Monday, April 21, 2008

कुर्सी का रोग(kurshi kaRog)

कुर्सी  का रोग

रमेश बाबू बैंक की ग्रामीण शाखा मे लिपिक के पद पर कार्यरत थे | रमेश बाबू को बैंक मे जो कुर्सी मिली थी वह थी किसानो को लोन देने की जैसे ही कोई किसान लोन का फार्म भरकर ले आता, रमेश बाबू का प्रथम कार्य उसमे कमी निकलना था न कि कमियों को ठीक करवाना था कुल ले देकर कहें तो काम को टरकाना था | इस तरह से वह किसान तीन-चार बार दौड़ता  या फिर परेशान होकर बैंक में ही वहाँ के चपरासी या फिर लोन लेने वाले किसी किसान से सम्पर्क करता तो वो उसको वह उन  विधियों को समझा देते की लोन आसानी से कैसे मिल पायेगा|  सारा माजरा समझने के पश्चात किसान बैंक के बगल के मिठाई के दुकान से दूध वाली बर्फी और लिफाफे मे दस  अदद गाँधी छाप ले जाकर उनके घर पर मिलाने का बहाना बनाकर देता तो रमेश बाबू उससे बोलते इसकी क्या जरुरत है, अच्छा चलो रख दो तुम्हारा काम हो जायेगा |  इस तरह से रमेश बाबू की नौकरी अच्छी तरह से चल रही थी, तथा क्षेत्र के किसानों का लोन भी से स्वीकृति हो रहा था | बैठ कर काम करने और अत्यधिक  मिठाई के लत ने रमेश बाबू के शरीर को थुलथुला बना दिया था | इधर कुछ दिनों से  शरीर मे अकड़न और थोड़ा सा काम करने पर थकावट महसूस होने लगी थी रमेश बाबू को , इस परेशानी के निदान के लिए वह डॉक्टर से मिलने  , डॉक्टर ने चेकअप करके तुरंत ब्लड तथा यूरिन के चेक के लिए लिखा ब्लड तथा यूरिन चेक करने पर उसमे शुगर की मात्रा बहुत ज्यादा बढा हुआ मिला | अब रमेश बाबू को इसका कारण समझने मे जरा भी देरी न लगी कि इस रोग का कारण क्या है | अब तक जो मिठाई अमृत सदृश्य लगती थी, अब वह जहर लगने लगी |  इस मिठाई ने केवल उन्हें ही रोगी नहीं बनाया था वह उनकी पत्नी और बच्चों की चर्बी से युक्त व रोगी बना दिया थ| अब रमेश बाबू का काम ऑफिस मे कम तथा घर परिवार के लोगों को व अपने को अस्पताल में इलाज कराने में ज़्यादा व्यतीत होने लगा | अभी तक जो भी पैसा जमा था वह दवा व इलाज इत्यादि मे ज़्यादा खर्च होने लगा साथ-साथ ऑफिस का भी कार्य बाधित होने लगा ऑफिस के कार्य मे बाधा देखकर बैंक प्रबंधक ने रमेश बाबू को लोन वाली कुर्सी से हटाकर फाइल व्यवस्था देखने तथा उचित ढंग से रखवाने का कार्य दे दिया अभी तक आने वाले ग्राहकों पर हुकुम चलाता था तो अब ऑफिस के ही अफसरों तथा बाबूओं के हुक्मों के अनुसार फाइल को निकालना तथा रखना पड़ता था लेकिन इस कुर्सी से उनको अप्रत्यक्ष रूप से दो लाभ हुआ, एक तो उठने बैठने के कारण शारीरिक व्यायाम हो जाता था, दूसरा मिठाई न खाने से शुगर का लेविल नही बढने पाता था अब धीमे-धीमे उठ बैठ कर कार्य करने से तथा साथ-साथ दवा लेने से शुगर का स्तर कम होने लगा, घर के लोगों को भी मिठाई ना खाने से उन लोगों का भी शुगर लेवेल नियंत्रित होने लगा था | अभी तक जो चीज़ दवा से नियंत्रित नही हो पा रही थी, वह धीमे-धीमे दिनचर्या, ख़ान-पान और कुर्सी बदल जाने से ठीक होने लगी | धीमे-धीमे वो  और उनका परिवार भला-चंगा हो गया परिवार मे पहले जैसी खुशी बस अपने वेतन के पैसे से ही आ गयी थी | अब अगर कोई ऑफिस में कहता रमेश बाबू, साहब से बोलकर लोन वाली कुर्सी फिर क्यों नही ले लेते तो उनका जवाब होता, उपरी कमाई की कुर्सी आप को ही मुबारक हो अब मैने समझ लिया है कि व्यक्ति के घर मे खुशी का वास अपनी मेहनत की कमाई और घर परिवार और समाज मे अपने कर्तव्यों के निर्वाह मे हैं |

Wednesday, April 16, 2008

सीख

सीख


ट्रेन रुकते ही यात्री जल्दी जल्दी चढ़ने लगे | उनमे से दो मित्र आमने-सामने वाली सीटों पर बैठने के लिए अग्रसर हुए | शायद ट्रेन के बोगी की खिड़की  खुला होने के कारण सीटों पर वर्षा का पानी आने के कारण दोनों सीटें खली पड़ी हुई थी | उनमे से एक मित्र ने अपने बैठने वाली पूरी सीट को पोंछकर बैठना उचित समझा तो दूसरा मित्र उसको उपदेश देता हुआ बोला की पूरी सीट साफ करने की क्या जरूरत है, जितने पर बैठना है उतने ही भाग को साफ करो, जो कोई दूसरा आएगा वह अपना बैठने के स्थान की सफाई करेगा | मैं तो इस सामने वाली सीट पर अपने बैठने की जगह भर के ही पानी को साफ करूँगा, और दूसरा व्यक्ति जो भी बैठने के लिए आएगा वह अपने बैठने वाले जगह की सफ़ाई करके बैठेगा, मै किसी और के बैठने के स्थान की सफाई क्यों करूँ | और वह अपने बैठने भर की जगह साफ करके बगल में बैग रखकर बैठ गया | दूसरा मित्र बोला कि अरे थोडी सी और सफ़ाई कर दोगे तो छोटे नही हो जाओगे| अरे कुछ नि:स्वार्थ भाव से भी कार्य करना सीखो | इस तरह दोनों मित्र बात करते हुए सफर तय करके अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुँच कर अपना-अपना सामान उठाकर उतरने कि तैयारी करने लगे तो दूसरे मित्र को अपना बैग कुछ भीगा सा महसूस हुआ | वह जल्दी से बैग के अन्दर से सामान निकाल कर देखना शुरू किया कि कही कुछ भीग तो नहीं गया है तो उसने पाया कि साक्षात्कार के वास्ते जो कॉल लैटर (बुलावा पत्र) रखा था, वह भीग गया था, साथ में कपड़े भी भीग गए थे | यह देखकर शर्मिंदगी महसूस करता हुआ अपने मित्र से बोला की काश मैंने तुम्हारी यह सीख मान ली होती की कभी-कभी नि:स्वार्थ भाव से कर्म कर लिया करो | ठीक ही किसी ने कहा है की सबकी भलाई में ही अपना भला समझो | 


Saturday, April 12, 2008

एक स्वर

एक स्वर

 एक शाम चार मित्रों के द्वारा विभिन्न मुंद्दो पर चर्चा की जा रही थी | उनमे से एक मुद्दा था की क्या अपने देश के नेताओ में देश हित के किसी भी एक मुद्दे पर एक मत्तता  है |  उनमे से एक मित्र ने बोला क्यों नहीं, यदि देश पर कोई बाहरी आक्रमण हो जाये  या होने वाला हो तो सारे नेता एक स्वर में आक्रमणकारी को मुहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार रहते हैं |अभी पहले मित्र की बात खत्म हुई भी नहीं थी, कि दूसरा मित्र बोल पड़ा नहीं उनके समर्थन करने का कारण देश हित या देश का भला करना नहीं है बल्कि उनका वोट बैंक  कैसे मजबूत बनेगा इसकी मजबूरी ही उनके समर्थन या विरोध का कारण होता है | 
  अभी दूसरा मित्र अपनी बात खत्म ही कर रहा था की तीसरा मित्र तपाक से बोल पड़ा की हम में से कोई  बता सकता है कि आखिर  हमारे देश के नेतागण कभी  किसी मुद्दे पर एक मत रहे हैं या नही | तीसरे मित्र की बात खत्म होते ही चौथे मित्र ने बोला की मैं बता सकता हूँ कि अपने देश के नेतागण किस मुद्दे पर कभी एक मत हुए हैं |  चौथे मित्र ने बोला कि वह मुद्दा है अपने देश के नेताओ के तनख्वाह व भत्ता बढ़ाने का मुद्दा या यों कहे अपने फायदे का मुद्दा |बोलो तुम लोग अपने देश के नेता इस एक मुद्दे पर एक एक मत  रहते हैं की नही | जब भी संसद में यह मुद्दा किसी एक नेता के द्वारा लाया जाता है तो इसको बिना किसी बहस के अपने द्वारा स्वयंभू गठित कमेटी द्वारा दिए गए सुझावो को हरी झंडी दे दी जाती है और अगर कोई ऐसे मुद्दों का विरोध करता है तो उसका विरोध मात्र दिखावे का विरोध होता है | बताओ तुम लोग मेरी इस बात से सहमत हो की नही | सभी मित्रो ने कुछ देर तक उसकी बातों पर विचार किया और फिर एक स्वर में ही उसकी बातों का समर्थन अपने नेताओ के द्वारा फायदें के लिए किए जाने वाले मुद्दों की तरह किया|