Saturday, September 28, 2019

लाचारी

मंगल की कुल दो बिगहे खेती थी। वहीं उसके परिवार के गुजर बसर करने का आधार था। उसी खेत से फसल उपजाता और जो उपज पैदा होती वही परिवार का खर्च, रिश्तेदारी निभाने का जरिया था, उसी से बच्चों के स्कूल का शुल्क व उसके परिवार के तन पर दो कपड़े का माध्यम था। इसके अवाले वह फुर्सत के दिनों में मेहनत मजदूरी कर के अपने परिवार कि आर्थिक स्थिति तो सुधारना चाहता था। लेकिन वह चाहता था कि उसके ऊपर से काश्तकार का ठप्पा हट कर मजदूर का ठप्पा न लगा जाए इसके लिए वह शहर के अड्डे पर जाकर खड़े हो कर किसी सेठ साहूकार, छोटे बाबू, बड़े बाबू ,छोटे साहब, बड़े साहब के इंतजार में खड़ा रहता कि कोई आए और उसे अपने वहां काम पर ले चले पर कभी काम मिलता था तो कभी नहीं। हालाकिं इस तरह की मेहनत मजदूरी का काम वह अपने गांव में भी कर सकता था किन्तु इससे उसका काश्तकार का ठप्पा हट कर मजदूर होने का ठप्पा लग जाने का डर था। इससे समाज में भद्द पिटती और शायद बिरादरी में हेय दृष्टि से उसे देखा  जाता इस कारण से जब मेहनत मजदूरी करने की मोहलत बनती तो वह शहर को चला जाय करता था। वहां उसे जनता ही कौन था वैसे भी वो सुन रखा था कि बड़े बड़े  शहरों में लोग एक दूसरे को बहुत कम जानते हैं और यदि जानते भी हैं तो एक दूसरे के कामों में दखअंदाजी नहीं करते, एक तरह से बोला जाए तो बड़े बड़े शहरों में अगर लोग एक दूसरे को जानते भी हैं तो भी एक दूसरे को अक्सर नजर अंदाज ही करते हैं, किन्तु यदि उनका आप से कोई काम पड़ जाए तो वो ऐसे मिलते हैं जैसे लगता है कि उनसे बड़ा हितैसी आप का कोई हो ही नहीं सकता।
  वैसे मंगरू तथा उसके जैसे गरीब परिवार का जीवन जैसे तैसे चलता रहता है। वैसे गरीबों के जीवन हमेशा एक न एक समस्या  बना रहता है। एक समस्या से निकले नहीं की दूसरी समस्या मुंह बाये खड़ी है। एक तरह से समझिए कंगाली में हमेशा आंटा गीला बना रहता है। मंगरू जैसे अनगनित परिवार होंगे जिनके पास एक बीघे, दो बीघे की खेती होगी या जिनके पास एक धुर भी खेत न होगा वो सभी अपने परिवार का जीवन यापन करने के लिए कुछ अपना खेत तो  कुछ बटाई पर खेत लेकर जैसे तैसे मेहनत मजदूरी करते हुए अपने परिवार का जीवन यापन करते रहते हैं। इनके जीवन में कोई एक अनहोनी निर्णय जो सरकार या प्रशासन के द्वारा कर दिया जाय जो इनके हित में न हो वो उनको किस स्तर का नुकसान पहुंचा देता है। यह बात वहीं जान सकता है जो इस तरह का जीवन जीता होगा।                 
  अपना देश एक ऐसा देश  है जो हमेशा चुनाव के मूड में दिखाई देता है।एक  चुनाव हुआ नहीं कि दूसरा चुनाव सिर पर दिखता है। चुनाव हुआ एक सरकार गई दूसरी सरकार आई।
  इधर सरकार बदली और उधर सरकार की नीतियां इस तरह बदली हैं जैसे गिरगिट अपना रंग बदलता है। इस तरह एक प्रदेश में चुनाव होने पर और सत्ता परिवर्तन होने पर सरकार ने यह निर्णय लिया कि अब प्रदेश में गोवंश के तस्करी व काटने पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध कर दिया गया है। जो कोई भी गोवंश को किसी भी तरह से क्षति पहुंचता हुआ पाया जाएगा उसके विरूद्ध कानूनी कार्यवाही की जायेगी। शुरू में तो गोवंश को क्षति पहुंचाने वाले व तस्करी करने वाले व्यक्तियों ने इस बात को बहुत ही हलके में लिया और चोरी छुपे गोवंश की क्षति पहुंचाया व तस्करी जैसे कुछ कार्य किए भी किंतु जैसे ही यह बात सरकार के संज्ञान में आई सरकार ने  क्षति पहुंचाने वाले व तस्करी करने  वालों को इतना कठोर दण्ड दिया कि वह समाज के लिए एक सबक का कार्य करने जैसा था। अब कोई भी गोवंश को क्षति पहुंचाने व तस्करी के बारे में सोच भी नही पा रहा था।
  किन्तु किसी भी अच्छे व बुरे कार्य का परिणाम कुछ दिनों के बाद परिलक्षित होते हैं। इस कानून के लागू करने व घटना के बाद भी यही हुआ।  यह निर्णय जिन समूह के लोगों को आकर्षित करने के उद्देश्य से लिया गया था सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों को क्षति पहुंचाने का कार्य कर रही थी। अब छुट्टा गोवंश की संख्या दिन प्रतिदिन सड़कों पर बढ़ती जा रही थी। इनमें से ज्यादा संख्या ऐसे बछड़ों की थी जो फ्रीजियन,जर्सी आदि के प्रजाति के थे। जिनका उपयोग खेती बारी के कामों में न के बराबर था। इसके साथ ही बहुत से ऐसे दुधारू जानवर भी थे जिन्होंने दूध देना बंद कर दिया था। उनको मंगरू जैसे सीमांत किसानों को पालना मुश्किल हो रहा था, ऐसे परिवार अपने परिवार का खर्च किसी व्यवस्था से चलावे की इन बकेना ( जो गोवंश दूध नहीं देते हैं ) गोवंश को बाध कर खिलाए पिलाएं। अब ये छुट्टा गोवंश दिन भर इधर उधर कहीं खलिहान में तो कहीं सड़क के बीच में तो कहीं किसी पेड़ के छांव दिन गुजारते अगर मौका मिल गया किसी के खेत में लहलहाती फसल पर धावा बोल दिया।
  तो रात उनकी किसी किसान के खेत में लहलहाती फसलों में गुजरती थी और जब उनका पेट भर जाता तो रोड उनका आश्रय स्थल हुआ करता था। पशु सड़क के बीच में बैठ कर  पांगुर करते। इस तरह किसानों के नुकसान पहुंचाने के साथ  वो सड़क के बीच में बैठ कर एक दुर्घटना को दावत ही एक तरह से देते रहते थे। कोई कितना भी सतर्क हो कर अपने वाहन को चला रहा हो यदि उससे जरा भी ध्यान में भटकाव हुआ या सावधानी हटी दुर्घटना को कोई रोक ही नहीं सकता था। इस तरह दिन प्रतिदिन दुर्घटनाओं का होना एक आम बात हो गई थी लेकिन सरकार के कानों पर जू तक नहीं रेंग रहा था। इस तरह अभी तक जो किसान अपने खेतों में फसलों की बुवाई करके अपने और कामों पर ध्यान केंद्रित करता था। अब उसका ध्यान दिन रात अपनी खेतों में लगा रहता था कि कहीं कोई छुट्टा या बहेला पशु न खेत चर रहा हो, किसी किसी काश्तकार का तो रात अपनी खेतों की रखवाली में ही बीतता था। इसके बावजूद भी पशु खेत के किसी न किसी कोने पर चर जाया करते थे। पैसे वाले किसान अपनी खेतों को कटिले तारों से रुनवा रखे थे,इससे भी पूरी तरह से बचाव न हो पा रहा था।पशु किसी तरफ से बाड़े को गिरा कर या किनारे से खेतों को चर जाया करते थे। अभी तक खेतों की रक्षा केवल नीलगाय तथा बहेला  पशुओं से करना होता था, अब इसमें छुट्टा गोवंश व छुट्टा मवेशी भी जुड़ गए थे। अब खेतों के नुकसान के बारे में कहना ही क्या था। सीमांत किसान बिल्कुल बर्बादी के कगार पर थे।पहले समय मिलने पर मेहनत मजदूरी कर के दो पैसा घर में लेते आते थे। अब तो मौका मिलना ही कहां था। दिन भर सोहनी व खेत की निराई व गुड़ाई का कार्य तो रात में खेतों की रखवाली का कार्य रहता था इसी दौरान कुछ समय मिला तो झपकी ले लेते थे। कभी कभी छोटे काश्तकार यह विचार भी करने लगे थे कि खेती बाड़ी को छोड़कर मेहनत मजदूरी ही किया जाय लेकिन इससे समाज  बिरादरी में इनके ऊपर मजदूर का ठप्पा लग जाने का डर था, और जो समाज में हेठी होती उसकी बात ही अलग थी। यही डर उनको खेती बाड़ी छोड़ने व मेहनत मजदूरी करने से रोकती थी।
   सरकार की बात का क्या कहना, सरकार को तो कोई समस्या दिखी सरकार ने एक नया कानून बना दिया। कानून को लागू करना अधिकारी से लेकर कर्मचारियों तक का काम है, इस नए नियम कानून से समाज को क्या लाभ हो रहा है ये बाद में देखा जाएगा सबसे पहले जनता में ये संदेश जाना चाहिए कि सरकार जनता के भलाई के लिए, हित के लिए कितनी चिंतित है। इस तरह की बातो को ध्यान में रखकर  सरकार ने यह घोषणा किया की गोवंश व आवारा पशुओं के लिए जिले में जगह - जगह बाड़े का निर्माण किया जाएगा। इस तरह सरकार की तरफ से इस मद में जल्दी ही बजट भी से दिया गया, और बहुत ही तेज़ी से गोशाला तथा बाड़े के निर्माण कार्य भी शुरू कर दिया गया। जल्दी ही छुट्टा गोवंश और आवारा पशुओं को लाकर गौशालाओं में रखा जाने लगा। लेकिन किसी भी जगह को एक सीमा होती है।यही इस मामले में भी हुआ यह ब्यवस्था  ऊंट के मुंह में जीरे के समान था। छुट्टा गोवंश और आवारा पशु दिन प्रति दिन बढ़ते जाते थे। आम आदमी, और सीमांत किसानों की समस्याएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। अगर इन गौशालाओं और बाड़े से फायदा किसी को हो रहा था तो वहां देख रेख हेतु पर लगाए गए अधिकारी और कर्मचारियों अगर उनके बाड़े में एक सौ पशु थे तो पशुओं कि संख्या को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता था और उसी के अनुसार बिल का भुगतान कार्यालयों से लिया जाता था। आम किसान और जनता लाचार थी। शायद उसके भाग्य में लाचारी ही लिखी थी कि सरकार किसी की भी हो उसे इस तरह नहीं तो उस तरह पीसना है। मंगल भी उन लाचार किसानों में से था जो छुट्टा, आवारा पशुओं से अपने खेतों की रक्षा नहीं कर पा रहा था वो चाहे कितना रतजगा करता हो लेकिन खेतों को बचा पाना मुश्किल  पा रहा था। खेत में लगे फसल को बचाने की चाहत ने मेहनत मजदूरी से भी हाथ धो बैठा था। इस लाचारी पर विवश होकर कभी ईश्वर को कोसता तो कभी सरकार को अन्त में एक समय ऐसा भी आया जब वह अपनी पत्नी से विचार विमर्श करके खेत में खड़ी फसल को   छुट्टा, आवारा पशुओं के हवाले करके मेहनत मजदूरी करने के लिए शहर को प्रस्थान कर लिया।इस विचार के साथ की इज्जत जाय तो जाय, हेठी  हो तो हो कम से कम जिंदगी में कुछ सकूं तो आयेगा। इस हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी एक - एक पैसे के लिए मोहताज बने रहना सब तरह का परिश्रम करने के बाद भी लाचार बने रहना से तो अच्छा है कि मेहनत मजदूरी करके अपना अपने परिवार का जीवन यापन करना।

Saturday, August 31, 2019

          आस्था

        दुनिया में मनुष्य अपना व्यवहार बनाने सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने वह समाज में अपने को सर्वमान्य बनाने के लिए क्या-क्या नहीं प्रपंच करता है। यह दुनिया एक कर्म क्षेत्र है । कर्म क्षेत्र के आड़ में आडंबर को उसका आवरण बनाकर लोग अपना फैलाव  किस तरह से करते हैं। यह  लोगों के व्यक्तित्व व व्यवहार पर निर्भर करता है, कोई विभिन्न सामाजिक कार्यों का आयोजन इस तरह से करता है कि लगता है कि वह कितना समाज के हित में कार्य कर रहा है, तो कोई सामाजिक कार्यों में इतनी तन्मयता से  भाग लेता है कि लगता है जैसे उसने समाज सेवा का व्रत लिया है। किंतु ऐसे लोगों का अंतर्मन में क्या भाव हैं यह वही जानते होंगे या ईश्वर ही जानते होंगे।
      ऐसी ही प्रसिद्धि की चाह रखने वाले रमेश बाबू अक्सर सामाजिक कार्यों का आयोजन करते रहते थे। जैसे कभी कन्या विवाह का आयोजन तो कभी विकलांगों के लिए तिपहिया साइकिल वितरण का आयोजन। चाहे इन आयोजनों में रमेश बाबू का एक भी पैसा नहीं लगता हो लेकिन नाम तो खूब होता था कि रमेश बाबू ने कन्या विवाह का आयोजन किया तो कल के दिन विकलांगों के लिए तिपहिया साइकिल वितरण का आयोजन किया। इसके लिए रमेश बाबू ने कई एनजीओ का पंजीकरण  करवा रखा था,जिससे पैसे की व्यवस्था हो जाया करती थी। एक तरह से कहे तो यह एनजीओ ही उनके परिवार के खर्चे का मुख्य साधन था। इसके अलावा अपने सामाजिक संपर्क से वह विभिन्न विभागों में थोड़ा दलाली का भी कार्य कर लिया करते थे। जिसमें ट्रांसफर पोस्टिंग  कराना और समय - समय पर  किसी के प्राइवेट कार्यों को करवाना भी एक तरह से उनका आमदनी का जरिया था । तो दूसरी तरफ से समाज कल्याण की दृष्टि से उनका धर्म था। अगर किसी तरह का फौजदारी हो जाए या मारपीट या अन्य किसी तरह के पुलिस के लफड़े का कोई केस हो जाएं तो उनके लिए चार चांद की स्थित हुआ करती थी जिसकी ताक में वह सदैव रहते थे साथ साथ पुलिस वाले भी रमेश बाबू के इंतजार में रहते थे कि रमेश बाबू कोई केस लेकर आए और चार पैसे अतिरिक्त आमदनी का जरिया बने। रमेश बाबू तमाम सामाजिक मामलों को इस तरह समय समय पर निपटाते  रहते, इससे उनकी सामाजिक पूछ तो बढ़ती ही और मामले को बढ़ा चढ़ाकर समाज में  बताते रहते थे कि  देखो मैंने कम पैसे में ही तुम्हारा काम करा दिया नहीं तो यह बहुत ही कठिन काम था जिसको कि आसानी से सुलझाया नहीं जा सकता था । इस मामले के निराकरण में बहुत ही पैसा खर्च होता। गरीब गुरवे किसी तरह से मामले के निपट जाने पर उनसे कृतज्ञता जताने हेतु  हाथ जोड़ते और उनको आशीष वचन देते हुए विदा लेते। लेकिन लगता है कि हर आदमी के दिमाग में यह बात रहती थी कि रमेश बाबू भी कुछ ना कुछ दलाली खाते रहते हैं, लेकिन उनको अपना मामला निपटाने से मतलब था। वह मामले के निपट जाने पर रमेश बाबू से कृतज्ञता जताते हुए व आशीष वचन देकर विदा लेकर अपने घर को चलते हुए शायद मन में संकल्प लेते थे कि ईश्वर बचाए थाना पुलिस से।
      इस तरह के कार्यों से रमेश बाबू की प्रसिद्धि दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। समाज में जानने वालों के बीच में इस बात का  फैलाव हो रहा था कि रमेश बाबू बहुत ही सामाजिक प्राणी है जो सबकी मदद में सदैव ही तत्पर रहते हैं।जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी कोई अपरिचित भी रमेश बाबू के पास किसी काम को लेकर पहुंच जाता था और उससे रमेश बाबू को उससे दो पैसे की आशा दिख जाए तो वह कार्य करने को उद्दत हो जाय करते थे। रमेश बाबू अपनी स्वीकार्यता समाज में बनाने के लिए तरह तरह के उपायों पर अमल करते रहते थे। इसी उधेड़ बुन में लगे रहने के दौरान उनकी सामान्य बुद्धि ने उनको सलाह दिया कि आप अपने घर पर एक सुंदरकांड के पाठ का आयोजन करें और जिसमें मोहल्ले के लोगों को साथ साथ दोस्त यारों को भी आमंत्रित करें। यह दो से ढाई घंटे का पाठ होगा जो जल्दी समाप्त हो जाएगा और इसी के साथ एक छोटे से खानपान की भी व्यवस्था कर ली जाए जो कम पैसे में हो  जाएगा। इससे समाज में और स्वीकार्यता बढ़ेगी और दो चार नये लोगों से परिचय व मेलजोल बढ़ेगा। रमेश बाबू के इस आयोजन में पूजा-पाठ व धार्मिक उद्देश्य कम था, अपने को समाज में और स्थापित करने का उद्देश्य ज्यादा था। ईश्वर तो मनुष्य के भावों के गुलाम हैं मनुष्य जिस भाव से बुलाता है वह उसी भाव से उसके द्वारा किये जा रहे पूजन कार्य में शामिल हो जाते हैं।
    रमेश बाबू ने शुभ मुहूर्त देखकर सुंदरकांड के पाठ का आयोजन निश्चित किया और अपने हित मित्र व मोहल्ले वालों को समान्य औपचारिक तथा अनौपचारिक मिलन पर ही आमंत्रित करते जाते थे। आमंत्रित करते समय वह इस  बात का विशेष ध्यान रख रहे थे कि मित्रों के अलावा पास पड़ोस के जिन व्यक्तियों को आमंत्रित किया जा रहा है,उनका  सामाजिक स्तर उनके बराबर है कि नहीं है और भविष्य में उनसे काम पड़ सकता है कि नहीं और कौन कौन से व्यक्ति भविष्य में उनके लिए लाभदायक हो सकते हैं।
    जहां इस तरह के लाभ हानि के भावों को लेकर पूजा पाठ का आयोजन किया जाए वह पूजा पाठ न होकर एक तरह से शुद्ध रूप से व्यापार ही था। ऐसे में ईश्वर कि उपस्थिति की कल्पना करना अपने को धोखा देना ही था। इस पाठ के आयोजन में दूर दूर के हित - मित्र ,दोस्त - यार   व मुहल्ले के विभिन्न लोगों को आमंत्रित किया गया। अगर मुहल्ले के किसी एक व्यक्ति को नहीं आमंत्रित किया गया तो वह था मंगरू को उनके मकान के बगल के खाली प्लाट में झोपड़ी डालकर रहता था और मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का जीवन यापन करता था। मंगरू ने जब से ये सुना था कि बाबू जी सुन्दरकाण्ड का पाठ करावने जा रहे हैं , तब से मन ही मन इतना मुदित था कि मैं तो बाबूजी के पड़ोस में रहता हूं, मुझे तो बाबू जी अवश्य बुलाएंगे। मै अपने गांव में बहुत से रामायण व सुंदरकांड के पाठ में शामिल हो चुका हूं। वहां इसका गायन भी कर चुका हूं मुझे यहां पर बाबूजी के वहां अपने हुनर को दिखाने का मौका मिलेगा।जब बाबू जी के वहां सुन्दरकाण्ड का पाठ लय में करूंगा तो सुननेवाले  भी चकित हो जाएंगे और मन ही मन मेरी प्रशंसा करेंगे और शायद यह भी विचार करेंगे कि चलो अगली बार मंगुरू को अपने वहां सुंदरकांड के पाठ में बुलाऊंगा। यह खूब लय से सुन्दरकाण्ड का पाठ करता है। मंगरू अपने मन में कई तरह के ख्याली पुलाव पाल रहा था। जैसे जिस दिन सुंदरकांड का पाठ होगा उस दिन काम से एक घंटा पहले ही मालिक से बोल कर  छुट्टी ले लूंगा कि आज सुन्दरकाण्ड के पाठ में शामिल होना है और घर पर जाकर खूब साफ सुंदर कपड़ा पहन कर सुंदरकांड के पाठ में शामिल होऊंगा क्या हुआ मजदूर हूं तो इसका पूजा पाठ में कौन सा भेद इसमें तो सब एक बराबर होते हैं। इसी तरह के कई खयाली पुलाव मंगरू पाल- पाल कर खुश हो  रहा था।जैसे जैसे दिन नजदीक आ रहा था मंगरू देख रहा था कि  बाबू सबको सुंदर काण्ड पाठ हेतु  आमंत्रित करते जा रहे हैं किंतु उसके द्वारा सुबह का प्रणाम बोलने पर भी हाल चाल पूछने के अलावा सुन्दरकाण्ड में शामिल होने हेतु एक शब्द भी न बोलते हैं। मंगरू को अभी भी आशा थी कि बाबू उसको अवश्य सुंदरकांड पाठ के लिए आमंत्रित करेंगे क्योंकि वह उससे सुबह हालचाल जरूर लेते थे सामने पड़ने पर। धीरे धीरे वह  शाम भी आया जिस दिन शाम को सुन्दरकाण्ड होना था, मंगरू को रमेश बाबू को नहीं बुलाना था तो उन्होंने नहीं बुलाया । इस समाज में आदमी की इज्जत ना तो जात से है ना तो धर्म से है। उसकी पहचान है उसकी आर्थिक स्थिति, पद प्रतिष्ठा से हैं, किसी की बुरी स्थितियों में आप कितनी सहायता कर सकते हैं उससे है। यहां तो मंगरू एक मजदूर था उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी होने की कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। वह जहां भी मजदूरी करता था  यदि उसका मेहनताना एक दिन  का ₹300 बनता था तो आदमी उसमें भी कटौती करके ही उसको देना चाहता था। मजदूर की उच्च समाज या  उच्च मध्यवर्गीय समाज या फिर मध्यवर्गीय समाज में इज्जत ही क्या वह तो वैसे ही मजे से दूर है। मंगरू का भ्रम टूट चुका था, किन्तु मंगरू की भी श्रद्धा व आस्था पाठ में इतनी प्रबल थी कि वह भी पाठ वाले दिन खूब अच्छी तरह से नहा धुलकर व साफ सुथरे कपड़े पहन कर निश्चित समय पर बाबू के गेट के बगल में अपनी सुन्दरकाण्ड की पोथी लेकर पाठ करने लगा। जैसे लाउडस्पीकर की सुमधुर ध्वनि उसके कानों में पड़ती उसी धुन में खूब मगन होकर वह भी सुन्दरकाण्ड का सस्वर पाठ करता जाता था।वह पाठ करने में इतना तल्लीन था कि रमेश बाबू के वहां गेट से कोई आ जा रहा था तो मंगरू को पता ही नही चलता था। जबकि जो भी आदमी रमेश बाबू के वहां जाता था, मंगरू की तल्लीनता को देखकर उसकी भक्ति पर मुग्घ हो जाता था, और मन ही मन में उसकी भक्ति को प्रणाम करता था।मंगरू  की तल्लीनता और भक्ति लोगों को मन को झकझोर रही थी कि यदि रमेश बाबू अपने वहां बुला लेते सुंदरकांड पाठ में तो कोई उनकी हेठी  ना हो जाती अरे वह भी हम लोगों के साथ बैठ जाता। वह एक मजदूर है इस कारण से रमेश बाबू की नजरों में शायद उसको हम लोगों के साथ बैठने का अधिकार न था लेकिन उसके अंदर का भक्ति भाव हम लोगों से उच्च है। हम लोग तो केवल रमेश बाबू से अपना रिश्ता निभाने के लिए यहां आए हुए हैं। हम लोगों में से अधिकतर  का पाठ  तो केवल दिखावटी और स्वार्थ से भरा पाठ है हम लोगों का पाठ में आने का एक उद्देश्य यह भी है कि यदि किसी अकाज  की सुकाज में रमेश बाबू की जरूरत पड़ जाए तो वह भी हमारे लिए उपस्थित रहे जबकि मंगरु का पाठ  भक्ति आस्था, व विश्वास से भरा पाठ है।
    जितने भी बाहर से आने वाले आगंतुक थे वे मंगरू के पाठ से प्रभावित हुए बिना न रह पा रहे थे। वे लोग जैसे ही रमेश बाबू के घर के सुन्दरकाण्ड पाठ किए जा रहे कमरे में दाखिल होते और राम दरबार के सामने अपना आंख बन्द करके हाथ जोड़ते तो उनको एक अद्भुत दृश्य का दर्शन होता।उनको उस अद्भुत दृश्य में दिखता था कि प्रभु राम मंगरू के शिर पर हाथ फेरते हुए बोल रहें हैं कि भक्त तुम्हारी लगन मेरे में अनूठी है। ये मेरे भक्त जो तुमको को पूजा पाठ करते हुए और झूमते हुए मेरे में रमे हुए  दिखाईं दे रहे हैं, ये सब मेरी पूजा पाठ के लिए कम केवल एक दूसरे से स्वार्थ सिद्धि हेतु ज्यादा इकठ्ठे हुए हैं। इनमे से अधिकतर पैसे के दास हैं, अपनी सामाजिक पहुंच एक दूसरे तक करने हेतु यहां उपस्थित हैं।ये जितने भी पाठ में शामिल होने हेतु आगंतुक इस कमरे में प्रवेश कर रहें हैं उनके प्रणाम  करने की तरीके को देखकर मुझे हंसी आ रही है। वो ऐसा महसूस करा रहे हैं कि उनकी भक्ति मेरे में अपरम्पार है और जैसे लगता है कि उनसे बड़ा भक्त कोई और पैदा ही नहीं हुआ है। इनमें से कुछ ही भक्त हैं जो मेरी पूजा में मग्गन हैं, नही तो अधिकतर का मन पूजा में कम और अपनी माया वाली संसार में ज्यादा रमा है। इस पाठ वाले कमरे में भी। जब पाठ समाप्त हुआ और आरती पाठ आरम्भ हुआ तो सभी भक्त अपनी अपनी भक्ति के अनुसार प्रभु की आरती में लीन होकर प्रभु की आरती करने लगे और जैसे ही उन्होंने आँख बंद कर आरती गान करना शुरू किया। उनके बंद आंखों के पटल पर  प्रभु के रूप में मंगुरु ठीक प्रभु की भेष में उपस्थित थे।इस अद्भुत चमत्कार को देखकर सब आश्चर्य चकित थे सबने खूब मन लगाकर आरती की। आरती के पश्चात आरती लेने के दौरान जो व्यक्ति दस रुपए आरती के थाली में डालता था वह आज बीस से तीस डाल रहा था।आरती के पश्चात भक्तों के द्वारा चढ़ावे को गिना गया जो हजारों में था। रमेश बाबू कुछ पुलकित होकर बोले कि लगता है आज पूजा विशेष रूप से सफल हुआ है तभी आरती में इतना ज्यादा चढ़वा आया है। रमेश बाबू की बात को सुन कर कुछ लोग उनकी ही बातों में हां में हां मिलाते हुए बोले कि आखिर में पाठ किसके वहां हो रहा था। रमेश बाबू उन लोगों की बातों को सुनकर अपनी भावनाओं को छुपाते हुए बोले कि नहीं ऐसी बात नहीं है, आप का इस पाठ में इतनी संख्या में आना ही इस पाठ की सफलता का द्योतक है। आइए हम सभी लोग छत पर चलते हैं वहीं पर खाने की ब्यवस्था है। कुछ लोग आपस में खुसुर फुसुर कर रहे थे। यह देख रमेश बाबू उनके तरफ मुखातिब होते हुए बोले सोहन बाबू क्या बात है किस मुद्दे पर खुसुर फुसुर किए जा रहें हैं कोई विशेष बात हो तो हमे भी शामिल करें,नहीं कोई विशेष बात नहीं है लेकिन एक विशेष बात पर आप से इसी समय हम लोग आप से चर्चा करना चाह रहे हैं। क्या जैसा हम लोगों को आरती के दौरान  भगवान का रूप धरे मंगरू का दर्शन हो रहा था वो आप को भी हो रहा था क्या। क्या सोहन बाबू आप भी क्या कल्पित बातें कर रहे हैं। तभी भक्तों के बीच से एक साथ कई आवाज आई , रमेश बाबू इसको कल्पित बात कह कर न टाले इतने लोग इस पाठ में उपस्थित हुए हैं सारे लोग कल्पित बात नहीं बोल रहें हैं। ये लोग वास्तविक बात बोल रहें हैं आप वास्तविकता को नकार रहे हैं। आप ही अपने मन को सच्चा करके बोलिए कि आप को आरती के दौरान ईश्वर के रूप में किसका दर्शन हो रहा था। देखिए मुझे भी प्रभु के रूप में मंगरू के ही दर्शन हो रहे थे लेकिन मेरे विचार था कि मंगरू मेरे घर के बगल में इस खाली प्लॉट में  झोपड़ी डालकर रहता और मै उसको पाठ में आमंत्रित न कर सका था शायद, इस कारण से वो मेरे ध्यान में आ रहा है। इसी कारण से मै इस बात को बहुत तूल न दे रहा था। लेकिन आप सभी लोग एक ही बात का जिक्र कर रहे हैं तो जरूर ही मंगरू की भक्ति हम लोगों से उच्च कोटि की होगी। इस कारण से प्रभु की उस पर विशेष कृपा होगी या फिर प्रभु ने ये लीला की हो हम सब को सीख देने हेतु। हालांकि मंगरू प्रतिदिन मुझे सलाम बंदगी करता था किन्तु मैंने पाठ में इस लिए नहीं आमंत्रित किया था कि एक मजदूर आप लोगों के साथ बैठे तो आप लोगों की हेठी होगी।हालांकि अब मुझे महसूस हो रहा है  की पूजा पाठ में इस तरह का विचार एक मूर्खतापूर्ण सोच व छोटी सोच का ही परिचायक था। आइए अब इस मुद्दे पर विचार करने से कोई लाभ नहीं है। चलिए अब छत पर चलते हैं और  कुछ भोजन की व्यवस्था है, भोजन करते हैं।
    तभी भक्तों के बीच से एक आवाज आई रमेश बाबू अब और आगे कोई गलती न करें अभी इसी समय चलिए मंगरू से माफ़ी मांगते हैं कि हम लोग आप को पाठ में  बुला न सके, यह हम लोगों के द्वारा एक मूर्खतापूर्ण निर्णय का परिणाम है। आईए आप हम लोगों के साथ शाम का भोजन करिये और हम लोगों को कृतार्थ कीजिए। अगर आप ऐसा करेंगें तो आप की हम लोगों पर बड़ी कृपा होगी। यह बातें इतनी आदर्श युक्त थी कि रमेश बाबू के मुख से हां यां ना के कोई भी शब्द नहीं फूट पा रहे थे। लेकिन भगवन के कृपा की चाहत या फिर कहें जनता के निर्णय में ईश्वर का आदेश है। यह समझ कर रमेश बाबू सभी लोगों के साथ गेट से बाहर निकल कर मंगरू की झोपड़ी की तरफ बढ़े तो लोगों ने देखा मंगरू अपनी झोपड़ी में भगवान को भोग लगा रहें हैं। यह दृश्य बड़ा ही मार्मिक व अद्भुत था, यह एक भक्त और भगवान के मिलन का अद्भुत दृश्य था। जो अपने वहां आए हुए इतने लोगों से बेखबर था। भोग लगाने के बाद जैसे ही वह  प्रसाद लेकर बाहर बाटने जाने को हुए देखतें हैं कि भक्तों की भीड़ उनके सामने खड़ी हैं।यह देखकर वह हक्का बक्का, हत बुद्धि से खड़े हो गए। फिर अपने को सम्हालते हुए बोले आइए बाबू आप लोग बाहर इस दीवाल पर  ही बैठिए और कुछ मेरे पास आप लोगों बैठाने के लिए कुछ नहीं है। ये भोग का प्रसाद है इसे आप लोग ग्रहण करें।सभी लोगों ने थोड़ा थोड़ा प्रसाद ग्रहण किया। इसके पश्चात रमेश बाबू मंगरू के तरफ मुखातिब होते हुए बोले हम सभी लोग आप को अपने साथ भोजन करने के लिए आमंत्रित करने आए हैं। अब तक मुझसे जो भी गलती हुई उस अपने दिल से निकाल फेकिए और चलिए हम लोगों के साथ भोजन करिए। अब नकारने वाली कोई भी बात न बोलिएगा बस हम लोगों के ऊपर इतनी ही कृपा करियेगा। यदि आप  हम लोगों के साथ भोजन करते हैं तो हम लोगों के ऊपर आप की महान कृपा होगी।
    बाबू मैंने भगवान के सामने ये भोग लगा रखा है ये ही अभी ग्रहण करूंगा। आप लोग भोजन करें, इस अनुग्रह के लिए आप लोगों को बहुत बहुत धन्यवाद। मंगरू का बात समाप्त होते ही रमेश बाबू भक्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोले कि यदि आप लोगों की भी सहमति हो और मंगरू की भी सहमति हो तो इस भोग को भोजन में मिलाकर सभी लोग साथ में इस भोग को ग्रहण करें। भक्तों की तरफ से सहमति की आवाज आई तो रमेश बाबू ने मंगरू की तरफ मुखातिब होते हुए बोले कि अब आप इसके आगे कुछ न बोलिएगा। मंगरू अब चुप चाप खड़े हो गए,जैसे उन्होंने अपनी सहमति दे दी हो। रमेश बाबू ने भोग वाले प्रसाद को उठाया और मंगरू को साथ में लेकर सारे भक्त छत की तरफ बढ़े भोजन में भोग वाले प्रसाद को मिलाया गया। रमेश बाबू , मंगरू की तरफ बढ़े और उनको पहले भोजन करने का आग्रह किया। बाबू पहले आप लोग भोजन ग्रहण करें इसी में इस भोज का सम्मान है। तभी भक्तों के बीच से आवाज आई पहले आप शुरुआत करें तभी यह पाठ व भोज सफल होगा। अब मंगरू को कुछ कहते न बना वो रमेश बाबू के साथ आगे बढ़े और थोड़ा सा खाना लेकर किनारे हो गए। अब सारे भक्त भोजन लेकर भोजन करना शुरू कर चुके थे।सभी लोग अपार आनंद का अनुभव कर रहे थे। अब सारे गीले शिकवे दूर हो चुके थे, यह देख शायद ईश्वर भी इतने अभिभूत हुए की भंडारे में उपस्थित भक्तों के ऊपर हलकी हलकी पानी की दो चार बूदों को वर्षा कर अपने आशीष को वर्षा  दिया। सारे भक्तों को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे ईश्वर अपने झोली से फूलों की वर्षा कर रहे हैं।
   
 
    गोविंद प्रसाद कुशवाहा 

Sunday, August 11, 2019

जीत

        जीवन में हार जीत लगा रहता है और यह आदमी के धर्म-कर्म के साथ चलता रहता है कोई भी व्यक्ति यदि किसी हार से सीख ले कर पुनः अपनी सकारात्मक ऊर्जा के साथ सकारात्मक कार्य के लिए लड़ने के लिए तैयार हो तो शायद ईश्वर भी उसके अच्छे काम में सहयोग के लिए खड़ा हो
जातें है ।
विचार शाश्वत चलने वाली एक प्रक्रिया है दो विभिन्न विचारों से युक्त एक देश की दो पार्टियां चुनाव मैदान में थी दोनों को लगता था कि उनके अपने-अपने विचार उत्तम हैं दोनों पार्टियां प्रदेश की विधानसभा चुनाव में आमने-सामने थी इन प्रदेशों के शासक दल अपने किए गए कार्यों के बदौलत सत्ता में वापसी की आशा में थे तो दूसरी तरफ विपक्षी पार्टी साम ,दाम ,दंड, भेद से किसी भी प्रकार, किसी भी नीति से सत्ता में आना चाहती थी । उसने अपने घोषणा पत्र में तमाम ऐसी लोकलुभावन घोषणाओं को शामिल किया  कि आम जनता उसके प्रभाव में आए बिना नहीं रह सकी जबकि शासक दल अभी भी अपने अच्छे काम के बदौलत सत्ता में बने रहने की आशा पाले हुए था। निर्धारित तिथि को मतदान व मतगणना के पश्चात परिणाम सबके सामने था। अच्छे किए गए कार्यों पर भी सत्ताधारी  दल सत्ता से बेदखल हो चुकी थी तथा जनता को विभिन्न लोकलुभावन घोषणाओं से लुभाने वाली विपक्षी पार्टी सत्ता का स्वाद चखने के लिए विजय पताका लहरा रही थी । सत्ताधारी  दल के लिए यह एक सबक था मनन करने का समय था । मनन के दौरान कुछ विचारको ने अपने-अपने विचार रखे की यह पूरी दुनिया एक व्यापारिक क्षेत्र है यहां पर उसी व्यापारी का व्यापार सफल है जो अच्छा सामान अच्छे रेट पर बेचने के साथ-साथ समय-समय पर कुछ न कुछ गिफ्ट कुछ ना कुछ छूट का प्रावधान करके तथा इस तरह की योजनाएं समय-समय पर चलाता रहता है। यह एक विचार था तो उसी समूह के कुछ दूसरे विचारको का विचार थोड़े बदले रूप में था दूसरा विचार था कि अगर अच्छे कर्म करते हुए भी यदि इच्छित वस्तु प्राप्त नहीं होती है तो समझिए कि ईश्वर ने आपके लिए कुछ और  अच्छा बना रखा है बशर्ते कि आप अपनी योजना परिस्थितियों और विरोधियों के चाल को ध्यान में रखकर बनाएं और शुद्ध मन से कर्म पथ पर आगे बढ़ते रहें तो जीत आपकी अवश्य होगी इस प्रकार तमाम योजनाओं और कर्म पथ पर विचार करते हुए सभा विसर्जित कर दी गई और भावी योजनाओं व चालों के बारे में शीर्ष पर बैठे हुए पार्टी के श्रेष्ठ नेतृत्व को बता दिया गया।
        श्रेष्ठ नेतृत्व को  आगे का निर्णय लेने के लिए अधिकृत कर दिया गया पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर बैठे लोगों ने भी देश के केंद्रीय सत्ता में होने वाले भावी चुनाव के लिए पिछले चुनावों से सबक लेते हुए सत्ता को ध्यान में रखकर योजनाओं को मूर्त रूप देना शुरू किया अच्छे कार्य के साथ-साथ समाज में पीछे छूट गए वंचितों के लिए भेदभाव रहित योजना तो पहले से ही कार्यशील थी इसके अलावा गरीब किसानों के लिए अनुदान योजना इस तरह की अनेकानेक न्याय  योजना और लोकलुभावन योजनाओं की शुरुआत की गई इन योजनाओं की घोषणा जिस तत्परता से की गई इनको जमीन पर उतनी तत्परता से उतारा गया अर्थात लाभार्थियों को बहुत ही तेजी से लाभ मिलने लगा। अब क्या था सरकार के पक्ष में उच्च एवं मध्यम वर्ग तो पहले से ही खड़ा था उनको विश्वास था कि हमें अपने बिजनेस में नौकरी में घाटा नफा या नुकसान जो भी हो शायद यह सरकार के नीतियों के कारण हो लेकिन सरकार के जो भी निर्णय हैं वह सभी देश हित में हैं। सरकार के पक्ष में गरीब वर्गों का एक अच्छा खासा समूह पहले से ही था जो सरकार के नेक नियत और उसके द्वारा की जा रही गांव - देहात व तमाम मलिन बस्तियों में हो रहे विकास कार्यों के प्रभाव में था अब इन तत्कालिक अनुदान एवं कल्याणकारी योजनाओं ने इन तमाम गरीब वर्गों पर ऐसा प्रभाव डाला कि वे अपनी सभी जाति , धर्म, छूत - अछूत की दीवार को लाकर सरकार के पक्ष में खड़े हो गए। उधर विपक्षी दल भी मिल जुलकर तमाम लोकलुभावन योजनाओं व तमाम अनुदान योजनाओं की घोषणा करते जा रहे थे तथा सरकार में आने पर उनको लागू करने का आश्वासन दे रहे थे । अपने भाषणों में तथा तमाम प्रचार माध्यमों के द्वारा जनता के सामने यह अपनी योजनाओं को रखते थे तथा इसी के साथ सत्ताधारी दल पर तमाम चोरी बेईमानी को घोटाले का इल्जाम भी लगाते रहते थे लेकिन सरकार के मुखिया का व्यक्तित्व जनता के बीच में कुछ ऐसा था कि जनता सब कुछ मान सकती थी लेकिन मुखिया को चोर बेईमान व घोटालेबाज मानने को तैयार न थी । सरकार द्वारा लिए गए कुछ उचित व अनुचित निर्णय के प्रति जनता नाराज थी किंतु सरकार को चोर बेईमान और घोटालेबाज मानने को तैयार न थी और विपक्षी दल जितना भी इल्जाम लगाते थे वह उतना ही उनके लिए नुकसानदायक होता जा रहा था क्योंकि देश की अधिकतर जनता सरकार के मुखिया को चोर बेईमानों घोटालेबाज मानने को तैयार न थी। इसका परिणाम यह होता जा रहा था कि विपक्षी दलों द्वारा घोषित तमाम लोकलुभावन योजनाओं पर जनता ध्यान ही न दे रही थी। उसके दिमाग में यह बात बार-बार हथौड़े से प्रहार किए जाने वाले चोट के समान चोट कर रही थी चोट कि जब एक इमानदार आदमी के बारे में इस तरह की बातें प्रचारित की जा रही है तो सत्ता में आने पर अपनी लोकलुभावन घोषणाओं को लागू करेंगे अथवा नहीं इसमें भी संदेह है । इसके अलावा विपक्षी दलों का पिछला कार्यकाल भी उनके कार्य पद्धति का सबूत दे रहा था । इस कारण से जनता उनकी घोषणाओं पर आसानी से विश्वास नहीं कर रही थी और उसको संदेह और अविश्वास की नजरों से देख रही थी। इस तरह प्रचार के बीच में आखिर वह दिन भी आया जिस दिन अंतिम मतदान होना था। इस तरह मतदान समाप्त होने के पश्चात तमाम टीवी चैनलों ने अपने चैनल पर चुनाव परिणामों को लेकर डिबेट शुरू किया जिसमें सरकार के पक्ष में स्पष्ट बहुमत बताया जा रहा था किंतु विपक्षी पार्टियां व सरकार विरोधी समूह इन बातों का मजाक उड़ाते रहे । यह बात कुछ ऐसी थी जैसे शुतुरमुर्ग अपने ऊपर खतरा  देख कर अपना मुंह बालू में छुपा लेता है और सोचता है कि खतरा टल गया । निश्चित समय पर चुनाव परिणाम आया  जनता ने लोकतंत्र में अपना विश्वास जता दिया था विपक्ष चारों खाने चित हो गया था । देश की जनता का मतदान विकास के लिए था विकास जीत गया था । उन लोगों ने पुनः शासन संभाला जो देश के विकास के लिए सदैव तत्पर थे। विकास पुनः अपने रास्ते पर आगे बढ़ने लगा देश के विकास में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होने लगी।