Friday, August 21, 2020

मकान

 मकान

  मनुष्य को जीवन जीने  की आवश्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान तीनों को सबसे प्रमुख माना जाता है। इसमें मकान अंतिम स्थान पर आता है। फिर भी मनुष्य जब मकान बनाता है तो उसको अपने हैसियत से बढ़कर बनवाने का प्रयास करता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि

मूर्ख आदमी बड़ा बड़ा मकान बनवाता है, बुद्धिमान आदमी उसमें किराएदार बनकर रहता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार मकान बनवा है उसकी सोच में यह बात रहती है कि मैं मकान लेकर कहीं जाऊंगा थोड़े ही।


श्याम बाबू कल अपनी पुरानी सोसाइटी में गये थे। वहां पर जब कभी वह जाते हैं तो उनकी कोशिश कोशिश होती थी कि अधिक से अधिक मित्रों से मिल लें इस दुनिया में मनुष्य क्या लेकर आया है क्या लेकर जाएगा यह एक बात व्यवहार ही है जो उसको इस दुनिया में उसे खुशी प्रदान करता है। इसलिए वह सोसाइटी के ज्यादा से ज्यादा पुराने मित्रों से मिलना चाहते थे, जब भी अपनी इस पुरानी सोसायटी पर आते थे।

  जब वह अपनी पुरानी सोसाइटी के गेट पर पहुंच कर सोसाइटी के गार्ड से पुराने लोगों के बारे में अभी पूछताछ कर ही रहे थे तथा अंदर जाने के लिए आगंतुक रजिस्टर पर अपना इंद्राज भर रहे थे तभी एक पुराना हटा कट्ठा नौजवान उनके सामने आया जिसको उन्होंने पहचानते हुए बोला डब्बू तुम  बताओ आंटी जी और विजय बाबू कैसे हैं।

  साहब आंटी जी तो रही नहीं और विजय बाबू को अमेरिका की किसी बड़ी कंपनी में नौकरी मिल जाने पर वही नौकरी करने चले गए और वहीं पर बस गए हैं और वहां से उनका बहुत ही कम आना जाना होता है। आंटी जी जब जिंदा थी तब भी विजय बाबू का बहुत कम आना जाना होता था। आंटी जी की सेवा भाव हम पति पत्नी  मिलकर किया करते थे। विजय बाबू बस वहां से पैसा भेज दिया करते थे। आंटी जी से विजय बाबू जब भी कहते थे की मां तुम यही अमेरिका चली आओ तो आंटी जी कभी अपनी जन्म भूमि का हवाला देकर तो कभी अपने इस मकान की देख रेख का हवाला देकर बोलती थी की तेरे पापा ने यह मकान को बड़े शौक से लिया था। यहां से चली जाऊंगी तो मकान पर कोई कब्जा कर लेगा यह उनकी निशानी है इसे मैं बेचना नहीं चाहती हूं। आंटी जी को इस मकान से बहुत लगाव था। विजय बाबू अमेरिका में अपने कार्य में इतने व्यस्त रहते हैं कि वह सालों साल आंटी जी से मिलने न आ पाते थे। यहां तक विजय बाबू आंटी जी के क्रिया कर्म में भी ना पहुंच पाए थे, हम लोगों ने उनका क्रिया कर्म किया। विजय बाबू कुछ दिन पहले यहां आए थे वह इसका देखरेख करने को  मुझे बोल कर गए हैं और समय-समय पर सोसाइटी चार्ज तथा अन्य खर्चों को भेज दिया करते हैं जिनको मैं सोसाइटी में जमा कर देता हूं।

  मैं अब अपना परिवार यही लेकर आ गया हूं। मेरे बच्चे भी इसी सोसाइटी में रहते हैं और यहीं बगल के स्कूल में पढ़ने जाते हैं। मैंने यही सोसाइटी के बगल में  एक दुकान खोल लिया है। जिससे सोसाइटी के लोग अपने दैनिक आवश्यकता व किराना के सामान सामान ले जाते हैं और मुझे ठीक-ठाक आमदनी हो जाया करती है। इसी से मेरे परिवार का खर्च चल जाता है। गांव से भी कभी-कभी मेरा भाई कुछ अनाज सब्जी इत्यादि लाकर पहुंचा दिया करता है। अब मेरा जीवन ठीक-ठाक कट रहा है। भाइयों तथा गांव वालों को भी कभी कभार शहर में इलाज इत्यादि करवाना होता है तो वह यहीं आकर रुकते हैं मैं उन लोगों का भरसक सहायता करने का प्रयास करता हूं। लगता है यह ईश्वर ने आंटी जी को सेवा करने का प्रतिफल में मुझे दिया है।

  श्याम बाबू, डब्बू की बातों को सुनकर ऐसा महसूस कर रहे थे कि मनुष्य को एक दिन सब कुछ छोड़ कर यहां से चले जाना है, फिर भी धन-संपत्ति, घर द्वार बनाने को लेकर मनुष्य हाय हाय किए रहता है। लगता है जैसे यह धन संपत्ति अपने साथ लेकर जाएगा। किसी ने ठीक ही कहा है की पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय। धन का उचित उपभोग यह है कि आवश्यक खर्चों के बाद जो धन बच जाए उसको गरीबों जरूरतमंदों की सेवा   में लगाने में हीं सही सदुपयोग है। पता नहीं माताजी कितना पैसा बैंकों में छोड़ कर चली गई होंगी उसको कोई जानता ही नहीं होगा। माता जी भी इस मकान की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी। माताजी अपनी जिंदगी गुजार कर ईश्वर के पास चली गई यह मकान वैसे के वैसे खड़ा है और शायद यह हम लोगों को बतलाने की कोशिश कर रहा है कि कितने लोग इस पृथ्वी पर अपने नाम से धन संपत्ति वैभव के लालच में अपना उचित कर्म और उचित जीवन निर्वाह किये बिना इस पृथ्वी से चले जाएंगे और मैं वैसे के वैसे बना रहूंगा।  माताजी शायद अपने बच्चे के पास चली गई होती तो अपने पोते पोतियों को खिलाने का आनंद लेते हुए अपने जीवन का अंतिम पहर गुजारती और पोते पोतियां भी दादी का प्यार दुलार पाकर निहाल हो  जाते। केवल पोते पोतियां ही नहीं अपने दादी का प्यार और दुलार पाने से ही वंचित हो गई बल्कि माता जी भी अपने बेटे से मुखाग्नि पाने से वंचित हो गई। यह धन संपत्ति का माया मोह हमें किन-किन सुखों से वंचित कर देता है शायद मरने वाला नहीं जानता है वह तो मरकर इस दुनिया से विदा हो जाता है, किंतु इस संसार के प्राणी इस तरह की घटनाओं से कोई सबक न लेकर फिर उसी राह पर चलते रहते हैं। शायद ईश्वर ने माया मोह का ऐसा जाल बुन दिया है। जब तक व्यक्ति अपने बुद्धि से इस जाल को नहीं कटेगा तब तक इसमें फंसकर अपने सुकून व सुखों से वंचित होता रहेगा।

  


गोविंद प्रसाद कुशवाहा


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