Thursday, April 9, 2020

कन्याभोज का प्रसाद

यदि व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक पैसा, नवसंबृद्धि व नवधनाढपन आ जाए और उसके साथ यदि धार्मिक बुद्धि का जुड़ाव न हो तो शायद यह सम्बृद्धि अपनों से ही इतना दूर कर देता है कि अपने भी पराये लगने लगते हैं। इसी तरह के लोगों की अधिकता से भरपूर नव निर्मित गोमती विहार कॉलोनी विकसित होकर अपना बृहद आकर लेने के क्रम में अग्रसर थी। इस कालोनी में एक से एक आलीशान मकान उसमे रहने वालों के वैभव  का बखान कर रहे थे। तो उनका पहनावा इत्र फूलेल व गहने आदि उनके शान ओ शौकत का बखान करते रहते थे।
 इस कालोनी के वासी अपने को एक दूसरे से किसी भी मायने में अपने को कमतर नहीं आकते थे।क्या मजाल कि कोई अपने गेट से बाहर निकले और अपने अड़ोस - पड़ोस वाले की तरफ नजर उठाकर अभिवादन के दो शब्दों को बोल दे। बोलना तो दूर अगर नजर मिल गया तो हाथ हिलाना भी एक दूसरे को गवारा तक न था। उनका एक दूसरे से मिलना किसी तीज त्यौहार या फिर कालोनीवासियों के निश्चित मीटिंग के दौरान ही होता था। इस तरह के मिलन में मिठास कम तो दिखावटी गर्म जोशी व औपचारिकता ज्यादा होती थी।
  उस कालोनी में जहां के मकान, सड़क, छोटे - मोटे  हॉट बाज़ार और शाम को हॉट बाज़ार में आने वाले लोग उस कालोनी के निवासियों के वैभव की गाथा गाते थे तथा दर्शन कराते थे, उसी कालोनी में खाली प्लाटों पर जगह - जगह झुंगी झोपड़ियां  दिखती रहती थी। जो उसमे रहने वालों की  दूर्भिक्षिता को दर्शाती रहती थी। क्या जाड़ा क्या गर्मी उसमे किसी भी मौसम में सुख का अनुभव नहीं किया जा सकता था, वर्षा के मौसम का कहना ही क्या था उन दिनों में वहां  दुर्भिक्षिता ही दुर्भिक्षिता दिखती थी।  वो उन्हीं लोगों का निवास स्थान था जो यहां रहने वाले वैभवशाली लोगों के लिए अपने कमजोर से दिखने वाले कंधो पर ईट, बजरी, बालू, मोरन,सीमेंट, पटरा और बल्ली ढोकर इन आलीशान महलों का निर्माण कार्य को पूरा करते थे। लेकिन उनके खुद के भाग्य में झोपड़पट्टी भी नहीं बल्कि पन्नीपट्टी ही लिखा था। फिर भी उसमें रहने वाले उनके बच्चे उन्हीं झूंगी झोपड़ियों में ही खुश नजर आते थे। उनके छोटे - छोटे बच्चों की सुबह सुखी रोटी से शुरू होती और दिन अपने मां बाप के इर्द गिर्द बीतता था। उनकी माएँ दिन भर गारा मिट्टी व बालू ढूलती थी तो उनके बच्चों को वही गारा मिटटी में खिलौनौ का दर्शन होता था, और उसी में खेलते हुए उनका सुबह से शाम हो जाता था न तो उनको और न ही उनके  मां - बाप को समय का पता चलता था कि सुबह से कब शाम हो गया। और फिर शाम को वो समय हो जाता था जब चिड़िया भी अपने घोसालों की तरफ लौटने लगती हैं तो ठीक उसी समय वो भी अपने घारौदों की तरफ लौटते हुए आटा,  चावल - दाल, नमक, तेल का खरीदारी करते हुए अपने घरौदों पर लौटते थे। चाहे कितना भी गर्मी या ठंडक हो यही उनकी दिनचर्या होती थी। इस तरह रात का खाना-पीना बनाना खा पीकर सो जाना फिर सुबह इसी तरह एक नये दिन के दिनचर्या  शुरुआत होती थी। फिर वही कार्य वहीं दिनचर्या यह उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया था जैसे लगता था उनके तथा उनके बच्चों के जीवन में पढ़ाई - लिखाई, अमोद - प्रमोद व मनोरंजन का कोई स्थान ही नहीं था। उन लोगों का यह हाल उस कॉलोनी में था जहां रहने वाले नव धनाढ्य व पुस्तैनी धनाढ्य लोगों का जीवन अमोद - प्रमोद व विलासिता से भरा हुआ था।
   मनुष्य का जीवन इतनी काल्पनिक विश्वासों से भरा हुआ है कि तार्किक व्यक्तियों की सोचने की सीमा के बाहर जान पड़ता है। तार्किक व्यक्ति जहां हर बातों व घटनाओं को अपने तर्क की कसौटी पर कसता है और धार्मिक व्यक्ति के कर्मकांडो को निरा मूर्खतापूर्ण ही लगता है। वहीं धार्मिक व्यक्ति को अपने कर्मकांडो पर इतना विश्वास है कि उसे लगता है कि यदि उसने  अपने  धार्मिक कर्मकांडो का अनुपालन नहीं किया तो उसे लगता है कि उसे ईश्वर की नाराजगी के साथ समाज की भी नाराजगी झेलनी पड़ेगी और सामाजिक प्रतिष्ठा का नुकसान होगा जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी। यदि ईश्वर नाराज हो कर कुछ ऐसा अनिष्ट कर दे जिसकी भरपाई न हो सके तो सारा जीवन ही बेकार हो जाएगा। अनिष्ट की ये आशंका बहुत कुछ अनिच्छा पूर्वक करने के लिए मजबूर कर देती है तो बहुत धार्मिक कर्मकांड भविष्य में ईश्वर को प्रसन्न करके लाभ पाने की इच्छा कराती है।
   इन सब आशंकाओं, आशाओं व लालसाओं से युक्त इस  कॉलोनी में कई कई ऐसे परिवार रहते थे जो समय समय पर अपने तीज त्यौहारों व पर्वों को मिल बैठकर साथ मनाने का प्रयास करते थे। ऐसा ही एक पर्व नवरात्र पड़ा जिसमें कॉलोनी वासियों ने मां दुर्गे की प्रतिमा कॉलोनी में सामूहिक रूप से स्थापित करने के साथ-साथ अपने घर पर भी मां की पूजा की कलश की स्थापना की और  विधिवत विधि विधान से नौ दिन तक मां की पूजा अर्चना की और जितने भी रीति रिवाज, कर्मकांड थे सबको पूर्ण रूप से विधि विधान  अनुपालित  किए। रीति रिवाज, विधि विधान को अनुपालित करने में कोई भी कोताही कलश स्थापित करने वाले परिवारों ने न उठा रखी थी समस्या तब उत्पन्न हुई जिस दिन कन्या भोज का आयोजन किया जाना था। उसके एक दिन पहले जब कन्याओं को भोज के बारे में बोले जाने का समय आया। इसके लिए धार्मिक विधान के अनुसार नौ कन्याओं को भोज करना आवश्यक था किंतु ढूंढने पर कॉलोनी में कुल एक या दो कन्याओं की व्यवस्था हो पा रही थी। आश्चर्य की बात ये थी कि इस कालोनी के इतने वैभवशाली व आलीशान मकानों व महलों में केवल तीन से चार व्यक्ति ही रहने वाले थे। किसी परिवार में माता-पिता के अलावा एक बेटा तो किसी के वहां दो बेटा तो किसी का एक बेटा और एक बेटी थी। उस कॉलोनी में किसी भी ऐसे परिवार का दर्शन नहीं हो पा रहा था जिसकी की दो बेटियां हो। लोगबाग अपने परिचितों में आसपास के लोगों में कन्या  भोज करवाने हेतु कन्याओं को ढूंढ रहे थे। किंतु आसपास व परिचय में कन्या हो तब तो मिले अधिकतर लोगों के घर जो उनके घर के अगल गिर, बगल गीर के घर थे उनमें केवल एक या दो कन्याएं ही मिल पा रही थी। कन्या मिले भी कैसे जो समाज कन्याओं को बोझ समझता हो उनके घर में कन्या जन्म ही कैसे ले सकती है। हो भी ऐसा ही रहा था। कालोनी में पांच घर सात घर छोड़कर किसी एक घर में कन्या मिल जाती थी।
   अब कर्म कांड और रीति रिवाज पूर्ण न  कर पाने में समस्या आ खड़ी हुई थी। परिचितों से पूछताछ करने और  तमाम तजवीज करने पर भी जब कोई भी ऊपाय न बनता दिखा तो पंडित जी ने यजमान को ( अखंड प्रताप सिंह यही यजमान का नाम था) सलाह दिया कि क्यों न इन झोपड़पट्टियों से मजदूरों की कन्याओं को बुलाकर भोज करवाया जाए। अखंड बाबू किसी भी  कन्या में देवी का वास होता है चाहे वह अमीर की हो या फिर किसी गरीब की हो।  इससे इन गरीब कन्याओं को कम से कम एक समय अच्छा भोजन मिल जायेगा। भूखे को भोजन कराने से एक तरह से आप को कई गुना पुण्य लाभ होगा और यजमान के द्वारा कन्या भोज  का भी पुण्य लाभ भी मिल जाएगा।
   पहले तो अखंड बाबू को इस बात में अपनी हेठी नजर आ रही थी कि कोई मजदूर या उनके घर में आकर बर्तन धुलने वाली  की कन्या उनके घर में आकर भोजन करे ( उन्हीं मजदूरों की औरतें या बेटियां कालोनी के घरों में बर्तन धुलने का कार्य भी करती थी ) और वो सम्मान से उसको भोजन कराएं उसके पैर छुए यह उनके सामाजिक  सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान था किन्तु कोई काम न बनता देख और बहुत सोच विचार करने के बाद कि यदि पूजा विधि विधान से पूर्ण न हो पाए तो कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़ जाए, तमाम उधेड़बुन और पंडित जी के बातों पर गौर करने पर अखंड बाबू इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन झोपड़पट्टियों की कन्याओं को विधिविधान से भोज करवाया जाए। जहां अभी तक अखंड बाबू के राजसी मन में अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के नफे नुकसान को ध्यान में रखकर इन गरीब कन्याओं के भोज कराने में हिचकिचाहट थी तो अब उसी अखंड बाबू के दिल में पूजा पाठ को विधिविधान से पूर्ण करने की लालसा या फिर पंडित जी के सलाह ने उनके अंतरात्मा मैं एक परिवर्तन का भाव को जागृत कर दिया था।
   उसी शाम अखंड बाबू पण्डित जी के साथ आस पास के सभी झोपड़पट्टियों में जाकर उसमें रहने वाली  कन्याओं को कन्या भोज के लिए आमंत्रित करने के लिए पहुंचे तो झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर अखंड बाबू अंदर से इतने द्रवित हो गए कि लगता था जैसे उनके कंठ में नमक का रोड़ा अटक गया हो,शायद लगता था उनका कंठ अवरूद्ध हो गया था। लगता था उनके बुद्धि को लकवा मार गया हो और हत बुद्धि से होकर बाहर ही खड़े होकर ऐसी दशा में आ गए थे कि उनके आंखों के आसूं और कंठ की बोली में एक संघर्ष सा होने लगा था कि कौन पहले निकल पड़े। किंतु अखंड बाबू अपने को सम्हाले हुए तथा अपने को संयत करते हुए पंडित जी से बोले कि पंडित जी आज आप ने या फिर ईश्वर ने हमें जीवन के उस मार्ग पर चलने का रास्ता दिखा दिया है जो मेरे इस जीवन का शायद उद्धारक बनेगा। पंडित जी अखंड बाबू के द्वारा इस समय प्रसंग से हटकर बोली गई बात को उनकी समझ में न आने के कारण बोले की मै समझा नहीं यजमान...., पंडित जी बातों को बीच में काटते हुए  अखंड बाबू बोल पड़े समय आने पर सारी बातें समझ में आ जाएंगी पंडित जी। और कन्याओं को आमन्त्रित करने का काम आगे बढ़ाते हुए एक झोपड़पट्टी से दूसरी झोपड़पट्टी करने लगे।इस बीच पंडित जी ने अखंड बाबू  को टोकते हुए बोला कि बाबू कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को ही भोज कराने की आवश्यकता है, पर अखंड बाबू ने पंडित जी की ओर मुखातिब होकर पंडित जी से बोला कि पंडित जी मुझे पता है कन्या भोज के लिए केवल नौ कन्याओं को भोज कराने की आवश्यकता है किंतु मै नौ कन्याओं के अलावा अन्य कन्याओं को अलग से बैठा कर भोज करना चाहता हूं। पंडित जी मैं पूजा के विधि विधान को पूर्ण करने के लिए ही अब केवल भोज नहीं कराना चाहता हूं।  पंडित जी कन्याओं को भोज के लिए आमंत्रित करते हुए उन झोपड़पट्टियों के अंदर की दशा देखकर मेरी अंतरात्मा ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया है आप समझिये कि मेरी ज्ञान चक्षु कुछ कुछ खुल गई है। मेरा अपने समाज के प्रति, अपने आस पास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति कुछ दायित्व है और उन दायित्वों को इस भोज के माध्यम से और इसी क्रम में आगे और सामाजिक दायित्वों को निभा कर मै अपने जीवन का उद्धार  करना चाहता हूं। जो समाज मेरे पूजा को विधि-विधान को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी कन्याओं को दे रहा है उसके प्रति भी हमारा कुछ दायित्व है कि नहीं। नहीं तो मेरे वैभवशाली तथा सभ्य कहे जाने वाले समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल पड़ा है और अधिकतर परिवार कन्याओं से विहीन है। पता नहीं ईश्वर इन धनाढ्य परिवारों में कन्या का जन्म क्यों नहीं होने देता है यह ईश्वर ही जाने।
   कन्याओं को भोज पर आमंत्रित करने के पश्चात अखंड बाबू पंडित जी से कल निश्चित समय पर आकर यज्ञ आहुति पूर्ण कराने हेतु बोलकर बाजार की तरफ चल दिए। बाजार से कन्याओं को उपहार देने हेतु या यूं कहें कि कन्याओं का पैर पूजने हेतु बर्तन कपड़े तथा अपने सामर्थ्य व कल्पना के अनुसार जो भी समान ले सकते थे उन सारे सामानों को बाजार से खरीद कर अपने घर की तरफ चल दिए। घर पहुंचने पर पत्नी के द्वारा पूछने पर कि इतना सामान खरीद कर किसके लिए आप लाए हैं। उन्होंने बताया कि यह कल कन्या भोज के पश्चात कन्याओं के पैर पूजते समय उनको देने के लिए। भोज तो केवल केवल नौ कन्याओं को ही कराना है फिर इतना अधिक सामान आप क्यों लेकर आए हैं। हां श्यामा भोज हमें केवल नौ कन्याओं को कराना किंतु और भी कन्याओं को मैंने भोजन हेतु आमंत्रित  किया है। नौ कन्याओं के अतिरिक्त कन्याओं किनारे बैठा कर भोज कराने के पश्चात उन्हें उपहार देकर विदा किया जाएगा इससे जो संतुष्टि हम लोगों को मिलेगी उसका हम बखान नहीं कर सकते हैं। अपने समाज में तो कन्याओं का जैसे अकाल है, इस कारण से मैंने कन्याओं को भोज हेतु आमंत्रित करने के लिए जब मैं उनकी झोपड़ पट्टियों में जाकर उनको आमंत्रित कर रहा था, तो उन झोपड़पट्टियों की दशा देखकर मैं आत्म ग्लानि से भर गया था उन झोपड़पट्टी की दशा देखकर। जिसमें वह लोग रह रहे हैं, उसकी दशा अपने घर के कबाड़ खाने से भी बदतर महसूस हो रही थी। वह लोग उसी में अपने परिवार के साथ जीवन निर्वाह कर रहे हैं जैसे तैसे अपना जीवन गुजार रहे हैं किंतु वह इतने स्वाभिमानी हैं की हम लोगों के सामने आज तक कभी भी इतनी अभाव की स्थिति में भी हाथ नहीं फैलाते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने इन आलीशान कोठियों को बनाने में अपने श्रम से हम लोगों का सहयोग किया है बहुत ही थोड़े मजदूरी पर। जो अपने लिए तो कम और हम कॉलोनी वासियों के लिए ज्यादा काम करते हैं। आज यह कन्या भोज ठीक से निपट जाए तो इसके पश्चात इनके बच्चों लिए काम करने का मैंने निश्चय किया है। दूसरे दिन पंडित जी के आने पर कन्या भोज में आमंत्रित कन्याएं भी नियत समय पर आ गई। पंडित जी के द्वारा विधि विधान से हवन संपन्न करवाने के पश्चात अखंड बाबू कन्याओं को सम्मान से पूजन करने व भोजन करवाने के पश्चात सभी कन्याओं को अपनी श्रद्धानुसार उचित उपहार देकर विदा किए। अखंड बाबू के लिए यह केवल कन्या भोज का ही दिन ना था यह उनके जीवन में यह परिवर्तन लाने वाला दिन था। आज से अखंड बाबू का जीवन बिल्कुल सादगी से भरा हुआ जीवन था जिसमें आडंबर का कोई स्थान ना था। अब उनके जीवन में वैभवशाली पहनावे व दिखावे व विलासिता का कोई भी स्थान न था।
   अब ऑफिस के पहले सुबह का तथा ऑफिस के पश्चात शाम का जो भी समय मिलता था वह झोपड़पट्टी के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाने में तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में भेजने की व्यवस्था करने में लगे रहते थे। यह नेक कार्य देखकर बहुत से दानवीर उनके सहयोग में आ खड़े हुए। अब बच्चों को पढ़ाने व उनको स्कूल भेजने का कार्य दिन दूना रात चौगुना के पथ पर अग्रसर हो गया था। वहीं दूसरी तरफ जो बच्चे दिन भर इधर उधर घूमते फिरते थे उनको लगता था जैसे उड़ान के पंख लग गए थे। उनमें से कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि खुद उनको पढ़ाने वाले अपने दातों तले उंगली दबाते थे। यह जीवन का सत्य है कि आप कितना भी अच्छा से अच्छा आम इत्यादि के फलदार पेड़ों की बगिया लगा दें यदि उनको देख रेख़ करने वाला रखवाला नहीं है तो वो कभी देख रेख के अभाव में तो कभी किसी राहगीर के द्वारा बगिया का रखवाला न होने के कारण अनायास ही फलों पर ढेला चला तोड़ दिये जाते हैं। ठीक इसी तरह का वातावरण भी इनके बच्चों को भी मिलता था। दिन भर मां बाप काम में  व्यस्त रहते और बच्चे उद्देश्य हीन बच्चों के भांति इधर उधर घूमते रहते थे।उनको यह समझ ही नहीं आता था कि जिनके साथ वह इस तरह घूम फिर रहें हैं वो उनको नुकसान पहुंचा रहा है या फायदा। जैसे गेहूं के खेत में आप जब गेहूं कि बुआई कर देते हैं तो गेहूं के पौधों के साथ कुछ ऐसे पौधे भी उग आते हैं जो मिट्टी के खाद पानी को इतनी तेजी से सोखते हैं कि गेहूं का मूल पौधों का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पाता है जितनी तेजी से इन लम्हेरे पौधों का होता है और उस खेत की फसल मारी जाती है। यदि कोई जागरूक व जानकर किसान ऐसे खेत का मालिक हो तो वह प्राथमिक स्तर पर ही इन लम्हेरों को उखाड़ देगा और उसका खेत बिल्कुल ही लहलहा उठेगा और फिर उस खेत से भरपूर पैदेवार होगा।
   ठीक ऐसे ही अब इन बच्चों को अखंड बाबू के रूप में एक ऐसा माली मिल गया था जो इनको एक दिशा देने का प्रयास कर रहा था। समय समय पर इन बच्चों को खाद पानी के रूप में किताबें, स्कूल के अलावा सुबह शाम पढ़ाने के लिए प्राइवेट ट्यूटर आदि की व्यवस्था अखंड बाबू ने कर रखा था। अगर बच्चों कि शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नजर आती थी तो अखंड बाबू उसको भर्षक दूर करने का प्रयास करते रहते थे। कहते हैं कि उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से होती है। यही बात इनमें से कुछ बच्चों पर भी एक दम से ठीक बैठती थी।  इन बच्चों में भी कुछ बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि जिनकी प्रतिभा के सामने गुरुजनों से लेकर सुविधा संपन्न घरों के बच्चे तक सम्मान कि नजरों से देखते थे, प्रतिभा के साथ इनके मेहनत को देखकर लोग अपने दातों तले उंगली दबाते थे। ठीक ही किसी ने कहा है होनहर विरवान के होते चिकने पाथ हैं, कुछ बच्चों ऐसे परिश्रमी थे कि लगता था जैसे उनको एक सुगम पथ मिला हुआ है वो उस पर सरपट दौड़ रहे हैं। ऐसे परिश्रमी बच्चे एक - एक सीढ़ी के रूप में एक - एक कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए उच्च शिक्षा कि तरफ अग्रसर हो रहे थे।
   अब उनमें से कुछ बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद देश की उच्च कोटि के सम्मानित संस्थानों की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात और वहां से  अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात प्रतिवर्ष कुछ बच्चे देश और दुनिया की प्रतिष्ठित कंपनियों में अच्छे इंजीनियर तो कुछ उच्चकोटी का डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इस तरह प्रत्येक वर्ष कुछ ना कुछ बच्चे डॉक्टर इंजीनियर व प्रबंधक बनके देश-विदेश में अपने प्रतिभाओं का लोहा मनवा रहे थे साथ में अखंड बाबू का नाम रोशन कर रहे थे। अब कोई तीज त्यौहार हो तो अखंड बाबू के द्वार पर गाड़ियों का तांता लग जाता था। उपहार स्वरूप मिठाइयों की बात ही क्या करनी। वो तो ढेर के रूप में घर पर तीज त्योहारों पर लग जाया करती थी। अखंड बाबू को घूम घूम कर इन मिठाइयों को झोपड़पट्टियों में बांटने में ही कई दिन लग जाते थे। अब अखंड बाबू जब भी घर से बाहर निकलते तो जैसे अभिवादन करने वालों का तांता लगा रहता था। अखंड बाबू इसे कन्या भोज का प्रसाद समझते थे। और शायद इससे और ऊर्जा मिलती थी, दिन दूना रात चौगुना कार्य करने के लिए।


यह मेरी अप्रकाशित व मूल रचना है।
गोविंद प्रसाद कुशवाहा

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