Saturday, May 14, 2022

अफसरीयत

 अफसरीयत

अफसरीयत या अधिकारीपन भी क्या चीज है। उसमें भी प्रमोटी अफसर की बात ही अलग है, कुछ व्यक्तियों का अपने नीचे के संवर्ग से अधिकारी के संवर्ग में जाते ही उनका बात व्यवहार ऐसे बदल जाता है जैसे लगता है कि वो अपने पूर्व के साथियों व सहकर्मी कर्मियों को बिल्कुल पहचानते ही नहीं है।  शायद इस नव अफरीयतपन से उनके चालों में तेजी आ जाती है तो नजरें इस प्रकार सीधी हो जाती हैं कि वह अपने साथ काम किए साथी मित्रों को भी पहचान करना तक गवारा नहीं समझते हैं। 

 ऐसे ही नये प्रमोटी अधिकारी बने राम चरण पांडे जी इसी प्रकार के वर्णित नव  गुणों से युक्त थे। जब से पांडे जी अधिकारी बने थे तब से ऑफिस में आते और ऑफिस से निकलते समय अपनी नजरें बिल्कुल इस प्रकार से रखें रहते थे कि किसी पूर्व परिचित कर्मचारी से नजरें मिल न जाये यदि किसी से मिल भी जाता था तो वो ऐसे नजरअंदाज करके आगे बढ़ जाते थे कि जैसे उन्होंने किसी को देखा ही न हो। यह व्यवहार उनके पूर्व परिचितों के बीच कौतूहल का विषय बना हुआ था तो कुछ के बीच में यह एक हंसी व ठिठोली करने माध्यम सा बन गया था। कुछ हुल्लड़ बाज कर्मचारी थे जिनका काम ऑफिस में काम करना कम हंसी मजाक ठिठोली करना ज्यादा था वह बार-बार टिप्पणी करते हंसी मजाक करते , देखें पांडे जबसे अफसर बन गया हैं हम लोगों की तरफ नज़रों को घुमा कर देखना भी पसंद नहीं करता है नहीं तो उसका गुजारा दिन भर हम लोगों के साथ होता था, कोई काम फंसता था तो हम ही लोगों से सहायता लेकर वह काम करता था। तो कुछ कर्मचारी अपने सीनियर्स से चुटकी लेते हुए मज़ा लेते थे और कहते थे सर जब आप भी अधिकारी बन जाइएगा तो हम लोगों की तरफ नज़रों को उठाकर नहीं देखिएगा और अपने चेंबर में बुलाकर बात बात पर घुड़की अलग से दीजिएगा। तो उसी में से कोई सीनियर कर्मचारी टिप्पणी करता हम धत्ता मारते हैं ऐसे अधिकारीपने को जो अपने सहकर्मियों से मुझको जुदा कर दे। इस तरह हंसी ठिठोली से ऑफिस के कर्मचारियों के दिन कट रहे थे तथा पांडे जी का  अफसरियत का रुख दिन प्रतिदिन और कड़ा होता जाता है। अब ऑफिस के कर्मचारियों के लिए उनके रुख और व्यवहार में इस बदलाव पर कोई आश्चर्य न होता था, लोगों को यह समझ में आ गया था की पांडे जी के कैडर में बदलाव ही उनके रूख में बदलाव का मुख्य कारण न था बल्कि उनके अंदर वर्षों से जमा हुआ यह विचार रहा होगा की अफसर बन जाने पर अपने सहकर्मियों के साथ कैसा व्यवहार करना है उनको कैसे नियंत्रित करना है, अपना चाल ढाल व चाल ढाल व हुलिया बनाकर कैसे रखना है। उनके व्यवहार में इस बदलाव को लोग सहजता से लेने लगे थे, अब लोगों को उनके इस तरह के व्यवहार पर कोई आश्चर्य ना होता था।

  इधर पांडे जी जब से अफसर बने थे अपने पूर्व सहकर्मियों से जितना दुराव रखने का प्रयास करते थे ठीक इसके विपरीत  उतना ही अपने से बड़े अफसरों से लगाव रखने का प्रयास करते रहते थे, लेकिन जैसे उनका दुराव अपने से छोटे कर्मचारियों से था, ठीक वैसा ही दुराव बड़े अफसरों का उनके प्रति था। ये कितना भी बात व्यवहार अपने से बड़े अफसरों के साथ बढ़ाना चाह रहे थे किंतु उधर से रूखापन व्यवहार ही उनको मिलता था। आखिरकार रुखापन व्यवहार क्यों न मिले वह ठहरे क्लास वन अधिकारी और पांडे जी क्लास टू अधिकारी थे। अधिकारीपन भी क्या चीज है जो अपने में क्लास में क्लास संजोए हैं, मैं उससे ऊंचा हूं तो वह हमसे छोटा है मैं उसको अपने पास कैसे बैठा सकता हूं तो नीचे वाला सोचता है मैं उनके पास कैसे बैठ सकता हूं। शायद इसी तरह का वर्ग डिफरेंस या यों कहें अहम होने के कारण सरकारी विभाग में बहुत से काम समय पर तथा ठीक से ना हो पाते हैं। शायद यह भी एक कारण है सरकारी विभाग मे कार्य में शिथिलता ढिलाई का।शायद यह बिल्कुल वैसी ही व्यवस्था है जैसे सनातनीयों में जाति व्यवस्था है, मैं उससे ऊंची जाति का हूं, वह मेरे साथ कैसे बैठ व खा सकता है। मैं उससे बड़ा वह मुझसे छोटा ने इस संसार का जितना नुकसान किया है इसकी कल्पना ही करना मुश्किल है। 

  खैर यह एक अलग बात थी किंतु पांडे जी का अपने से छोटों के प्रति दुराव तथा अपने से बड़ों के प्रति लगाव ने न तो उनको नीचे वालों के साथ उठने बैठने खाने-पीने के लायक छोड़ रखा था न हीं वह अपने से बड़े अधिकारियों के साथ उठ बैठ व खा पी सकते थे। किंतु पांडे जी अब अधिकारी थे अधिकारीपने के ठसकपन से भरे हुए थे।

    पांडे जी का परिवार में कुल तीन प्राणी थे जिनमें से वह उनकी पत्नी और एक बेटा, बेटा पढ़ने में ऐसा कुछ होनहार ना था किन्तु पांडे जी जब से अधिकारी बने थे,तब से बेटे के भविष्य को लेकर उनकी सोच कुछ ज्यादा ही ऊंची हो गई थी और होना भी चाहिए, किन्तु मनुष्य जैसा सोचता है अगर वैसा शत प्रतिशत हो जाए तो पूछना ही क्या है। पांडे जी बच्चे को डॉक्टरी पढ़ाना चाहते थे, किन्तु बच्चा कई दफे डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा देने के बावजूद भी डॉक्टरी की पढ़ाई में दाखिला लेने में सफल न हो सका। पांडे जी के मन में यह विचार था कि चलो लड़का परीक्षा देकर दाखिला ना ले सका तो क्या हुआ अब बहुत समय जाया ना करते हैं उसका दाखिला पिछले दरवाजे से करा कर डॉक्टरी का तमगा लड़के को हासिल कर लिया जाए। उन्होंने वैसा ही किया लड़के ने डॉक्टर की पढ़ाई पूरी की और डाक्टरी का तमगा हासिल कर कागज में डाक्टर बन गया, किन्तु डाक्टरी भी एक पेशा है जिसमें वास्तविक ज्ञान का महत्व कागज में हासिल किए हुए डिग्री से ज्यादा है। इस दुनिया में बहुत से डिग्री धारी डॉक्टर हैं जिनके पास केवल डिग्री ही है वह भी उन्हीं लोगों में से एक थे। अब पांडे जी के बेटे का नाम अतुल पांडे से डॉक्टर अतुल पांडे था, जो अपने क्लीनिक पर बैठ प्रैक्टिस करते थे। किंतु डॉक्टरी पेशा में वास्तविक व प्रयोगिक जिस ज्ञान की आवश्यकता थी शायद उस ज्ञान का डॉक्टर अतुल पांडे के पास अभाव था। कोई भी मरीज शायद एक से दो दफा  ही उनकी क्लीनिक पर आता उसके पश्चात वह शायद ही कभी उनकी क्लीनिक की तरफ मुंह करता हो।

    पांडे जी चालू पुर्जा आदमी थे, ऐसे आदमियों का समाज में शायद ही कोई काम रुकता हो। पांडे जी का बेटा अब अतुल पांडे से डॉक्टर अतुल पांडे हो गया था। अब उसके लिए कई रिश्तो की भरमार थी, उन्ही रिश्तो में से एक रिश्ता पांडे जी को बहुत ही पसंद आया। लड़की एमबीबीएस की हुई थी देखने में भी सुंदर थी उन्होंने पूरे परिवार की स्वीकृति लेने के पश्चात लड़की वालों को रिश्ते के लिए सहमति दे दी। विवाह बड़े धूमधाम से हुआ पैसा पानी की तरह दोनों खानदानों ने बहाया। आखिरकार पैसा होता ही किस लिए है यही सब अवसरों पर भी न खर्च किया जाए तो उसका उपयोग ही क्या है। 

    शादी के बाद दोनों परिवारों बेटे बहू में जो खुशी का माहौल होना चाहिए वह सब दर्शन हो रहा था।  शादी के कुछ दिनों के पश्चात पांडे जी ने बेटे और बहू दोनों को मास्टर डिग्री कर लेने का सुझाव दिया तो दोनों ने मास्टर डिग्री में दाखिला के लिए फार्म  भरा तथा परीक्षा दिया तो बहू का सिलेक्शन प्रथम प्रयास में ही हो गया। किंतु  बेटे ने मास्टर डिग्री में सिलेक्शन हेतु कई प्रयास किया किंतु सिलेक्शन ना हो पाया। उधर बहू एम.डी. की डिग्री लेकर अपनी प्रैक्टिस तो आगे बढ़ा रही थी तो बेटा बैचलर डिग्री को लेकर अपनी प्रैक्टिस आगे बढ़ा रहा था। किंतु कुछ दिनों के पश्चात परिवार में सभी लोग महसूस कर रहे थे कि बहू का व्यवहार व नजरिया बेटे व परिवार के प्रति बदला बदला सा रहता है। बहू के मन में कहीं ना कहीं यह विचार घर कर गया था कि इनका कालेज में दाखिला बैकडोर से होने के कारण और साथ ही अच्छा ज्ञान ना होने के कारण न तो इनकी प्रैक्टिस ठीक चल पाती है और ना ही एमडी में कहीं एडमिशन हो पा रहा है। शायद इन्ही बातों को लेकर  बहू का मन अपने पति से मेल न बैठा पा रहा था। कुछ दिनों के पश्चात बहू से परिवारिक तालमेल कुछ ऐसा बिगड़ा कि वह अपने ससुराल से जाने के पश्चात फिर आने को तैयार न हुई। इस बात का सदमा पांडेय जी के बेटे डॉक्टर अतुल पांडेय पर इतना गहरा पड़ा कि वह बिल्कुल अवसाद की स्थिति में चले गए। जब किसी परिवार में किसी बात को लेकर विवाद हो जाए तो इसका प्रभाव किसी एक व्यक्ति पर ना हो पूरे परिवार पर पड़ता है यह स्पष्ट यहां दिख रहा था पूरा परिवार मायूस रहता था परिवार से खुशी नदारदत थी परिवारिक वातावरण में एक अजीब उलझन और खुशियों का विलोप दिखता था। अवसाद की स्थित व्यक्ति के साथ परिवार पर कुछ ऐसा गुजर रही थी कि पांडे जी का बेटा ने कुछ ऐसा निर्णय लिया पूरे परिवार में कोहराम सा मच गया, एक सुबह जब बेटे को उठने मे देर हुई तो पाण्डे जी लड़के के कमरे में पहुंचे तो कमरे का दृश्य देखकर पांडे जी बिल्कुल हतप्रत से हो गए, पांडे जी ने देखा की लड़के के दिल की धड़कन गायब थी तो बदन बिलकुल ठंडा हो गया था परिवार के जो लोग जहां थे वहीं दहाड़ मार कर रो रहे थे , तो पांडे जी रोने के साथ अपने किए गए कर्मों पर पश्चाताप कर रहे थे कि काश मैं अपने लड़के की योग्यता के अनुसार की बहू का चुनाव करता किन्तु दिखावा ने मुझे इतना मजबूर कर दिया था कि बेमेल कहे या बेमेल बौद्धिक स्तर की लड़की के साथ मैंने अपने लाडले की शादी कर दी जिसके कारण सामंजस्य ना बन पा रहा था उस पर भी मैंने बहू को एमडी करा कर बेमेल पन और बढ़ा दिया जैसे करेला वैसे ही तीता होता है और नीम के पेड़ पर चढ़कर और तीता हो जाता है, यही हाल बहु के साथ हुआ।

    यह अपार दुख पांडे जी के ऊपर आ पड़ा ही था किंतु शायद  पांडे जी को अभी और दुनिया से सीख मिलने वाली थी पांडे जी जब से अधिकारी बने थे तब से अपने से छोटे कर्मचारियों के साथ उनका बात व्यवहार बहुत ही सीमित था और उन लोगों से बातचीत से बहुत ही दूर रहते थे तथा अपने से बड़े व समकक्ष अधिकारियों से ज्यादा मेल मिलाप की प्रयास में रहते थे किंतु इस विकट घड़ी में जो उनके समकक्ष अधिकारी या बड़े अधिकारी थे शायद ही किसी एक आदमी ने फोन करके उनको सांत्वना दिया हो नहीं तो बड़े अधिकारियों का व्यवहार उनके  प्रति ऐसा था जैसे लगता था कि वह इनके साथ हुई घटनाओं से अनजान है। किन्तु जिन छोटे व अपने समकक्ष कर्मचारियों से वह दुराव रखते थे वही लोग इस दुख की घड़ी में उनके साथ खड़े थे तथा उनसे कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करने को तैयार थे। पांडे जी के लिए यह एक ऐसी सीख थी जो उनको अपने द्वारा  किए गए व्यवहार पर सोचने को मजबूर कर रही थी तो दिल इनको धिक्कार रहा था जिनके साथ आपने ऐसा व्यवहार किया है वह लोग आपके दुख की घड़ी में आप के साथ खड़े हैं और जिन बड़े अधिकारियों की आप लल्लो चप्पो करते थे उनमें से अधिकतर ने तो संतावना तक की रश्म अदायगी कर अपना फर्ज निभाना उचित नहीं समझा तो कुछ ने सांत्वना दिया भी तो फीके मन से।