ही सत्य है। अमर और उसकी पत्नी तथा दोनों हमारे फूल से पोते भी आए हैं।अपने पोतों को देखकर मेरी आत्मा गौरवान्वित हो रही थी, सही बता रही हूं कि मैं अपने गोद से उनको छोड़ना नहीं चाह रही थी । अभी इस तरह की वार्ता हो रही थी कि इसी बीच अमर और उसकी पत्नी बच्चों के साथ बैठक में प्रवेश करते हैं। जैसे ही अमर ने अपने पिता जी को देखा कुछ संकोच किन्तु सम्मान भरी नजरों से अपने पिता की ओर बढ़ा और अपने पिता जी का चरण छूने के लिए आगे झुका ही था कि पिता जी ने अमर को उठाकर गले लगा लिया और पीठ पर थपकी देते हुए तथा अमर का मुख अपने मुख के सामने करते हुए बोले कि याद नहीं आ रही थी क्या चलो मेरी याद नही तो अपने मां की तो याद आती रहती होगी। पापा अब न ही कुछ बोलिए जो भी गलती है वो मेरी गलती है। सोफिया का हाथ पकड़ लेने के बाद मुझे लगा कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं इसी डर के नाते मैं आ नहीं रहा था, जबकि सोफिया बार बार आप लोगों से मिलने का जिद्द करती रहती थी।
  वही जिद्द करके आप लोगों से मिलने के लिए लेकर आई है, मुझे तो फिर भी डर लग रहा था कि आप कुछ उसके सामने उसको लेकर अपनी नाराजगी न प्रकट करें। अभी दोनों लोगों के बीच ये आपस के गीले सिक्वे की वार्ता हो ही रही थी कि सोफिया अपने दोनों बच्चों के साथ आगे बढ़ी और अपने फादर इन ला ( ससुर ) का चरण स्पर्श करने हेतु आगे झुकी ही थी कि अमर बाबू ने बहू दूर हटते हुए बहू से बोले नहीं बेटी ऐसा नहीं, तुम लोगों को देखने के लिए ये आंखें तरस रही थी। ये पता नहीं किस पुण्य का प्रताप है कि बहू तुम लोगों के कदम बिना किसी आशा के अचानक ही इस घर में पड़े। इधर अखंड बाबू भावनाओं का अतिरेक अपनी बातों से प्रकट कर रहे थे, उधर उनके पोते अपने बाबा का चरण स्पर्श करने के लिए आगे बढ़े तो अखंड बाबू ने झुक कर दोनों को गले लगा लिया कि जैसे उनके जिगर का टुकड़ा मिल गया, और ऐसे ही कुछ देर तक सीने से चिपकाए रखा जैसे लगता था जिस सुख से आज तक वंचित रह गए थे उसको छोड़ना नहीं चाहते थे। यह सारा दृश्य सोफिया को हैरानी में डालने वाला था, क्योंकि अभी तक उसने जिस प्रेम को देखा था, अनुभव किया था उसमें दिखावटीपन और बुद्धिगत प्रेम ज्यादा था, उसमें इस तरह का आत्मीय प्रेम का कोई दर्शन न था। वह बार बार अपने को कोस रही थी मै क्यों नहीं अमर को लेकर यहां मिलने आ सकी मै इतने दिनों तक इस आत्मीय सुख से वंचित रही और मम्मी पापा को भी इस आत्मीय सुख से वंचित रखी,इस तरह के तमाम भाव सोफिया के मन में चल रहे थे।
      वह वहीं एक किनारे खड़े होकर अपने मन की इन भावनाओं से ओत प्रोत सी हो गई थी। अब उसकी स्थित ऐसी हो गई थी कि उसके कंठ और आखों में एक संग्राम सा हो चला था कि कौन पहले एक दूसरे पर विजय पाता है। अन्त में आसुओं ने विजय पाई। कुछ देर तक सोफिया ऐसे ही अपना शुद्ध बुध खोकर यों ही खड़ी थी कि माधवी कमरे में प्रवेश कर बोली कि आइए खाना तैयार है और जब वह अपने भाभी के तरफ मुखातिब हुई तो दखती है कि भाभी के आखों से आसूं झर रहें हैं,वह अपने भाभी के पास जाकर इन खुशी के आसुओं पोंछ कर भाभी को उसने गले लगाया तो भाभी उससे बोल पड़ी कि क्या बताऊं जिस सुख का मैं यहां आकर आनंद ले सकती थी और आप लोगों को आनंद दे सकती उस सुख से कितने सालों तक मैं वंचित रही और आप लोग भी वंचित रहे, वो भी केवल एक काल्पनिक डर के कारण, अच्छा भाभी अब चलिए डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं।
      जब सभी लोग डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने लगे तो अमर के पापा ने बहू की तरफ मुखातिब होते हुए बोला की बहू काल्पनिक भय ने इस दुनिया में रिश्तो के बीच में जो नुकसान पहुंचाया है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ठीक यही बात अमर और तुम्हारे साथ भी हुआ। हां जरूर शुरू में मैं अमर से नाराज था किंतु नाराजगी के बावजूद जब मैंने देखा की अमर ने तुम्हारा हाथ को नहीं छोड़ा तो मैं अंदर ही अंदर इतना खुश हुआ कि उसको मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूं। इसका कारण केवल एक और एक था कि सनातन संस्कृति में यदि आप एक बार जिसका हाथ पकड़ ले जीवनसाथी बनाने के लिए तो उसका हाथ कितना भी विकट परिस्थिति आये छोड़ना नहीं है, और इस बात को मैंने अमर में देखा यह मेरे को एक गौरवान्वित करने वाली बात थी। बहू इस बात को सनातनी शादी विवाह में भी देखा जा सकता है। जब शादी के मंडप में दूल्हा और दुल्हन का शादी की रस्में पूरी हो रही होती हैं तो वहां पर थाल में धान का भूना हुआ लावा रखा हुआ होता है जो इस बात को दर्शाता है कि कितनी भी विकट परिस्थिति आ जाए किन्तु जिसका आप ने हाथ थामा है उसको छोड़ना नहीं है, क्योंकि धान अर्थात पैडी को भूनने पर भी उसका छिलका लावे को छोड़ता नहीं है वो उसको पकड़े ही रहता है। वैसे भी सनातनियों में विवाह एक संस्कार है न कि एक समझौता है।
      अमर की बहन ने अपने पिता की बात को बीच में काटते हुए बोला कि पापा आप भी न भाभी को आज पूरे सनातन धर्म का पाठ पढ़ा देंगे। हमें भी भाभी से बात करने का समय दीजिए न। अरे क्यों नहीं और मै कोई पाठ नहीं पढ़ा रहा हूं बस एक तुक की बात आई तो मैं अपने मन की भावों को व्यक्त कर दिया और कोई बात न थी, अच्छा ठीक है अब तुम अपनी भाभी से बात करो। जैसे ही खाना खा कर डाइनिंग टेबल से उठे माधवी अपने भाभी को लेकर अपने कमरे में चली गई और दोनों आपस में एक से एक बात करने में मशगूल हो गई जैसे लगता था कि अरसे बाद दो सहेलियां मिली हो और उनकी बातों का ही अंत न हो। अच्छा भाभी ये बताओ कि भैया से आप कैसे मिली, मै नहीं बताऊंगी। नहीं आप को बताना पड़ेगा नहीं तो मै आप को छोडूंगी नहीं। अच्छा छोटी चलो जिद्द कर रही हो तो बताए  देती हूं।
     मेरे घर के बगल में एक भारतीय परिवार रहता था उनके घर मेरा आना जाना था। उनके पारिवारिक कार्यक्रमों में मेरा आना जाना रहता था, उन कार्यक्रमों और तीज त्यौहारों को मैं दिल से इतना पसंद करती थी कि उनको मै अपनी शब्दों में या फिर अपनी भावनाओं के द्वारा भी नहीं व्यक्त कर पाऊंगी। पता नहीं वो तीज त्यौहार वो पारिवारिक प्यार, परिवार का एक दूसरे के प्रति समर्पण ने क्या जादू कर रखा था कि मैं अनायास ही उन तीज त्यौहारों के प्रति दीवानी सी रहती थी कि उनमें शामिल होने के लिए व्याकुल से रहती थी और जबतक मै उसमे शामिल नहीं हो जाती थी तो मन में एक अजीब सी बैचैनी बनी रहती थी उसे मैं शब्दों में नहीं ब्यक्त कर सकती। होली, दीपावली और रक्षाबंधन की तो बात ही न पूछो। होली की हुड़दंग, दीपावली की जगमगाहट और खुशियों ने मुझको समोहित कर रखा था तो रक्षाबंधन का मुझे जैसे इंतजार सा रहता था, रक्षाबंधन वाले दिन मै भी अपने भाई को राखी बांधती थी और अभी भी बांधती हूं और खूब ढेर सारे गिफ्ट लेती हूं और साल भर के लिए बहुत सारे गिफ्ट का वादा भी करवा लेती हूं। कभी कभी मेरे दिल में ये बात आती थी कि काश मेरे वहां भी ऐसे ही तीज त्यौहार होते पर इस तरह के त्यौहारों का जैसे अभाव सा है जिसमें जीवंतता हो, एक दूसरे को ख्याल रखने के जज्बे हों। नहीं भाभी तुम मुझे बातों में उलझाओ नहीं, अपनी बातों को लम्बा करके मुझे छोटे बच्चों जैसे भूलवाने का प्रयास न करो। बस तुम मुझे ये बताओ कि तुम भैया से कैसे मिली, छोटी थोड़ा धैर्य रखो अभी बताती हूं, नहीं आप को अभी बताना होगा आप सोच रही होंगी छोटी को धर्म की अच्छी अच्छी बातों को बता कर बातों को लम्बा चौड़ा करते जाऊंगी और इसको नीद आ जाएगी तो इसके द्वारा पूछी गई बातें इधर से उधर हो गई ऐसा न होने पाएगा। छोटी मै तुझे पलझा या भूलवा नहीं रही हूं तुझे मै हिन्दू दर्शन व उन तीज त्यौहारों के बारे में बता रही हूं जिनके बारे में हमारे ही देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में एक दीवानापन सा है। मेरी बातों पर विश्वास करो यदि सामाजिक वर्जनाएं न हो तो बहुत से व्यक्ति अपने धर्म के साथ इस धर्म की आध्यात्मिकता और इसके तीज त्यौहारों को कबका आत्मसात कर चुके होते और कुछ तो सामाजिक वर्जनाओं के बावजूद भी इसकी बहुत सी बातों को आत्मसात कर चुके हैं। क्या छोटी कोई ऐसा भी धर्म है जो यह बताता हो कि सारा विश्व एक परिवार है, सभी लोग सुखी रहें सभी लोग निरोग रहें, मंत्रों के द्वारा ऐसी कामना करें। इसी तरह के दर्शन के कारण सनातन धर्म ने, अन्य धर्मों से उच्च स्थान पा लिया है।
      इस विश्व में तो ऐसे ऐसे मजहब हैं जो यह बताते हैं कि अगर उनका मजहब कोई नहीं मानता है तो उसे जीने का अधिकार नहीं है और शायद इसी लिए वो सारे विश्व में हमेशा मारकाट मचाए रहते हैं और वो लोग दिन रात इसी छल कपट में पड़े रहते हैं कि कैसे अपने मजहब का फैलाव करें, जिस देश में लोक तन्त्र है, वहां का परिवेश उनके लिए सबसे अनुकूल सा मिल गया है।  वहां पर वे अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर ध्यान देते हैं जैसे ही जनसंख्या थोड़ी ज्यादा हो जाती है वो लोग एक जुट होकर वहां के मूल निवासियों से मार काट व अदावत करने लगते हैं जब तक कि उस देश में अपना मजहबी कानून न लागू करवा लें।
      छोटी सनातन या फिर कहो हिन्दू धर्म की बस एक ही बुराई के बारे में मैंने सुन रखा है, और वो  है जात - पात यहां पर कुछ लोग ऊंची जाति के हैं तो कुछ लोग नीची जाती के हैं और वो आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर खाते पीते नहीं हैं, इसी कारण से इस धर्म का इंडिया में पतन होता जा रहा है जबकि हमारे अपने देश अमेरिका में हिंदुओं को ये पता ही नही है कि वो किस जाति के हैं वो बस एक अच्छे इंसान हैं और यही उनकी पहचान है और वो आपस में ही नहीं सारे अमेरिकन के साथ ऐसे घुल मिल कर रहते हैं जैसे मिल्क में सुगर मिल जाता है और दूध को ऐसा स्वादिष्ट बना देता है कि लोग उसके बिना दूध नहीं पी पाते हैं। ठीक ऐसे ही अमेरिकन भी अब हिन्दुओं के बिना और हिन्दू जीवन शैली व दर्शन के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। भाभी तुम ठीक बोल रही हो यहां पर अभी भी जात -  पात का भेद भाव है लेकिन पहले से बहुत ही कम हुआ है लेकिन मुझे अभी भी लगता है इसको दूर करने के लिए हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को काफी काम करने की आवश्यकता हैं। मुझे लगता है कि इसके धर्म ग्रंथो में यदि कुछ विभाजनकारी बातें लिखी हुई हैं तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए। लेकिन यदि कुछ प्रबुद्ध जन धर्म ग्रंथों में लिखी हुई  विभाजनकारी जानकारी बातों को हटाना चाहते हैं, तो कुछ स्वयंभूत धर्म के धर्माधिकारी उन विभाजनकारी बातों को हटाने का विरोध करने लगते हैं, यह एक बहुत बड़ी बाधा बनकर खड़ी हुई है, धार्मिक सुधारों व विभाजन कारी बातों के विरुद्ध, समाज के रूढ़ियों को तोड़ना इतना आसान काम नहीं है फिर भी कुछ धर्म सुधारक और समाजसेवी व्यक्ति और संगठन इसको हटाने के प्रयास में जुटे हुए हैं आज नहीं तो कल सफलता अवश्य मिलेगी फिर देखना भाभी यह धर्म विश्व गुरु का दर्जा अवश्य ही पाएगा। चलो छोटी तुम्हारी कही हुई बातें सत्य हो ऐसी मैं आशा करती हूं और विश्व का कल्याण हो।चलो  भाभी अब तो बताओ मेरी पूछी बातों का जवाब दो, हां - हां जवाब देती हूं। लेकिन सही बात बताऊं मुझे बताने में शर्म सी आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, छोटी चलो सोते हैं नीद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, नहीं अब सो जाओ मुझे नींद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा अच्छा लो सुनो, बात ऐसी है कि एक बार मेरे घर के बगल के घर में मैरेज का कार्यक्रम था उसमे हमारा परिवार भी आमंत्रित था। उस मैरेज सेरेमनी में हमारे पूरे परिवार को वहां हो रहे रिचुअल्स ने जैसे सम्मोहित सा कर दिया। और मेरे मन मस्तिष्क में कहीं न कहीं ये बात घर कर गई थी कि मेरी भी मैरिज इसी रिचुअल्स से होता तो कितना अच्छा होता। और शायद यह ईश्वर का लिखित विधान था कि उसी मैरेज सेरेमनी में तुम्हारे भैया अमर भी आए थे। जब जयमाल की सेरेमनी हो रही थी तो मेरे फ्रेंड ने अमर से परिचय कराया तो मैं अमर से सेक हैन्ड करते हुए उसे एक बुत की तरह निहारे जा रही थी, कुछ क्षणों के पश्चात जब मैं इस अवस्था से बाहर निकली तो अपने ऊपर लज्जा का भाव अनुभव करते हुए कुछ औपचारिक बातें करते हुए हम दोनों शादी में हों रहे तमाम रिचुअल्स को साथ- साथ देखने में मसगूल हो गए। इसके साथ ही मैं अमर से वहां हो रहे रिचुअल्स के बारे में कुछ पूछती तो अमर रिचुअल्स के महत्व और उनकी प्रसंगिकता का समय-समय पर वर्णन करते जाते थे। मैं उनकी बातों को सुनकर इतना मुग्ध थी कि मैं उसका वर्णन न कर पाऊंगी। इसके पश्चात हम दोनों ने एक साथ डिनर किया। फिर काफी रात को अपने अपने घर को लौट आए।
      किन्तु इस दिन के पश्चात मुझे लगा जैसे अमर के व्यक्तित्व ने मुझे सम्मोहित सा कर लिया है। मैं उससे बात किए बिना रह ना पा रही थी, जैसे लगता था मेरा चैन कहीं खो गया है, मेरी मन की शांति उसके सांसों में बसती है, उसके दिल में बसती है। मुझे लगता था मैं उसके बिना रह ना पाऊंगी। किंतु मैं ऐसा महसूस करती थी कि अमर मुझसे बात करने में झींझक महसूस करता है। वह जल्दी से मुझसे बात करके छुट्टी पा लेना चाहता था। उसका यह शर्मिला व झिझक भरा व्यवहार मुझे और उसकी तरफ आकर्षित करने का कार्य करता था। वह मुझसे जितना दूर जाने का प्रयास करता था, मैं उसकी ओर  उतनी ही बढ़ती जाती थी, आकर्षित होती जाती थी। यह इत्तेफाक था या यों कहिए कि यह ईश्वर का एक विधान था की मेरा और अमर का घर एक ही रास्ते पर था तथा ऑफिस भी उसके ऑफिस के बगल में ही था। अब मेरा मन बातचीत से ही न भरता था, अब मुझे उससे मिले बिना चैन भी ना मिलता था। अब मैं ऑफिस से जल्दी सें निकल कर उस बस स्टॉप पर  पहुंच जाया करती थी, जहां से अमर भी घर लौटने के लिए बस पकड़ते थे। हलांकि हमारा अमर के साथ इस तरह साथ आना जाना, उनका शर्माना, झिझकना, नजरों का झुका होना मैं स्पष्ट रूप से महसूस करती थी। और यह व्यवहार मुझे और भी रिझाती थी। इस तरह कुछ दिनों के बाद मैं ऐसा महसूस करने लगी कि मैं अमर के बिना रह न पाऊंगी, उनके बिना जीवन की कल्पना करना, किसी मछली को पानी से निकाल लेने के समान था। इस तरह मैंने अपने मन को मजबूत करके एक दिन मैंने अपने मन की बात को अमर के सामने रखा कि अमर क्या मुझे अब भी अपनी बातों को और ज्यादा खुलकर के थे रखना पड़ेगा, क्यों मेरे तरफ से इतना मुंह मोड़े रहते हो, क्यों मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो।    मुझे कई बार ऐसा महसूस होता है की मैं अंग्रेजीन हूं, क्रिश्चियन हूं, इस कारण से भी तुम मुझसे मुंह मोड़े रहते हो। हां मैं मानती की  कि मैं जन्म से क्रिश्चियन हूं, अंग्रेजीन हूं और यह सही भी है लेकिन  यह भी जान लो कि मन से तुमसे ज्यादा हिंदू होऊंगी। अब तुम चाहे जो कुछ भी समझो अब मैं तुम्हारे बिना एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती, मेरा एक - एक पल एक - एक युग के समान बित रहा  है और तुम्हें क्या बताऊं। पहले तुम्हारे धर्म ने और अब तुमने मुझ को सम्मोहित सा कर दिया है अब इस जीवन में मै तुम्हारे सिवाय और किसी की कल्पना भी नहीं कर सकती हूं। नहीं तो यह जीवन ऐसे ही अकेलेपन में कटेगा। अमर तुम कुछ बोलते क्यों नहीं कुछ तो बोलो....., अमर ने बीच में बात काटते हुए बोला कि सोफिया तुम समझ रही हो क्या बोल रही हो। हिंदू धर्म में शादी, विवाह कोर्ट में, या किसी जमात के सामने किया गया समझौता नहीं है। यह मन से स्वीकारा हुआ सात जन्मों का बंधन है, हम लोगों का ऐसा विश्वास है यह बंधन बस इसी एक जन्म भर के लिए नहीं है, यह जन्म जन्मांतर का बंधन होता है, इसके अलावे हम लोगों का ऐसा विश्वास है कि जोड़ी ईश्वर के द्वारा बनाया गया है, यहां पर विवाह हम लोगों को मिलाने का एक माध्यम है, और यह जन्म जन्मांतर के लिए होता है। इस जन्म के बाद भी जब भी हम लोग इस धरती पर आएंगे फिर इसी तरह बंधन बधकर बंधन को निभाएंगे ऐसा हम लोगों का विश्वास है। अमर तुम्हारे कहने का आशय क्या है, मैं समझी नहीं। मेरे कहने का आशय तुम भी खुब समझ रही हो। अमर तुम्हें जो कुछ भी बात बोलना हो उसे स्पष्ट बोलो उसे फ्रेजल वाक्य ( मुहावरे युक्त वाक्य) के रूप में न बोलो। मेरे कहने का आशय तुम खूब समझ रही हो, तुम देखती नहीं हो कि यहां पर आज जो भी मैरिज होता है पता नहीं है कितने दिन के लिए हो रहा है। पता नहीं यहां के लोग  किसी के साथ स्वार्थ बस मैरिज के बंधन में पड़ते हैं या फिर शारीरिक आकर्षण से यह तो वही लोग जानते होंगे। कारण जो कुछ भी हो लेकिन यहां का मैरिड लाइफ में बहुत ही अस्थिर देखता हूं।

      तो इस कारण से तुम मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो आज मुझे समझ आया। नहीं यह बात नहीं है एक बात मेरे मन में थी वह मैंने तुम्हारे सामने रखा, इसको अपने संदर्भ में न लो, जो यहां के समाज में मैं देखता हूं वही बात मैंने तुम्हारे सामने रखी है और इसको रखने का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना या किसी समाज को किसी समाज से उच्च बताना नहीं है बल्कि इन क्रियाओं को देखकर मुझे आश्चर्य होता है कि एक सभ्य समाज में कैसे इस तरह की बातें स्वीकार है। रही तुम्हारे साथ शादी की बात तो मैं अपने मन की बात तुमसे साझा करना चाहता हूं कि जब तुम मुझसे पहली बार मिली तो मुझे लगा कि ईश्वर ने मुझे उस लड़की से मिलवाया जिसका मुझे आज तक इन्तजार था लेकिन संकोच वश मैं तुमसे अपनी इस बात को प्रकट ना कर सका, मेरे फादर की यह इच्छा है की मेरी शादी उस लड़की से करेंगे जो व्यवहार में मेरी बहन माधवी की तरह होगी और मैं अपनी बहन का दर्शन मैं तुम्हारे मे करता हूं।

      भाभी तुम भी ना मुझे बनाओ नहीं...., छोटी मैं तुम्हें बना नहीं रही हूं अमर के द्वारा कहे गए शब्दशः बातों को तुम्हारे सामने बोल रही हूं। अच्छा ठीक है भाभी और आगे बताओ, और आगे क्या बताना है इसके बाद तुम सारी घटनाक्रमों को जानती ही हो मेरे फादर - मदर तथा ब्रदर जैक के द्वारा मेरी अमर से शादी के लिए बार - बार आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा बार-बार इंकार करने पर तथा कई बार अमर के द्वारा भी पापा व मम्मी से आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा इंकार कर देने पर तथा मेरे द्वारा अमर से तथा अपने फैमिली में यह स्पष्ट बता देंने पर कि मैं जब भी मैरिज करूंगी अमर के साथ नहीं तो बिना मैरिज के ही लाइफ गुजारूगी। इस कारण से अमर भी मजबूर होकर मेरे साथ शादी के बंधन में बंधने को बाध्य हो गया। और एक बहुत ही साधारण से समारोह में हम दोनों शादी के बंधन में बंध गए। बहन देखना इस घर की किसी परंपराओं का यदि मेरे द्वारा अनजाने में कोई उल्लंघन होता हो, तो तुम मुझे वहीं टोंक देना, मैं सोचती हूं कि मुझसे अनजाने में कोई गलती ना हो जाए और मम्मी पापा के भावनाओं को  कोई ठेस लग जाए। मम्मी पापा मेरे में ठीक तुम्हारी ही छवि का दर्शन करें और अमर के चुनाव पर गर्व कर सकें। ठीक है भाभी तुम डरो नहीं तुमसे कोई गलती नहीं होगा, तुम देवी हो, पूज्यनीय हो। मै तुम्हारी बातों से, तुम्हारे अभी तक किए गए व्यवहारों के द्वारा  समझ गई हूं और मम्मी पापा भी इन बातों को अच्छी तरह समझ गए हैं। अच्छा चलो अब सोते हैं।

      इसी तरह कुछ दीपावली की तैयारी में तो कुछ आपसी बातचीत हंसी मनोरंजन में दस दिन का समय कब बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। ग्यारहवें दिन दीपावली का त्यौहार था सुबह से घर पर एक से एक अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर व  विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य व्यक्तियों, के साथ मेहनतकश मजदूरों, कामगारों का जैसे तांता लग गया था। कोई भी आता पहले अखंड बाबू का चरण स्पर्श करता और कुछ ना कुछ उपहार स्वरूप मीठा इत्यादि भेंट भी करता जाता था। अखंड बाबू इधर मीठा लेत और उधर मजदूरों, कामगारों, मेहनतकशों को उपहार स्वरूप मीठा देकर विदा करते जाते थे। यह लोग  बाबू के द्वार पर हर तीज त्योहार पर बाबू से मिलने अवश्य ही आते थे। वो किसी आशा या लालच में बाबू से मिलने नहीं आते थे। बल्कि बाबू का निश्चल प्रेम, बाबू के द्वारा समय-समय पर उनकी सहायता करना, उनके बच्चों के पढ़ाई लिखाई का प्रबंध करना इत्यादि कार्यों के कारण उनका बाबू से ऐसा भावनात्मक लगाव हो गया था की वो अपने को तीज त्यौहार व सामान्य अवसरों पर बिना बाबू से मिले रह न पाते थे। अखंड बाबू आने जाने वाले गणमान्य व सामान्य व्यक्तियों से अमर का परिचय करवाते जाते थे। इन लोगों से बातों बातों में अमर अब जान चुका था की उसके पिताजी ने इन लोगों के लिए कितना त्याग भरा कार्य किया है, जहां समाज में एक से एक अच्छे लोग किसी गरीब गुरबा के लिए एक पैसा न खर्च करते हों वहां इतने परिवार को बच्चों को न केवल पढ़ाना लिखाना बल्कि समय-समय पर उनकी सहायता करना एक संत सरिखा, निस्वार्थ कार्य उनके पिता के द्वारा किया जाने से अमर अपने पिता के प्रति जिस गर्व का अनुभूत कर रहे थे इसका जबान से वर्णन करना जबान को लज्जित करने के सामान था।

      दीपावली के अगले दिन जब सोफिया और अमर सबके साथ नाश्ते कर कर रहे थे तो सोफिया ने अपने सास-ससुर की तरफ मुखातिब होते हुए बोली कि मम्मी पापा मुझे गर्व है कि मैं इस परिवार की बहू हूं ढेर सारी सुखद यादों को लेकर कल अमेरिका चली जाऊंगी। ये सुखद यादें मुझे वहां भी गर्वानीत  करती रहेंगी, मैं इसे ईश्वर का आशीर्वाद समझती हूं कि मुझे उसने आप लोगों की बहू बनाया। नहीं बहू ऐसे न बोलो पता नहीं किस अच्छे कार्य या पुण्य का  फल है कि हम लोगों की तुम बहू बनी।

      जिस दिन अमर, बहू व बच्चों के साथ वापस अमेरिका जाने के लिए निकल रहे थे केवल परिवार के लोगों के ही आंखों में ही आसूं न था, लग रहा था जैसे घर भी रो रहा था और पूछ रहा था भैया अब कब आओगे। जब अमर परिवार सहित हवाई अड्डे पर पहुंचे तो उन लोगों को वहां पर विदा करने के लिए पहले से ही सैकड़ों शुभचिंतक मौजूद थे। यह सारे लोग शायद अखंड बाबू व अमर को सर प्राइस देकर विदा करने के लिए एकत्रित थे। अमर सबसे हाथ मिलाते हुए और सोफिया हाथ जोड़कर और आंखों में खुशी व कृतज्ञता का आंसू लेकर तथा हाथ हिलाकर विदाई का संकेत देते हुए एयरपोर्ट की अंदर चलें गये। अखंड बाबू की
 सहज बुद्धि उनको बता रही थी यह सब कुछ केवल और केवल समाज के गरीब दबे कुचलों  के सेवा का प्रतिफल है।


यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।

गोविंद प्रसाद कुशवाहा

   

   

   

   

   

 

   









Thursday, April 9, 2020

कन्याभोज का प्रसाद

यदि व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक पैसा, नवसंबृद्धि व नवधनाढपन आ जाए और उसके साथ यदि धार्मिक बुद्धि का जुड़ाव न हो तो शायद यह सम्बृद्धि अपनों से ही इतना दूर कर देता है कि अपने भी पराये लगने लगते हैं। इसी तरह के लोगों की अधिकता से भरपूर नव निर्मित गोमती विहार कॉलोनी विकसित होकर अपना बृहद आकर लेने के क्रम में अग्रसर थी। इस कालोनी में एक से एक आलीशान मकान उसमे रहने वालों के वैभव  का बखान कर रहे थे। तो उनका पहनावा इत्र फूलेल व गहने आदि उनके शान ओ शौकत का बखान करते रहते थे।
 इस कालोनी के वासी अपने को एक दूसरे से किसी भी मायने में अपने को कमतर नहीं आकते थे।क्या मजाल कि कोई अपने गेट से बाहर निकले और अपने अड़ोस - पड़ोस वाले की तरफ नजर उठाकर अभिवादन के दो शब्दों को बोल दे। बोलना तो दूर अगर नजर मिल गया तो हाथ हिलाना भी एक दूसरे को गवारा तक न था। उनका एक दूसरे से मिलना किसी तीज त्यौहार या फिर कालोनीवासियों के निश्चित मीटिंग के दौरान ही होता था। इस तरह के मिलन में मिठास कम तो दिखावटी गर्म जोशी व औपचारिकता ज्यादा होती थी।
  उस कालोनी में जहां के मकान, सड़क, छोटे - मोटे  हॉट बाज़ार और शाम को हॉट बाज़ार में आने वाले लोग उस कालोनी के निवासियों के वैभव की गाथा गाते थे तथा दर्शन कराते थे, उसी कालोनी में खाली प्लाटों पर जगह - जगह झुंगी झोपड़ियां  दिखती रहती थी। जो उसमे रहने वालों की  दूर्भिक्षिता को दर्शाती रहती थी। क्या जाड़ा क्या गर्मी उसमे किसी भी मौसम में सुख का अनुभव नहीं किया जा सकता था, वर्षा के मौसम का कहना ही क्या था उन दिनों में वहां  दुर्भिक्षिता ही दुर्भिक्षिता दिखती थी।  वो उन्हीं लोगों का निवास स्थान था जो यहां रहने वाले वैभवशाली लोगों के लिए अपने कमजोर से दिखने वाले कंधो पर ईट, बजरी, बालू, मोरन,सीमेंट, पटरा और बल्ली ढोकर इन आलीशान महलों का निर्माण कार्य को पूरा करते थे। लेकिन उनके खुद के भाग्य में झोपड़पट्टी भी नहीं बल्कि पन्नीपट्टी ही लिखा था। फिर भी उसमें रहने वाले उनके बच्चे उन्हीं झूंगी झोपड़ियों में ही खुश नजर आते थे। उनके छोटे - छोटे बच्चों की सुबह सुखी रोटी से शुरू होती और दिन अपने मां बाप के इर्द गिर्द बीतता था। उनकी माएँ दिन भर गारा मिट्टी व बालू ढूलती थी तो उनके बच्चों को वही गारा मिटटी में खिलौनौ का दर्शन होता था, और उसी में खेलते हुए उनका सुबह से शाम हो जाता था न तो उनको और न ही उनके  मां - बाप को समय का पता चलता था कि सुबह से कब शाम हो गया। और फिर शाम को वो समय हो जाता था जब चिड़िया भी अपने घोसालों की तरफ लौटने लगती हैं तो ठीक उसी समय वो भी अपने घारौदों की तरफ लौटते हुए आटा,  चावल - दाल, नमक, तेल का खरीदारी करते हुए अपने घरौदों पर लौटते थे। चाहे कितना भी गर्मी या ठंडक हो यही उनकी दिनचर्या होती थी। इस तरह रात का खाना-पीना बनाना खा पीकर सो जाना फिर सुबह इसी तरह एक नये दिन के दिनचर्या  शुरुआत होती थी। फिर वही कार्य वहीं दिनचर्या यह उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया था जैसे लगता था उनके तथा उनके बच्चों के जीवन में पढ़ाई - लिखाई, अमोद - प्रमोद व मनोरंजन का कोई स्थान ही नहीं था। उन लोगों का यह हाल उस कॉलोनी में था जहां रहने वाले नव धनाढ्य व पुस्तैनी धनाढ्य लोगों का जीवन अमोद - प्रमोद व विलासिता से भरा हुआ था।
   मनुष्य का जीवन इतनी काल्पनिक विश्वासों से भरा हुआ है कि तार्किक व्यक्तियों की सोचने की सीमा के बाहर जान पड़ता है। तार्किक व्यक्ति जहां हर बातों व घटनाओं को अपने तर्क की कसौटी पर कसता है और धार्मिक व्यक्ति के कर्मकांडो को निरा मूर्खतापूर्ण ही लगता है। वहीं धार्मिक व्यक्ति को अपने कर्मकांडो पर इतना विश्वास है कि उसे लगता है कि यदि उसने  अपने  धार्मिक कर्मकांडो का अनुपालन नहीं किया तो उसे लगता है कि उसे ईश्वर की नाराजगी के साथ समाज की भी नाराजगी झेलनी पड़ेगी और सामाजिक प्रतिष्ठा का नुकसान होगा जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी। यदि ईश्वर नाराज हो कर कुछ ऐसा अनिष्ट कर दे जिसकी भरपाई न हो सके तो सारा जीवन ही बेकार हो जाएगा। अनिष्ट की ये आशंका बहुत कुछ अनिच्छा पूर्वक करने के लिए मजबूर कर देती है तो बहुत धार्मिक कर्मकांड भविष्य में ईश्वर को प्रसन्न करके लाभ पाने की इच्छा कराती है।
   इन सब आशंकाओं, आशाओं व लालसाओं से युक्त इस  कॉलोनी में कई कई ऐसे परिवार रहते थे जो समय समय पर अपने तीज त्यौहारों व पर्वों को मिल बैठकर साथ मनाने का प्रयास करते थे। ऐसा ही एक पर्व नवरात्र पड़ा जिसमें कॉलोनी वासियों ने मां दुर्गे की प्रतिमा कॉलोनी में सामूहिक रूप से स्थापित करने के साथ-साथ अपने घर पर भी मां की पूजा की कलश की स्थापना की और  विधिवत विधि विधान से नौ दिन तक मां की पूजा अर्चना की और जितने भी रीति रिवाज, कर्मकांड थे सबको पूर्ण रूप से विधि विधान  अनुपालित  किए। रीति रिवाज, विधि विधान को अनुपालित करने में कोई भी कोताही कलश स्थापित करने वाले परिवारों ने न उठा रखी थी समस्या तब उत्पन्न हुई जिस दिन कन्या भोज का आयोजन किया जाना था। उसके एक दिन पहले जब कन्याओं को भोज के बारे में बोले जाने का समय आया। इसके लिए धार्मिक विधान के अनुसार नौ कन्याओं को भोज करना आवश्यक था किंतु ढूंढने पर कॉलोनी में कुल एक या दो कन्याओं की व्यवस्था हो पा रही थी। आश्चर्य की बात ये थी कि इस कालोनी के इतने वैभवशाली व आलीशान मकानों व महलों में केवल तीन से चार व्यक्ति ही रहने वाले थे। किसी परिवार में माता-पिता के अलावा एक बेटा तो किसी के वहां दो बेटा तो किसी का एक बेटा और एक बेटी थी। उस कॉलोनी में किसी भी ऐसे परिवार का दर्शन नहीं हो पा रहा था जिसकी की दो बेटियां हो। लोगबाग अपने परिचितों में आसपास के लोगों में कन्या  भोज करवाने हेतु कन्याओं को ढूंढ रहे थे। किंतु आसपास व परिचय में कन्या हो तब तो मिले अधिकतर लोगों के घर जो उनके घर के अगल गिर, बगल गीर के घर थे उनमें केवल एक या दो कन्याएं ही मिल पा रही थी। कन्या मिले भी कैसे जो समाज कन्याओं को बोझ समझता हो उनके घर में कन्या जन्म ही कैसे ले सकती है। हो भी ऐसा ही रहा था। कालोनी में पांच घर सात घर छोड़कर किसी एक घर में कन्या मिल जाती थी।
   अब कर्म कांड और रीति रिवाज पूर्ण न  कर पाने में समस्या आ खड़ी हुई थी। परिचितों से पूछताछ करने और  तमाम तजवीज करने पर भी जब कोई भी ऊपाय न बनता दिखा तो पंडित जी ने यजमान को ( अखंड प्रताप सिंह यही यजमान का नाम था) सलाह दिया कि क्यों न इन झोपड़पट्टियों से मजदूरों की कन्याओं को बुलाकर भोज करवाया जाए। अखंड बाबू किसी भी  कन्या में देवी का वास होता है चाहे वह अमीर की हो या फिर किसी गरीब की हो।  इससे इन गरीब कन्याओं को कम से कम एक समय अच्छा भोजन मिल जायेगा। भूखे को भोजन कराने से एक तरह से आप को कई गुना पुण्य लाभ होगा और यजमान के द्वारा कन्या भोज  का भी पुण्य लाभ भी मिल जाएगा।
   पहले तो अखंड बाबू को इस बात में अपनी हेठी नजर आ रही थी कि कोई मजदूर या उनके घर में आकर बर्तन धुलने वाली  की कन्या उनके घर में आकर भोजन करे ( उन्हीं मजदूरों की औरतें या बेटियां कालोनी के घरों में बर्तन धुलने का कार्य भी करती थी ) और वो सम्मान से उसको भोजन कराएं उसके पैर छुए यह उनके सामाजिक  सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान था किन्तु कोई काम न बनता देख और बहुत सोच विचार करने के बाद कि यदि पूजा विधि विधान से पूर्ण न हो पाए तो कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़ जाए, तमाम उधेड़बुन और पंडित जी के बातों पर गौर करने पर अखंड बाबू इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन झोपड़पट्टियों की कन्याओं को विधिविधान से भोज करवाया जाए। जहां अभी तक अखंड बाबू के राजसी मन में अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के नफे नुकसान को ध्यान में रखकर इन गरीब कन्याओं के भोज कराने में हिचकिचाहट थी तो अब उसी अखंड बाबू के दिल में पूजा पाठ को विधिविधान से पूर्ण करने की लालसा या फिर पंडित जी के सलाह ने उनके अंतरात्मा मैं एक परिवर्तन का भाव को जागृत कर दिया था।
   उसी शाम अखंड बाबू पण्डित जी के साथ आस पास के सभी झोपड़पट्टियों में जाकर उसमें रहने वाली  कन्याओं को कन्या भोज के लिए आमंत्रित करने के लिए पहुंचे तो झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर अखंड बाबू अंदर से इतने द्रवित हो गए कि लगता था जैसे उनके कंठ में नमक का रोड़ा अटक गया हो,शायद लगता था उनका कंठ अवरूद्ध हो गया था। लगता था उनके बुद्धि को लकवा मार गया हो और हत बुद्धि से होकर बाहर ही खड़े होकर ऐसी दशा में आ गए थे कि उनके आंखों के आसूं और कंठ की बोली में एक संघर्ष सा होने लगा था कि कौन पहले निकल पड़े। किंतु अखंड बाबू अपने को सम्हाले हुए तथा अपने को संयत करते हुए पंडित जी से बोले कि पंडित जी आज आप ने या फिर ईश्वर ने हमें जीवन के उस मार्ग पर चलने का रास्ता दिखा दिया है जो मेरे इस जीवन का शायद उद्धारक बनेगा। पंडित जी अखंड बाबू के द्वारा इस समय प्रसंग से हटकर बोली गई बात को उनकी समझ में न आने के कारण बोले की मै समझा नहीं यजमान...., पंडित जी बातों को बीच में काटते हुए  अखंड बाबू बोल पड़े समय आने पर सारी बातें समझ में आ जाएंगी पंडित जी। और कन्याओं को आमन्त्रित करने का काम आगे बढ़ाते हुए एक झोपड़पट्टी से दूसरी झोपड़पट्टी करने लगे।इस बीच पंडित जी ने अखंड बाबू  को टोकते हुए बोला कि बाबू कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को ही भोज कराने की आवश्यकता है, पर अखंड बाबू ने पंडित जी की ओर मुखातिब होकर पंडित जी से बोला कि पंडित जी मुझे पता है कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को भोज कराने की आवश्यकता है किंतु मै नौ कन्याओं के अलावा अन्य कन्याओं को अलग से बैठा कर भोज करना चाहता हूं। पंडित जी मैं पूजा के विधि विधान को पूर्ण करने के लिए ही अब केवल भोज नहीं कराना चाहता हूं।  पंडित जी कन्याओं को भोज के लिए आमंत्रित करते हुए उन झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर मेरी अंतरात्मा ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया है आप समझिये कि मेरी ज्ञान चक्षु कुछ कुछ खुल गई है। मेरा अपने समाज के प्रति, अपने आस पास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति कुछ दायित्व है और उन दायित्वों को इस भोज के माध्यम से और इसी क्रम में आगे और सामाजिक दायित्वों को निभा कर मै अपने जीवन का उद्धार  करना चाहता हूं। जो समाज मेरे पूजा को विधि-विधान को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी कन्याओं को दे रहा है उसके प्रति भी हमारा कुछ दायित्व है कि नहीं। नहीं तो मेरे वैभवशाली तथा सभ्य कहे जाने वाले समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल पड़ा है और अधिकतर परिवार कन्याओं से विहीन है। पता नहीं ईश्वर इन धनाढ्य परिवारों में कन्या का जन्म क्यों नहीं होने देता है यह ईश्वर ही जाने।
   कन्याओं को भोज पर आमंत्रित करने के पश्चात अखंड बाबू पंडित जी से कल निश्चित समय पर आकर यज्ञ आहुति पूर्ण कराने हेतु बोलकर बाजार की तरफ चल दिए। बाजार से कन्याओं को उपहार देने हेतु या यूं कहें कि कन्याओं का पैर पूजने हेतु बर्तन कपड़े तथा अपने सामर्थ्य व कल्पना के अनुसार जो भी समान ले सकते थे उन सारे सामानों को बाजार से खरीद कर अपने घर की तरफ चल दिए। घर पहुंचने पर पत्नी के द्वारा पूछने पर कि इतना सामान खरीद कर किसके लिए आप लाए हैं। उन्होंने बताया कि यह कल कन्या भोज के पश्चात कन्याओं के पैर पूजते समय उनको देने के लिए। भोज तो केवल केवल नौ कन्याओं को ही कराना है फिर इतना अधिक सामान आप क्यों लेकर आए हैं। हां श्यामा भोज हमें केवल नौ कन्याओं को कराना किंतु और भी कन्याओं को मैंने भोजन हेतु आमंत्रित  किया है। नौ कन्याओं के अतिरिक्त कन्याओं किनारे बैठा कर भोज कराने के पश्चात उन्हें उपहार देकर विदा किया जाएगा इससे जो संतुष्टि हम लोगों को मिलेगी उसका हम बखान नहीं कर सकते हैं। अपने समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल है, इस कारण से मैंने कन्याओं को भोज हेतु आमंत्रित करने के लिए जब मैं उनकी झोपड़ पट्टियों में जाकर उनको आमंत्रित कर रहा था, तो उन झोपड़पट्टियों की दशा देखकर मैं आत्म ग्लानि से भर गया था उन झोपड़पट्टी की दशा देखकर। जिसमें वह लोग रह रहे हैं, उसकी दशा अपने घर के कबाड़ खाने से भी बदतर महसूस हो रही थी। वह लोग उसी में अपने परिवार के साथ जीवन निर्वाह कर रहे हैं जैसे तैसे अपना जीवन गुजार रहे हैं किंतु वह इतने स्वाभिमानी हैं की हम लोगों के सामने आज तक कभी भी इतनी अभाव की स्थिति में भी हाथ नहीं फैलाते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने इन आलीशान कोठियों को बनाने में अपने श्रम से हम लोगों का सहयोग किया है बहुत ही थोड़े मजदूरी पर। जो अपने लिए तो कम और हम कॉलोनी वासियों के लिए ज्यादा काम करते हैं। आज यह कन्या भोज ठीक से निपट जाए तो इसके पश्चात इनके बच्चों लिए काम करने का मैंने निश्चय किया है। दूसरे दिन पंडित जी के आने पर कन्या भोज में आमंत्रित कन्याएं भी नियत समय पर आ गई। पंडित जी के द्वारा विधि विधान से हवन संपन्न करवाने के पश्चात अखंड बाबू कन्याओं को सम्मान से पूजन करने व भोजन करवाने के पश्चात सभी कन्याओं को अपनी श्रद्धानुसार उचित उपहार देकर विदा किए। अखंड बाबू के लिए यह केवल कन्या भोज का ही दिन ना था यह उनके जीवन में यह परिवर्तन लाने वाला दिन था। आज से अखंड बाबू का जीवन बिल्कुल सादगी से भरा हुआ जीवन था जिसमें आडंबर का कोई स्थान ना था। अब उनके जीवन में वैभवशाली पहनावे व दिखावे व विलासिता का कोई भी स्थान न था।
   अब ऑफिस के पहले सुबह का तथा ऑफिस के पश्चात शाम का जो भी समय मिलता था वह झोपड़पट्टी के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाने में तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में भेजने की व्यवस्था करने में लगे रहते थे। यह नेक कार्य देखकर बहुत से दानवीर उनके सहयोग में आ खड़े हुए। अब बच्चों को पढ़ाने व उनको स्कूल भेजने का कार्य दिन दूना रात चौगुना के पथ पर अग्रसर हो गया था। वहीं दूसरी तरफ जो बच्चे दिन भर इधर उधर घूमते फिरते थे उनको लगता था जैसे उड़ान के पंख लग गए थे। उनमें से कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि खुद उनको पढ़ाने वाले अपने दातों तले उंगली दबाते थे। यह जीवन का सत्य है कि आप कितना भी अच्छा से अच्छा आम इत्यादि के फलदार पेड़ों की बगिया लगा दें यदि उनको देख रेख़ करने वाला रखवाला नहीं है तो वो कभी देख रेख के अभाव में तो कभी किसी राहगीर के द्वारा बगिया का रखवाला न होने के कारण अनायास ही फलों पर ढेला चला तोड़ दिये जाते हैं। ठीक इसी तरह का वातावरण भी इनके बच्चों को भी मिलता था। दिन भर मां बाप काम में  व्यस्त रहते और बच्चे उद्देश्य हीन बच्चों के भांति इधर उधर घूमते रहते थे।उनको यह समझ ही नहीं आता था कि जिनके साथ वह इस तरह घूम फिर रहें हैं वो उनको नुकसान पहुंचा रहा है या फायदा। जैसे गेहूं के खेत में आप जब गेहूं कि बुआई कर देते हैं तो गेहूं के पौधों के साथ कुछ ऐसे पौधे भी उग आते हैं जो मिट्टी के खाद पानी को इतनी तेजी से सोखते हैं कि गेहूं का मूल पौधों का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पाता है जितनी तेजी से इन लम्हेरे पौधों का होता है और उस खेत की फसल मारी जाती है। यदि कोई जागरूक व जानकर किसान ऐसे खेत का मालिक हो तो वह प्राथमिक स्तर पर ही इन लम्हेरों को उखाड़ देगा और उसका खेत बिल्कुल ही लहलहा उठेगा और फिर उस खेत से भरपूर पैदेवार होगा।
   ठीक ऐसे ही अब इन बच्चों को अखंड बाबू के रूप में एक ऐसा माली मिल गया था जो इनको एक दिशा देने का प्रयास कर रहा था। समय समय पर इन बच्चों को खाद पानी के रूप में किताबें, स्कूल के अलावा सुबह शाम पढ़ाने के लिए प्राइवेट ट्यूटर आदि की व्यवस्था अखंड बाबू ने कर रखा था। अगर बच्चों कि शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नजर आती थी तो अखंड बाबू उसको भर्षक दूर करने का प्रयास करते रहते थे। कहते हैं कि उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से होती है। यही बात इनमें से कुछ बच्चों पर भी एक दम से ठीक बैठती थी।  इन बच्चों में भी कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि जिनकी प्रतिभा के सामने गुरुजनों से लेकर सुविधा संपन्न घरों के बच्चे तक सम्मान कि नजरों से देखते थे, प्रतिभा के साथ इनके मेहनत को देखकर लोग अपने दातों तले उंगली दबाते थे। ठीक ही किसी ने कहा है होनहर विरवान के होते चिकने पाथ हैं, कुछ बच्चों ऐसे परिश्रमी थे कि लगता था जैसे उनको एक सुगम पथ मिला हुआ है वो उस पर सरपट दौड़ रहे हैं। ऐसे परिश्रमी बच्चे एक - एक सीढ़ी के रूप में एक - एक कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा कि तरफ अग्रसर हो रहे थे।
   अब उनमें से कुछ बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद देश की उच्च कोटि के सम्मानित संस्थानों की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात और वहां से  अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात प्रतिवर्ष कुछ बच्चे देश और दुनिया की प्रतिष्ठित कंपनियों में अच्छे इंजीनियर तो कुछ उच्चकोटी का डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इस तरह प्रत्येक वर्ष कुछ ना कुछ बच्चे डॉक्टर इंजीनियर व प्रबंधक बनके देश-विदेश में अपने प्रतिभाओं का लोहा मनवा रहे थे साथ में अखंड बाबू का नाम रोशन कर रहे थे। अब कोई तीज त्यौहार हो तो अखंड बाबू के द्वार पर गाड़ियों का तांता लग जाता था। उपहार स्वरूप मिठाइयों की बात ही क्या करनी। वो तो ढेर के रूप में घर पर तीज त्योहारों पर लग जाया करती थी। अखंड बाबू को घूम घूम कर इन मिठाइयों को झोपड़पट्टियों में बांटने में ही कई दिन लग जाते थे। अब अखंड बाबू जब भी घर से बाहर निकलते तो जैसे अभिवादन करने वालों का तांता लगा रहता था। अखंड बाबू इसे कन्या भोज का प्रसाद समझते थे। और शायद इससे और ऊर्जा मिलती थी, दिन दूना रात चौगुना कार्य करने के लिए।


यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा

Wednesday, April 8, 2020

कन्याभोज से सेवा

यदि व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक पैसा, नवसंबृद्धि व नवधनाढपन आ जाए और उसके साथ यदि धार्मिक बुद्धि का जुड़ाव न हो तो शायद अपनों से ही इतना दूर  देता है कि अपने भी पराये लगने लगते हैं। इसी तरह के लोगों की अधिकता से भरपूर नव निर्मित गोमती विहार कॉलोनी विकसित होकर अपना बृहत आकर लेने के क्रम में अग्रसर थी। इस कालोनी में एक से एक आलीशान मकान उसमे रहने वालों के वैभव  का बखान कर रहे थे। तो उनका पहनावा इत्र फूलेल व गहने आदि उनके शान ओ शौकत का बखान करते रहते थे।
 इस कालोनी के वासी अपने को एक दूसरे से किसी भी मायने में अपने को कमतर नहीं आकते थे।क्या मजाल कि कोई अपने गेट से बाहर निकले और अपने अड़ोस पड़ोस वाले की तरफ नजर उठाकर अभिवादन के दो शब्दों को बोल दे। बोलना तो दूर अगर नजर मिल गया तो हाथ हिलाना भी एक दूसरे को गवारा तक न था। उनका एक दूसरे से मिलना किसी तीज त्यौहार या फिर कालोनीवासियों के निश्चित मीटिंग के दौरान ही होता था। इस तरह के मिलन में मिठास कम तो दिखावटी गर्म जोशी व औपचारिकता ज्यादा होती थी।
  उस कालोनी में जहां के मकान, सड़क, छोटे - मोटे  हॉट बाज़ार और शाम को हॉट बाज़ार में आने वाले लोग उस कालोनी के निवासियों के वैभव की गाथा गाते थे तथा दर्शन कराते थे, उसी कालोनी में खाली प्लाटों पर जगह - जगह झुंगी झोपड़ियां  दिख रही थी। जो उसमे रहने वालों की  दूर्भिक्षिता को दर्शा रही थी। क्या जाड़ा क्या गर्मी उसमे किसी भी मौसम में सुख का अनुभव नहीं किया जा सकता था, वर्षा के मौसम का कहना ही क्या था उन दिनों में वहां कि दुर्भिक्षिता के बारे में कहना ही क्या था।  वो उन्हीं लोगों का निवास स्थान था जो यहां रहने वाले वैभवशाली लोगों के लिए अपने कमजोर से दिखने वाले कंधो पर ईट, बजरी, बालू, मोरन,सीमेंट, पटरा और बल्ली ढोकर इन आलीशान महलों का निर्माण कार्य को पूरा करते थे। लेकिन उनके खुद के भाग्य में झोपड़पट्टी भी नहीं बल्कि पन्नीपट्टी ही लिखा था। फिर भी उसमें रहने वाले उनके बच्चे उन्हीं झूंगी झोपड़ियों में ही खुश नजर आते थे। उनके छोटे - छोटे बच्चों की सुबह मोटी रोटी से शुरू होती और दिन अपने मां बाप के इर्द गिर्द बीतता था। उनकी माएँ दिन भर गारा मिट्टी व बालू ढूलती थी तो उनके बच्चों को वही गारा मिटटी में खिलौनौ का दर्शन होता था, और उसी में खेलते हुए उनका सुबह से शाम हो जाता था न तो उनको और न ही उनके  मां - बाप को समय का पता चलता था कि सुबह से कब शाम हो गया। और फिर शाम को वो समय हो जाता था जब चिड़िया भी अपने घोसालों की तरफ लौटने लगती हैं तो ठीक उसी समय वो भी अपने घारौदों की तरफ लौटते हुए आटा,  चावल - दाल, नमक, तेल का खरीदारी करते हुए अपने घरौदों पर लौटते थे। चाहे कितना भी गर्मी या ठंडक हो यही उनकी दिनचर्या होती थी। इस तरह रात का खाना-पीना बनाना खा पीकर सो जाना फिर सुबह इसी तरह एक नये दिन के दिनचर्या  शुरुआत होती थी। फिर वही कार्य वहीं दिनचर्या यह उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया था जैसे लगता था उनके तथा उनके बच्चों के जीवन अमोद - प्रमोद व मनोरंजन का कोई स्थान ही नहीं था। उन लोगों का यह हाल उस कॉलोनी में था जहां रहने वाले नव धनाढ्य व पुस्तैनी धनाढ्य लोगों का जीवन अमोद - प्रमोद व विलासिता से भरा हुआ था।
   मनुष्य का जीवन इतनी काल्पनिक विश्वासों से भरा हुआ है कि तार्किक व्यक्तियों की सोचने की सीमा के बाहर जान पड़ता है। तार्किक व्यक्ति जहां हर बातों व घटनाओं को अपने तर्क की कसौटी पर कसता है और धार्मिक व्यक्ति के कर्मकांडो को निरा मूर्खतापूर्ण ही लगता है। वहीं धार्मिक व्यक्ति को अपने कर्मकांडो पर इतना विश्वास है कि उसे लगता है कि यदि उसने  अपने  धार्मिक कर्मकांडो का अनुपालन नहीं किया तो उसे लगता है कि उसे ईश्वर की नाराजगी के साथ समाज की भी नाराजगी झेलनी पड़ेगी और सामाजिक प्रतिष्ठा का नुकसान होगा जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी। यदि ईश्वर नाराज हो कर कुछ ऐसा अनिष्ट कर दे जिसकी भरपाई न हो सके तो सारा जीवन ही बेकार हो जाएगा। अनिष्ट की ये आशंका बहुत कुछ अनिच्छा पूर्वक करने के लिए मजबूर कर देती है तो बहुत धार्मिक कर्मकांड भविष्य में ईश्वर को प्रसन्न करके लाभ पाने की इच्छा कराती है।
   इन सब आशंकाओं, आशाओं व लालसाओं से युक्त इस  कॉलोनी में कई कई ऐसे परिवार रहते थे जो समय समय पर अपने तीज त्यौहारों व पर्वों को मिल बैठकर साथ मनाने का प्रयास करते थे। ऐसा ही एक पर्व नवरात्र पड़ा जिसमें कॉलोनी वासियों ने मां दुर्गे की प्रतिमा कॉलोनी में सामूहिक रूप से स्थापित करने के साथ-साथ अपने घर पर भी मां की पूजा की कलश की स्थापना की और  विधिवत विधि विधान से नौ दिन तक मां की पूजा अर्चना की और जितने भी रीति रिवाज, कर्मकांड थे सबको पूर्ण रूप से विधि विधान  अनुपालित  किए। रीति रिवाज, विधि विधान को अनुपालित करने में कोई भी कोताही कलश स्थापित करने वाले परिवारों ने न उठा रखी थी समस्या तब उत्पन्न हुई जिस दिन कन्या भोज का आयोजन किया जाना था उसके एक दिन पहले जब कन्याओं को भोज के बारे में बोले जाने का समय आया। इसके लिए धार्मिक विधान के अनुसार नौ कन्याओं को भोज करना आवश्यक था किंतु ढूंढने पर कॉलोनी में कुल एक या दो कन्याओं की व्यवस्था हो पा रही थी। आश्चर्य की बात ये थी कि इस कालोनी के इतने वैभवशाली व आलीशान मकानों व महलों में केवल तीन से चार व्यक्ति ही रहने वाले थे। किसी परिवार में एक बेटा तो किसी के वहां दो बेटा तो किसी का एक बेटा और एक बेटी थी। उस कॉलोनी में किसी भी ऐसे परिवार का दर्शन नहीं हो पा रहा था जिसकी की दो बेटियां हो। लोगबाग अपने परिचितों में आसपास के लोगों में कन्या  भोज करवाने हेतु कन्याओं को ढूंढ रहे थे। किंतु आसपास व परिचय में कन्या हो तब तो मिले अधिकतर लोगों के घर जो उनके घर के अगल गिर, बगल गीर के घर थे उनमें केवल एक या दो कन्याएं ही मिल पा रही थी। कन्या मिले भी कैसे जो समाज कन्याओं को बोझ समझता हो उनके घर में कन्या जन्म ही कैसे ले सकती है। हो भी ऐसा ही रहा था कालोनी में पांच घर सात घर छोड़कर किसी एक घर में कन्या मिल जाती थी।
   अब कर्म कांड और रीति रिवाज पूर्ण न  कर पाने में समस्या आ खड़ी हुई थी। परिचितों से पूछताछ करने और  तमाम तजवीज करने पर भी जब कोई भी ऊपाय न बनता दिखा तो पंडित जी ने यजमान को ( अखंड प्रताप सिंह यही यजमान का नाम था) सलाह दिया कि क्यों न इन झोपड़पट्टियों से मजदूरों की कन्याओं को बुलाकर भोज करवाया जाए। अखंड बाबू किसी भी  कन्या में देवी का वास होता है चाहे वह अमीर की हो या फिर किसी गरीब की हो।  इससे इन गरीब कन्याओं को कम से कम एक समय अच्छा भोजन मिल जायेगा। भूखे को भोजन कराने से एक तरह से आप को कई गुना पुण्य लाभ होगा और यजमान के द्वारा कन्या भोज  का भी पुण्य लाभ भी मिल जाएगा।
   पहले तो अखंड बाबू को इस बात में अपनी हेठी नजर आ रही थी कि कोई मजदूर या उनके घर में आकर बर्तन धुलने वाली  की कन्या उनके घर में आकर भोजन करे ( उन्हीं मजदूरों की औरतें या बेटियां कालोनी के घरों में बर्तन धुलने का कार्य भी करती थी ) और वो सम्मान से उसको भोजन कराएं उसके पैर छुए यह उनके सामाजिक  सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान था किन्तु कोई काम न बनता देख और बहुत सोच विचार करने के बाद कि यदि पूजा विधि विधान से पूर्ण न हो पाए तो कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़ जाए, तमाम उधेड़बुन और पंडित जी के बातों पर गौर करने पर अखंड बाबू इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन झोपड़पट्टियों की कन्याओं को विधिविधान से भोज करवाया जाए। जहां अभी तक अखंड बाबू के राजसी मन में अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के नफे नुकसान को ध्यान में रखकर इन गरीब कन्याओं के भोज कराने में हिचकिचाहट थी तो अब उसी अखंड बाबू के दिल में पूजा पाठ को विधिविधान से पूर्ण करने की लालसा या फिर पंडित जी के सलाह ने उनके अंतरात्मा मैं एक परिवर्तन का भाव को जागृत कर दिया था।
   उसी शाम अखंड बाबू पण्डित जी के साथ आस पास के सभी झोपड़पट्टियों में जाकर उसमें रहने वाली  कन्याओं को कन्या भोज के लिए आमंत्रित करने के लिए पहुंचे तो झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर अखंड बाबू अंदर से इतने द्रवित हो गए कि लगता था जैसे उनके कंठ में नमक का रोड़ा अटक गया हो,शायद लगता था उनका कंठ अवरूद्ध हो गया था। लगता था उनके बुद्धि को लकवा मार गया हो और हत बुद्धि से होकर बाहर ही खड़े होकर ऐसी दशा में आ गए थे कि उनके आंखों के आसूं और कंठ की बोली में एक संघर्ष सा होने लगा था कि कौन पहले निकल पड़े। किंतु अखंड बाबू अपने को सम्हाले हुए तथा अपने को संयत करते हुए पंडित जी से बोले कि पंडित जी आज आप ने या फिर ईश्वर ने हमें जीवन के उस मार्ग पर चलने का रास्ता दिखा दिया है जो मेरे इस जीवन का शायद उद्धारक बनेगा। पंडित जी अखंड बाबू के द्वारा इस समय प्रसंग से हटकर बोली गई बात को उनकी समझ में न आने के कारण बोले की मै समझा नहीं यजमान...., पंडित जी बातों को बीच में काटते हुए  अखंड बाबू बोल पड़े समय आने पर सारी बातें समझ में आ जाएंगी पंडित जी। और कन्याओं को आमन्त्रित करने का काम आगे बढ़ाते हुए एक झोपड़पट्टी से दूसरी झोपड़पट्टी करने लगे।इस बीच पंडित जी ने अखंड बाबू  को टोकते हुए बोला कि बाबू कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को ही भोज कराने की आवश्यकता है, पर अखंड बाबू ने पंडित जी की ओर मुखातिब होकर पंडित जी से बोला कि पंडित जी मुझे पता है कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को भोज कराने की आवश्यकता है किंतु मै नौ कन्याओं के अलावा अन्य कन्याओं को अलग से बैठा कर भोज करना चाहता हूं। पंडित जी मैं पूजा के विधि विधान को पूर्ण करने के लिए ही अब केवल भोज नहीं कराना चाहता हूं।  पंडित जी कन्याओं को भोज के लिए आमंत्रित करते हुए उन झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर मेरी अंतरात्मा ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया है आप समझिये कि मेरी ज्ञान चक्षु कुछ कुछ खुल गई है। मेरा अपने समाज के प्रति, अपने आस पास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति कुछ दायित्व है और उन दायित्वों को इस भोज के माध्यम से और इसी क्रम में आगे और सामाजिक दायित्वों को निभा कर मै अपने जीवन का उद्धार  करना चाहता हूं। जो समाज मेरे पूजा को विधि-विधान को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी कन्याओं को दे रहा है उसके प्रति भी हमारा कुछ दायित्व है कि नहीं। नहीं तो मेरे वैभवशाली तथा सभ्य कहे जाने वाले समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल पड़ा है और अधिकतर परिवार कन्याओं से विहीन है। पता नहीं ईश्वर इन धनाढ्य परिवारों में कन्या का जन्म क्यों नहीं होने देता है यह ईश्वर ही जाने।
   कन्याओं को भोज पर आमंत्रित करने के पश्चात अखंड बाबू पंडित जी से कल निश्चित समय पर आकर यज्ञ आहुति पूर्ण कराने हेतु बोलकर बाजार की तरफ चल दिए। बाजार से कन्याओं को उपहार देने हेतु या यूं कहें कि कन्याओं का पैर पूजने हेतु बर्तन कपड़े तथा अपने सामर्थ्य व कल्पना के अनुसार जो भी समान ले सकते थे उन सारे सामानों को बाजार से खरीद कर अपने घर की तरफ चल दिए। घर पहुंचने पर पत्नी के द्वारा पूछने पर कि इतना सामान खरीद कर किसके लिए आप लाए हैं। उन्होंने बताया कि यह कल कन्या भोज के पश्चात कन्याओं के पैर पूजते समय उनको देने के लिए। भोज तो केवल केवल नौ कन्याओं को ही कराना है फिर इतना अधिक सामान आप क्यों लेकर आए हैं। हां श्यामा भोज हमें केवल नौ कन्याओं को कराना किंतु और भी कन्याओं को मैंने भोजन हेतु आमंत्रित  किया है। नौ कन्याओं के अतिरिक्त कन्याओं किनारे बैठा कर भोज कराने के पश्चात उन्हें उपहार देकर विदा किया जाएगा इससे जो संतुष्टि हम लोगों को मिलेगी उसका हम बखान नहीं कर सकते हैं। अपने समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल है, इस कारण से मैंने कन्याओं को भोज हेतु आमंत्रित करने के लिए जब मैं उनकी झोपड़ पट्टियों में जाकर उनको आमंत्रित कर रहा था, तो उन झोपड़पट्टियों की दशा देखकर मैं आत्म ग्लानि से भर गया था उस झोपड़पट्टी की दशा देखकर जिसमें वह लोग रह रहे हैं, उसकी दशा अपने घर के कबाड़ खाने से भी बदतर महसूस हो रही थी और वह लोग उसी में अपने परिवार के साथ जीवन निर्वाह कर रहे हैं जैसे तैसे अपना जीवन गुजार रहे हैं किंतु वह इतने स्वाभिमानी हैं की हम लोगों के सामने आज तक कभी भी इतनी अभाव की स्थिति में भी हाथ नहीं फैलाते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने इन आलीशान कोठियों को बनाने में अपने श्रम से हम लोगों का सहयोग किया है बहुत ही थोड़े मजदूरी पर। जो अपने लिए तो कम और हम कॉलोनी वासियों के लिए ज्यादा काम करते हैं। आज यह कन्या भोज ठीक से निपट जाए तो इसके पश्चात इनके बच्चों लिए काम करने का मैंने निश्चय किया है। दूसरे दिन पंडित जी के आने पर कन्या भोज में आमंत्रित कन्याएं भी नियत समय पर आ गई। पंडित जी के द्वारा विधि विधान से हवन संपन्न करवाने के पश्चात अखंड बाबू कन्याओं को सम्मान से पूजन करने व भोजन करवाने के पश्चात सभी कन्याओं को अपनी श्रद्धानुसार उचित उपहार देकर विदा किया। अखंड बाबू के लिए यह केवल कन्या भोज का ही दिन ना था यह उनके जीवन में यह परिवर्तन लाने वाला दिन था। आज से अखंड बाबू का जीवन बिल्कुल सादगी से भरा हुआ जीवन था जिसमें आडंबर का कोई स्थान ना था। अब उनके जीवन में वैभवशाली पहनावे व दिखावे व विलासिता का कोई भी स्थान न था।
   अब ऑफिस के पहले सुबह का तथा ऑफिस के पश्चात शाम का जो भी समय मिलता था वह झोपड़पट्टी के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाने में तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में भेजने की व्यवस्था करने में लगे रहते थे। यह नेक कार्य देखकर बहुत से दानवीर उनके सहयोग में आ खड़े हुए। अब बच्चों को पढ़ाने व उनको स्कूल भेजने का कार्य दिन दूना रात चौगुना के पथ पर अग्रसर हो गया था। वहीं दूसरी तरफ जो बच्चे दिन भर इधर उधर घूमते फिरते थे उनको लगता था जैसे उड़ान के पंख लग गए थे। उनमें से कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि खुद उनको पढ़ाने वाले अपने दातों तले उंगली दबाते थे। यह जीवन का सत्य है कि आप कितना भी अच्छा से अच्छा आम इत्यादि के फलदार पेड़ों की बगिया लगा दें यदि उनको देख रेख़ करने वाला माली नहीं है तो वो कभी देख रेख के अभाव में तो कभी किसी राहगीर के द्वारा बगिया का रक्षक न होने के कारण अनायास ही फलों पर ढेला चला तोड़ दिये जाते हैं। ठीक इसी तरह का वातावरण भी इनके बच्चों को भी मिलता था। दिन भर मां बाप काम में  व्यस्त रहते और बच्चे उद्देश्य हीन बच्चों के भांति इधर उधर घूमते रहते थे।उनको यह समझ ही नहीं आता था कि जिनके साथ वह इस तरह घूम फिर रहें हैं वो उनको नुकसान पहुंचा रहा है या फायदा। जैसे गेहूं के खेत में आप जब गेहूं कि बुआई कर देते हैं तो गेहूं के पौधों के साथ कुछ ऐसे पौधे भी उग आते हैं जो मिट्टी के खाद पानी को इतनी तेजी से सोखते हैं कि गेहूं का मूल पौधों का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पाता है जितनी तेजी से इन लम्हेरे पौधों का होता है और उस खेत की फसल मारी जाती है। यदि कोई जागरूक व जानकर किसान ऐसे खेत का मालिक हो तो वह प्राथमिक स्तर पर ही इन लम्हेरों को उखाड़ देगा और उसका खेत बिल्कुल ही लहलहा उठेगा और फिर उस खेत से भरपूर पैदेवार होगा।
   ठीक ऐसे ही अब इन बच्चों को अखंड बाबू के रूप में एक ऐसा माली मिल गया था जो इनको एक दिशा देने का प्रयास कर रहा था। समय समय पर इन बच्चों को खाद पानी के रूप में किताबें, स्कूल के अलावा सुबह शाम पढ़ाने के लिए प्राइवेट ट्यूटर आदि की व्यवस्था अखंड बाबू ने कर रखा था। अगर बच्चों कि शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नजर आती थी तो अखंड बाबू उसको भर्षक दूर करने का प्रयास करते रहते थे। कहते हैं कि उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से होती है। यही बात इनमें से कुछ बच्चों पर भी एक दम से ठीक बैठती थी।  इन बच्चों में भी कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि जिनकी प्रतिभा के सामने गुरुजनों से लेकर सुविधा संपन्न घरों के बच्चे तक सम्मान कि नजरों से देखते थे, प्रतिभा के साथ इनके मेहनत को देखकर लोग अपने दातों तले उंगली दबाते थे। ठीक ही किसी ने कहा है होनहर विरवान के होते चिकने पाथ हैं, कुछ बच्चों ऐसे परिश्रमी थे कि लगता था जैसे उनको एक सुगम पथ मिला हुआ है वो उस पर सरपट दौड़ रहे हैं। ऐसे परिश्रमी बच्चे एक - एक सीढ़ी के रूप में एक - एक कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा कि तरफ अग्रसर हो रहे थे।
   अब उनमें से कुछ बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद देश की उच्च कोटि के सम्मानित संस्थानों की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात और वहां से  अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात प्रतिवर्ष कुछ बच्चे देश और दुनिया की प्रतिष्ठित कंपनियों में अच्छे इंजीनियर तो कुछ उच्चकोटी का डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इस तरह प्रत्येक वर्ष कुछ ना कुछ बच्चे डॉक्टर इंजीनियर व प्रबंधक बनके देश-विदेश में अपने प्रतिभाओं का लोहा मनवा रहे थे साथ में अखंड बाबू का नाम रोशन कर रहे थे। यह बच्चे अखंड बाबू के लड़के अमर की कमी को इस तरह से पूर्ति कर रहे थे।
   अखंड बाबू का बेटा अमर कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करने के साथ ही अमेरिका के एक प्रतिष्ठित कम्पनी में काम करते हुए अमेरिका में ही सेटल हो गया था और वही पर एक अमेरिकन लड़की के साथ अपना घर बसा लिया था। जब ये बात अखंड बाबू और उनकी पत्नी को पता चला तो उनको लगा कि जैसे उन लोगों के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई है। उन लोगों के अरमानों पर पानी फिर गया था। शायद उन लोगों का अरमान था कि बेटे की शादी अपनी बेटी माधवी की तरह ही किसी शुशील लड़की से करेंगे जो आकर इस घर को मंदिर में बदल दे और अमर के जीवन में खुशियां भर दे और अमर को खुशहाल रखे। लेकिन अमेरिकन लड़की से विवाह की खबर ने जैसे दोनों कि खुशियों पर पानी फेर दिया था। अमर भी अपने माता पिता की इच्छा के के अनुसार अपना शादी करना चाहता था। किंतु कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी जिस कारण उसे अपनी माता पिता की अनुपस्थित में ही एक अमेरिकन लड़की से शादी करना पड़ा। माता-पिता की नाराजगी के डर से वह कई सालों से घर पर न आ सका था। हालांकि इस दौरान उसके दो बच्चे भी हो चुके थे।
   बहुत सोच विचार के पश्चात अमर अपनी शादी के कई साल बाद अपनी पत्नी के साथ अपने माता - पिता से मिलने अपने घर आया वो भी बिना किसी को बताए।अमर को पहले से ही पता था कि मां और पिता जी दोनों ही उससे नाराज हैं। इस कारण से वह अपनी पत्नी को  घर की गेट पर ही रोककर घर के अंदर दाखिल हुआ और जैसे ही काल बेल बजाया तो उनकी माता जी ने दरवाजा खोला तो एकाएक अमर को देखकर वो अवाक सी हो गई और पता नहीं उनको ये याद था कि नहीं कि अमर ने एक गोरी लड़की से विवाह कर लिया है जो उनके नाराजगी का मूल कारण था अमर से। जैसे ही अमर ने अपनी माता जी का पैर छूने के लिए झुका उसको उसकी माता जी ने गले लगा लिया और भावनाओं का ऐसा बहाव चला कि मां का कंधा भीग गया तो अमर का शर्ट, शायद यह एक दूसरे से गीले सीकवे दूर होने की निशानी थी या एक मां का अपने बेटे से तो एक बेटे का अपने मां से इतने सालों के बाद मिलने के कारण भावनाओं का अतिरेक था। जब दोनों ने अपने को कुछ सम्हाला तो एकाएक उसकी मां को अमर की पत्नी की याद आई उसने अमर की ओर देखते हुआ पूछा कि बहू कहां है, बहू साथ नही आई है क्या। मां वो भी साथ आई है लेकिन वो गेट पर ही रुकी हुई है, अरे बेशर्म तू बहू को गेट पर खड़ा किया हुआ है तुझे शर्म नहीं आ रही है घर की बहू गेट पर खड़ी हुई है। नहीं मां वह खुद ही घर में आने से डर रही थी। अरे वो इस घर की बहू है इस घर की इज्जत है और तू उसे गेट पर खड़ा करके चला आया है। कुछ दिनों पहले तक या यों कहें कि अमर का अपने मन के मुताबिक गोरी मेम से शादी कर लेने के कारण मां और बाप के मन में उसके प्रति जो नफरत कि ज्वाला पैदा हो गई थी वो उसके एक मुलाकात के साथ ही प्रेम में बदल गई थी। हमारे जीवन में ऐसे ही बहुत समय होता रहता है जब अपने बहुत ही नजदीकी व्यक्ति से किसी बात पर विवाद हो जाए या कभी किसी बात पर विभेद हो जाए तो बिल्कुल ही उधर से मुंह मोड़ लेते हैं,लेकिन जैसे ही  हम अपने मन में प्रेम का भाव भरकर उनसे मिलते हैं तो सारे गिले सिकवे दूर हो जाते हैं। इस बात का एहसास लगभग सभी व्यक्तियों में है लेकिन अपना अहम पहले कौन तोड़े इस भाव ने आज तक कितने रिश्तों को तोड़कर रख दिया है।
    इधर अमर अपनी पत्नी को गेट पर खड़ा करके घर के अंदर जैसे ही दाखिल हुआ उसकी पत्नी उत्सुक होकर घर के अंदर वहीं खड़े खड़े झांक कर देखने लगी कि देखें किससे मिलते हैं और इनका स्वागत कैसे किया जाता है या अभी भी मेरे कारण मां और पिता जी नाराज हैं। उसने देखा कि अमर के द्वारा कॉलबेल दबाने पर जैसे ही किसी महिला (शायद वो माता जी ही थी) ने दरवाजा खोला वैसे ही झुक कर उस महिला का पैर छूने को हुआ तो उस महिला ने अमर को अपने गले से लगा लिया, यह उसके लिए एक आश्चर्य मिश्रित घटना थी जिसमें  औपचारिकता का कोई स्थान नहीं था, लगता था कि जैसे मां और बेटे में प्रेम की वर्षा हो रही थी। आज तक उसने अमेरिका में औपचारिकता को ही संबंधों में महशूश किया था जहां संबंधों में मधुरता व प्रेम न होकर प्रेम प्रदर्शन ही ज्यादा होता था। अब अमर की पत्नी सोफिया को विश्वास हो गया था मां की नाराजगी  हम लोगों से दूर हो गई है।
    इस तरह के कुछ और तरह - तरह के विचार सोफिया के मन में चल रहे थे कि इतने में क्या देखती है कि मां और अमर की छोटी बहन दो थाली में थोड़ा पानी और फूल डालकर सोफिया के सामने उपस्थित हुए, अभी सोफिया कुछ समझ पाती कि अमर की बहन माधवी ने अपनी भाभी को गले लगा लिया, माधवी के द्वारा अपने भाभी को इस तरह से गले लगाने पर सोफिया दूसरा हाथ अपने बच्चे से छुड़ाकर कर माधवी से कुछ इस तरह से आलिंगन बद्घ हुई कि जैसे लग रहा था वो इस छड़ के लिए प्यासी थी। माधवी का एक तरफ का कन्धा भीग गया तो सोफिया का दूसरे तरफ का कन्धा भीग गया। थोड़ी देर बाद वो दोनों कुछ संयत हुई तो सोफिया अपने को सम्हालते हुए मां का पैर छूने के लिए आगे बढ़ी तो मां ने अपनी बहू को गले से लगा लिया और बोलने लगी यह दिन देखने के लिए आंखे तरस रही थी, और दोनों ने एक दूसरे ऐसे पकड़ कर गले लिया जैसे कोई मां और बेटी बहुत दिनों के बाद मिले हो। इधर अमर की बहन माधवी अमर के छोटे बेटे को गोद में लेकर तो बड़े बेटे के बालो व गालों पर हाथ फेरते हुए उनसे पूंछ रही थी कि अपने बाबा, दादी व बुआ से मिलने का मन नहीं हो रहा था क्या? इधर दोनों बेटे के लिए यह कौतूहल भरा दृश्य था, इतनी आत्मीयता और इतना प्रेम किसी बाहरी व्यक्ति या सगे संबंधियों द्वारा पहली बार महशूस हो रहा था। बच्चे भी प्यार को बहुत ही अच्छी तरह महशूस करते हैं और ये इन बच्चों के द्वारा महसूस किया जा रहा था। उधर अमर खड़ा - खड़ा अपने को कोश रहा था कि मैं क्यों नहीं पहले मिलने वहां से आ सका क्या होता बहुत होता माता जी और पिता जी थोड़ा नाराज ही न होते।फिर नाराजगी अपने आप ही धीमे - धीमे मेरे और सोफिया के अच्छे व्यवहार से दूर हो जाता। माता पिता अपने बच्चे को तो वैसे ही खुश देखना चाहते हैं उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है जैसे उनसे उनके बच्चें हंस कर दो शब्द बोल  दें उनकी नाराजगी तुरन्त दूर हो जाती है।इधर अमर के मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे कि अभी पिता जी से मिलेंगे तो उनका सामना किस तरह से करेंगे।
    उधर अमर की मां और उसकी बहू कुछ संयत हुई तो माधवी बोली आओ भाभी चलो घर में चले अपना पैर इन दोनो थाली में रख कर चलना, ससुराल में पहली बार बहू का पैर जमीन पर नहीं पड़ना चाहिए इसलिए अपना पैर इन थालियों में ही रखकर चलना। इस तरह थाली में पैर रखते हुए बहू घर के अंदर दाखिल हुई। मां ने अमर और बहू से बोला कि जल्दी से स्नान इत्यादि करके तैयार हो जाओ अभी तुम्हारे पिता जी भी आ रहे होंगे।इधर बेटे और बहू, ईशान और वेदांत को लेकर स्नान इत्यादि करने चल दिए और उधर थोड़ी ही देर में अमर के पिता जी ने दरवाजे पर दस्तक दी।
         जैसे ही अमर के माता जी ने दरवाजा खोला, अमर के पिता जी ने प्रशनभरी नजरों से देख कर पूछा कि कोई आया है क्या, हां लेकिन मै अभी नहीं बताऊंगी, पहले आप अनुमान लगाइए और बताइए कौन है। मै ऐसे कैसे अनुमान लगा सकता हूं, लेकिन एक बात मै तुमसे सत्य में बोलता हूं आज ही भोर में मैंने सपना देखा है कि अचानक अमर घर पर बिन बताए ही आया है और तुमसे गले मिलकर तो मेरे चरणों पर गिर कर क्षमा प्रार्थी के भाव से बोल रहा है कि आप दोनों लोग मुझे क्षमा करिये, मै बस इसी कारण से घर पर नहीं आ रहा था कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं। तो मै उससे गले लगा कर  बोल रहा हूं कि कैसी नाराजगी बरखुरदार यह कितने गर्व की बात है तूने जिसका एक बार हाथ पकड़ा कितनी भी विकट परिस्थिति आई, तूने उसका हाथ नहीं छोड़ा। यह मेरे लिए गर्व की बात है और तुम तो उसकी बहू को देखकर फूले नहीं समा रही हो। पता नही यह बात कितना सत्य है या होगा मै नहीं जानता। यह लो श्यामा ( अखंड बाबू की पत्नी) उधर से आ रहा था तो गणेश मिष्ठान भंडार से थोड़ा मीठा लेते आया था। आप का सपना बिल्कुल ही सत्य अमर और उसकी पत्नी तथा दोनों हमारे फूल से पोते भी आए हैं।अपने पोतों को देखकर मेरी आत्मा गौरवान्वित हो रही थी, सही बता रही हूं कि मैं अपने गोद से उनको छोड़ना नहीं चाह रही थी । अभी इस तरह की वार्ता हो रही थी कि इसी बीच अमर और उसकी पत्नी बच्चों के साथ बैठक में प्रवेश करते हैं। जैसे ही अमर ने अपने पिता जी को देखा कुछ संकोच किन्तु सम्मान भरी नजरों से अपने पिता की ओर बढ़ा और अपने पिता जी का चरण छूने के लिए आगे झुका ही था कि पिता जी ने अमर को उठाकर गले लगा लिया और पीठ पर थपकी देते हुए तथा अमर का मुख अपने मुख के सामने करते हुए बोले कि याद नहीं आ रही थी क्या चलो मेरी याद नही तो अपने मां की तो याद आती रहती होगी। पापा अब न ही कुछ बोलिए जो भी गलती है वो मेरी गलती है। सोफिया का हाथ पकड़ लेने के बाद मुझे लगा कि आप लोग मुझसे बहुत ही नाराज हैं इसी डर के नाते मैं आ नहीं रहा था, जबकि सोफिया बार बार आप लोगों से मिलने का जिद्द करती रहती थी। वही जिद्द करके आप लोगों से मिलने के लिए लेकर आई है, मुझे तो फिर भी डर लग रहा था कि आप कुछ उसके सामने उसको लेकर अपनी नाराजगी न प्रकट करें। अभी दोनों लोगों के बीच ये आपस के गीले सिक्वे की वार्ता हो ही रही थी कि सोफिया अपने दोनों बच्चों के साथ आगे बढ़ी और अपने फादर इन ला ( ससुर ) का चरण स्पर्श करने हेतु आगे झुकी ही थी कि अमर बाबू ने बहू दूर हटते हुए बहू से बोले नहीं बेटी ऐसा नहीं, तुम लोगों को देखने के लिए ये आंखें तरस रही थी। ये पता नहीं किस पुण्य का प्रताप है कि बहू तुम लोगों के कदम बिना किसी आशा के अचानक ही इस घर में पड़े। इधर अखंड बाबू भावनाओं का अतिरेक अपनी बातों से प्रकट कर रहे थे, उधर उनके पोते अपने बाबा का चरण स्पर्श करने के लिए आगे बढ़े तो अखंड बाबू ने झुक कर दोनों को गले लगा लिया कि जैसे उनके जिगर का टुकड़ा मिल गया, और ऐसे ही कुछ देर तक सीने से चिपकाए रखा जैसे लगता था जिस सुख से आज तक वंचित रह गए थे उसको छोड़ना नहीं चाहते थे। यह सारा दृश्य सोफिया को हैरानी में डालने वाला था, क्योंकि अभी तक उसने जिस प्रेम को देखा था, अनुभव किया था उसमें दिखावटीपन और बुद्धिगत प्रेम ज्यादा था, उसमें इस तरह का आत्मीय प्रेम का कोई दर्शन न था। वह बार बार अपने को कोस रही थी मै क्यों नहीं अमर को लेकर यहां मिलने आ सकी मै इतने दिनों तक इस आत्मीय सुख से वंचित रही और मम्मी पापा को भी इस आत्मीय सुख से वंचित रखी,इस तरह के तमाम भाव सोफिया के मन में चल रहे थे।
      वह वहीं एक किनारे खड़े होकर अपने मन की इन भावनाओं से ओत प्रोत सी हो गई थी। अब उसकी स्थित ऐसी हो गई थी कि उसके कंठ और आखों में एक संग्राम सा हो चला था कि कौन पहले एक दूसरे पर विजय पाता है। अन्त में आसुओं ने विजय पाई। कुछ देर तक सोफिया ऐसे ही अपना शुद्ध बुध खोकर यों ही खड़ी थी कि माधवी कमरे में प्रवेश कर बोली कि आइए खाना तैयार है और जब वह अपने भाभी के तरफ मुखातिब हुई तो दखती है कि भाभी के आखों से आसूं झर रहें हैं,वह अपने भाभी के पास जाकर इन खुशी के आसुओं पोंछ कर भाभी को उसने गले लगाया तो भाभी उससे बोल पड़ी कि क्या बताऊं जिस सुख का मैं यहां आकर आनंद ले सकती थी और आप लोगों को आनंद दे सकती उस सुख से कितने सालों तक मैं वंचित रही और आप लोग भी वंचित रहे, वो भी केवल एक काल्पनिक डर के कारण, अच्छा भाभी अब चलिए डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं।
      जब सभी लोग डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने लगे तो अमर के पापा ने बहू की तरफ मुखातिब होते हुए बोला की बहू काल्पनिक भय ने इस दुनिया में रिश्तो के बीच में जो नुकसान पहुंचाया है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ठीक यही बात अमर और तुम्हारे साथ भी हुआ। हां जरूर शुरू में मैं अमर से नाराज था किंतु नाराजगी के बावजूद जब मैंने देखा की अमर ने तुम्हारा हाथ को नहीं छोड़ा तो मैं अंदर ही अंदर इतना खुश हुआ कि उसको मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूं। इसका कारण केवल एक और एक था कि सनातन संस्कृति में यदि आप एक बार जिसका हाथ पकड़ ले जीवनसाथी बनाने के लिए तो उसका हाथ कितना भी विकट परिस्थिति आये छोड़ना नहीं है, और इस बात को मैंने अमर में देखा यह मेरे को एक गौरवान्वित करने वाली बात थी। बहू इस बात को सनातनी शादी विवाह में भी देखा जा सकता है। जब शादी के मंडप में दूल्हा और दुल्हन का शादी की रस्में पूरी हो रही होती हैं तो वहां पर थाल में धान का भूना हुआ लावा रखा हुआ होता है जो इस बात को दर्शाता है कि कितनी भी विकट परिस्थिति आ जाए किन्तु जिसका आप ने हाथ थामा है उसको छोड़ना नहीं है, क्योंकि धान अर्थात पैडी को भूनने पर भी उसका छिलका लावे को छोड़ता नहीं है वो उसको पकड़े ही रहता है। वैसे भी सनातनियों में विवाह एक संस्कार है न कि एक समझौता है।
      माधवी ने अपने पिता की बात को बीच में काटते हुए बोला कि पापा आप भी न भाभी को आज पूरे सनातन धर्म का पाठ पढ़ा देंगे, हमें भी भाभी से बात करने का समय दीजिए न। अरे क्यों नहीं और मै कोई पाठ नहीं पढ़ा रहा हूं बस एक तुक की बात आई तो मैं अपने मन की भावों को व्यक्त कर दिया और कोई बात न थी, अच्छा ठीक है अब तुम अपनी भाभी से बात करो। जैसे ही खाना खा कर डाइनिंग टेबल से उठे माधवी अपने भाभी को लेकर अपने कमरे में चली गई और दोनों आपस में एक से एक बात करने में मशगूल हो गई जैसे लगता था कि अरसे बाद दो सहेलियां मिली हो और उनकी बातों का ही अंत न हो। अच्छा भाभी ये बताओ कि भैया से आप कैसे मिली, मै नहीं बताऊंगी। नहीं आप को बताना पड़ेगा नहीं तो मै आप को छोडूंगी नहीं। अच्छा छोटी चलो जिद्द कर रही हो तो बताए  देती हूं।
     मेरे घर के बगल में एक भारतीय परिवार रहता था उनके घर मेरा आना जाना था। उनके पारिवारिक कार्यक्रमों में मेरा आना जाना रहता था, उन कार्यक्रमों और तीज त्यौहारों को मैं दिल से इतना पसंद करती थी कि उनको मै अपनी शब्दों में या फिर अपनी भावनाओं के द्वारा भी नहीं व्यक्त कर पाऊंगी। पता नहीं वो तीज त्यौहार वो पारिवारिक प्यार, परिवार का एक दूसरे के प्रति समर्पण ने क्या जादू कर रखा था कि मैं अनायास ही उन तीज त्यौहारों के प्रति दीवानी सी रहती थी कि उनमें शामिल होने के लिए व्याकुल से रहती थी और जबतक मै उसमे शामिल नहीं हो जाती थी तो मन में एक अजीब सी बैचैनी बनी रहती थी उसे मैं शब्दों में नहीं ब्यक्त कर सकती। होली, दीपावली और रक्षाबंधन की तो बात ही न पूछो। होली की हुड़दंग, दीपावली की जगमगाहट और खुशियों ने मुझको समोहित कर रखा था तो रक्षाबंधन का मुझे जैसे इंतजार सा रहता था, रक्षाबंधन वाले दिन मै भी अपने भाई को राखी बांधती थी और अभी भी बांधती हूं और खूब ढेर सारे गिफ्ट लेती हूं और साल भर के लिए बहुत सारे गिफ्ट का वादा भी करवा लेती हूं। कभी कभी मेरे दिल में ये बात आती थी कि काश मेरे वहां भी ऐसे ही तीज त्यौहार होते पर इस तरह के त्यौहारों का जैसे अभाव सा है जिसमें जीवंतता हो, एक दूसरे को ख्याल रखने के जज्बे हों। नहीं भाभी तुम मुझे बातों में उलझाओ नहीं, अपनी बातों को लम्बा करके मुझे छोटे बच्चों जैसे भूलवाने का प्रयास न करो। बस तुम मुझे ये बताओ कि तुम भैया से कैसे मिली, छोटी थोड़ा धैर्य रखो अभी बताती हूं, नहीं आप को अभी बताना होगा आप सोच रही होंगी छोटी को धर्म की अच्छी अच्छी बातों को बता कर बातों को लम्बा चौड़ा करते जाऊंगी और इसको नीद आ जाएगी तो इसके द्वारा पूछी गई बातें इधर से उधर हो गई ऐसा न होने पाएगा। छोटी मै तुझे पलझा या भूलवा नहीं रही हूं तुझे मै हिन्दू दर्शन व उन तीज त्यौहारों के बारे में बता रही हूं जिनके बारे में हमारे ही देश में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में एक दीवानापन सा है। मेरी बातों पर विश्वास करो यदि सामाजिक वर्जनाएं न हो तो बहुत से व्यक्ति अपने धर्म के साथ इस धर्म की आध्यात्मिकता और इसके तीज त्यौहारों को कबका आत्मसात कर चुके होते और कुछ तो सामाजिक वर्जनाओं के बावजूद भी इसकी बहुत सी बातों को आत्मसात कर चुके हैं। क्या छोटी कोई ऐसा भी धर्म है जो यह बताता हो कि सारा विश्व एक परिवार है, सभी लोग सुखी रहें सभी लोग निरोग रहें, मंत्रों के द्वारा ऐसी कामना करें। इसी तरह के दर्शन के कारण सनातन धर्म ने, अन्य धर्मों से उच्च स्थान पा लिया है।
      इस विश्व में तो ऐसे ऐसे मजहब हैं जो यह बताते हैं कि अगर उनका मजहब कोई नहीं मानता है तो उसे जीने का अधिकार नहीं है और शायद इसी लिए वो सारे विश्व में हमेशा मारकाट मचाए रहते हैं और वो लोग दिन रात इसी छल कपट में पड़े रहते हैं कि कैसे अपने मजहब का फैलाव करें, जिस देश में लोक तन्त्र है, वहां का परिवेश उनके लिए सबसे अनुकूल सा मिल गया है।  वहां पर वे अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर ध्यान देते हैं जैसे ही जनसंख्या थोड़ी ज्यादा हो जाती है वो लोग एक जुट होकर वहां के मूल निवासियों से मार काट व अदावत करने लगते हैं जब तक कि उस देश में अपना मजहबी कानून न लागू करवा लें।
      छोटी सनातन या फिर कहो हिन्दू धर्म की बस एक ही बुराई के बारे में मैंने सुन रखा है, और वो  है जात - पात यहां पर कुछ लोग ऊंची जाति के हैं तो कुछ लोग नीची जाती के हैं और वो आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर खाते पीते नहीं हैं, इसी कारण से इस धर्म का इंडिया में पतन होता जा रहा है जबकि हमारे अपने देश अमेरिका में हिंदुओं को ये पता ही नही है कि वो किस जाति के हैं वो बस एक अच्छे इंसान हैं और यही उनकी पहचान है और वो आपस में ही नहीं सारे अमेरिकन के साथ ऐसे घुल मिल कर रहते हैं जैसे मिल्क में सुगर मिल जाता है और दूध को ऐसा स्वादिष्ट बना देता है कि लोग उसके बिना दूध नहीं पी पाते हैं। ठीक ऐसे ही अमेरिकन भी अब हिन्दुओं के बिना और हिन्दू जीवन शैली व दर्शन के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। भाभी तुम ठीक बोल रही हो यहां पर अभी भी जात -  पात का भेद भाव है लेकिन पहले से बहुत ही कम हुआ है लेकिन मुझे अभी भी लगता है इसको दूर करने के लिए हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोगों को काफी काम करने की आवश्यकता हैं। मुझे लगता है कि इसके धर्म ग्रंथो में यदि कुछ विभाजनकारी बातें लिखी हुई हैं तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए। लेकिन यदि कुछ प्रबुद्ध जन धर्म ग्रंथों में लिखी हुई  विभाजनकारी जानकारी बातों को हटाना चाहते हैं, तो कुछ स्वयंभूत धर्म के धर्माधिकारी उन विभाजनकारी बातों को हटाने का विरोध करने लगते हैं, यह एक बहुत बड़ी बाधा बनकर खड़ी हुई है, धार्मिक सुधारों व विभाजन कारी बातों के विरुद्ध, समाज के रूढ़ियों को तोड़ना इतना आसान काम नहीं है फिर भी कुछ धर्म सुधारक और समाजसेवी व्यक्ति और संगठन इसको हटाने के प्रयास में जुटे हुए हैं आज नहीं तो कल सफलता अवश्य मिलेगी फिर देखना भाभी यह धर्म विश्व गुरु का दर्जा अवश्य ही पाएगा। चलो छोटी तुम्हारी कही हुई बातें सत्य हो ऐसी मैं आशा करती हूं और विश्व का कल्याण हो।चलो  भाभी अब तो बताओ मेरी पूछी बातों का जवाब दो, हां - हां जवाब देती हूं। लेकिन सही बात बताऊं मुझे बताने में शर्म सी आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, छोटी चलो सोते हैं नीद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा, नहीं अब सो जाओ मुझे नींद आ रही है। नहीं भाभी आप को बताना ही पड़ेगा अच्छा लो सुनो, बात ऐसी है कि एक बार मेरे घर के बगल के घर में मैरेज का कार्यक्रम था उसमे हमारा परिवार भी आमंत्रित था। उस मैरेज सेरेमनी में हमारे पूरे परिवार को वहां हो रहे रिचुअल्स ने जैसे सम्मोहित सा कर दिया। और मेरे मन मस्तिष्क में कहीं न कहीं ये बात घर कर गई थी कि मेरी भी मैरिज इसी रिचुअल्स से होता तो कितना अच्छा होता। और शायद यह ईश्वर का लिखित विधान था कि उसी मैरेज सेरेमनी में तुम्हारे भैया अमर भी आए थे। जब जयमाल की सेरेमनी हो रही थी तो मेरे फ्रेंड ने अमर से परिचय कराया तो मैं अमर से सेक हैन्ड करते हुए उसे एक बुत की तरह निहारे जा रही थी, कुछ क्षणों के पश्चात जब मैं इस अवस्था से बाहर निकली तो अपने ऊपर लज्जा का भाव अनुभव करते हुए कुछ औपचारिक बातें करते हुए हम दोनों शादी में हों रहे तमाम रिचुअल्स को साथ- साथ देखने में मसगूल हो गए। इसके साथ ही मैं अमर से वहां हो रहे रिचुअल्स के बारे में कुछ पूछती तो अमर रिचुअल्स के महत्व और उनकी प्रसंगिकता का समय-समय पर वर्णन करते जाते थे। मैं उनकी बातों को सुनकर इतना मुग्ध थी कि मैं उसका वर्णन न कर पाऊंगी। इसके पश्चात हम दोनों ने एक साथ डिनर किया। फिर काफी रात को अपने अपने घर को लौट आए।
      किन्तु इस दिन के पश्चात मुझे लगा जैसे अमर के व्यक्तित्व ने मुझे सम्मोहित सा कर लिया है। मैं उससे बात किए बिना रह ना पा रही थी, जैसे लगता था मेरा चैन कहीं खो गया है, मेरी मन की शांति उसके सांसों में बसती है, उसके दिल में बसती है। मुझे लगता था मैं उसके बिना रह ना पाऊंगी। किंतु मैं ऐसा महसूस करती थी कि अमर मुझसे बात करने में झींझक महसूस करता है। वह जल्दी से मुझसे बात करके छुट्टी पा लेना चाहता था। उसका यह शर्मिला व झिझक भरा व्यवहार मुझे और उसकी तरफ आकर्षित करने का कार्य करता था। वह मुझसे जितना दूर जाने का प्रयास करता था, मैं उसकी ओर  उतनी ही बढ़ती जाती थी, आकर्षित होती जाती थी। यह इत्तेफाक था या यों कहिए कि यह ईश्वर का एक विधान था की मेरा और अमर का घर एक ही रास्ते पर था तथा ऑफिस भी उसके ऑफिस के बगल में ही था। अब मेरा मन बातचीत से ही न भरता था, अब मुझे उससे मिले बिना चैन भी ना मिलता था। अब मैं ऑफिस से जल्दी सें निकल कर उस बस स्टॉप पर  पहुंच जाया करती थी, जहां से अमर भी घर लौटने के लिए बस पकड़ते थे। हलांकि हमारा अमर के साथ इस तरह साथ आना जाना, उनका शर्माना, झिझकना, नजरों का झुका होना मैं स्पष्ट रूप से महसूस करती थी। और यह व्यवहार मुझे और भी रिझाती थी। इस तरह कुछ दिनों के बाद मैं ऐसा महसूस करने लगी कि मैं अमर के बिना रह न पाऊंगी, उनके बिना जीवन की कल्पना करना, किसी मछली को पानी से निकाल लेने के समान था। इस तरह मैंने अपने मन को मजबूत करके एक दिन मैंने अपने मन की बात को अमर के सामने रखा कि अमर क्या मुझे अब भी अपनी बातों को और ज्यादा खुलकर के रखना पड़ेगा, क्यों मेरे तरफ से इतना मुंह मोड़े रहते हो, क्यों मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो। मुझे कई बार ऐसा महसूस होता है की मैं अंग्रेजीन हूं, क्रिश्चियन हूं, इस कारण से भी तुम मुझसे मुंह मोड़े रहते हो। हां मैं मानती की  कि मैं जन्म से क्रिश्चियन हूं, अंग्रेजीन हूं और यह सही भी है लेकिन  यह भी जान लो कि मन से तुमसे ज्यादा हिंदू होऊंगी। अब तुम चाहे जो कुछ भी समझो अब मैं तुम्हारे बिना एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती, मेरा एक - एक पल एक - एक युग के समान बित रहा  है और तुम्हें क्या बताऊं। पहले तुम्हारे धर्म ने और अब तुमने मुझ को सम्मोहित सा कर दिया है अब इस जीवन में मै तुम्हारे सिवाय और किसी की कल्पना भी मैं नहीं कर सकती हूं। नहीं तो यह जीवन ऐसे ही अकेलेपन में कटेगा। अमर तुम कुछ बोलते क्यों नहीं कुछ तो बोलो....., अमर ने बीच में बात काटते हुए बोला कि सोफिया तुम समझ रही हो क्या बोल रही हो। हिंदू धर्म में शादी, विवाह कोर्ट में, या किसी जमात के सामने किया गया समझौता नहीं है। यह मन से स्वीकारा हुआ सात जन्मों का बंधन है, हम लोगों का ऐसा विश्वास है यह बंधन बस इसी एक जन्म भर के लिए नहीं है, यह जन्म जन्मांतर का बंधन होता है, इसके अलावे हम लोगों का ऐसा विश्वास है कि जोड़ी ईश्वर के द्वारा बनाया गया है, यहां पर विवाह हम लोगों को मिलाने का एक माध्यम है, और यह जन्म जन्मांतर के लिए होता है। इस जन्म के बाद भी जब भी हम लोग इस धरती पर आएंगे फिर इसी तरह बंधन बधकर बंधन को निभाएंगे ऐसा हम लोगों का विश्वास है। अमर तुम्हारे कहने का आशय क्या है, मैं समझी नहीं। मेरे कहने का आशय तुम भी खुब समझ रही हो। अमर तुम्हें जो कुछ भी बात बोलना हो उसे स्पष्ट बोलो उसे फ्रेजल वाक्य ( मुहावरे युक्त वाक्य) के रूप में न बोलो। मेरे कहने का आशय तुम खूब समझ रही हो, तुम देखती नहीं हो कि यहां पर आज जो भी मैरिज होता है पता नहीं है कितने दिन के लिए हो रहा है। पता नहीं यहां के लोग  किसी के साथ स्वार्थ बस मैरिज के बंधन में पड़ते हैं या फिर शारीरिक आकर्षण से यह तो वही लोग जानते होंगे। कारण जो कुछ भी हो लेकिन यहां का मैरिड लाइफ में बहुत ही अस्थिर देखता हूं।
      तो इस कारण से तुम मेरे प्रति इतना उदासीन रहते हो आज मुझे समझ आया। नहीं यह बात नहीं है एक बात मेरे मन में थी वह मैंने तुम्हारे सामने रखा, इसको अपने संदर्भ में न लो, जो यहां के समाज में मैं देखता हूं वही बात मैंने तुम्हारे सामने रखी है और इसको रखने का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना या किसी समाज को किसी समाज से उच्च बताना नहीं है बल्कि इन क्रियाओं को देखकर मुझे आश्चर्य होता है कि एक सभ्य समाज में कैसे इस तरह की बातें स्वीकार है। रही तुम्हारे साथ शादी की बात तो मैं अपने मन की बात तुमसे साझा करना चाहता हूं कि जब तुम मुझसे पहली बार मिली तो मुझे लगा कि ईश्वर ने मुझे उस लड़की से मिलवाया जिसका मुझे आज तक इन्तजार था लेकिन संकोच वश मैं तुमसे अपनी इस बात को प्रकट ना कर सका, मेरे फादर की यह इच्छा है की मेरी शादी उस लड़की से करेंगे जो व्यवहार में मेरी बहन माधवी की तरह होगी और मैं अपनी बहन का दर्शन मैं तुम्हारे मे करता हूं।
      भाभी तुम भी ना मुझे बनाओ नहीं...., माधवी मैं तुम्हें बना नहीं रही हूं अमर के द्वारा कहे गए शब्दशः बातों को तुम्हारे सामने बोल रही हूं। अच्छा ठीक है भाभी और आगे बताओ, और आगे क्या बताना है इसके बाद तुम सारी घटनाक्रमों को जानती ही हो मेरे फादर - मदर तथा ब्रदर जैक के द्वारा मेरी अमर से शादी के लिए बार - बार आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा बार-बार इंकार करने पर तथा कई बार अमर के द्वारा भी पापा व मम्मी से आग्रह करने पर भी मम्मी व पापा के द्वारा इंकार कर देने पर तथा मेरे द्वारा अमर से तथा अपने फैमिली में यह स्पष्ट बता देंने पर कि मैं जब भी मैरिज करूंगी अमर के साथ नहीं तो बिना मैरिज के ही लाइफ गुजारूगी। इस कारण से अमर भी मजबूर होकर मेरे साथ शादी के बंधन में बंधने को बाध्य हो गया। और एक बहुत ही साधारण से समारोह में हम दोनों शादी के बंधन में बंध गए। बहन देखना इस घर की किसी परंपराओं का यदि मेरे द्वारा अनजाने में कोई उल्लंघन होता हो, तो तुम मुझे वहीं टोंक देना, मैं सोचती हूं कि मुझसे अनजाने में कोई गलती ना हो जाए और मम्मी पापा के भावनाओं को  कोई ठेस न लग जाए। मम्मी पापा मेरे में ठीक तुम्हारी ही छवि का दर्शन करें और अमर के चुनाव पर गर्व कर सकें। ठीक है भाभी तुम डरो नहीं तुमसे कोई गलती नहीं होगा मैं जान गई हूं तुम देवी हो, पूज्यनीय हो। मै तुम्हारी बातों से, तुम्हारे अभी तक किए गए व्यवहारों के द्वारा  समझ गई हूं और मम्मी पापा भी इन बातों को अच्छी तरह समझ गए हैं। अच्छा चलो अब सोते हैं।
      इसी तरह कुछ होली की तैयारी में तो कुछ आपसी बातचीत हंसी मनोरंजन में दस दिन का समय कब बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। ग्यारहवें दिन होली का त्यौहार था सुबह से घर पर एक से एक अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर व  विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य व्यक्तियों, के साथ मेहनतकश मजदूरों, कामगारों का जैसे तांता लग गया था। कोई भी आता पहले अखंड बाबू का चरण स्पर्श करता और कुछ ना कुछ उपहार स्वरूप मीठा इत्यादि भेंट भी करता जाता था। अखंड बाबू इधर मीठा लेत और उधर मजदूरों, कामगारों, मेहनतकशों को उपहार स्वरूप मीठा देकर विदा करते जाते थे। यह लोग  बाबू के द्वार पर हर तीज त्योहार पर बाबू से मिलने अवश्य ही आते थे। वो किसी आशा या लालच में बाबू से मिलने नहीं आते थे। बल्कि बाबू का निश्चल प्रेम, बाबू के द्वारा समय-समय पर उनकी सहायता करना, उनके बच्चों के पढ़ाई लिखाई का प्रबंध करना इत्यादि कार्यों के कारण उनका बाबू से ऐसा भावनात्मक लगाव हो गया था की वो अपने को तीज त्यौहार व सामान्य अवसरों पर बिना बाबू से मिले रह न पाते थे। अखंड बाबू आने जाने वाले गणमान्य व सामान्य व्यक्तियों से अमर का परिचय करवाते जाते थे। इन लोगों से बातों बातों में अमर अब जान चुका था की उसके पिताजी ने इन लोगों के लिए कितना त्याग भरा कार्य किया है, जहां समाज में एक से एक अच्छे लोग किसी गरीब गुरबा के लिए एक पैसा न खर्च करते हों वहां इतने परिवार को बच्चों को न केवल पढ़ाना लिखाना बल्कि समय-समय पर उनकी सहायता करना एक संत सरिखा, निस्वार्थ कार्य उनके पिता के द्वारा किया जाने से अमर अपने पिता के प्रति जिस गर्व का अनुभूत कर रहे थे इसका जबान से वर्णन करना जबान को लज्जित करने के सामान था।
      होली के अगले दिन जब सोफिया और अमर सबके साथ नाश्ते कर कर रहे थे तो सोफिया ने अपने सास-ससुर की तरफ मुखातिब होते हुए बोली कि मम्मी पापा मुझे गर्व है कि मैं इस परिवार की बहू हूं ढेर सारी सुखद यादों को लेकर कल अमेरिका चली जाऊंगी। ये सुखद यादें मुझे वहां भी गर्वानीत  करती रहेंगी, मैं इसे ईश्वर का आशीर्वाद समझती हूं कि मुझे उसने आप लोगों की बहू बनाया। नहीं बहू ऐसे न बोलो पता नहीं किस अच्छे कार्य या पुण्य का  फल है कि हम लोगों की तुम बहू बनी।
      जिस दिन अमर बहू व बच्चों के साथ वापस अमेरिका जाने के लिए निकल रहे थे केवल परिवार के लोगों के ही आंखों में ही आसूं न था, लग रहा था जैसे घर भी रो रहा था और पूछ रहा था भैया अब कब आओगे। जब अमर परिवार सहित हवाई अड्डे पर पहुंचे तो उन लोगों को वहां पर विदा करने के लिए पहले से ही सैकड़ों शुभचिंतक मौजूद थे। यह सारे लोग शायद अखंड बाबू व अमर को सर प्राइस देकर विदा करने के लिए एकत्रित थे। अमर सबसे हाथ मिलाते हुए और सोफिया हाथ जोड़कर और आंखों में खुशी व कृतज्ञता का आंसू लेकर तथा हाथ हिलाकर विदाई का संकेत देते हुए एयरपोर्ट की अंदर चलें गये। अखंड बाबू यह समझ न पा रहे थे कि यह सम्मान कन्या भोज के कारण है कि सेवा का प्रतिफल है। शायद यह सम्मान कन्या भोज से सेवा का प्रतिफल था।

यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा