Saturday, December 30, 2023

Sewa Dham (सेवा धाम )

                                                              सेवा धाम
इस दुनिया के सारे सदग्रन्थ जैसे गीता,शास्त्र,पुराण औरअन्य धर्मों के जितने भी सदग्रन्थ  हैं सब के सब निश्वार्थ सेवा को सबसे अच्छा तथा स्वयं के फायदे के लिए भी अच्छी नीति बतातें  है, लेकिन हममे से कितने लोग है जो इसको यदि अच्छा मानते हैं जो इसे अपने जीवन में लागू करते हैं | शायद बहुत ही कम आदमी होंगे शायद लाखो में एक या दो और  ऐसे आदमियों को ये समाज बुद्धुवों की ही श्रेणी में रखता है। इसी तरह इस ब्यवहारिक संसार में स्कूल से लेकर कॉलेज तक दो मित्र जिनका नाम अजय और विजय  था,साथ साथ पढ़ते हुए बड़े हुए  और दोनों पढने में तेज और प्रखर थे। फिर  दोनों ने आगे मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिये एक साथ कोचिंग में दाखिला लिया , और दोनों मेडिकल परीक्षा की तैयारी में जी जान से जुट गए। दोनों नें साथ - साथ मेडिकल में  दाखिला हेतु परीक्षा में साथ - साथ बैठे और दोनों का अच्छी रैंकिंग से सेलेक्शन भी एक अच्छे कॉलेज में हो गया।  दोनों ने मेहनत और लगन से  अपनी पढ़ाई  किया और अच्छे अंकों से मेडिकल की ऊँची से ऊँची डिग्री को हाँसिल किया।
   इसके पश्चात् दोनों ने  दुनिया के वास्तविक ब्यवहारिक क्षेत्र में प्रवेश किया जहाँ आप के पढ़ाई के ज्ञान के साथ-साथ आप के व्यावहारिक  ज्ञान , निश्वार्थ सेवा , निश्वार्थ ब्यवहार  महत्व कई गुना  ज्यादा  है। इनमें से डा. अजय अपनी प्रेक्टिस निश्वार्थ सेवा भाव  किया  करते थे | वो अपने प्राइवेट प्रेक्टिस के साथ-साथ कई धार्मिक सेवा संस्थानों में भी बैठते  थे और  मरीजों की सेवा निश्वार्थ भाव से करते  थे|  इनके जीवन  सिद्धांत में  शायद  निश्वार्थ  सेवा का प्रथम स्थान था और वो  पैसे को सेवा का बाई प्रोडक्ट ही मानते थे अर्थात सेवा पहले पैसा जो आना हो वो आएगा ही यदि आवश्यकता से अधिक पैसा आता है तो उसका उपयोग जरुरतमंदों की सेवा- सुश्रुषा के लिए है। इसके विपरीत डा. विजय   अपनी प्राइवेट प्रेक्टिस पर ही सारा ध्यान देते थे वो अपने मरीजों को दी जा रही सेवाओं का पूरा मूल्य वसूलना चाहते थे | किसी धार्मिक संस्था में बैठ कर बिना पैसे या मामूली फ़ीस पर सेवा करना अपने पढ़ाई का अवमूल्यन या यों कहें अपने जिन्दगी को बेकार करना मानते थे | वो अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस के  साथ-साथ ऐसे कई  प्राइवेट अस्पताल में बैठते थे  जहाँ  इलाज के साथ  सुविधा के नाम पर मरीजों  का जेब खाली करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा जाता  था।   इस तरह एक सेवा भावी हो कर संतुष्ट था तो दूसरा ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाकर खुश था। समय अपने गति से बीतता जा रहा था दोनों अपने अपने कामो में मस्त थे तथा  समय-समय पर एक दूसरे का हाल-चाल व  समाचार अपने व्यस्त समय से निकल ले लिया करते थे। उनके बीच वार्ता  मुद्दा अपने प्रोफेशन को ही लेकर ही रहता था | जहाँ डॉ. अजय  की बातें मरीजों की सेवा के इर्द गिर्द घूमती थी, भारत की गरीबी और गरीबों की दुर्दशा को बयान  करती थी  तो डॉ. विजय  की बाते  अपनी कमाई को लेकर बनी हुई रहती थी | उनका स्पष्ट मानना था की जिसको अपना इलाज करवाना होगा , वो पैसे का इंतजाम कर के लाएगा चाहे वो अपना घर द्वार  या खेत बारी बेचे, उसे अपना इलाज करवाना  है तो उसे पैसे की ब्यवस्था करनी होगी चाहे वो जैसे करे। 
    इसके विपरीत सेवाभावी व उदार भाव से  काम करते  हुए डॉ. अजय  की छवि एक उदार एवं सेवाभावी  व्यक्ति  के रूप में समाज में बनती जा रही थी ,जबकि  डॉ,विजय  की छवि  पैसे का भूखे  लालची व्यक्ति की  बनती  जा रही थी।
         दोनों मित्रों का दिन अच्छी तरह गुजर रहा था | इसके साथ ही उनकी  सामाजिक प्रतिष्ठा यानि की सामाजिक लोकप्रियता में तेजी से बदलाव हो रहा था | जहाँ डॉ. अजय  को शहर के सामाजिक कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाता था तो वो थोड़े ही समय के लिए कार्यक्रम में जाते थे लेकिन जाते जरूर थे और उनके विचार समाज सेवा और जरूरतमंदों की निस्वार्थ सेवा के इर्द गिर्द तक ही सीमित  रहती थी । वो चाहते थे की जरुरतमंदो की सेवा में समाज के ज्यादा से ज्यादा प्रतिष्ठित लोग, सक्षम लोग आवें सभा में उनकी उपस्थित लोगों को गौरवान्वित करती थी और जब लोग सभा से विदा होते थे तो उनसे किसी न किसी बहाने लोग अवश्य मिलना चाहते थे | यही लोग जब सभा से होकर समाज में जाते थे तो  समाज में अपनी महत्ता को साबित करने के लिए  चर्चा करते थे कि आज मै एक  सभा में गया था जहाँ डॉ. अजय  आये थे उनसे मिल कर आ रहा हूँ।  वही डॉ. विजय  अपनी प्रेक्टिस और रुपये-पैसे ,धन दौलत बनाने में  ब्यस्त रहते थे, पैसा उनके लिये सबसे बड़ी चीज़ थी,उनका विस्वास था कि पैसा धन दौलत जब तक  पास है तभी तक आदमी का इज्जत है मान सम्मान है इस समाज,देश-दुनिया में मान व प्रतिष्ठा है। इसके अलावे डॉ विजय  का मानना था की जब ब्यक्ति के पास धन दौलत आता है तो वो उसके विकास व मान सम्मान की अपार  सम्भानाओं का द्वार खोलता है , समय के साथ डॉ. विजय के पास इतना ज्यादा पैसा हो गया कि उन्होने सोचा चलो एक बड़ा हॉस्पिटल बनवाते  हैं। जिसकी कार्य प्रणाली कॉर्पोरेट तरीके की होगी जिसमे दस पैसे के चीज का दाम सौ रुपये लो  या हजार  रुपये लो मरीज खुशी - ख़ुशी दे देता। बड़े आदमियों को कुछ छोटा सा रोग  हो जाए तो उनसे एक का हजार लिया जा सकता है | इससे मेरी कमाई और बढ़ जाएगी और समाज में मेरे मान प्रस्तिष्ठा में और इजाफा होगा। 
    किन्तु जैसे ही उन्होने अपने हॉस्पिटल निर्माण के लिए अपने कदमों को बढ़ाया उन्हे महशूश हुआ सरकारी ऑफिस में कार्य करवाना लोहे का चना  चबाने  बराबर है । वहाँ हर काम में या यों कहें की पग पग पर कोई न कोई बाधा है। कोई भी कुर्सी से काम करवाना हों उनसे बिना मिले काम होने वाला ही न है | वहां   कोई भी नियम ,कायदा कानून का साम्राज्य केवल सिंद्धात के रूप में विद्यमान था न की कार्य संस्कृत के रूप में था।  इस पर भी तुक्का ये यदि कोई फाइल गायब जाय तो उसकी जवाब देहि किसी भी कर्मचारी की न थी अगर कोई फाइल गुम हो जाय तो उसको ढुँढवाना समुद्र से रत्न ढूढ़ने के बराबर था।एक दिन उन्होंने  बातों-बातों में इस समस्या का  जिक्र डॉ. अजय  से किया, तो डॉ. अजय  ने बोला ठीक है जिस फाइल का अप्रूवल अभी तक नहीं हुआ है उसका नाम लिख कर मुझे दे दो मैं बोल दूंगा उन सरकारी कार्यालयों में, डॉ. विजय   ने तुरन्त जवाब दिया कि यार लगता है अभी तुम्हारा कोई काम किसी सरकारी विभाग में नहीं पड़ा है तभी तुम ऐसी बातें कर रहे हो | लगता है तुम गये फाइल लेकर और तुम्हारा काम ऑफिस वाले तुरन्त कर दिए,  यार तुमसे इस बात से क्या मतलब है तुम्हे आम खाने से मतलब है या उसकी गुठली गिनने से ,नहीं मुझसे इन दोनों से ही मतलब है,मै भी देखना चाहता  हूँ आप  जितनी आसानी से बोल रहे है क्या उतनी ही आसानी से काम हो जाता है। मेरा तो इन सरकारी ऑफिसों  में दौंडते दौंडते चप्पल घिस गया है , अब मैं आप की भी जरा धमक देखना चाहता हूँ ; अच्छा ठीक है अब मुझे अपनी फाइल का लिस्ट और किस ऑफिस से काम होना है उसको लिख कर दे दो और नहीं विश्वास है तो हमारे साथ चलो जिस किसी भी ऑफिस में फाइल पड़ी है। डॉ विजय ने बोला चलिए कल हम लोग स्वास्थ विभाग के डायरेक्टरेट ऑफिस में चलते हैं, ठीक है। 
    कल जब डॉ अजय स्वास्थ विभाग के डायरकटरेट ऑफिस में पहुँचे तो उन्होंने चपरासी को अपना परिचय देते हुए और अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए बोला कि जाकर डायरेक्टर साहब को ये कार्ड दे दीजिये।   डायरेक्टर साहब अधीनस्थ कर्मचारियों मीटिंग ले रहे थे  जैसे उन्होंने  डॉ अजय  का  कार्ड देखा डॉ साहब को तुरंत ही मीटिंग के दौरान ही बुलवाया ;जैसे ही डॉ साहब चैंम्बर में प्रवेश किये डायरेक्टर साहब तुरंत खड़े हो कर डॉ. अजय  का स्वागत करने के लिए आगे बढे डॉ. अजय  को आश्चर्य हुआ कि ये जनाब  मुझे कैसे पहचानते हैं।  डायरेक्टर साहब उनके हाव भाव को पढ़ते हुए तुरंत बोल पड़े की जनाब ये बताइये की इस शहर में आप को कौन नहीं जनता है | अगर आप को विश्वास नहीं हो रहा है तो इन सारे महानुभावो से पूछ लेते हैं कि ये आप को जानते हैं कि नहीं, जैसे ही उन्होने अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से पूछा कि  आप लोग इन जनाब को जानते हैं क्या सारे लोगों ने एक स्वर में उत्तर दिया की हाँ सर,आप डॉ. अजय  हैं। डॉ अजय  को अपनी प्रसिद्धि का इतना अनुमान न था वो ये तो जानते थे कि  इस शहर के जिस किसी भी ऑफिस में जाऊंगा कोई न कोई परिचित निकल आयेगा लेकिन ये नहीं जानते थे कि पूरे ऑफिस के लोग इस तरह से जानते होंगें और इस तरह से सम्मान में उठ कर खड़े हो जाएंगें, इसका उनको  अनुमान बिलकुल ही नहीं था | इस तरह से एकाएक लोगों के द्वारा सम्मान प्रगट करने के कारण वो  अन्दर से कुछ झेप  से  महशूस कर रहे थे कि मैंने ऐसा कौन सा बड़ा सामाजिक कार्य कर दिया है, जिसके कारण लोग मुझे इतना सम्मान दे रहे हैं। जहाँ एक तरफ डॉ. अजय  इस सम्मान से झेप व  लज्जा  महशूस कर रहे थे वही दूसरी तरफ डॉ. विजय  के लिये ये सारी घटनाएं किसी आश्चयर्य व कौतूहल  से कम नहीं थी | वो हतबुद्धि सा  होकर  इन सारी  घटनाओं को देख रहे थे। वो इसी सोच और उधेङबुन  में लगे थे कि एक डॉ. जो मेरे से धन दौलत में एक हजार भाग से भी कम है उसका इतना सम्मान और उस पर भी ऑफिस के सारे लोग बोल रहे हैं कि मैं  इनको जानता हूँ | उसके आने पर ऑफिस के सभी लोग खड़े हो गए और एक तरफ उन्हे कोई पूछ नहीं रहा है। वे कई बार इस ऑफिस का चक्कर लगा चुके थे और कोई उन्हे पूछने वाला ही नहीं था | 
   लेकिन अब उनको मन ही मन विश्वास हो गया था कि अब उनका काम हो जायेगा। अभी ये सारी  घटनाये हो ही रही थी कि इसी बीच डायरेक्टर साहब ने अपने पी. ए. से बोला कि डॉ. साहब के लिये कुछ जलपान का प्रबंध करें । डॉ. अजय ने तुरंत बोला कि इस तकल्लुफ़  की कोई जरुरत नहीं है। मैं आप के पास एक काम से आया था देखिये यदि हो सके तो इसे करवाने का कष्ट करे। डॉ. साहब इसमें तकल्लुफ़ की कोई बात नहीं है मेरे धन्य भाग्य की आप के चरण इस ऑफिस में पड़े,  सर अब मुझे लग रहा है की आप मुझे बना रहे हैं। डॉ. साहब आप कम से कम ये बाते न कहे सही माने मैं आप के बारे में बहुत कुछ सुन चूका हूँ  और आप से मिलने की तीब्र इच्छा थी किन्तु  आप से मिल न पा रहा था। आइये बैठिये कम से कम आज इस तरह कि बात न बोलिये। कुछ जल जलपान के बाद  अब डॉ.अजय ने  सारीं बातों को विश्राम देते हुए मूल मुद्दे पर आते हुए बोला  कि  मैं यहाँ पर इन जनाब के एक काम से आया हूँ | आप इन जनाब  को तो जानते ही होंगें ये इस शहर के बड़े चिकित्सक,डॉ. विजय हैं। अच्छा तो आप डॉ. विजय हैं, हाँ आप का नाम तो सूना हूँ शायद  आप ट्रैक्स हॉस्पिटल  में  प्रैक्टिस करते हैं। एक बार उस हॉस्पिटल में जाना पड़ा था | मुझे लगा वो हॉस्पिटल कम, लूट का अड्डा ज्यादा है। उन्होंने ये बातें कुछ इस भाव से कही कि जैसे उनको इन डॉ. साहब से बात करने कोई विशेष रूचि ही नहीं है। डॉ. अजय  ने डायरेक्टर साहब की बातो को बीच में काटते हुए बोला कि इन जनाब ने  इस शहर में एक बहुत ही बड़ा हॉस्पिटल खोलने का विचार बनाया है जिससे लोगों को सस्ता व अच्छा इलाज मिल सके।डायरेक्टर साहब ने डॉ. साहब को बीच में रोकते  हुए बोला क्या डॉ. साहब आप ने भी खूब कहा,  डॉ. बड़े-बड़े हॉस्पिटल मरीजों के अच्छे व सस्ते इलाज के लिए खोले जातें हैं कि अपनी जेबें भरने के लिए खोखोलें जातें हैं। अब यह बात डॉ. विजय को उनके दिल को चीरती हुई महसूस हुई | डॉ. अजय  कुछ बोलते इसके पहले ही डॉ विजय  बोल पड़े हाँ आप ठीक बोल रहें हैं लेकिन मैं इसको थोड़ा और सही करके बोलता हूँ | ये बड़े बड़े हॉस्पिटल बड़ी - बड़ी व जटिल बिमारियों का इलाज करने के साथ  ऐसे   धनाड्य  लोगों का ज्यादा  इलाज करते हैं जिनको  सस्ता  और उचित सलाह यदि कोई डॉ.देता है तो उसको संदेह की नज़रों से ज्यादा देखते हैं जबतक कि वह उनके छोटे से छोटे रोगों को बढ़ा चढ़ा कर न बताये और बड़े -बड़े चेकअप कराने के लिए न लिखे  तब तक उनको संतुष्टि ही नहीं होती है और समाज में जाकर वो गर्व  से बोलतें हैं कि मेरा इलाज शहर के उस बड़े हॉस्पिटल में हो रहा है । तो क्या एक डॉ. का ये धर्म है कि वो किसी मरीज  को उसकी बीमारी के अनुसार इलाज न करके फालतू में तमाम जाँच करवाने हेतु लिख देवे इस आशा में मुझे फीस के अवाले कुछ अतिरिक्त आमदनी जाँच केंद्र से भी हो जाये। इस बात से डॉ. साहब को उनके मर्म पर और चोट लगता हुआ मह्सूस हुआ लेकिन उनको अपने अस्पताल के लिए परमिशन यही से मिलना था।  उन्होने विचार किया कि यदि ज्यादा वाद विवाद में पडूँ तो कहीं डायरेक्टर साहब फज़ूल में नाराज न हो जावें और परमिसन देने में अड़ंगा न लगा दें। उनकी सहज या यों कहें कि उनकी स्वार्थ  बुद्धि ने अपना काम निकालने के लिए डायरेक्टर साहब की बातों का समर्थन करने  के लिए आदेशित किया या यों  कहें कि सलाह दिया कि  ये कि कमीशन  वाली बात का अपमान सह कर भी उनकी बातों का समर्थन करना चाहिये। हो सकता है ये बात कुछ मामले मे सही हो चलिए मै आप की बात  मान लेता हूँ।डायरेक्टर साहब डॉ विजय को  इतनी आसानी से छोड़ने के मूड में शायद न थे उन्होंने तुरंत प्रतिवाद किया कि  कुछ मामलों में नहीं जनाब ज्यादातर  मामलों में कहिये। चलिए मै आप की इस  बात को ही मान लेता हूँ, किन्तु मेरा आप से आग्रह है कि आप अपने चिकित्सक समाज में सही काम करने के लिए प्रेरित कीजिये। जिससे समाज में गरीबों का भी भला हो सके,धनी आदमी तो अपना इलाज कहीं भी करवा सकता है। डॉ. साहब इस संसार में मनुष्य की मूलभूत  आवश्कता रोटी ,कपड़ा ,और मकान है,आप बताए इसके लिए कितने पैसे की आवश्यकता है। इस छोटी  सी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कुछ  लोग कितना इतना नीचे गिर कर छल प्रपंच करते हैं कि यदि  इसका वर्णन यदि  मुख से किया जाये तो वर्णन करने वाला मुख भी लज्जित हो जाये। अब डॉ. विजय  को महशूश हुआ कि डायरेक्टर साहब के मन में डॉक्टरों के प्रति कुछ ज्यादा ही नकारात्मक विचार हैं | उन्होने डायरेक्टर साहब की बातों को बीच में काटते हुए बोला कि डायरेक्टर साहब क्या डॉक्टरों  अंदर ही सारा दोष है, इस समाज में और भी सम्मानित वर्ग हैं जैसे इंजीनियर ,वकील ,ठेकेदार ,सेठ - साहूकार, औद्योगिक घराने फ़िल्मकार क्या ये समाज की सेवा में लगे हैं, क्या इनका इस देश समाज के प्रति कोई  उत्तरदायित्व नहीं है। है क्यों नहीं है , जो भी आदमी इस देश का अन्न खाता ,पानी पीता है ,इसकी हवा में साँस लेता है उन सबका उत्तरदायित्व है | आप देखिए  संवेदनशील लोग इस देश व समाज की सेवा में लगे हुए हैं,लेकिन आप डॉ.लोग का उत्तरदायित्व इस समाज प्रति सबसे ज्यादा हैं क्योकि इस धरती पर ईश्वर के बाद आप का स्थान है।  इस धरती पर जो गरीब तबका है , सीमान्त किसान है उसके तरफ से ईश्वर ने भी मुँह मोड़ रखा है,आप देखतें नहीं हैं जब किसान को अपने खेत में पानी की  सबसे ज्यादा आवस्यकता होगी वो कितना भी ईश्वर की ओर देखता रहे अर्थात आकाश  तरफ देखता रहे है,ईश्वर से प्रार्थना करता रहे है तो ईश्वर भी उसकी तरफ से मुँह मोड़ लेता है और उस समय ईश्वर भी उसको पानी के लिये तरसाता  है,लेकिन उसके खेत  बारिश तब होगा  जब उसका फसल पक कर बिल्कुल तैयार होगा बताइए गरीब गुरबा सीमांत किसान के ऊपर इस धरती के ईश्वर भी दया न करे तो बताइये वो लोग किसके सहारे जिन्दा रहेंगे और मानिये कभी ईश्वर प्रसन्न हो कर समय से वर्षा  कर भी दे तो फसल की उपज इतनी हो जाएगी कि उसका वाजिब दाम ही न मिल पायेगा, और कभी किसी कारण से फसल का दाम बढ जाये तो देश की जनता महंगाई का रोना रोने लगाती है | सरकार मजबूर होकर उस अनाज  का आयात करने लगाती है और उसके फसल/अनाज  का दाम इतना काम हो जाता है की उसकी दैनिक आवश्कताएँ की पूर्ति ही नहीं हो पाती हैं। आप ने किसी किसान गरीब गुरबा को देखा है की नहीं वो आप से हमसे ज्यादा मेहनत मजदूरी करता है लेकिन उसके  उसके बच्चों के बदन  कभी शुद्ध  कपड़ा नहीं पाइयेगा वो जो भी कपड़ा पहना होगा उसमे दूसरे कपडे की चिप्पी जरूर लगा होगा।  आप डा. लोग तो इस धरती के भगवान कहें जाते हैं आप लोग तो इन गरीब-गुरबों का ध्यान रखा करिये, मैंने तो ऐसे कई डाक्टरों  को देखा है अगर कोई मरीज उनके चंगुल में आ गया तो वो तब तक नहीं ठीक होता है जबतक की मरीज सड़क पर न आ जाए।
      अब डॉ. अजय  को लगा कि बहस का मुद्दा विषय से भटककर एक दूसरे की कमी निकालने और समाज में दूसरे लोगों  को उनके उनके कर्तव्यों को अहसास कराने में न जाया हो जाये वो इस बहस को यही विराम देकर मूल मुद्दे पर आना चाहते हुए बोले सर आप काफी हद तक सही बोल रहे हैं।  डायरेक्टर साहब को लगा की अब तक डॉ  साहब को ठीक ठाक डोज़ दे दिया गया है यदि इनके अंदर कुछ पानीदारपन होगा तो गरीब गुरबों की सेवा  जरूर करेंगे | वे  किसी गरीब गुरबे को उपभोक्ता की वस्तु न समझ कर उनको सेवा के योग्य समझेंगे। वो डॉ अजय  की बातों पर ध्यान देते हुए बोले चलिए जब आप भी मेरी बातों से सहमत मालूम होतें हैं तो लगता है जो भी बात मैंने डॉ विजय  से कही है वो बिलकुल सत्य ही होगी |अब डॉ साहब अपने कर्मों में, अपने जीवन में सेवाभाव पूरी तरह से लागू कर सके तो मै समझूँगा की  किसी एक डॉ को तो सही दिशा में कार्य करने में प्रेरित कर सका।
    डॉ अजय  बातों को बीच में काटते हुए बोले डॉ विजय आप के कार्यालय में अपने अस्पताल की स्वीकृत हेतु एक आवेदन दे रखें हैं जोँ महीनों से आप के कार्यालय में पड़ा है। मैं आप के पास इसी स्वीकृत के सम्बन्धं में आया था आशा है कि आप इसकी स्वीकृति जल्दी से जल्दी प्रदान करेंगे। डॉ साहब जब आप आएं हैं  तो कार्य में रुकावट का कोई सवाल ही नहीं पैदा होगा लेकिन मैं फिर  भी डॉ विजय से एक आस्वाशन चाहता हूँ की उस अस्पताल में सारे मरीजों  का इलाज सेवा भाव से किया जाएगा और एक बात का विशेष ध्यान रक्खा जायेगा  कि चाहे कोई   गरीब गुरबा हो या फिर कोई धनवान हो उसे कभी भी उपभोक्ता की दृष्टि  से न देखा जायेगा , उसे इस दृष्टिसे देखा जाय  की ईश्वर ने केवल हमको एक माध्यम बनाया है हमको एक हुनर देकर भेजा है, मै केवल  इलाज करता हूँ ईश्वर मरीजों को ठीक करता है | अतः मुझे केवल दाल में नमक के बराबर ही लाभ लेने का अधिकार है मरीजों  से, और मै कभी भी कोई ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिससे देश समाज का अनावश्यक पैसा खर्च हो।
   हाँ सर मैं आप की बात से सहमत हूँ और मेरा सदैव ये प्रयास रहेगा कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े ब्यक्ति के साथ समाज के सभी ब्यक्तियों को उचित इलाज मिले |  ठीक  है डॉ. साहब कल आकर स्वीकृत की फाइल ले जाइयेगा।
    डॉ. विजय  कल निश्चित समय पर डायरेक्टर साहब के ऑफिस में पहुंचे और ऑफिस से हॉस्पिटल के लिए स्वीकृत प्रदान किया हुआ फाइल लिया और डायरेक्टर साहब को प्रणाम करके अपने रास्ते पर चल दिए। डॉ. साहब को ऐसा मह्शूश हो रहा था जैसे उन्होंने  कोई जग लिया हो और मन ही मन इस बारे में बार बार विचार कर रहे थे कि मेरा  पैसा कमाना सब व्यर्थ है एक छोटा सा अदना सा सन्यासी डॉ. जिसकी सम्पति हमारी सम्पति के हजारवाँ  हिस्सा भी नहीं है उसके डायरेक्टर ऑफिस में पहुंचते ही कर्मचारी कैसे झुक झुक कर प्रणाम कर रहे थे|  मुझे वहां कोई पहचानता भी न था, शायद पहचानते भी होंगे तो भी न पहचानने का सबों ने नाटक कर दिया होगा | शायद मैंने उन सबों से या उनके परचितों से इलाज के दौरान  ज्यादा पैसा ऐठ  लिया होगा। मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे कभी सोचते थे की चलतें हैं डॉ. अजय के पास और बोलते हैं उनसे की आइये आप भी इसी हॉस्पिटल में प्रैक्टिस करिये अब इस हॉस्पिटल का नाम कोई अंग्रेजी नाम न रखकर  सेवा धाम रखूँगा।  इस तरह के बहुत से बातों पर विचार करते हुए वो डॉ. अजय  के पास पहुचें लेकिन शायद उनके पास इतना आत्मबल ही न था या यों  कहे की उनकी ब्यवसायिक सोच ने उनके अंदर के आत्मबल को  इतना कमजोर कर दिया था   कि वो  अपने मन की सदबृतियों को भी जुबान पर न ला पा  रहे थे। सोच रहे थे की यदि कोई सामाजिक सेवा से सम्बंधित कोई बात  डॉ अजय  के सामने रखूं  तो मैं डॉ अजय की नज़रों में हंसी का पात्र न बन जाऊँ कि  सामाजिक सेवा और आप जिसके लिए पैसा ही सब कुछ हो। बहुत सोच विचार करने के बाद उन्होंने पाया कि ये बात करने का अभी सही समय नहीं है। वो डॉ अजय  से अस्पताल की स्वीकृत मिलने की खुशखबरी देने के पश्चात और डॉ अजय  से  इधर उधर की बात करने के पश्चात अन्य  कार्यालयों में स्वीकृत के लिए रुके हुए फाइलों की चर्चा करने लगे और उनकी तरफ आशा भरी नज़रों से देखते हुए बोले की  आप इन कार्यों की भी स्वीकृत दिलाने में  मेरी  मदद कर देते तो ये अस्पताल जल्दी ही खुल जाता ,डॉ अजय बीच में ही बात काटते हुए बोले आप कोई संकोच न करे आप को जिन कार्यों की स्वीकृत चाहिए उन कार्यों की फाइलों को लेकर चलिए  मैं भी आप के  साथ उन कार्यालयों में चलता हूँ | हो सकता है कि मेरा नहीं तो आप का ही कोई परचित मिल जाये और आप का काम आसानी से हो जाये। डॉ विजय  ने डॉ अजय  के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि मित्र आप से अपनी ब्यथा क्या कहूं कार्यालयों के चक्कर लगते - लगते कई जूतों  के तल्ले तक घिस गए हैं किन्तु काम के नाम पर ढेले भर का काम तक नहीं हुआ है| मै  ये बात आप से बोलना नहीं चाहता था किन्तु आप बोल रहे हैं कि मेरे साथ चलिए इस कारण से यह बात  आप से बोल रहा हूँ की आप ही इन कार्यालयों में दौड़  धूप कर इन फाइलों की स्वीकृत  दिलवा  देते तो अस्पताल निर्माण का निर्माण कार्य  जल्द काम पूरा होने  के पश्चात अस्पताल को जनता के इलाज हेतु शीघ्र खुल जाता और इस शहर की जनता को अच्छा  इलाज इसी शहर में मिल जाता।
    ठीक है मित्र आप इन फाइलों को छोड़ कर मेरे पास जाइये मै समय निकल कर यदि अपने हो सकता है तो अपने से नहीं तो किसी परचित के माध्यम से  इन कार्यों का जल्द से जल्द स्वीकृत करवाने का प्रयास करता हूँ। डॉ अजय के अंदर यह विशेष गुण था कि वो जिस काम को हाथ में लेते थे उसको जल्द से जल्द पूरा करने का प्रयास करते थे। जैसे ही डॉ विजय ने  उनको फाइलों को दिया वो उसे लेकर स्वयं या फिर किसी परिचित के माध्यम से उन कार्यालयों के डायरेक्टर से सीधे जा जा कर मिल रहे थे, उनके लिए आश्चर्य और हैरान करने वाली बात ये थी की जिस भी कार्यालय में जाते थे पता नहीं वहां के अधिकत्तर कर्मचारी और अधिकारी उनको जानते थे कभी कभी तो वो अपना आवभगत देखकर इतने लज्जित या यों कहे कि झेप  जाया करते थे कि उनको खुल कर बोलना पड़ता था कि आप लोग इस तरह मेरी स्वागत सत्कार कर रहें हैं जैसे मै आप लोगों का कितने समय से परिचित हूँ ऐसे में मै अपने को असहज महशूश करता  हूँ। तो अधिकतर कार्यालयों से जवाब मिलता की हाँ  डॉ साहब आप से हम लोगों का भले ही न कोई औपचारिक परिचय हो किन्तु ये पूरा शहर आप को जनता है शायद ही इस शहर का कोई परिवार हो जिसके परचितों का इलाज आप ने  न किया हो वो भी बहुत ही मामूली चिकित्सीय शुल्क पर |और किसी के पास यदि पैसे की कमी है तो वो भी नहीं लेना है बल्कि अपने पास से समय समय पर किसी गरीब गुरबे की पैसे से सहायता कर देंना  भी आप  स्वभाव का एक अंग है। जब वो इन बातों को सुनते तो वो और भी लज्जित हो जाया करते, वो बोलते इसमें कौन सी नई  बात है ईश्वर ने मेरे हाथों में वो गुण दिया है ,धन दिया है हुनर दिया है तो मै यदि इस शहर के लोगों की कुछ सेवा ही कर दिए देता हूँ तो कौन सा बड़ा काम किए देता हूँ। वे बोलते जिसके पास भी ईश्वर हुनर दिया है धन दिया है  उसे जरुरतमंदो की सेवा अवश्य ही करनी चाहिए। हाँ डॉ साहब आप ठीक बोल रहें है लेकिन इस समाज में ऐसे कितने आदमी हैं जो जरुरत मंदों की सेवा करते हैं ,आप अपने शहर के डॉ विजय  का ही उदाहरण ले लेवें  वो किसी गरीब गुरबे की सेवा क्या करें वे अगर वे उनकी चंगुल में फंस जाए तो वो उनको जैसे आम चूस जाता है वैसे ही चूस लेवें |  उनके पास यदि कोई गरीब गुरबा इलाज हेतु चला जाये उसका खेत, घर-द्वार, तक बिक जाये तो कोई आश्चर्य की बात न समझिये,डॉ साहब उनके पास जाना मतलब कंगाल होकर लौटना है  | 
 डॉ साहब आप को क्या बताया जाये इसी ऑफिस में ही कई ऐसे भुक्त भोगी हैं जो उनसे इलाज कराकर कर्जदार हो चुके हैं। एक बात और उनके बारे में सुनने में आई है की वो कोई नया बहुत बड़ा अस्पताल इसी शहर में खोलने जा रहे है, डॉ साहब ये जान लीजिये की यदि उनका नया अस्पताल इस शहर में खुल गया तो इस शहर के गरीब गुरबे ही नहीं कितने अच्छे हैसियत वाले  परिवारों को कंगाल होते हुए  देखिएगा। वो अपने अस्पताल की स्वीकृत हेतु फाइल लेकर कई बार इस ऑफिस के चक्कर लगा चुके हैं किन्तु हम लोग भी कोई न कोई अड़ंगा लगाकर फाइल को वापस कर देते है हम लोग भी देखतें हैं की कैसे उनका अस्पताल इस शहर में खुलता है वो डाल डाल पर हैं तों हम  लोग भी पात पात  पर है। हम लोग इस तरह शहर के लोगों को लुटते हुए नहीं देख सकते हैं।
   डॉ अजय  के लिए अब असमंजस की स्थित थी कि वो इन लोगों से अब क्या बोले अपनी  स्थित उन्हें ऐसी दिख रही थी कि आये  थे हरी भजन को ओटन लगे कपाट। कुछ देर वो हत बुद्धि से वही खड़े हो गए , यह देख उस कार्यालय के  प्रमुख को   लगा कि  डॉ होने के नाते लगता है यह बात डॉ साहब के दिल पर लग गई है। उन्होंने बात सम्हालने के मकशद से बोला की लगता है डॉ साहब, डॉ होने के नाते यह बात आपके दिल पर लग गई है लेकिन हम लोगों का ऐसा कोई मकशद नहीं था की आप के दिल को दुखाया जाय ऐसे ही एक बात चली तो बातों ही बातों में कुछ सही बातें  जुबान पर आ गई अगर इन बातों से आप को ठेस लगी है तो हम लोगों इसके लिए आप से खेद प्रकट करतें हैं | डॉ साहब ने बीच में बात काटते हुए बोले नहीं ऐसी कोई बात नहीं है अगर मै ये बात जनता की आप लोगों के मन में डॉ विजय  की ये छबि बैठी हुई है तो शायद मै इस कार्यालय में आता ही नहीं। और वास्तविकता ये है की आप लोग जिस  अस्पताल की बात कर रहें है मै उसी की स्वीकृत करवाने  सम्बन्ध में इस कार्यालय में आया हूँ  लेकिन मै ये नहीं जनता था की इस स्तर  की दुर्भावना डॉ विजय  के लिये  आप लोगों के मन में बैठी है, न ही डॉ विजय  ने इस तरह के बातों की  चर्चा कभी मुझसे की है और न ही मुझे इसका अहशास था |हाँ मुझे इस बात का अहसास है की डॉ विजय  की प्रेक्टिस शुद्ध रूप से ब्यवसायिक  है लेकिन वो इस स्तर तक के ब्यवसायिक हैं इसका अनुमान मुझे नहीं था। मै और  डॉ विजय साथ - साथ पढ़ें हैं |  इसलिए अगर इस नए अस्पताल के निर्माण कार्य में कोई बाधा आती है तो वो मेरे पास सहायता के लिए चले आते हैं और मै थोड़ा सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ हूँ तो आप जैसे लोगों से मिलकर उन रुके हुए कार्यों को करवाने में उनकी सहायता किये देता हूँ। मेरी सोच ये थी की इस शहर में एक अच्छी सुविधाओं से युक्त मल्टी स्पेशिलिस्ट हॉस्पिटल हो जाये तो इस शहर के लोगों को इलाज के लिए बड़े बड़े शहरों की ओर रुख न करना पड़े।  लेकिन अब इस अस्पताल की स्वीकृत हेतु आप लोगों से शिफारिस करने से पहले एक बार मै स्वयं डॉ विजय से बात कर लेना चाहता हूँ और उनसे ये अस्वासन लेना चाहता हूँ की वो इस अस्पताल का संचालन ब्यवसायिक रूप से न करके सेवाभावी के रूप से करेंगे।मुझे एक बात ये समझ नहीं आती है की जब आप लोग ये जानते है की डॉ विजय  इस स्तर  तक के ब्यवसायिक सोच के डॉ है तो इस शहर और गाव , देहात के लोग इलाज हेतु ही वहां जाते ही क्यों है। डॉ साहब आपने प्रश्न ठीक किया है, शायद आप को पता नहीं होगा उनके एजेंट इस शहर में ही नहीं इस शहर के अगल बगल तक ही नहीं दूर -दूर तक  गाव , देहात तक में फैले हुए है वो टैक्सी ड्राइवर के रूप में रिक्शा चालक के रूप में फैले हुए हैं ,अगर आप को अभी विश्वाश न हो रहा हो तो आप अभी स्टेशन से किसी रिक्शे वाले को पकड़े और बोले की हमें इस शहर के किसी अच्छे डॉ के वहां पंहुचा दो जिससे अच्छा इलाज करवाया जा सके तो आप देखेंगे उनमें से अधिकतर को डॉ विजय का अस्पताल ही नजर आएगा और जो एक बार डॉ विजय के वहा जो पहुंच गया उसका इलाज तबतक नहीं हो पता है जबतक की वह कंगाल न हो जाये।
    डॉ साहब आप इस कार्यालय में आये ये हम लोगों का सौभाग्य है की आप जैसे महापुरुष के कदम इस कार्यालय में पड़े, हम लोग आप के आग्रह को भी एक आदेश के रूप में लेंगे यदि आप कहें तो हम लोग अभी जो भी इस फाइल में दर्शाये गए कार्य की स्वीकृत कराने की  कार्यवाही  को करना शुरू कर देवें किन्तु बस हम लोगों के अंदर एक आशंका है और वो ये है की ये अस्पताल लोगों  की सेवा शुश्रुषा, इलाज के स्थान पर बस लूट का अड्डा ही होगा। अब डॉ साहब आप जो भी बात कहें हम लोग आप के बातों को अपने सर माथे पर रखेंगे।
   डॉ अजय बड़े ही असमंजस में पड़  गए अब करें तो क्या करे उनके लिए एक तरफ कुआँ था तो दूसरी तरफ खाई वाली स्थित थी। इस असमंजस की स्थित से निकलते हुए उन्होंने गहरी साँस छोड़ते  हुए  बोला कि मै आप लोगों से बोलने से पहले डॉ विजय से एक बार कुछ बात कर लेना चाहता हूँ फिर इस कार्यालय में आप लोगों से मिलूंगा और अपने विचार इस अस्पताल की स्वीकृत के संबंध में व्यक्त करूँगा |  इसके पश्चात् डॉ साहब जैसे ही उन लोगों से विदा लेते हुए कार्यालय से बहार निकलने को तैयार हुए, उस कार्यालय  के सारे कर्मचारी डॉ साहब को गेट तक छोड़ने आये और विदा करके पुनः अपने अपने सीट पर बैठ कर ऑफिस का कार्य निपटने लगे। डाक्टर साहब के ऑफिस से जाने के बाद सारे कर्मचारी एक विशेष तरह के ग्लानि के भाव से भर गए थे कोई भी एक दूसरे से बोल नहीं रहा था सब को ये लग रहा था कि डाक्टर साहब ने हम लोगों से एक काम करने के लिए बोला और वो भी हम लोग नहीं कर सके, जबकि हम लोग कभी अस्पताल में गए हों अपने को या फिर किसी मरीज को दिखाने हेतु, डॉ साहब बिना देखे मरीजों को उठते न थे।वो भी मरीजों को ऐसे देखते थे जैसे लगता था उनके घर का ही कोई बीमार पड़ा हो और वो उसका इलाज कर रहे हों, बात इतने तक की हो यही नहीं इससे आगे बढ़ कर यदि कोई गरीब गुरबा पहुंच जाए तो उसके लिए अपने पास से दवा की व्यवस्था करना भी अपना धर्म समझते थे।और हम लोग एक ऐसे महात्मा को अपने द्वार से खाली हाथ लौटा दिए।एकाएक राम सिंह अपने साथी कर्मचारियों से बोल पड़े आज जो कुछ भी हम लोगों ने डाक्टरसाहब के साथ किया वो हमारे दृष्टिकोण से किसी भी तरह ऊचित नही था।आखिरकार, डॉ विजय तो इस ऑफिस में अपने अस्पताल का स्वीकृत लेने नहीं आये थे। इस ऑफिस में डॉ अजय उस हॉस्पिटल का स्वीकृत लेने के वास्ते आए थे, जहां तक गरीबों के लूटने तक का सवाल है, जिसको देखो वही गरीब गुरबे को लूटने में लगा है यहां तक कि सरकार भी, देखिए न यदि सरकार के बैंकों का पैसा यदि कोई बड़ा व्यापारी, उद्योगपति लूट कर विदेश में चला जाता है तो उस पैसे की भरपाई सरकार हम जैसे माध्यम वर्गीय परिवारों या हम लोगों से भी गिरे हुए गरीब गुरबों से करती है।और इससे भी आगे बढ़कर कहे तो शायद हम लोग इसी लिए बने है, इस देश का कोई कितना भी धन लूट कर लेकर चला जाए हम लोग उसको पाटने अर्थात पूर्ति के लिए ही बने हैं। रामचन्द्र बाबू इन बातों  के पीछे कोई तर्क, कोई ठोस सबूत दीजियेगा या फिर ऐसे ही सरकार को बदनाम कीजिएगा। विनोद बाबू मै अपनी बातों के पक्ष में एक नहीं हजार कारणों को गिना सकता हूं और आप का भी अंतर्मन इन बातों का समर्थन करेगा और काफी हद तक स्वीकार भी करेगा,आप अपने अन्तर्मन कि बातों को अपनी जुबान पर ला पाते हैं या नहीं यह आप की नैतिकता पर निर्भर करेगा।अच्छा तो सुनिए जितने बड़े बड़े उद्योगपति, बड़े बड़े ब्यापारी देश के बैंकों का पैसा लेकर विदेश चले जाते हैं,उन पैसों की भरपाई हम लोगों के खातों से कभी कम पैसा रखने के कारण तो कभी तीन से अधिक ट्रांजेक्शन के नाम पर अधिकतर खातों से पचास पचास रूपए के रूप में काट कर बैंक वाले अपने घाटे की पूर्ति हमसे और  आप से ही तो  करते हैं। अगर सरकार हम लोगों का भला चाहती तो बैंकों को स्पष्ट निर्देश देकर इन कटौतियों पर रोक लगा सकती थी।बैंक वाले एक साल में लगभग तीन से चार हजार करोड़ रुपए अपने बैंकों में जमा कर लेते हैं प्रति वर्ष,वो भी हम मध्यवर्गीय और गरीब गुरबों के खातों से काट कर इकठ्ठा कर लेते है, जो लोग अपने खातों में आवश्यक न्यूनतम बैलेंस नहीं रख पाते हैं या फिर कुछ ब्याज पाने के आशा में कम से कम पैसा अपने खातों में से निकलते हैं जो कभी कभी निर्धारित संख्या से अधिक बार निकासी कर लेते हैं इस के कारण  उनसे फाइन के रूप में सरकार उनके खाते से पैसा काट लेती है। उसी कार्यालय के विनोद बाबू को सरकार की बुराई अच्छी तो नहीं लगी क्योंकि वो इस सरकार के समर्थक थे, किन्तु इन बातों का उनके अन्तर्मन ने समर्थन किया। क्योंकि उनका लड़का लखनऊ में अध्ययन करता था और उसके खाते में अक्सर वो पैसा उसके खर्चे के लिए डालते रहते थे और जब कभी न्यूनतम बैलेंस से कम हो जाता था तो बैंक वाले फाइन के रूप में पच्चास रुपए अक्सर ही काट लिया करते थे। उन्होंने रामचन्द्र बाबू की ओर देखते हुए बोला कि आप बोलते तो ठीक हैं जब ये सरकार हम गरीब गुरबों को लूटने पर लगी है तो डॉ विजय भी हम शहरवासियों को थोड़ा और लूट लेते तो कौन अनर्थ हो जाता हम मध्मवर्गीय और गरीब लोग इसी लिए तो बने ही हैं,रात दिन मेहनत मजदूरी करके दस पैसा कमाया जाए और कुछ उसी में से पेट काट कर बचाया जाए और उसे कभी सरकार किसी बहाने से तो कभी इसी समाज के बड़े बड़े डाक्टर और कभी कोर्ट कचहरी के चक्कर में चपेटे में आ गया तो पूछना ही क्या है, आप बस ये समझिये की किसी लाइलाज बीमारी के चक्कर में फ़स गए।
   उधर डॉ अजय के मन में तरह तरह के विचार चल रहा था,वो इस तकनीकी पूर्ण इनकार से उनका अंतस मन काफी आहत हो चुका था | इस तरह शहर में किसी ने उनकी बातों को इनकार नहीं किया था। अब डॉ विजय उनकी नज़रों में काफी गिर चूके थे ,शायद वो उनके मित्र न होते तो वो इस फाइल को ले जा कर उनके सिर पर पटक चूके होते और भला बुरा जो कहे होते वो अलग था, किन्तु डॉ विजय ठहरे उनके मित्र वो उसी शाम डॉ विजय से मिले और औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् मूल मुद्दे पर आते हुए बोले कि आप ने भी खूब अपना छवि इस शहर के लोगों में बना रखा है,शहर के लोगों में ये बात घर कर गई है की ये अस्पताल इस शहर में खुल गया तो समझो लूट का अड्डा खुल गया।अब आप अपना विचार बताएं....| शहर के लोगों ने कुछ बोला और आप ने विश्वास कर लिया। मैंने आज तक केवल अपनी व्यावसायिक सेवा का मूल्य लिया है। जहां तक गरीब गुरबों और मध्यवर्गीय लोगों की बात है तो ये मेरे विचार से लूटने के लिए बने हैं इनको सरकार भी नहीं छोड़ती है, मै क्या मैंने तो केवल अपनी सेवा का मूल्य ही लिया है। अगर मेरी दावा से लोगों को लाभ हो रहा है  तभी तो लोग मेरे पास आते हैं , देखिए इस शहर में कितने डाक्टर क्लीनिक खोल रखे हैं क्यों नहीं उनकी क्लीनिक पर  इलााज करवा लेते हैं लोग क्योंकि लोगों को तमाम डॉक्टरों पर भरोसा ही न है। लोगों को जब यह भरोसा होता है कि  मै डाक्टर साहब के इलाज से ठीक हो जाऊंगा तब ही कोई मेरे पास इलाज के लिए आता है। खैर अब इन बातों पर तर्क वितर्क करने का कोई औचित्य नहीं है। जो बात मेरे दिल में है उसको आप के सामने रखना चाहता हूं यदि आपको मेरे पर विश्वास है तो मै अपने मन के कुछ  उदगारों को व्यक्त करना चाहता हूं। क्या अब भी कोई  गूढ़ बात अपने मन में रख रखे हो जो अब व्यक्त करना चाहते हो | नहीं डाक्टर साहब कोई गूढ़ बात नहीं है, मै केवल अपने मन के उदगार और सच्ची भावनाओं को ही ब्यक्त करना चाहता हूं।अगर आप मेरी बातों पर विश्वास करें तो ही मै अपने मन की बातों को आप के सामने रखूंगा। आप कोई बात कहेंगे तो ही कोई बात सुनेगा समझेगा तो ही विश्वास करेगा  पहले अपनी बातों को बोलिए ।
   डॉ साहब मैंने आज तक बहुत पैसा इस पेशे  से बनाया है और इस हॉस्पिटल को खोल कर और भी पैसा कमाने की कामना थी,किन्तु अब पैसा कमाने की कामना नहीं है यों कहिए मर सी गई है और ये सब आप के संतुष्टिपूर्ण जीवन से प्रभावित होकर। आप के पास शायद ही मेरे जितना पैसा हो लेकिन आप का जीवन एक कर्मयोगी सेवाभावी और संतोषी का जीवन है ,जो अपने श्रम का मूल्य केवल दाल में नमक के बराबर लेता है जिसके ज्यादा या कम हो जाने से दाल का स्वाद खराब हो जाता है, बिल्कुल इसी तरह जीवन में भी धन की एक संतुलित मात्रा न हो तो जीवन का आनंद बेकार हो जाता है।यदि धन का जीवन में अभाव हो जाए तो भी जीवन बेकार हो जाता है और जीवन में धन की अधिकता एक सीमा से ज्यादा हो जाए और इस  अधिकता वाले धन का उपयोग यदि समाज में सत्कार्यों में नहीं किया जाय तो फिर ये व्यक्ति को गलत कार्यों की तरफ बहा ले जाता है। अभी तक यह हॉस्पिटल , मैक्स हॉस्पिटल के नाम से खोला जाने वाला था,लेकिन अब मैंने  इसका नाम बदलकर "सेवा धाम" करने का मन बना लिया है,अब यह हॉस्पिटल उस आधुनिक हॉस्पिटल  की तरह  नहीं चलेगा जिसमे मरीजों का इलाज उनकी जेबों को देखकर  किया जाता है |
     अब इस सेवा धाम में मरीजों का इलाज उनकी जेबों को देखकर नहीं ,उनका इलाज सेवा शुश्रुषा के साथ किया जायेगा चाहे उनके पास इलाज कराने के लिए पैसा हो या नहीं हो। अब इस  अस्पताल से गरीब से गरीब ब्यक्ति इस कारण से लौट कर नहीं जायेगा की उसके पास इलाज करने के लिए पैसा नहीं है अगर कोई बीमार व्यक्ति इस सेवा धाम के दरवाजे तक पहुँच जाता है तो उसका इलाज हुए बिना वो यहाँ  से नहीं लौटेगा। डॉ साहब मैं चाहूंगा आप इस अस्पताल से जुड़ें और इस अस्पताल की गरिमा को बढ़ाएं और हमारे संकल्प को मजबूती दें ,आप का इस अस्पताल से जुड़ना इसकी गरिमा बढ़ने के साथ - साथ इस कार्य की सिद्धि की गारन्टी होगी।
      डॉ साहब आप सोच रहें हैं कि आप ने क्या संकल्प लिया है समाज सेवा का जो आपने संकल्प लिया है वो आप किसी के कार्य से प्रभावित होकर संकल्प लिया है या अपनी अन्तरात्मा की आवाज के कारण लिया है। लोगों की सेवा करना एक तरह से काजल की कोठरी में समाने के सामान है जिसमे  कितना भी बच कर घुसिए कहीं न कहीं काजल का दाग लग ही जाता है, यही हाल समाज सेवा का है जिसमें आप एक लाख आदमियों की सेवा सुश्रुषा की यदि किसी  एक व्यक्ति की सेवा सुश्रुषा में कमी रह गई तो बदनामी के अलावा कुछ भी न मिलने वाला है। ठीक है, डॉ साहब बदनामी ही सही किन्तु अब मैं अपने निश्चय से विचलित होने वाला नहीं हूं।अब इस अस्पताल का नाम सेवा धाम होगा और मै चाहूंगा आप इसकी कमान संभाले। ठीक है डॉ साहब जब आप का निश्चय या यों कहें संकल्प  इतना दृढ़ है तो निश्चित रूप से यह अस्पताल सेवा, सुश्रुषा व इलाज के क्षेत्र में एक प्रतिमान स्थापित करेगा।
    अब अगले दिन से डॉ अजय अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अस्पताल की स्वीकृति लेने हेतु लग गए अब डॉ अजय दिन भर इस ऑफिस से उस ऑफिस के चक्कर काटते अस्पताल की स्वीकृति लेने हेतु और शाम के समय मरीजों के देख भाल हेतु अपनी क्लीनिक पर व सेवा आश्रमों पर बैठते, दिन भर इतना मेहनत और भाग दौड़ के बावजूद वो मरीजों कि सेवा सुश्रुषा में तनिक भी कमी न होने देना चाहते थे।
    इसी दौरान शहर के लोगों ने डॉ विजय के व्यवहार में एक बहुत बड़ा बदलाव महसूस किया जो डॉ विजय  मरीजों के इलाज के दौरान पैसा उनकी पहली प्राथमिकता में था, शहरवासी  अब देखते थे कि इलाज डॉ साहब की  पहली प्राथमिकता में आ गया था।अब बहुत से गरीब गुरबे  मरीजों को जिनके पास डॉ साहब को  देने के लिए फीस नहीं था उनको भी डॉ साहब अब बिना एक भी पैसा फीस लिए  देखते थे और  दवाएं भी अपने पास से देते थे ।जब शहर के कुछ उच्च धनाढ्य दानवीरों को इस बात का पता चला तो कुछ ने गुप्त दान के रूप में कुछ धनराशि भेजनी समय समय पर शुरू कर दी तो किसी ने एक दान पेटी क्लीनिक पर ला कर लगवा दिया।अब तो और भी चमत्कार जैसा प्रगट होने लगा जो पैसा डाक से या अस्पताल के बैंक खातों में सीधे आता था | अब अस्पताल में रखा दान पेटी  शाम को  खोला जाता था तो भरा हुआ पाया जाता था।यह सब चमत्कार देखकर डॉ विजय की आंखें खुली की खुली रह जाती थी। अब वो कभी सोचते थे कि क्या मैंने अभी तक का अपना जीवन तुच्छ रूप से जिया है  मुझे अभी तक जीना शायद नहीं आया था हाय री माया तूने अभी तक मुझको जकड़ कर रखा था और मैं पैसे के पीछे जिंदगी के वास्तविक उद्देश्य को ही त्याग दिया था और सुख, भौतिक पदार्थों में देख रहा था। ये बिल्कुल ऐसा ही था  कि कस्तूरी मृग के कुण्डल में है,और वो उसको खोजने के लिए पूरे वन में घूमता  रहता  है। यह सब देखकर डॉ साहब कुछ ज्यादा ही चिंतनशील से बन गए थे, वो कभी कभी सोचते थे की यदि मै दिन के तीन से चार घंटे भी अपना फ़ीस लेकर शहर के धनाढ्य वर्ग के इलाज हेतु प्रेक्टिस करूँ व शेष समय सेवा कार्यों में दूँ तो भी अपने परिवार को एक अच्छी सुख सुविधा देने के साथ समाज को भी अच्छा समय दे पाउँगा और उनकी अच्छी सेवा भी कर पाउँगा। अब डॉ साहब ने इसी दिनचर्या  को अपने जीवन का अंग सा बना लिया।
   इधर डॉ अजय ने, जब डॉ विजय के संकल्प को देखा और उनमे आये बदलाव  बारे में सुना तो वो जीजान  से सेवा धाम की स्थापना में लग गए अब वह मरीजों का इलाज करने के साथ साथ समय निकल कर विभिन्न ऑफिसों  से फाइल पर स्वीकृत लेने हेतु दौण धूप लगाए रहते थे। इसी दौड़ धूप का परिणाम था की सेवा धाम की स्वीकृत कुछ ही सप्ताह में ही मिल गई।
  जब डॉ विजय को ये पता चला कि अस्पताल की स्वीकृत सारे सम्बंधित कार्यालयों से मिल गई है तो वे डॉ अजय  के पास पहुंचे और उनके गले से लिपट कर बोले डॉ साहब आप ने तो कमाल ही कर दिया, इतनी जल्दी स्वीकृत का पत्र आप ले कर आये ये मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा  है। क्यों इसमें अविश्वास वाली कौन सी बात है। आप बोल रहें हैं कि इसमें अविश्वास की कौन सी बात है, डॉ साहब जिसे सरकारी कार्यालयों में कार्य करवाने का अनुभव होगा वो इतनी जल्दी स्वीकृति पत्र मिलने पर अविश्वास ही करेगा। नहीं यह काम ईश्वरीय बिना ईश्वरीय कृपा के नहीं हो सकता था | मुझे एक चीज पर अटूट विश्वास है जब हम किसी अच्छे कार्य को करने के लि उद्दत होते हैं तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की  ईश्वरीय शक्तियां उसमे सहयोग करने लगाती हैं। और शायद यही इस कार्य में भी हुआ अब मेरा आप से निवेदन है की आप सत्पथ और सेवा भाव से हटियेगा  नहीं चाहे कितनी भी विपत्ति आ जाये। डॉ साहब क्या आप को अभी भी विश्वास नहीं हो पा  रहा। नहीं  मै ये बात इस लिए कह रहा हूँ की माया बहुत ठगनी है आप देखते नहीं हैं की कितने संत महात्मा सुबह सुबह दूरदर्शन पर मोह माया को त्यागने के बारे में कितने  बृहद ब्याख्यानो को देते रहते हैं और उनकी जिन्दगी को नजदीक जा कर देखिएगा  पाईयेगा की वो उसी में लिप्त हैं बस उनकी बातें मंचीय ही होती हैं।
   डॉ विजय  इन बातों पर हँसते हुए ,डॉ साहब अब और मेरा  मजाक नहीं उड़ाइये सही बताऊँ मुझे लगता है अभी तक मुझे जीना नहीं आता था अब जीने का तरीका आ गया है तो उसकी हौसला अफजाई कीजिये, आप इस काम को अपने हाथ में लीजिये और आगे बढिये और हमे भी अच्छे कार्यों में अनुगामी बनाइये। बस इतनी कृपा बनाये रहिये। दोनों मित्रों में शायद बहुत दिनों के बाद एक दूसरे को गुदगुदाने का संयोग बना हुआ दिख रहा था। शायद मनुष्य किसी सफलता से ज्यादा आनंदित हो जाये और ठीक उसी समय मित्रों का साथ मिल जावे तो एक दूसरे को गुदगुदाने में हसीं ठिठोली में जो आनंद उसे मिलता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है शायद वही दृष्य दोनों मित्रो की थी।
    खैर डॉ साहब (अजय) अब इस ईश्वरीय काम के आप मार्ग दर्शक बने और निर्माण कामों का इसी नवरात्री में शुभारम्भ करवावें। अरे आप ने कुछ बजट एवगरह के बारे में विचार किया है या नहीं , जीतनी बड़ी योजना  आप ने बनाया है उसके लिए  पैसा की ब्यवस्था कहाँ से होगी। डॉ साहब इन दो महीनो में मुझे पता चल गया है कि अगर  आप कोई अच्छा काम करने की ठान  लेतें  हैं  और करने लगते है तो सारी ईश्वरीय शक्तियां आप को सहयोग करने लगाती हैं, आप पैसे की चिंता छोड़े, ये  बड़े बड़े बैंक किस दिन काम आएंगे और हो सकता है इन बैंको के पास जाने की कोई आवश्यकता ही न पड़े।
  ठीक मुहूर्त देख कर अस्पताल की नीव रखी गई और  अस्पताल का निर्माण कार्य तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था।   जैसे ही डॉ साहब को ये महसूस हुआ कि अब ओ पी डी के रूप में सेवा कार्य शुरू किया जा सकता है तो दोनों मित्रों ने शुभ मुहूर्त में विधि विधान के साथ अस्पताल के ओ पी डी की शुरुआत कर दी गई।
  अब दोनों मित्रों की दिनचर्या बिल्कुल बदल सी गई थी, अब सुबह दस बजे से शाम को चार  बजे तक सेवा धाम में मरीजों की सेवा सुश्रुषा में ब्यतीत करते और मरीजों से इलाज के खर्च के नाम पर बिल्कुल दाल में नमक के बराबर ही लाभ लेने की नीति थी। इस तरह सेवा धाम से जो लाभ मिलता था वो सारा पैसा अस्पताल में नए नए मशीनो  को लाने नई बिल्डिंगों को बनवाने व अन्य जनोप्योगी कार्यों में खर्च हो जाता था । अपनी आजीविका व अपने परिवार  के जीवनयापन के लिए शाम को छह बजे से रात को नौ बजे तक अपने पुराने कीक्लीनिक/ अस्पताल पर बैठते थे। अब डॉ विजय को महसूस हो रहा था कि उनकी आय पहले से कम जरूर हो गई थी किन्तु इस जीवन में संतुष्टि का एक अलग ही आनंद था। मन के द्वारा कभी धिक्कार का भाव नहीं प्रगट किया जाता था कि मैंने किसी को आज किसी को अनायास इस विधि से या उस विधि से ठगने का प्रयास किया है। अब  डॉ विजय का जीवन जीने का ढंग साधारण से साधारण होता जा रहा था, डॉ अजय तो पहले से ही साधारण जीवन जी रहे थे उनके जीवन जीने के तरीके के बारे में बात करना सूरज को दीपक दिखाने के बराबर था। जब डॉ विजय की पत्नी ने देखा कि डॉ साहब का  जीवन  के प्रति नजरिया बिल्कुल आध्यात्मिक सा हो गया है, तो वे उनसे एक दिन अनायास पूछ बैठी कि जीवन जीने के तरीके में इस एकाएक बदलाव के क्या कारण हैं आप तो इस शहर में इतना बड़ा अस्पताल इसलिए खोल रहे थे कि जीवन में बहुत पैसा बना सके और ऐसो आराम की जिंदगी जी सके और लोग आप को सबसे पैसे वाला जाने किन्तु मै तो आपकी  जिंदगी में एक बहुत बड़ा बदलाव देख रही हूं, आप का जीवन दिन पर दिन सादगी भरा अध्यात्मिक होता जा रहा है, जिसमें पैसे को इकट्ठा करने की चाहत ना होकर, पैसे का सदुपयोग जन सामान्य मानवीय कार्यों के लिए आप कर रहे हैं।
 रोशन (डा विजय की पत्नी) आज तक मेरा जीवन संग्रही  जीवन था जिसमें पैसा इकट्ठा करने का कोई अंत नहीं था,जमीन जायदाद बनाने का कोई अंत नहीं था , ज्यादा से ज्यादा पैसा इकट्ठा करना है मेरा धर्म था। इस तरह जीवन जीने के तरीके  में संतुष्टि नाम की कोई चीज नहीं थी किन्तु अब मुझे समझ में आ गया है की वास्तविक सुख मन की संतुष्टि में है। अब मेरा मन मुझे धिक्कारता नहीं है कि मैंने किसी को भी इस या उस विधि ठग लिया या किसी को बुद्धू बनाकर पैसा बना लिया | मुझे ईश्वर ने इस योग्य बनाया है कि मै दिन दुखियों के लिये कुछ कर सकूं इस सेवा भाव में जो सकून, है वो करोड़ो अरबों की संपत्ति में नहीं है | जीवन जीने के लिए जितने पैसे की आवश्यक्ता है वो शाम को क्लिनिक पर बैठने पर मिल जाता है तुम्हे और पैसे की आवश्यक्ता हो तो बताना मै अपने खर्चों में कटौती करके तुम्हे और दे दिया करूँगा | आप कैसी बातें कर रहे हैं गृहस्ती एक ट्रेन की तरह है जिसमे  पति रेल का इंजन है तो पत्नी उस ट्रेन का डिब्बा है | इंजन जिधर की ओर ले जाता है पत्नी भी उसके डिब्बे की तरह अनुगामी बनकर उसके पीछे पीछे चलती रहती है | अब आप का पथ एक सेवाभावी का पथ है | जिसमे दूसरों की सेवा ही  जीवन के मूल उदेश्यों  है और उसमे सहयोग करना व सत्यपथ पर चलना ही अब मेरा  धर्म  है | जब आप ने गरीब दिन दुखियों के लिए सेवा का ब्रत ले लिया है तो आप कैसे आशा करते हैं की मै उसमे बाधा बनूगी  मै आप की अर्धांगनी हूँ | मै आप के साथ-साथ पग से पग मिलकर चलूंगी | अब मै कुछ मोटा झोटा पहन लिया करुँगी, कोई बनाव सिंगार व दिखावटी आभूषण  की कोई आवश्यक्ता नहीं है, और सही ही डॉ विजय की पत्नी  डॉ साहब के साथ पग से पग मिलते हुए दिखाती थी उनके जीवन को देखने से मालूम ही नहीं होता था कि उनका जीवन कभी शानो शौकत व विलाशिता से भरा हुआ रहा होगा |
   अब डॉ अजय और विजय जिस मार्ग से सेवा धाम को जाते थे उस पर पता नहीं कौन पानी का फुहार लगाकर पुष्पों को बिखेर दिया करता था | अब सेवा धाम में नित नए नए डाक्टर आकर अपने सेवा देने के लिए तैयार रहते थे जहाँ तक पैसे की बात है पता नहीं कौन दान पात्र में गुप्त दान डाल दिया करता था | सेवा धाम के सारे कारोबार बिना बाधा के अनवरत चलते रहते थे | सेवा धाम नित्य नए नए प्रतिमान स्थापित कर रहा था | अब  डॉ  अजय व विजय को शहर में डाक्टर के रूप में नहीं भगवान के रूप में पूजा जाता था जैसे ही  डॉ  अजय व विजय  का सेवाधाम पर आगमन का समय होता था शहर वासी रोड के दोनों तरफ हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते थे, लोगों को लगता था की हम लोग डाक्टर के रूप में भगवान का दर्शन कर रहें हैं |

गोविंद प्रसाद कुशवाहा  
मो. नं. -9044600119

Saturday, November 11, 2023

दिखावे का दान


दिखावे का दान
 कुछ  विभाग में अधिकारियों की अपने मातहतों के बीच ऐसी हेकड़ी होती है कि उनको  सर्व समाज में भले ही न कोई जानता हो लेकिन जब वह ट्रेन कहीं जाते हैं तो उनको अलविदा करने के लिए उनके मातहतों की पूरी फौज ही स्टेशन पर जी हजुरी व पुर्साहाली  करने के लिए उपस्थित हो जाती है | ऐसे ही विभाग के एक बड़े अधिकारी थे रमेश साहब  जिनकी हेकड़ी व शक्त मिजाजी के कारण उनके मातहत उनसे कोसो दूर रहते थे, लेकिन जब वह ट्रेन से ड्यूटी इत्यादि पर कहीं जाते तो उनको स्टेशन पर विदा करने हेतु या यों कहे की कृपा पाने हेतु उनके मातहत स्टेशन पर पहुँच कर उनकी ललो चप्पो करना व आगे पीछे घुमना शायद अपना धर्म समझते थे |
  ऐसे ही रमेश साहब का एक बार बाहर जाने हेतु प्रोग्राम बना और जैसे ही रमेश साहब स्टेशन पर पहुंचे और अपने गाड़ी से उतारे तो एक भिखारिन ने उनकी ओर भीख की आशा से हाथ फैलाया किन्तु रमेश साहब ने इस भिखारिन को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ गए | उनके मातहतों की फ़ौज वी आई पी गेट पर उनका इंतजार कर रही थी किन्तु गेट नम्बर दो से जाने वाली ट्रेन नजदीक होने के कारण उन्होंने अपनी गाड़ी को दो नम्बर गेट पर रुकवाना ऊचित समझा | जैसे ही उनके मातहतों को पता चला कि साहब दो नम्बर गेट पर आ गए हैं, मातहतों की पूरी फ़ौज गेट नम्बर दो की तरफ मुड़ गई और साहब के आगे पीछे हो ली | इसी बीच भिखारिन ने जब देखा कि साहब के आगे पीछे आदमियों की पूरी फ़ौज है तो उसने भीख की आशा से मौका देखकर साहब के सामने जैसे ही हाथ फ़ैलाने के लिए आगे बढ़ी तबतक मातहतों की फ़ौज उसको रोकने के लिए और कुछ डाट डपट करने के लिए हा हा करते हुए आगे  बढ़ी तो रमेश साहब ने उन लोगो को रोका और अपने जेब से कुछ पैसे निकला और उसके हाथ में रखते हुए आगे बढ़ गए | उन्ही मातहतों में से कुछ साहब की प्रसंसा में गुड़गान करने लगे तो उन्ही में से एक  मातहत जो  गेट नम्बर दो पर साहब को भिखारिन को अनदेखा कर आगे बढ़ाते हुए देखा था, तो वह अपने मन ही मन में बुदबुदाया की देखो साहब ने दिखावे का दान कर अपना धर्म निभाया कैसे निभाया |

Sunday, October 22, 2023

योग से व्यापार

 योग से व्यापार

स्वामी श्यामानंद का नाम समाज में एक पहुंचे हुए योगी के रूप में प्रसिद्ध था । लोगों के अंदर एक आम धारणा थी कि जो रोग बड़े बड़े डाक्टर ठीक नही कर पाते हैं, उसे स्वामी जी अपने योग विद्या के द्वारा रोगियों को या तो योग करवाकर या फिर अपने वहां निर्मित दवाइयों से ठीक कर देते हैं। पता नही इन बातों में कितनी सत्यता थी यह एक शोध का विषय हो सकता है, किंतु आम जन में यही धारणायें बनी हुई थी कि बाबा एक से एक जटिल रोगों का इलाज बहुत ही आसानी से कर देते हैं।
इस धारणा ने समाज में एक ऐसा स्थान बना लिया था कि बाबा के योग कार्यक्रमों में हजारों की भीड़ होने लगी इसके लिए समाज का अमीर तबका, बाबा के नजदीक पंक्तियों में बैठने का स्थान पाने के लिए ज्यादा से ज्यादा शुल्क चुका कर अपने जटिल रोगों से छुटकारा पा लेना चाहता था। शायद लोगों को यह पता ही नहीं कि रोग के कारण उनकी सोच, उनकी जीवन शैली, उनका आचार विचार व्यवहार और कुछ कुछ बाहरी परिस्थितियों व कुछ प्रारबद्ध तो कुछ तो कुछ मनुष्य के दुर्भाग्य की उपज हैं। लेकिन इस व्यवसायिक जगत में कौन अपने सोच, जीवन शैली, आचार विचार व व्यवहार पर ध्यान दें, व्यक्ति यदि अपना आचार विचार व अपने व्यवहार को ही सही कर ले अपने जीवन में अधिकतर समस्याओं को आने ही नही देगा ।
बात जो कुछ भी हो किन्तु समाज में इस बात ने इतनी गहराई से स्थान बना लिया था कि बाबा एक से एक जटिल रोगों को अपने योग विद्या के द्वारा नही तो अपने दवाइयों से ठीक कर देंगे। इस सोच ने बाबा को कमाई का एक ऐसा अवसर प्रदान किया की बाबा की कमाई दिन दूनी व रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी।बाबा की इस कमाई में उनका अथक प्रयास, परिश्रम, वाक्य पटुता व समझदारी का अद्भुत मेल था। बाबा जगह जगह , बड़े शहर से लेकर छोटे शहरों में योग कार्यक्रमों को आयोजित करते, इन योग कार्यक्रमों में इतनी भीड़ होती की मानो एक नए तरह के मेले का दर्शन होता था। कुछ रोगी थे जो रोगों के छुटकारे के आशा में तो कुछ भविष्य में कोई रोग न हो इस आशा में योग कार्यक्रमों में शामिल होते थे। इन योग कार्यक्रमों की सफलता और बाबा की दवाइयों का अद्भुत प्रभाव को सुनकर कुछ उद्यमी व्यक्तियों को बाबा के साथ व्यापार का अवसर नजर आ रहा था। वो सोचते थे कि बाबा का ब्राण्ड नाम उनको और पैसा बनाने का अवसर प्रदान कर सकता है । वो बाबा के साथ मिलकर बड़ी से बड़ी कंपनियों की स्थापना करना चाहते थे। इस निमित वो बाबा को अपने बड़े बड़े कारखानों मे घुमाते थे और उसमें लगे मशीनों की विशेषता बताते थे। कोई उद्यमी बाबा को अपने कारखाने में घुमाने के लिए ले जाता तो वह अपने मशीनों के कार्य करने की क्षमताओं व इसके द्वारा किए जा रहे कार्यों को इतना विस्तृत से वर्णन करता था कि बाबा भी अचंभित से हो जाते व आश्चर्य प्रकट करते हुए ऐसा प्रदर्शित करते थे कि जैसे उन्होंने ऐसा पहली बार देखा हो। पता नही उनके इस प्रकार आश्चर्य प्रदर्शन आपके पीछे कितनी सच्चाई थी यह तो वही जाने किंतु ऐसा लगता था कि यह एक प्रकार से उन उद्यमियों को आमंत्रण था की आप और ज्यादा से ज्यादा अपने कारखानो में मशीनरी द्वारा तैयार किए जा रहे वस्तुओं के बारे में बताएं। बाबा की मनसा को भांप कर उद्यमी और एक से एक गूढ़ रहस्यों को बताते तथा होने वाले फायदों को गिनाकर बाबा को अपने साथ लेकर नए नए कारखानों का सपना अपने मन में संजोए जाते थे। किन्तु किसी के मन में क्या बात चल रहा है इसको जानना तो इतना आसान काम नहीं है। शायद हम सभी लोग कभी एक दूसरे की शत प्रतिशत मन की बातों को पढ़ लेते या जान जाते तो इस पूरी दुनिया के लोगों के व्यवहार का स्वरूप क्या होता इसको बता पाना इतना आसान काम नही है।,
बाबा को अपने योग कार्यक्रमों करते हुए महीने में एक से दो बार नए - नए कारखानों में घूमना उनके बारीकियों को समझने के सुअवसर मिल जाया करता था। इस तरह से भिन्न - भिन्न कारखानों में घूमना, मशीनों की कार्य करने की बारीकी को समझना, कार्य की उत्पादकता में बढ़ावा देने व वस्तुओं लागत में कम करने वाले तरीकों को समझना तथा उन मशीनों से होने वाले फायदो को देखने व अध्ययन करने का अवसर बाबा को बार बार मिल रहा था। बाबा के पास छोटा मोटा आयुर्वेदिक दावा बनाने का कारखाना था। यह कारखाना कुल ले देकर एक घरेलू उद्योग के रूप मे था, जिसमे कुल ले देकर रूढ़िगत तरीकों का ही आयुर्वेदिक दवा व छोटे मोटे घरेलू सामानों को बनाने में प्रयोग होता था। जो शायद ही बाजार में मांग की पूर्ति नहीं कर पा रही थी व बड़े-बड़े कंपनियों की तरह पैकिंग तथा प्रस्तुतीकरण भी नहीं कर पा रही थी।
देश के बड़े-बड़े उद्योगपति जो बाबा को अपने कारखाने में घूमाने ले जाते थे वह लोग बाबा से कई बार साथ में व्यापार करने की मनसा प्रकट कर चुके थे और बाबा के ब्रांड नाम का फायदा उठाना चाहते थे किंतु बाबा के मन में कुछ और ही चल रहा था। बाबा के पास अब नाम के साथ पैसा भी पर्याप्त था तथा एक सामान्य बुद्धि जो एक प्रबंधक के पास होनी चाहिए उससे बाबा भरपूर थे। प्रबंधक का काम ही क्या है सही काम के लिए सही आदमी का चुनाव करना कार्य पर लगाना, सही समय पर सही निर्णय को लेना, बाजार के उतराव चढ़ा पर ध्यान देना, बाजार में हो रहे परिवर्तनों पर ध्यान देना, जनता के मूड और रुचियों पर ध्यान देना, और जो सबसे जरूरी गुड़ होना चाहिए वह था साहस इसका बाबा के पास अथाह भंडार था।
बाबा को विभिन्न कम्पनियों में घूमने व उनके प्रबंधकों व मालिकों से मिलने के कारण एक बृहद अनुभव का भंडार था ही ,उन्होंने इन अनुभवों और अपने साहस के बल पर एक बड़ी कम्पनी स्थापित करने का फैसला किया। कुछ ही महीने में कम्पनी बनकर तैयार हो गई उसमे उत्पादन शुरू हो गया जो लोग अभी तक बाबा के साथ मिलकर कम्पनी खोलना चाहते थे व साथ साथ ब्यापार करना चाहते थे अब बाजार में बाबा उनके प्रतिद्वंदी थे। अब बाबा का व्यापार दिन दूना रात चौगुना प्रगति पर था, उनके प्रतिद्वंदि जो पहले बाबा को अपने कारखाने व मशीनों की बारीकियों को बताने में अपना बड़प्पन दिखाने का प्रयास करते थे और बाबा के साथ व्यापार की आशा करते थे, अपने हाथों को मल रहे थे और एक जबरदस्त प्रतिद्वंदिता के साथ अपना अस्तित्व बचाने का प्रयास का रहे थे।

गोविंद प्रसाद कुशवाहा
मो.नं.-9044600119