Wednesday, October 11, 2017

jawab dehi ka abhav

मोहन और रमेश दो सेगे  भाई थे , दोनों की उम्र में दो साल का अन्तर था। मोहन ,रमेश दो साल बड़ा था। दोनों की पढाई एक साधारण से स्कूल में हुई थी।स्कूली पढाई के बाद दोनों ने आईटीआई कर लिया ,आईटीआई  के बाद दोनों को रोजी रोटी की चिंता सताने लगी जैसा कि एक की साधारणतया एक मध्य वर्गीय परिवार में होता है यदि लडके को सरकारी नौकरी मिल जाय तो समझो उसके जीवन में सोने पे सुहागा मिलने के समान हो जाता है। यानि की व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बढने के साथ - साथ किसी अच्छे घर में अच्छी लड़की से  उसके शादी विवाह की प्रवल सम्भावना हो जाती है। जहाँ कहीं भी उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी के लिए वैकेंसीज के बारे में पता चलता दोनों भाई फॉर्म भरते और अपनी योग्यता के अनुसार अच्छी तैयारी करके प्रतियोगी परीक्षा में बैठते। लेकिन क्या करियेगा जब दोनों भाई परिणाम देखते और अपना नाम न पाते तो मोहन बोलता हमें और परिश्रम करने की आवश्कयता है तो रमेश तंज कसता भइया पढाई से ही तो किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल नहीं हुआ जा सकता है इसके लिए हम लोगों को अन्य विधा को भी अपनाना चाहिए,जो हम लोगों के पास  नहीं है ।  लेकिन मोहन वास्तविक बातों को समझता था की अभी तैयारी को वो स्तर नहीं पाया था जिससे सफल अभ्यर्थियों में उसका नाम आ सके और  उसे महशूश होता था की  कही न कहीं तैयारी में कोई न कोई खोट अभी भी है।वह  इस बात को समझता था कि प्रतियोगी परीक्षा  में सफल होने के लिए कुछ इधर उधर की पैरवी मिल   जाय तो वो सफल होने की संभावना  बढ़ा देगा किन्तु उसका विश्वास था कि यदि मै  सब सही सही उत्तर देकर आऊंगा  तो कौन  सफल प्रतियोगियों की लिस्ट में से मेरा नाम  काट ही सकता है। उसका पूरा विश्वास था कि प्रतियोगी परीक्षा में  शामिल प्रतियोगीओं में से उत्तम को चुना जाता होगा इस बात को ध्यान में रख कर वो अपनी तैयारी में लगा रहता था और उसका विश्वास था कि  एक न  एक दिन  परीक्षा में सफल हो कर रहेगा। जहाँ मोहन को अपने पढ़ाई के द्वारा सफलता  प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने में विश्वास था वही रमेश का विश्वास था पैरवी पर दोनों अपने अपने विश्वास पर अडिग रहते हुए तैयारी में लगे थे। इस विश्वास पर अक्सर दोनों में बहस हो जाया कराती थी मोहन किसी तरह रमेश को पढ़ाई की तरफ मोटिवेट करना चाहता था लेकिन उसका विश्वास तो पैरवी पर बना था जो उसके मन को पढाई में एकाग्रचित न होने देता था। मोहन ,रमेश को  बार-बार समझाता रहता था कि अगर पैरवी हम लोगों के पास नहीं है तो उसके बारे में हम लोगों को सोचने की जरुरत नहीं है। इस तरह कभी बहस में कभी पढ़ाई में समय बीतता जा रहा था और इसी बीच रेलवे में एक असिस्टेंट लोको पायलेट की भर्ती के लिए वांट निकला जो दोनों भाइयों की शिक्षा में बिल्कुल ठीक बैठता था ,दोनों ने इस पद के लिए फॉर्म भरा और दोनों परीक्षा की तैयारी में जुट गए। जहाँ मोहन के दिमाग में परीक्षा में सफलता अपने परिश्रम के बल पर निर्भर था वही रमेश के दिमाग में सफलता बिना पैरवी के संभव नहीं थी दोनों भाई अपने अपने विश्वाश के साथ जुटे रहे परीक्षा का समय आया दोनों भाई परीक्षा में शामिल हुए। निश्चित समय पर   परीक्षा का परिणाम आया। जहाँ मोहन का नाम सफल प्रतियोगिओं की सूची में था वहीं रमेश की नाम का कहीं अता-पता ही नहीं था। हो भी कैसे जिसका विश्वास ये हो कि परीक्षा में सलेक्शन बिना पैरवी के नहीं हो सकता है, उसकी पढ़ाई और तैयारी तो केवल दिखावटी ही है क्योकिं उसका दिमाग उसकी पढाई में क्या सहयोग करेगा जिसने अपने दिमाग में पहले से ही ये भर दिया हो की परीक्षा में सलेक्शन बिना पैरवी के न होगा और हुआ भी वही जिसका जैसा विश्वास था उसका वैसा परिणाम आया।
     मोहन  ने अपनी नौकरी ज्वाइन किया तथा निर्धारित ट्रेनिंग करने के पश्चात अपना काम पुरे लगन व मनोयोग से करने लगे , यह देख उनके अधिकारी उनसे खुश रहते तथा समय के साथ या उनकी लगनशीलता को देखते हुए उनका प्रमोशन लोको पायलट में  कर दिया गया। इधर रमेश परीक्षा पर परीक्षा दिए जा रहा था किन्तु सलेक्शन का  नमो निशान न था। शायद इस संसार में मनुष्य का कल्याण उसी  विधि से होना है जिस विधि में उसका विश्वास हो , रमेश का विश्वास अपनी पढाई में कम पैरवी में ज्यादा था , बुद्धि पढाई में सहयोग न  कर पा रही थी क्योंकि  गलत विश्वास के कारण वो लगनशीलता अंदर से नहीं उत्पन्न हो पा रही थी। समय बीतता रहा इसी दौरान रेलवे में अप्रेंटिस खलासी की भर्ती के लिए वैकेन्सी निकली जिसका पता मोहन बाबू को चला , मोहन  इसमें अच्छा अवसर नजर आया। मोहन अपना कोई भी काम ईमानदारी ,मेहनत व लगन से करते थे किन्तु  अपने भाई के कल्याण के लिए के लिए किसी भी स्तर की पैरवी  शिफारिश  गलत न समझते थे।  मोहन बाबू को इस परीक्षा में रमेश के सलेक्शन की सम्भावन भी कुछ ज्यादा नजर आ रही थी क्योकि रेलवे कर्मचारिओं के घर के बच्चों के लिये कुछ स्थान सुरक्षित थे। इसके साथ मोहन बाबू की खुद की क्रेडिबिलिटी भी थी। इस पोस्ट के लिए रमेश का फॉर्म भरने के कुछ ही दिनों के पश्चात परीक्षा की तिथि भी आ गई ,सभी बच्चों के साथ  रमेश ने भी परीक्षा दिया। परीक्षा का परिणाम निश्चित समय पर आया बहुत से बच्चे परीक्षा में सफल घोषित किये गए किन्तु सफल परीक्षार्थिओं में सबसे शीर्ष पर नाम रमेश का था।  कार्यालय में तरह - तरह की चर्चायें लोग कर  रहे थे , कोई बोलता था देखा आपने मोहन बाबू का भाई रमेश  जिसका सलेक्शन कही नहीं हो पा रहा था वो अपने वहां अप्रेंटिस खलासी की भर्ती परीक्षा में टॉप कर गया यह उसकी योग्यता का कमल नहीं है यह मोहन बाबू की अधिकारियों के साथ मधुर सम्बन्धों का फलसफा है। ऑफिस में तरह तरह की चर्चाएं थी जितनी मुँह उतनी बातें लेकिन सारी  बातें दबी कुची सी थी लोगों को लगता था कि कोई अधिकारी अगर मेरी बातों को सुन ले तो दण्डित न कर दे आखिर परिणाम तो परिणाम होता है।
    जॉइनिंग का समय आया सारे सफल  परीक्षार्थिओं ने अप्रेंटिस खलासी के पद पर ट्रेनिंग हेतु ज्वाइन किया और अपनी ट्रेनिंग  करना शुरू किया। ट्रेनिंग के पश्चात सफल उमीदवारों को विभिन्न विभागों में पोस्टिंग मिली , रमेश को भी अपने इच्छित विभाग यांत्रिक के अग्निशामक अनुभाग में पोस्टिंग हेतु आदेश मिला। रमेश बाबू ने ड्यूटी ज्वाइन किया और काम करना शुरू कर दिया किन्तु रमेश बाबू अपने को इस नौकरी से उच्च नौकरी के योग्य समझते थे। इसकी चर्चा वो अपने बड़े भाई मोहन से भी कभी - कभी किया करते रहते थे ,मोहन बाबू रमेश को बार - बार समझाया करते थे कि देखो  ये नौकरी भी बड़ी मुश्क्लि से मिली है , ये नौकरी अच्छी तरह करते हुए दूसरी अच्छी नौकरी के लिए प्रयास करते रहो किन्तु रमेश बाबू के दिमाग में तो ये बात बैठी थी कि मै तो इस नौकरी से अच्छी नौकरी के लिए योग्य हूँ।  जिसके मन में ये बाते  बैठी हों कि ये नौकरी मेरी योग्यता के अनुरूप नहीं है वो व्यक्ति काम क्या करेगा और वास्तव में होता भी यही था। वो काम पर समय से आते तो थे किन्तु उनका काम में कभी मन लगता न था। काम पर समय से आने के पीछे शायद उनकी मजबूरी थी की उनके डिपार्टमेंट में बिलकुल समय पर उपस्थित होने पर ही उपस्थित दर्ज होती थी नहीं तो अनुपस्थित दर्ज हो जाया  करती थी।  शायद ये मज़बूरी न होती तो वो कार्य पर समय से आते या न आते ये बातें  भविष्य के गर्भ में थी। जिसके दिमाग में इतनी सारी नकारात्मक बातें  बैठी हों वो काम क्या करेगा और होता भी था वास्तव में यही था। उनका मुख्या काम एक्सपायर हो चुके अग्निशामकों को साफ करके पुनः रिफिल करना था। वो अपने को मिले हुए कार्यों को किसी तरह ठेल ठुल कर करते रहते थे यद्यपि काम जिम्मेदारी का था किन्तु रमेश बाबू को अपने  जिम्मेदारी का अहसास न था वो काम को किसी तरह ठेल - ठुल कर बेमन से करते रहते थे। कहते हैं की आप का भाग्य  ठीक है तो आप का दिन ठीक ठाक बीतता रहता है। भाग्य ख़राब हुआ तो अच्छे से अच्छा काम करने के बावजूद भी परिणाम उल्टा हो जाता है ,यहाँ तो काम बेमन से किया जा रहा था जिसमे दुर्घटना होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।
अग्निशामक शॉप के द्वारा रिफिल किये गए अग्निशामको का प्रयोग रेलवे में कही इंजन पर तो कही व अन्य  स्थान पर किया जाता है जहाँ पर कि आग से कोई दुर्घटना होने की संभावना होती है। ऐसे ही समय बीतता रहा एक दिन गोंडा यार्ड में शंटिंग कर रहे इंजन में अचानक आग लग गया। इंजन पर लोको पायलट के रूप में मोहन बाबू कार्यशील थे उन्होंने तत्काल अग्निशामक यंत्र को उठाया और पूरी विधि से उसके पाइप को आग की दिशा करके टॉप पिन के ऊपर  जैसे ही हाथ से हिट किया गैस पाइप से न निकल कर एका एक अग्निशामक के ऊपरी ढक्कन को तोड़ते हुए तेजी से एक धड़ाके के साथ निकलने लगा तथा  सारा का सारा गैस मोहन बाबू के चेहरे पर जा पड़ा। अब कुछ लोग मोहन बाबू को सम्हालने में लगे तो कुछ दूसरे उपलब्ध अग्निशामको से आग बुझाने का प्रयास करने लगे ,किसी तरह एक पार्टी ने आग पर काबू पाया तो दूसरे ने मोहन बाबू को तत्काल अस्पताल में भर्ती करवाया। अस्पताल में प्राथमिक उपचार करने के दौरान पाया गया की उनके आँख से कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। उसके पश्चात आँख का विस्तृत जाँच करने पर पता चला की आँख की रोशनी अब वापस नहीं आ सकती। यह समाचार रेलवे में आग के भाति फ़ैल गई जो ही सुना वो अस्पताल में मोहन बाबू को देखने दौड़ा ,बस इस लिए नहीं की वो रेलवे के कर्मचारी थे। उनका ब्यवहार व कार्य के प्रति समर्पण के कारण  सारे अधिकारीयों व कर्मचारिओं से उनके आत्मीय संबंधन थे। तुरंत अधिकारीयों नेअग्निशामक का सूक्षम निरीक्षण किया तो पाया कीअग्निशामक के आउटलेट पाइप को जाम  पाया। अस्पताल में यह चर्चा का विषय था देखो यदि रिफिल करने वाले कर्मचारी ने आउट लेट पाइप को ठीक से साफ करके अग्निशामक की रिफिलिंग की होती तो यह दिन एक कर्मचारी को नहीं देखना पड़ता। लापरवाही किसी एक कर्मचारी के द्वारा किया गया और नुकसान किसी दूसरे कर्मचारी को उठाना पड़ा।
   मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्काल यह जांच का आदेश दिया गया की यह अग्निशामक किसने रिफिल किया है यह पता लगाया जाय ,पता करने पर पता चला की इस अग्निशामक की रिफिलिंग मोहन बाबू के भाई रमेश ने किया है। यह खबर किसी तरह  उड़ाती हुई  मोहन बाबू के कानो में पड़ी अब काटो तो मोहन बाबू को लगता था जैसे खून ही न निकलेगा ,यह खबर उनके ऊपर वज्रपात के सामान था ,इस लिए नहीं की उनकी आँख चली गयी थी। वो अब इस लिए परेशान थे की अब रमेश पर ठीक से काम न करने का इल्जाम लगेगा  अब रमेश को  नौकरी बचाना मुश्किल हो जाएगा। मनुष्य अपने पास के वर्तमान के नौकरी ,सामान इत्यादि की कद्र तबतक नहीं करता है जबतक वो नौकरी व सामान उसके पास है जैसे ही नौकरी व सामान उसके हाथ से गयी उसे उस  नौकरी व सामान के मूल्य का उसको अहसास होता है या यो कहिये की पता चलता है। जब रमेश को ये पता चला की उसके भरे हुए अग्निशामक से भईया के साथ हादसा हो गया है तो उन्हें अपने कार्य के तरीके पर अफशोस या यो कहे की पश्चाताप  करने के अलावे और कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। वो अपने कार्य स्थल से छुट्टी लेकर अपने भइया मोहन बाबू के देख भाल  के लिए पहुंचे जैसे ही वो मोहन बाबू के पास पहुँच कर मोहन बाबू को चरण स्पर्श किया आँख से न दिखाई देने के बावजूद मोहन बाबू ने तुरन्त पहचान लिया और तुरन्त बोले  कि बोलो बाबू और कैसे हो। मोहन बाबू भइया को देखते ही बिलख -बिलख कर रोने लगे,मोहन बाबू ने रमेश  बाबू से बोला बाबू अब रोने धोने से कुछ होने वाला नहीं है। हमें लगता है यही लिखा बदा था। अब भगवान जैसे रखेंगे वैसे ही रहना पड़ेगा। रमेश बाबू अब वहीं अस्पताल में रुककर  मोहन बाबू की देख भाल  व सेवा शुश्रूषा में चौबीसों घंटा लगे रहते थे लेकिन उनका मन ग्लानि से भरा रहता था।
    एक तरफ मोहन बाबू अस्पताल में इलाज चल रहा था तो दूसरी तरफ रमेश को इस दुर्घटना के लिए दोषी मानकर उनको मेजर पेनॉलिटी चार्जशीट जारी कर दिया गया।  तमाम तरह के कागजी  कार्यवाही  से गुजरने के बाद रमेश बाबू के ऊपर इल्जाम की पुष्टि  हो गई। दंड के तौर पर रमेश बाबू को नौकरी से डिशमिश कर दिया गया । जैसे ही मोहन बाबू ने यह बात सुना मनो उनके ऊपर पहाड़ टूट पड़ा और उनके अंदर छटपटाहट होने लगी मैं कैसे ठीक होऊं और जाकर अधिकारिओं से बात करके इस दण्ड को माफ  करवाऊँ, इधर मोहन बाबू अपने ठीक होने का इंतजार करते थे तो रामवश बाबू को पश्चाताप के अलावे और कुछ भी नहीं सूझता था।अब तक जिस नौकरी को अपने अंगूठे की नोक पर रखते थे, अब उसकी कीमत उनको समझ आ रही थी। अब पश्चाताप के अलावे कुछ नहीं सूझता , पश्चाताप हो भी क्यों न जब मनुस्य अपने कर्म से विमुख हो जाये उसके पास पश्चाताप के अलावे उसके पास  होता ही क्या  है।
  जैसे ही मोहन बाबू को अपनी तबियत ठीक महशूस हुई वो अस्पताल से छुट्टी लेकर इस कार्यालय से उस कार्यालय पैरवी के लिए दौड़ लगाने लगे, इधर रमेश बाबू भी इस गलती के लिए क्षमा प्रार्थना हेतु अपना प्रार्थना पत्र अपने अधिकारिओं को देते और हाथ जोड़ कर अधिकारिओं से बिनती करते लेकिन यह बात अपने दोस्तों में जाहिर न होने देते थे कि मैंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना किया है। लेकिन दोस्तों को किसी न किसी माध्यम से वास्तविक बातों का पता तो चल ही जाता था। दोस्त भी खूब चटकारे लेकर बातों को करते थे जब तक नौकरी थी तबतक बोलते थे की ये छोटी मोटी नौकरी को मै कुछ समझता ही न हूँ अब जब नौकरी चली गई है तो अधिकारिओं के आगे हाथ जोड़ रहे हैं कि किसी तरह पुनः नौकरी मिल जाय। बड़ा नौकरी को ठेंगें पर रखते थे अब पता चल रहा है। कार्यालय में चर्चा का माहौल गरम था सब कहते थे की अब जो कुछ भी उनके लिए अच्छा होगा अब मोहन बाबू  के ही पैरवी से होगा , यह चर्चा कार्यालय के प्रति दिन के चर्चा का मुख्य मुद्दा हो गया था।
  इन चर्चाओं के बीच एक दिन चीफ साहब ने बड़े बाबू को बुला कर आदेश दिया की बड़े बाबू ,रमेश की बर्खास्तगी को रद्द करने के सम्बन्ध तथा चेतावनी जारी करते हुए एक पत्र टाइप कर के लाइये। बड़े बाबू बताये गए मजमून के अनुसार पत्र टाइप कर के चीफ साहब के पास लेकर गए चीफ साहब ने पत्र पर अपना दस्खत बैठा दिया इस तरह रमेश बाबू की बर्खास्तगी रद्द कर के एक चेतावनी के साथ पुनः नौकरी ज्वाइन करने का आदेश दे दिया गया। रमेश बाबू ने पुनः ख़ुशी ख़ुशी नौकरी ज्वाइन कर लिया शायद अब उन्हें नौकरी का महत्व समझ आ रहा था और शायद इस बात का भी एह्शाश हो रहा था की जो कुछ भी छोटी  मोटी  चीज हमारे पास है उसका अनादर न करते हुए हमें उसका सम्मान करना चाहिए। किन्तु कार्यालय  में इस सारी उपलब्धि के पीछे मोहन बाबू को ही लोग मान  रहे थे कि इतनी जल्दी बर्खास्तगी का रद्द होना तथा एक चेतावनी के साथ पुनः नौकरी का ज्वाइन करवा देना इस सब के पीछे एक आदमी का सद  व्यवहार था और वो थे मोहन बाबू। अब रमेश को समझ में आ गया था कि इस सारी समस्या की जड़, कार्य के प्रति मेरी जवाब देहि का अभाव ही था। 

Wednesday, May 3, 2017

bhayag ka khel


  • मनुष्य का भाग्य कोई भी नहीं जनता कब भाग्य मनुष्य के सामने प्रगट हो जाये और उसको रंक से राजा बना दे और कब उसके सामने दुर्भाग्य प्रगट हो जाये और उसको राजा से रंक बना देवे इसको शायद ईश्वर ही जनता होगा, लेकिन कुछ वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति कहते है की कर्म से भाग्य बनता है यह भी बहुत हद तक सही भी है यदि यह दोनों ही बाते सही हैं तो दोनों में कोई कोई तो श्रेष्ठ होगा ही। यह कहानी इसी बात पर अपना विचार प्रकट कराती है और विश्लेषण करना पाठको पर छोड़ती है।घटना एक ऐसे आदमी से सम्बंधित जो की बेहद ईमानदार और मेहनती थे:और सरकारी विभाग सुपरवाईजरी की  नौकरी करते थे  वे अपना कार्य बड़ी ही तन्यमयता  और परिश्रम से करते थे।इनका नाम  रमेश था।  इसके साथ ही वो अपने प्रमोशन को ध्यान में रख कर सम्बंधित किताबो की पढाई भी किया करते थे। लेकिन भाग्य कहिये या फिर उनकी पढाई में खोट कहिये वो जब भी परीछा में बैठते थे तो  लिखित परीछा को पास कर लेने बावजूद भी आज तक कोई साक्षात्कार पास नहीं कर पाए थे उनकी भर्ती जिस पद पर हुई थी उसी पद पर आज भी थे। आखिर कर हारकर उन्होंने पढाई लिखाई छोड़ कर जिंदगी का आनन्द लेते हुए परीछा देने का फैसला लिया। और इसके लिए वो अपनी पोस्टिंग स्थान और कार्य की प्रकृत को नजर अंदाज़ करते हुए एक बार सिनेमा देखने अपना मुख्यालय छोड़ कर जिला मुख्यालय चले गए। सिनेमा देखने के पश्चात् वो जल्दी से स्टेशन पहुँच कर ट्रेन पकड़ कर अपने मुख्यालय पहुंचना चाहते थे। लेकिन स्टेशन पर पहुँचने पर पता चला की अभी डिप्टी साहब आएंगे तभी ट्रेन चलेगी; उधर जनता ट्रेन चलने का इंतजार करते करते उबने लगी तो जाकर स्टेशन मास्टर पूछने लगी कि साहब ट्रेन ट्रेन क्यों नहीं चला रहें हैं।इसी दौरान  कुछ लोग स्टेशन मास्टर साहब  से विवाद करने लगे की आप ट्रेन क्यों नहीं चला रहे पहले तो स्टेशन मास्टर साहब  ने इधर उधर की बात बनाने का प्रयास  किया लेकिन जब वह जनता के तर्कों का कोई उत्तर दे सके तो उन्होंने झल्ला कर सही बात बता दिया जो अभी तक वो छिपा रहे थे ,की डिप्टी साहब अभी आयेंगे तो यह ट्रेन चलेगी। अब सिनेमा समाप्त ही होने वाला होगा या सिनेमा समाप्त हो गया होगा।  इतना सुनना था की जनता भड़क गई और उलुल जुलूल बात बोलने लगी कुछ ने तो स्टेशन मास्टर पर अपशब्दों का बौछार शुरू कर दिया।  इतने में डिप्टी साहब शायद सिनेमा समाप्त हो जाने के कारण स्टेशन पर गए और स्टेशन से लाउड स्पीकर पर यह बोला जाने लगा की सभी यात्रियों से अनुरोध है की सभी लोग ट्रेन में अपने अपने स्थान पर बैठे ट्रेन चलने वाली है। इतना सुनना था की यात्री ट्रैन की तरफ बढे और मामले से बेखबर डिप्टी साहब भी ट्रैन की तरफ अपने खैरख्वाह मातहतों से पुरसाहाली करवाते हुए अपने कोच की तरफ बढ़ ही रहे थे कि किसी यात्री की निगाह उनके ऊपर पड़ी और वो चिल्ला पड़ा देखो यही डिप्टी है जिसके कारण ट्रेन  इतनी देर से  रुकी है इतना सुनना था कि भीड़ में से किसी ने बोला  कि मारो इसी के कारण हम लोग यहाँ अनायास लगभग  एक घण्टे से माखी मर रहे हैं इतना सुनना था कि पता नहीं किसने पहला हाथ उठा कर डिप्टी साहब के ऊपर पहला प्रहार किया इसका तो पता चाल सका लेकिन उसके बाद सैकड़ो हाथ उठ्ने लगे और डिप्टी साहब के ऊपर गिरने लगे इतने में घटना देख रहे रमेश बाबू  अपने वफादारी परिचय  तुरंत डिप्टी साहब के ऊपर लेट गए आखरी कर रमेश बाबू ऐसा क्यों नहीं करते वो उनके डिप्टी थे। अब जो भी हाथ ऊपर उठे एक आध हाथ रमेश बाबू को पड़े लेकिन जनता उनको ऊपर से हटा कर अपने बर्बाद हुए समय का हिसाब लगता है डिप्टी साहब को मार कर निकाल लेना चाहती थी  , लेकिन रमेश  बाबू  डिप्टी साहब के ऊपर से हटने को तैयार थे इस धक्का मुक्की में एक आद हाथ रमेश बाबू को भी पड़े लेकिन उन्होंने अपने वफादारी का परिचय देते हुए इस चोट को बर्दास्त किया। इतने में दो चार पुलिस के लोगों के  गये इस कारण से  यात्रियों ने सोचा की बात का बतंगड़ हो जाये सारे यात्री अपने अपने  कोच में दौड़ कर चले गए इसके पश्चात् रमेश बाबू तुरन्त अपने डिप्टी साहब के ऊपर से उठे और डिप्टी साहब को उठने का मौका दे कर उनके भी कपड़ों के धुल धक्कड़ को झाड़ना शुरू कर दिया। इसके पश्चात् डिप्टी साहब से पूछने लगे  कि  कोई खास चोट तो नहीं लगी। डिप्टी साहब ने इस बात का उत्तर देकर बोला की जनता भी कितनी उद्दंड होती है इसका आज तक मुझे पता नहीं था, आज तक मैंने  अपने  कर्मचारियों पर ही शासन किया था उनको जैसे चाह वैसे बोला उनकी ऐसी की तैसी किया लेकिन किसी की बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। इसी बात ने हमें बद दिमाग बना दिया था और इसका फल हमें ईश्वर ने दे दिया। अब मैं पूरी जिन्दगी भर इस बात को गाठ बांध कर रखूँगा की जनता से जुड़े मामलों में फैसला बड़ी सावधानी से लेनी है। बात को पलटते हुए डिप्टी साहब ने रमेश बाबू से बोला  और बोलो रमेश तुम यहाँ कैसे आये थे। साहब इलाके के दौरे पर आया था तो पता चला की डिप्टी साहब यहाँ आये हैं तो सोचा चलो आप से मिलता चलू तब तक यह घटना  हो गई। अच्छा रमेश इ घटना का जिक्र किसी से भी करना। साहब आप भी क्या कह रहे हैं यह भी कोई जिक्र करने वाली बात है। इसके पश्चात दोनों लोग अपने अपने रास्ते चले गए। दूसरे दिन डिप्टी साहब ऑफिस अपने को सहज रखते हुए पहुँचे किन्तु ऑफिस के स्टाफ कौतुहलता से दबी नज़रों से उनको देखना चाह रहे थे पता नहीं यह बात ऑफिस के स्टाफ को पता चल गया था क्या। 

  • इस  घटना बीते कई वर्ष हो गए और शायद सारे लोग इसे भूल भी गए थे सब कुछ सामान्य चल रहा था , इसी दौरान प्रोन्नति के लिये एक विभागीय परीक्षा की वेकन्सी निकली  जिसके लिए सारे योग्य उमीदवार परीक्षा में बैठने के लिए फार्म भरने लगे फार्म भरने वालों में रमेश बाबू भी थे न्होंने बड़े अनमने मन से फार्म भरा क्योकि वो कई बार इस के लिए फार्म भर चुके थे और किन्तु पिछले कई बार से लिखित परीक्षा में पास होने के वावजूद फाइनल सलेक्शन  होने के कारण  उनका मन अनमना से परीक्षा में बैठने के लिये बना रहता  था; लेकिन न्होंने सोचा की चलो सब फार्म भर रहे हैं तो चलो मैं भी फार्म भर देता हूँ कौन सा  पैसा  लग  रहा है। यह सोच विचार कर न्होंने फार्म भर दिया और सोचा की चलो बहती गंगा में हाथ धो लिया जय। आदमी भाग्य  कौन जनता है कब भाग्य रंक से राजा बना दे और कब दुर्भाग्य राजा से रंक बना दे और उन्होंने सामान्य पढाई शुरू कर दिया। इस परीक्षा की कमेटी में वही डिप्टी साहब थे जिनका बचाव रमेश बाबू ने अपनी जान पर खेल किया था सोचा चलो एक दिन डिप्टी साहब से मिल लेता हूँ और एक बार उनको नमस्ते कर लेता हूँ ,ये सोच कर रमेश बाबू एक दिन डिप्टी साहब के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और बोले साहब मैंने भी प्रोन्नति परीछा का फॉर्म भरा है मै आप की दया दृष्टि अपने ऊपर चाहता हूँ। डिप्टी साहब ने भी उनकी बात को सुना और बोलै अच्छी तरह तैयारी कर परीक्षा में बैठिये भगवान चाहेगा तो आप का सलेक्शन हो कर रहेगा। 
  •  रमेश बाबू को डिप्टी साहब की तरफ कोई अस्पष्ट आश्वाशन न मिलने पर वह अपने  मन ही मन  में भुनभुनानें लगे ये अधिकारी ऐसे ही होते है इनके साथ किसी भी स्तर का उपकार कर दो किन्तु ये उसी तरह बात भूलते हैं जैसे देश के नेता अपने चुनावी वादे को भूलते हैं। खैर समय बिता बात बीती परीक्षा का समय आया परीक्षा हुआ रमेश बाबू भी परीक्षा दिए ;किन्तु रमेश बाबू ने मह्शूश किया कि इस बार परीक्षा  पहले दिये गये परीक्षा से कुछ ख़राब ही हुआ है। 
  •   समय आने पर परीक्षा का परिणाम आया ,उसमे रमेश बाबू का नाम सफल प्रत्याशियों में  सबसे ऊपर था। रमेश बाबू डिप्टी साहब के चैम्बर में गये उनके सामने कुछ बोल नहीं पाये उनके आखों में कृतज्ञता के आसूं थे वो केवल उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े रहे ,डिप्टी साहब , रमेश बाबू के मनोभावों को समझते हुए बोले ये आप के परिश्रम का परिणाम है ,नहीं साहब आप की बहुत बड़ी कृपा है। रमेश बाबू मन ही मन सोच रहे थे बड़े आदमी बड़े ही होते हैं।साच्छात्कार  का दिन आया सारे सफल अभ्यर्थियों का साच्छात्कार  हुआ ,परिणाम निकला उसमे भी रमेश बाबू का नाम प्रथम स्थान पर था।  
  •   रमेश बाबू को  ऑफिस में बधाईयों का ताता लग गया आखिर कर लोग बधाई क्यों न देते  रमेश बाबू  अब से अधिकारी हो गये थे। किन्तु ऑफिस स्टाफ के मन में कहीं न कही यह बात बैठी थी की रमेश बाबू का यह प्रोनति डिप्टी साहब की अनुकम्पा का ही कहीं न कहीं परिणाम है। हो जो कुछ भी आज के दिन से रमेश बाबू अधिकारी थे आखरी कर परिणाम  तो परिणाम होता है और अन्तोगत्वा वही  मायने रखता हैं। कुछ लोग इसे रमेश बाबू के भाग्य का खेल मानते थे तो कुछ लोग उनके द्वारा किये गये कर्म और  सही समय पर लिए गए उचित निर्णय का परिणाम मानते थे।