Saturday, June 19, 2021

भूल

 

भूल

कोई कहता है धर्म अफीम है तो सनातनी कहते हैं हर वो आचरण जिसको धारण करने से दुनिया व समाज का भला हो वही धर्म है। इसके विपरीत दुनिया के कुछ धर्म संप्रदाय जो इस संसार में अपने संप्रदाय का एकाधिकार चाहते हैं वो विभिन्न प्रकार के प्रपंच कर अपनी संख्या बढ़ाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके लिए उन्हें चाहे कितना भी नीचे गिर जाना पड़े, झूठ बोलना पड़े, फरेब करना पड़े वह इससे परहेज नहीं करते हैं। नीचे गिरने तक, झूठ बोलना तक, तो बात कुछ समझ में आती है किंतु ऐसे भी लोगों का संप्रदाय है जो अपनी संख्या बढ़ाने के लिए किसी की हत्या करना, समाज में दंगा फसाद मारकाट करने से जरा भी परहेज नहीं करते हैं। कुल ले देकर कहें तो ये लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए हर वो काम करते हैं जो जनसंख्या बढ़ाने में सहयोग करें, चाहे  इससे दुनिया, देश, समाज का कितना भी नुकसान हो जाए। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर इन लोगों ने अपने धर्म के नियम इस प्रकार से आडंबर बद्ध कर कर रखें है कि दुनिया का भला हो ना हो इनकी संख्या बढ़नी चाहिए।
   कुछ ने तो ऐसा आडंबर बना लिया है कि वह दिखते तो सेवाभावी हैं किंतु उनकी सेवा भाव के पीछे केवल और केवल एक उद्देश्य छुपा है कि कैसे जिसकी सेवा कर रहे हैं उसका धर्म परिवर्तन करा कर अपने धर्म संप्रदाय का अंग बना लिया जाये। ऐसे लोगों की निगाह समाज के गरीब, पिछड़े और दबे कुचले लोगों पर ज्यादा रहती है।
  सनातनी अर्थात हिंदुओं को तो लगता है जैसे इन सब बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता है उनका यह सोच या घमंड कि हमारा धर्म सबसे पुराना सनातन धर्म है जिसका न शुरुआत कहां से हुई इसका पता है और न ही इसका कभी अंत हो सकता है, यह घमंड या विश्वास हिंदुओं या फिर कहे सनातनियों के जीवन में बना हुआ है, इसी के आड़ में इस धर्म के प्रबुद्ध लोग अपनी जात - पात, ऊंच-नीच के भेदभाव खत्म करने का कोई बीड़ा न उठा पा रहे हैं, शायद यह बात इस धर्म के पतन का मुख्य कारण कारण है। अगर यह घमंड ना होता तो इसके बड़े बड़े धार्मिक मुखिया लोग आगे आकर इस धर्म के धार्मिक कुरीतियों को समाप्त करने हेतु कब का एक संगठित अभियान छेड़ चुके होते। लगता है कि वह इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि इन्हीं कमियों के आड़ में उनको समाप्त करने का एक संगठित अभियान विभिन्न धर्मों के द्वारा चलाया जा रहा है। आदर्श शायद ही कभी कपट के सामने टीक पाएगा। जहां मजहब की संरचना इस आधार पर हो अपना फैलाव किस प्रकार करना है चाहे दुनिया को कितना भी नुकसान हो जाए वहां आदर्श कहां टीक पाएगा।
  इन्हीं विषम परिस्थितियों के बीच रांची के झुरार गांव में एक परिवार रहता था जिसके मुखिया का नाम बाबूलाल था। जो शहरी व्यक्तियों के छल प्रपंच से दूर एक निहायत ही सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। इनको काम के बदले में जो थोड़ा बहुत मिल जाया करता था, वही पाकर संतुष्ट हो जाते हैं और उसी से अपना तथा अपने परिवार का जीवन यापन करते थे। इनका ज्यादातर समय या तो मेहनत मजदूरी में बितता या फिर अपने परिवार की परिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में बीता। समाज में क्या हो रहा है यह तो इनके पास सोचने का मौका ही न था या फिर उस क्षेत्र में इनके पास चिंतन का अभाव था।
  गांव में तथा आसपास के गांव में ईसाई मिशनरियों ने कब अपना डेरा बना लिया यह शायद उस गांव के लोगों को पता तक ना चल पाया। गांव शहर से दूर होने के कारण यहां पर डॉक्टर, दवा - दारू की उपलब्धता ना के बराबर थी। मिशनरी को विदेशी पैसों की सहायता और समर्पित लोगों का एक समूह था जो इन दबे कुचले लोगों की समय-समय पर दवा दारू इत्यादि से सहायता करता रहता था। इससे वह उसके प्रभाव में आते जाते थे। इसी सेवा संस्कार के आड़ में इन लोगों ने धीमे धीमे अपने पूजा स्थलों (चर्चों) का भी निर्माण कर लिया। इन चर्चों के निर्माण के पीछे प्रार्थना का कार्यक्रम कम, कुछ संगठित छिपे हुए कार्य ज्यादा थे। अब कोई भोला भाला गांव वासी बीमार होता तो दवा दारू के साथ उनको चर्च की चंगाई प्रार्थना में शामिल किया जाता और स्वस्थ होने पर बोला जाता देखो  जो रोग  आपका वर्षों से नहीं ठीक हो रहा था उसको प्रभु यीशु ने चंद दिनों में ठीक कर दिया। और भी कई आडंबर युक्त कार्यक्रम प्रायः आयोजित किए जाते थे, जिसका मूल उद्देश्य उन कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों के दिमाग में अपने धर्म के बारे में हीनता का भाव उत्पन्न करना तथा क्रिश्चियन धर्म के बारे में उच्चता का भाव उत्पन्न करना था।
  ऐसे ही कई कार्यक्रमों में शामिल हो चुके हैं बाबूलाल इन मिशनरी वाले लोगों के प्रभाव में आकर अपने परिवार के साथ धर्म परिवर्तन कर ईसाई धर्म को धारण कर लिये। क्रिस्चियन धर्म को धारण करने के पश्चात उनको इस बात का एहसास हुआ की जो धर्म दूर से देखने पर ऐश्वर्या युक्त लग रहा था और समय-समय पर जो उनकी सहायता करता और भविष्य में सहायता करते रहने का आश्वासन देता रहता था, अब धर्म धारण कर लेने के पश्चात उसका नजरिया उनके प्रति बदल गया था। अब वह इस धर्म को बहुत ही नजदीकी रूप से देख रहे थे उनको लगता था उनके जैसे लोगों को बस अपने धर्म में लाने के लिए यह सारे आडंबर किए जा रहे हैं। अभी तक इस धर्म के प्रचारको के द्वारा जो भी आडंबर किया जाता था उसमें उनको ऐश्वर्य नजर आता था किंतु अब वही ऐश्वर्या, आडंबर का पुलिंदा लगता था। किंतु अब हाथ मलने के अलावा उनके पास कोई भी आश्रय न बचा था, अब उनको लगता था उनकी हालत उस पक्षी जैसे हैं जो जहाज पर फुदक - फुदक कर आनंद के लिए अठखेलियां कर रही हो और  इसी दौरान जहाज बीच समुद्र में चली गई हो जहां पर चारों तरफ पानी ही पानी है वह वहां से उड़कर कहीं भाग भी नहीं सकती है, उसका आश्रय केवल और केवल जहाज ही  है। यही हाल अब बाबूलाल का था, जिनका नाम अब बीयल हेंब्रम था। अभी तक जिनके साथ वह मिलकर होली दिवाली मनाते थे अब वह उनसे कटे कटे रहते थे, शायद उन लोगों से अपनी नज़रें नहीं मिला पा रहे थे या फिर वह लोग भी इनसे कोई संबंध नहीं रखना चाह रहे थे। अब एक ही गांव में एक ही सहोदर के दो भाई अलग-अलग धर्म के आश्रय के तहत अपना जीवन यापन कर रहे थे। एक नकली पेड़ की पूजा करता था तो दूसरा प्रकृति के पेड़ पौधों फूल पत्तियों में विश्वास करता था। एक इसको आडंबर मानता था तो तो दूसरा इसी आडंबर में विश्व का कल्याण देखता था।एक के धर्म का बनावट इस प्रकार था की वह अपना विस्तार कैसे करें तो दूसरे के धर्म का बनावट इस प्रकार था की इस दुनिया में रहने वाले प्राणियों का कल्याण कैसे हो। एक आकर्षित और चकाचौंध भरे अपने की विस्तार वादी क्रियाकलापों से युक्त था तो दूसरा इस बात की परवाह से मुक्त केवल अपनी भगवान को मंदिरों में इसलिए खुश रखना चाहता था जिससे अपना और विश्व का कल्याण हो और अपने इस जीवन को इस विधि से सार्थक करना चाहता था।
  अब बाबू बीएल हैंब्रान जी को दोनों धर्मों की अच्छाइयों और बुराइयों की एक एक बात समझ में आने लगी थी, और मन विभिन्न बातों पर तरह तरह से तर्क वितर्क करता और कभी वह अपने को कचोटते और उलाहना देते हैं की क्या तू भी कुछ पैसों के लिए कुछ लाभ के लिए अपने को बेच दिया तो कभी अपने को सांत्वना देते कि हमी तो ऐसे नहीं हैं इस संसार में बहुत से लोग हैं जो बहुत छोटी-छोटी बातों पर गिर जाते हैं और अपने ईमान धर्म को बेच देते हैं। हां हिंदू धर्म में कुछ ऊंच-नीच की बातें हैं जिनको उस धर्म में रहते हुए ही हम लोगों को उसके विरुद्ध लड़ना चाहिए था।  तो कभी सोचते, इस दुनिया में कौन सा ऐसा धर्म है जिसमें ऊंचा - नीचा, काला - गोरा, अमीर - गरीब का भेद ना हो भेद हैं। भेद हर घर में है और वह  किसी न किसी रूप में अवश्य ही है। जैसे इस संसार में कोई मनुष्य पूर्ण नहीं है उसी तरह से इस संसार में मानव निर्मित कोई धर्म या वस्तु भी पूर्ण नहीं है, उसमें हमेशा सुधार की संभावना है और रहेगी जो समय के साथ अपने को परिवर्तित कर लेगा उसका अस्तित्व बना रहेगा अन्यथा उसका अस्तित्व मिट जाएगा। यह बात केवल धर्म और वस्तु तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीव जंतुओं के बारे में भी उतना ही सत्य है जो जीव जंतु समय के अनुसार अपने में परिवर्तन नहीं ला पाता है उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है। लगता था इन विचारों से वह एक शोक में डूबे हुए थे जैसे ही उन्होंने कुछ अपने को संभाला लगा जैसे वह जग गए हैं और इनकी सुबुद्धि ने पुनः विचार करना शुरू किया क्या हुआ मुझसे एक बार गलती हुई अब इस गलती को सुधारना है और किसी तरह अपने मूल धर्म वापसी करनी है जो केवल अपना कल्याण नहीं चाहती हैं पूरे विश्व का कल्याण चाहती है। अब इसके लिए वह दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगे रहते थे कैसे अपने मूलधन में वापस आए। अब वह समय-समय पर अपने गांव में अपने पूर्वर्ती भाई बंधुओं के साथ मिलते जुलते तथा कभी-कभी अपने सहोदर भाई बंधुओं के तीज त्यौहार में शामिल होने लगे। उनके भाई बंधु तो यह पहले से ही चाहते थे किंतु जब उन्होंने इनमें यह परिवर्तन देखा तो लोगों में खुशी का ठिकाना न रहा। अब जब कभी किसी विशेष तीज त्योहार पर हेंब्रम बाबू न आते तो उनके भाई बंधुओं को हेंब्रम बाबू की कमी खलती और वह उनको बुलाने उनके घर पहुंच जाते। इस तरह का मान सम्मान पाकर हेंब्रम बाबू का हृदय प्रसन्नता से खिल उठता।
  इस तरह की तीज त्यौहार में आने जाने के दौरान ही किसी भाई बंधुओं ने हेंब्रम बाबू को पता नहीं गंभीरता में या फिर हंसी - मजाक में कहा कि भैया आपके उपस्थित के बिना यह तीज त्यौहार अच्छा नहीं लगता है यदि आप बुरा ना मानो तो फिर से अपने घर में वापसी कर हम लोगों की हंसी खुशी और उल्लास को बढ़ाएं तो हम लोगों के लिए खुशी की बात होगी होगी। हेंब्रम बाबू ने जब यह बातें सुनी तो उनको अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरा कोई भाई बंधु फिर से अपने पूर्वर्ती घर में वापस आने को कह रहा है। वह तुरंत यह बात बोलने वाले अपने भाई राम लखन की तरफ मुड़े और उनको गले लगाते हुए बोले भैया आपने मेरे दिल की बात बोला है जो बात मैं नहीं बोल पा रहा था वह आपने बोल दिया है। भैया धर्म, शादी - विवाह, मित्रता, प्यार - मोहब्बत यह सब दिल में स्वीकृत होने की बात है। भैया कोई कितना भी पंडा - पुजारी, पादरी, मौलवी अपने धार्मिक रीति के अनुसार किसी का वैवाहिक संबंध  करा दे  यदि वह मन से स्वीकृत नहीं है तो वह विवाह  नहीं है। इसी तरह कोई भी पादरी मौलवी अपने धर्म में किसी को जल छिड़क कर या कलमा पढ़ा कर उसका धर्म परिवर्तन नहीं करा सकता जब तक उस व्यक्ति के द्वारा मन से स्वीकार न कर लिया गया हो। यह मेरे द्वारा लालच में आकर लिया गया एक निर्णय था जो न तो मेरे मन द्वारा स्वीकार किया गया था और ना ही मैं उनके धर्म के विधि विधानों को अपने कर्म कांडों में शामिल कर पाया था। कल भी मैं सनातनी था आज भी मन से सनातनी हूं अब चाहे आप लोग जो भी समझें। इनकी बातों को सुनकर लगता था जैसे पानी के बूंद की यात्रा पूरी हुई वह वह सूर्य से गर्मी पाकर समुद्र से भाप बन कर उड़ी थी  किंतु जीवन की वास्तविकताओं से जैसे ही टकराई वैसे ही पुनः वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आ गई और फिर नदियों का सहारा लेते हुए समुद्र के गोद में समा कर लहरों के रूप में अठखेलियां कर रही थी।
 
 
गोविंद प्रसाद कुशवाहा
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यह मेरी अप्रकाशित वह मूल रचना है।