Saturday, September 28, 2019

लाचारी

मंगल की कुल दो बिगहे खेती थी। वहीं उसके परिवार के गुजर बसर करने का आधार था। उसी खेत से फसल उपजाता और जो उपज पैदा होती वही परिवार का खर्च, रिश्तेदारी निभाने का जरिया था, उसी से बच्चों के स्कूल का शुल्क व उसके परिवार के तन पर दो कपड़े का माध्यम था। इसके अवाले वह फुर्सत के दिनों में मेहनत मजदूरी कर के अपने परिवार कि आर्थिक स्थिति तो सुधारना चाहता था। लेकिन वह चाहता था कि उसके ऊपर से काश्तकार का ठप्पा हट कर मजदूर का ठप्पा न लगा जाए इसके लिए वह शहर के अड्डे पर जाकर खड़े हो कर किसी सेठ साहूकार, छोटे बाबू, बड़े बाबू ,छोटे साहब, बड़े साहब के इंतजार में खड़ा रहता कि कोई आए और उसे अपने वहां काम पर ले चले पर कभी काम मिलता था तो कभी नहीं। हालाकिं इस तरह की मेहनत मजदूरी का काम वह अपने गांव में भी कर सकता था किन्तु इससे उसका काश्तकार का ठप्पा हट कर मजदूर होने का ठप्पा लग जाने का डर था। इससे समाज में भद्द पिटती और शायद बिरादरी में हेय दृष्टि से उसे देखा  जाता इस कारण से जब मेहनत मजदूरी करने की मोहलत बनती तो वह शहर को चला जाय करता था। वहां उसे जनता ही कौन था वैसे भी वो सुन रखा था कि बड़े बड़े  शहरों में लोग एक दूसरे को बहुत कम जानते हैं और यदि जानते भी हैं तो एक दूसरे के कामों में दखअंदाजी नहीं करते, एक तरह से बोला जाए तो बड़े बड़े शहरों में अगर लोग एक दूसरे को जानते भी हैं तो भी एक दूसरे को अक्सर नजर अंदाज ही करते हैं, किन्तु यदि उनका आप से कोई काम पड़ जाए तो वो ऐसे मिलते हैं जैसे लगता है कि उनसे बड़ा हितैसी आप का कोई हो ही नहीं सकता।
  वैसे मंगरू तथा उसके जैसे गरीब परिवार का जीवन जैसे तैसे चलता रहता है। वैसे गरीबों के जीवन हमेशा एक न एक समस्या  बना रहता है। एक समस्या से निकले नहीं की दूसरी समस्या मुंह बाये खड़ी है। एक तरह से समझिए कंगाली में हमेशा आंटा गीला बना रहता है। मंगरू जैसे अनगनित परिवार होंगे जिनके पास एक बीघे, दो बीघे की खेती होगी या जिनके पास एक धुर भी खेत न होगा वो सभी अपने परिवार का जीवन यापन करने के लिए कुछ अपना खेत तो  कुछ बटाई पर खेत लेकर जैसे तैसे मेहनत मजदूरी करते हुए अपने परिवार का जीवन यापन करते रहते हैं। इनके जीवन में कोई एक अनहोनी निर्णय जो सरकार या प्रशासन के द्वारा कर दिया जाय जो इनके हित में न हो वो उनको किस स्तर का नुकसान पहुंचा देता है। यह बात वहीं जान सकता है जो इस तरह का जीवन जीता होगा।                 
  अपना देश एक ऐसा देश  है जो हमेशा चुनाव के मूड में दिखाई देता है।एक  चुनाव हुआ नहीं कि दूसरा चुनाव सिर पर दिखता है। चुनाव हुआ एक सरकार गई दूसरी सरकार आई।
  इधर सरकार बदली और उधर सरकार की नीतियां इस तरह बदली हैं जैसे गिरगिट अपना रंग बदलता है। इस तरह एक प्रदेश में चुनाव होने पर और सत्ता परिवर्तन होने पर सरकार ने यह निर्णय लिया कि अब प्रदेश में गोवंश के तस्करी व काटने पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध कर दिया गया है। जो कोई भी गोवंश को किसी भी तरह से क्षति पहुंचता हुआ पाया जाएगा उसके विरूद्ध कानूनी कार्यवाही की जायेगी। शुरू में तो गोवंश को क्षति पहुंचाने वाले व तस्करी करने वाले व्यक्तियों ने इस बात को बहुत ही हलके में लिया और चोरी छुपे गोवंश की क्षति पहुंचाया व तस्करी जैसे कुछ कार्य किए भी किंतु जैसे ही यह बात सरकार के संज्ञान में आई सरकार ने  क्षति पहुंचाने वाले व तस्करी करने  वालों को इतना कठोर दण्ड दिया कि वह समाज के लिए एक सबक का कार्य करने जैसा था। अब कोई भी गोवंश को क्षति पहुंचाने व तस्करी के बारे में सोच भी नही पा रहा था।
  किन्तु किसी भी अच्छे व बुरे कार्य का परिणाम कुछ दिनों के बाद परिलक्षित होते हैं। इस कानून के लागू करने व घटना के बाद भी यही हुआ।  यह निर्णय जिन समूह के लोगों को आकर्षित करने के उद्देश्य से लिया गया था सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों को क्षति पहुंचाने का कार्य कर रही थी। अब छुट्टा गोवंश की संख्या दिन प्रतिदिन सड़कों पर बढ़ती जा रही थी। इनमें से ज्यादा संख्या ऐसे बछड़ों की थी जो फ्रीजियन,जर्सी आदि के प्रजाति के थे। जिनका उपयोग खेती बारी के कामों में न के बराबर था। इसके साथ ही बहुत से ऐसे दुधारू जानवर भी थे जिन्होंने दूध देना बंद कर दिया था। उनको मंगरू जैसे सीमांत किसानों को पालना मुश्किल हो रहा था, ऐसे परिवार अपने परिवार का खर्च किसी व्यवस्था से चलावे की इन बकेना ( जो गोवंश दूध नहीं देते हैं ) गोवंश को बाध कर खिलाए पिलाएं। अब ये छुट्टा गोवंश दिन भर इधर उधर कहीं खलिहान में तो कहीं सड़क के बीच में तो कहीं किसी पेड़ के छांव दिन गुजारते अगर मौका मिल गया किसी के खेत में लहलहाती फसल पर धावा बोल दिया।
  तो रात उनकी किसी किसान के खेत में लहलहाती फसलों में गुजरती थी और जब उनका पेट भर जाता तो रोड उनका आश्रय स्थल हुआ करता था। पशु सड़क के बीच में बैठ कर  पांगुर करते। इस तरह किसानों के नुकसान पहुंचाने के साथ  वो सड़क के बीच में बैठ कर एक दुर्घटना को दावत ही एक तरह से देते रहते थे। कोई कितना भी सतर्क हो कर अपने वाहन को चला रहा हो यदि उससे जरा भी ध्यान में भटकाव हुआ या सावधानी हटी दुर्घटना को कोई रोक ही नहीं सकता था। इस तरह दिन प्रतिदिन दुर्घटनाओं का होना एक आम बात हो गई थी लेकिन सरकार के कानों पर जू तक नहीं रेंग रहा था। इस तरह अभी तक जो किसान अपने खेतों में फसलों की बुवाई करके अपने और कामों पर ध्यान केंद्रित करता था। अब उसका ध्यान दिन रात अपनी खेतों में लगा रहता था कि कहीं कोई छुट्टा या बहेला पशु न खेत चर रहा हो, किसी किसी काश्तकार का तो रात अपनी खेतों की रखवाली में ही बीतता था। इसके बावजूद भी पशु खेत के किसी न किसी कोने पर चर जाया करते थे। पैसे वाले किसान अपनी खेतों को कटिले तारों से रुनवा रखे थे,इससे भी पूरी तरह से बचाव न हो पा रहा था।पशु किसी तरफ से बाड़े को गिरा कर या किनारे से खेतों को चर जाया करते थे। अभी तक खेतों की रक्षा केवल नीलगाय तथा बहेला  पशुओं से करना होता था, अब इसमें छुट्टा गोवंश व छुट्टा मवेशी भी जुड़ गए थे। अब खेतों के नुकसान के बारे में कहना ही क्या था। सीमांत किसान बिल्कुल बर्बादी के कगार पर थे।पहले समय मिलने पर मेहनत मजदूरी कर के दो पैसा घर में लेते आते थे। अब तो मौका मिलना ही कहां था। दिन भर सोहनी व खेत की निराई व गुड़ाई का कार्य तो रात में खेतों की रखवाली का कार्य रहता था इसी दौरान कुछ समय मिला तो झपकी ले लेते थे। कभी कभी छोटे काश्तकार यह विचार भी करने लगे थे कि खेती बाड़ी को छोड़कर मेहनत मजदूरी ही किया जाय लेकिन इससे समाज  बिरादरी में इनके ऊपर मजदूर का ठप्पा लग जाने का डर था, और जो समाज में हेठी होती उसकी बात ही अलग थी। यही डर उनको खेती बाड़ी छोड़ने व मेहनत मजदूरी करने से रोकती थी।
   सरकार की बात का क्या कहना, सरकार को तो कोई समस्या दिखी सरकार ने एक नया कानून बना दिया। कानून को लागू करना अधिकारी से लेकर कर्मचारियों तक का काम है, इस नए नियम कानून से समाज को क्या लाभ हो रहा है ये बाद में देखा जाएगा सबसे पहले जनता में ये संदेश जाना चाहिए कि सरकार जनता के भलाई के लिए, हित के लिए कितनी चिंतित है। इस तरह की बातो को ध्यान में रखकर  सरकार ने यह घोषणा किया की गोवंश व आवारा पशुओं के लिए जिले में जगह - जगह बाड़े का निर्माण किया जाएगा। इस तरह सरकार की तरफ से इस मद में जल्दी ही बजट भी से दिया गया, और बहुत ही तेज़ी से गोशाला तथा बाड़े के निर्माण कार्य भी शुरू कर दिया गया। जल्दी ही छुट्टा गोवंश और आवारा पशुओं को लाकर गौशालाओं में रखा जाने लगा। लेकिन किसी भी जगह को एक सीमा होती है।यही इस मामले में भी हुआ यह ब्यवस्था  ऊंट के मुंह में जीरे के समान था। छुट्टा गोवंश और आवारा पशु दिन प्रति दिन बढ़ते जाते थे। आम आदमी, और सीमांत किसानों की समस्याएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। अगर इन गौशालाओं और बाड़े से फायदा किसी को हो रहा था तो वहां देख रेख हेतु पर लगाए गए अधिकारी और कर्मचारियों अगर उनके बाड़े में एक सौ पशु थे तो पशुओं कि संख्या को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता था और उसी के अनुसार बिल का भुगतान कार्यालयों से लिया जाता था। आम किसान और जनता लाचार थी। शायद उसके भाग्य में लाचारी ही लिखी थी कि सरकार किसी की भी हो उसे इस तरह नहीं तो उस तरह पीसना है। मंगल भी उन लाचार किसानों में से था जो छुट्टा, आवारा पशुओं से अपने खेतों की रक्षा नहीं कर पा रहा था वो चाहे कितना रतजगा करता हो लेकिन खेतों को बचा पाना मुश्किल  पा रहा था। खेत में लगे फसल को बचाने की चाहत ने मेहनत मजदूरी से भी हाथ धो बैठा था। इस लाचारी पर विवश होकर कभी ईश्वर को कोसता तो कभी सरकार को अन्त में एक समय ऐसा भी आया जब वह अपनी पत्नी से विचार विमर्श करके खेत में खड़ी फसल को   छुट्टा, आवारा पशुओं के हवाले करके मेहनत मजदूरी करने के लिए शहर को प्रस्थान कर लिया।इस विचार के साथ की इज्जत जाय तो जाय, हेठी  हो तो हो कम से कम जिंदगी में कुछ सकूं तो आयेगा। इस हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी एक - एक पैसे के लिए मोहताज बने रहना सब तरह का परिश्रम करने के बाद भी लाचार बने रहना से तो अच्छा है कि मेहनत मजदूरी करके अपना अपने परिवार का जीवन यापन करना।