Saturday, August 31, 2019

          आस्था

        दुनिया में मनुष्य अपना व्यवहार बनाने सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने वह समाज में अपने को सर्वमान्य बनाने के लिए क्या-क्या नहीं प्रपंच करता है। यह दुनिया एक कर्म क्षेत्र है । कर्म क्षेत्र के आड़ में आडंबर को उसका आवरण बनाकर लोग अपना फैलाव  किस तरह से करते हैं। यह  लोगों के व्यक्तित्व व व्यवहार पर निर्भर करता है, कोई विभिन्न सामाजिक कार्यों का आयोजन इस तरह से करता है कि लगता है कि वह कितना समाज के हित में कार्य कर रहा है, तो कोई सामाजिक कार्यों में इतनी तन्मयता से  भाग लेता है कि लगता है जैसे उसने समाज सेवा का व्रत लिया है। किंतु ऐसे लोगों का अंतर्मन में क्या भाव हैं यह वही जानते होंगे या ईश्वर ही जानते होंगे।
      ऐसी ही प्रसिद्धि की चाह रखने वाले रमेश बाबू अक्सर सामाजिक कार्यों का आयोजन करते रहते थे। जैसे कभी कन्या विवाह का आयोजन तो कभी विकलांगों के लिए तिपहिया साइकिल वितरण का आयोजन। चाहे इन आयोजनों में रमेश बाबू का एक भी पैसा नहीं लगता हो लेकिन नाम तो खूब होता था कि रमेश बाबू ने कन्या विवाह का आयोजन किया तो कल के दिन विकलांगों के लिए तिपहिया साइकिल वितरण का आयोजन किया। इसके लिए रमेश बाबू ने कई एनजीओ का पंजीकरण  करवा रखा था,जिससे पैसे की व्यवस्था हो जाया करती थी। एक तरह से कहे तो यह एनजीओ ही उनके परिवार के खर्चे का मुख्य साधन था। इसके अलावा अपने सामाजिक संपर्क से वह विभिन्न विभागों में थोड़ा दलाली का भी कार्य कर लिया करते थे। जिसमें ट्रांसफर पोस्टिंग  कराना और समय - समय पर  किसी के प्राइवेट कार्यों को करवाना भी एक तरह से उनका आमदनी का जरिया था । तो दूसरी तरफ से समाज कल्याण की दृष्टि से उनका धर्म था। अगर किसी तरह का फौजदारी हो जाए या मारपीट या अन्य किसी तरह के पुलिस के लफड़े का कोई केस हो जाएं तो उनके लिए चार चांद की स्थित हुआ करती थी जिसकी ताक में वह सदैव रहते थे साथ साथ पुलिस वाले भी रमेश बाबू के इंतजार में रहते थे कि रमेश बाबू कोई केस लेकर आए और चार पैसे अतिरिक्त आमदनी का जरिया बने। रमेश बाबू तमाम सामाजिक मामलों को इस तरह समय समय पर निपटाते  रहते, इससे उनकी सामाजिक पूछ तो बढ़ती ही और मामले को बढ़ा चढ़ाकर समाज में  बताते रहते थे कि  देखो मैंने कम पैसे में ही तुम्हारा काम करा दिया नहीं तो यह बहुत ही कठिन काम था जिसको कि आसानी से सुलझाया नहीं जा सकता था । इस मामले के निराकरण में बहुत ही पैसा खर्च होता। गरीब गुरवे किसी तरह से मामले के निपट जाने पर उनसे कृतज्ञता जताने हेतु  हाथ जोड़ते और उनको आशीष वचन देते हुए विदा लेते। लेकिन लगता है कि हर आदमी के दिमाग में यह बात रहती थी कि रमेश बाबू भी कुछ ना कुछ दलाली खाते रहते हैं, लेकिन उनको अपना मामला निपटाने से मतलब था। वह मामले के निपट जाने पर रमेश बाबू से कृतज्ञता जताते हुए व आशीष वचन देकर विदा लेकर अपने घर को चलते हुए शायद मन में संकल्प लेते थे कि ईश्वर बचाए थाना पुलिस से।
      इस तरह के कार्यों से रमेश बाबू की प्रसिद्धि दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। समाज में जानने वालों के बीच में इस बात का  फैलाव हो रहा था कि रमेश बाबू बहुत ही सामाजिक प्राणी है जो सबकी मदद में सदैव ही तत्पर रहते हैं।जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी कोई अपरिचित भी रमेश बाबू के पास किसी काम को लेकर पहुंच जाता था और उससे रमेश बाबू को उससे दो पैसे की आशा दिख जाए तो वह कार्य करने को उद्दत हो जाय करते थे। रमेश बाबू अपनी स्वीकार्यता समाज में बनाने के लिए तरह तरह के उपायों पर अमल करते रहते थे। इसी उधेड़ बुन में लगे रहने के दौरान उनकी सामान्य बुद्धि ने उनको सलाह दिया कि आप अपने घर पर एक सुंदरकांड के पाठ का आयोजन करें और जिसमें मोहल्ले के लोगों को साथ साथ दोस्त यारों को भी आमंत्रित करें। यह दो से ढाई घंटे का पाठ होगा जो जल्दी समाप्त हो जाएगा और इसी के साथ एक छोटे से खानपान की भी व्यवस्था कर ली जाए जो कम पैसे में हो  जाएगा। इससे समाज में और स्वीकार्यता बढ़ेगी और दो चार नये लोगों से परिचय व मेलजोल बढ़ेगा। रमेश बाबू के इस आयोजन में पूजा-पाठ व धार्मिक उद्देश्य कम था, अपने को समाज में और स्थापित करने का उद्देश्य ज्यादा था। ईश्वर तो मनुष्य के भावों के गुलाम हैं मनुष्य जिस भाव से बुलाता है वह उसी भाव से उसके द्वारा किये जा रहे पूजन कार्य में शामिल हो जाते हैं।
    रमेश बाबू ने शुभ मुहूर्त देखकर सुंदरकांड के पाठ का आयोजन निश्चित किया और अपने हित मित्र व मोहल्ले वालों को समान्य औपचारिक तथा अनौपचारिक मिलन पर ही आमंत्रित करते जाते थे। आमंत्रित करते समय वह इस  बात का विशेष ध्यान रख रहे थे कि मित्रों के अलावा पास पड़ोस के जिन व्यक्तियों को आमंत्रित किया जा रहा है,उनका  सामाजिक स्तर उनके बराबर है कि नहीं है और भविष्य में उनसे काम पड़ सकता है कि नहीं और कौन कौन से व्यक्ति भविष्य में उनके लिए लाभदायक हो सकते हैं।
    जहां इस तरह के लाभ हानि के भावों को लेकर पूजा पाठ का आयोजन किया जाए वह पूजा पाठ न होकर एक तरह से शुद्ध रूप से व्यापार ही था। ऐसे में ईश्वर कि उपस्थिति की कल्पना करना अपने को धोखा देना ही था। इस पाठ के आयोजन में दूर दूर के हित - मित्र ,दोस्त - यार   व मुहल्ले के विभिन्न लोगों को आमंत्रित किया गया। अगर मुहल्ले के किसी एक व्यक्ति को नहीं आमंत्रित किया गया तो वह था मंगरू को उनके मकान के बगल के खाली प्लाट में झोपड़ी डालकर रहता था और मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का जीवन यापन करता था। मंगरू ने जब से ये सुना था कि बाबू जी सुन्दरकाण्ड का पाठ करावने जा रहे हैं , तब से मन ही मन इतना मुदित था कि मैं तो बाबूजी के पड़ोस में रहता हूं, मुझे तो बाबू जी अवश्य बुलाएंगे। मै अपने गांव में बहुत से रामायण व सुंदरकांड के पाठ में शामिल हो चुका हूं। वहां इसका गायन भी कर चुका हूं मुझे यहां पर बाबूजी के वहां अपने हुनर को दिखाने का मौका मिलेगा।जब बाबू जी के वहां सुन्दरकाण्ड का पाठ लय में करूंगा तो सुननेवाले  भी चकित हो जाएंगे और मन ही मन मेरी प्रशंसा करेंगे और शायद यह भी विचार करेंगे कि चलो अगली बार मंगुरू को अपने वहां सुंदरकांड के पाठ में बुलाऊंगा। यह खूब लय से सुन्दरकाण्ड का पाठ करता है। मंगरू अपने मन में कई तरह के ख्याली पुलाव पाल रहा था। जैसे जिस दिन सुंदरकांड का पाठ होगा उस दिन काम से एक घंटा पहले ही मालिक से बोल कर  छुट्टी ले लूंगा कि आज सुन्दरकाण्ड के पाठ में शामिल होना है और घर पर जाकर खूब साफ सुंदर कपड़ा पहन कर सुंदरकांड के पाठ में शामिल होऊंगा क्या हुआ मजदूर हूं तो इसका पूजा पाठ में कौन सा भेद इसमें तो सब एक बराबर होते हैं। इसी तरह के कई खयाली पुलाव मंगरू पाल- पाल कर खुश हो  रहा था।जैसे जैसे दिन नजदीक आ रहा था मंगरू देख रहा था कि  बाबू सबको सुंदर काण्ड पाठ हेतु  आमंत्रित करते जा रहे हैं किंतु उसके द्वारा सुबह का प्रणाम बोलने पर भी हाल चाल पूछने के अलावा सुन्दरकाण्ड में शामिल होने हेतु एक शब्द भी न बोलते हैं। मंगरू को अभी भी आशा थी कि बाबू उसको अवश्य सुंदरकांड पाठ के लिए आमंत्रित करेंगे क्योंकि वह उससे सुबह हालचाल जरूर लेते थे सामने पड़ने पर। धीरे धीरे वह  शाम भी आया जिस दिन शाम को सुन्दरकाण्ड होना था, मंगरू को रमेश बाबू को नहीं बुलाना था तो उन्होंने नहीं बुलाया । इस समाज में आदमी की इज्जत ना तो जात से है ना तो धर्म से है। उसकी पहचान है उसकी आर्थिक स्थिति, पद प्रतिष्ठा से हैं, किसी की बुरी स्थितियों में आप कितनी सहायता कर सकते हैं उससे है। यहां तो मंगरू एक मजदूर था उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी होने की कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। वह जहां भी मजदूरी करता था  यदि उसका मेहनताना एक दिन  का ₹300 बनता था तो आदमी उसमें भी कटौती करके ही उसको देना चाहता था। मजदूर की उच्च समाज या  उच्च मध्यवर्गीय समाज या फिर मध्यवर्गीय समाज में इज्जत ही क्या वह तो वैसे ही मजे से दूर है। मंगरू का भ्रम टूट चुका था, किन्तु मंगरू की भी श्रद्धा व आस्था पाठ में इतनी प्रबल थी कि वह भी पाठ वाले दिन खूब अच्छी तरह से नहा धुलकर व साफ सुथरे कपड़े पहन कर निश्चित समय पर बाबू के गेट के बगल में अपनी सुन्दरकाण्ड की पोथी लेकर पाठ करने लगा। जैसे लाउडस्पीकर की सुमधुर ध्वनि उसके कानों में पड़ती उसी धुन में खूब मगन होकर वह भी सुन्दरकाण्ड का सस्वर पाठ करता जाता था।वह पाठ करने में इतना तल्लीन था कि रमेश बाबू के वहां गेट से कोई आ जा रहा था तो मंगरू को पता ही नही चलता था। जबकि जो भी आदमी रमेश बाबू के वहां जाता था, मंगरू की तल्लीनता को देखकर उसकी भक्ति पर मुग्घ हो जाता था, और मन ही मन में उसकी भक्ति को प्रणाम करता था।मंगरू  की तल्लीनता और भक्ति लोगों को मन को झकझोर रही थी कि यदि रमेश बाबू अपने वहां बुला लेते सुंदरकांड पाठ में तो कोई उनकी हेठी  ना हो जाती अरे वह भी हम लोगों के साथ बैठ जाता। वह एक मजदूर है इस कारण से रमेश बाबू की नजरों में शायद उसको हम लोगों के साथ बैठने का अधिकार न था लेकिन उसके अंदर का भक्ति भाव हम लोगों से उच्च है। हम लोग तो केवल रमेश बाबू से अपना रिश्ता निभाने के लिए यहां आए हुए हैं। हम लोगों में से अधिकतर  का पाठ  तो केवल दिखावटी और स्वार्थ से भरा पाठ है हम लोगों का पाठ में आने का एक उद्देश्य यह भी है कि यदि किसी अकाज  की सुकाज में रमेश बाबू की जरूरत पड़ जाए तो वह भी हमारे लिए उपस्थित रहे जबकि मंगरु का पाठ  भक्ति आस्था, व विश्वास से भरा पाठ है।
    जितने भी बाहर से आने वाले आगंतुक थे वे मंगरू के पाठ से प्रभावित हुए बिना न रह पा रहे थे। वे लोग जैसे ही रमेश बाबू के घर के सुन्दरकाण्ड पाठ किए जा रहे कमरे में दाखिल होते और राम दरबार के सामने अपना आंख बन्द करके हाथ जोड़ते तो उनको एक अद्भुत दृश्य का दर्शन होता।उनको उस अद्भुत दृश्य में दिखता था कि प्रभु राम मंगरू के शिर पर हाथ फेरते हुए बोल रहें हैं कि भक्त तुम्हारी लगन मेरे में अनूठी है। ये मेरे भक्त जो तुमको को पूजा पाठ करते हुए और झूमते हुए मेरे में रमे हुए  दिखाईं दे रहे हैं, ये सब मेरी पूजा पाठ के लिए कम केवल एक दूसरे से स्वार्थ सिद्धि हेतु ज्यादा इकठ्ठे हुए हैं। इनमे से अधिकतर पैसे के दास हैं, अपनी सामाजिक पहुंच एक दूसरे तक करने हेतु यहां उपस्थित हैं।ये जितने भी पाठ में शामिल होने हेतु आगंतुक इस कमरे में प्रवेश कर रहें हैं उनके प्रणाम  करने की तरीके को देखकर मुझे हंसी आ रही है। वो ऐसा महसूस करा रहे हैं कि उनकी भक्ति मेरे में अपरम्पार है और जैसे लगता है कि उनसे बड़ा भक्त कोई और पैदा ही नहीं हुआ है। इनमें से कुछ ही भक्त हैं जो मेरी पूजा में मग्गन हैं, नही तो अधिकतर का मन पूजा में कम और अपनी माया वाली संसार में ज्यादा रमा है। इस पाठ वाले कमरे में भी। जब पाठ समाप्त हुआ और आरती पाठ आरम्भ हुआ तो सभी भक्त अपनी अपनी भक्ति के अनुसार प्रभु की आरती में लीन होकर प्रभु की आरती करने लगे और जैसे ही उन्होंने आँख बंद कर आरती गान करना शुरू किया। उनके बंद आंखों के पटल पर  प्रभु के रूप में मंगुरु ठीक प्रभु की भेष में उपस्थित थे।इस अद्भुत चमत्कार को देखकर सब आश्चर्य चकित थे सबने खूब मन लगाकर आरती की। आरती के पश्चात आरती लेने के दौरान जो व्यक्ति दस रुपए आरती के थाली में डालता था वह आज बीस से तीस डाल रहा था।आरती के पश्चात भक्तों के द्वारा चढ़ावे को गिना गया जो हजारों में था। रमेश बाबू कुछ पुलकित होकर बोले कि लगता है आज पूजा विशेष रूप से सफल हुआ है तभी आरती में इतना ज्यादा चढ़वा आया है। रमेश बाबू की बात को सुन कर कुछ लोग उनकी ही बातों में हां में हां मिलाते हुए बोले कि आखिर में पाठ किसके वहां हो रहा था। रमेश बाबू उन लोगों की बातों को सुनकर अपनी भावनाओं को छुपाते हुए बोले कि नहीं ऐसी बात नहीं है, आप का इस पाठ में इतनी संख्या में आना ही इस पाठ की सफलता का द्योतक है। आइए हम सभी लोग छत पर चलते हैं वहीं पर खाने की ब्यवस्था है। कुछ लोग आपस में खुसुर फुसुर कर रहे थे। यह देख रमेश बाबू उनके तरफ मुखातिब होते हुए बोले सोहन बाबू क्या बात है किस मुद्दे पर खुसुर फुसुर किए जा रहें हैं कोई विशेष बात हो तो हमे भी शामिल करें,नहीं कोई विशेष बात नहीं है लेकिन एक विशेष बात पर आप से इसी समय हम लोग आप से चर्चा करना चाह रहे हैं। क्या जैसा हम लोगों को आरती के दौरान  भगवान का रूप धरे मंगरू का दर्शन हो रहा था वो आप को भी हो रहा था क्या। क्या सोहन बाबू आप भी क्या कल्पित बातें कर रहे हैं। तभी भक्तों के बीच से एक साथ कई आवाज आई , रमेश बाबू इसको कल्पित बात कह कर न टाले इतने लोग इस पाठ में उपस्थित हुए हैं सारे लोग कल्पित बात नहीं बोल रहें हैं। ये लोग वास्तविक बात बोल रहें हैं आप वास्तविकता को नकार रहे हैं। आप ही अपने मन को सच्चा करके बोलिए कि आप को आरती के दौरान ईश्वर के रूप में किसका दर्शन हो रहा था। देखिए मुझे भी प्रभु के रूप में मंगरू के ही दर्शन हो रहे थे लेकिन मेरे विचार था कि मंगरू मेरे घर के बगल में इस खाली प्लॉट में  झोपड़ी डालकर रहता और मै उसको पाठ में आमंत्रित न कर सका था शायद, इस कारण से वो मेरे ध्यान में आ रहा है। इसी कारण से मै इस बात को बहुत तूल न दे रहा था। लेकिन आप सभी लोग एक ही बात का जिक्र कर रहे हैं तो जरूर ही मंगरू की भक्ति हम लोगों से उच्च कोटि की होगी। इस कारण से प्रभु की उस पर विशेष कृपा होगी या फिर प्रभु ने ये लीला की हो हम सब को सीख देने हेतु। हालांकि मंगरू प्रतिदिन मुझे सलाम बंदगी करता था किन्तु मैंने पाठ में इस लिए नहीं आमंत्रित किया था कि एक मजदूर आप लोगों के साथ बैठे तो आप लोगों की हेठी होगी।हालांकि अब मुझे महसूस हो रहा है  की पूजा पाठ में इस तरह का विचार एक मूर्खतापूर्ण सोच व छोटी सोच का ही परिचायक था। आइए अब इस मुद्दे पर विचार करने से कोई लाभ नहीं है। चलिए अब छत पर चलते हैं और  कुछ भोजन की व्यवस्था है, भोजन करते हैं।
    तभी भक्तों के बीच से एक आवाज आई रमेश बाबू अब और आगे कोई गलती न करें अभी इसी समय चलिए मंगरू से माफ़ी मांगते हैं कि हम लोग आप को पाठ में  बुला न सके, यह हम लोगों के द्वारा एक मूर्खतापूर्ण निर्णय का परिणाम है। आईए आप हम लोगों के साथ शाम का भोजन करिये और हम लोगों को कृतार्थ कीजिए। अगर आप ऐसा करेंगें तो आप की हम लोगों पर बड़ी कृपा होगी। यह बातें इतनी आदर्श युक्त थी कि रमेश बाबू के मुख से हां यां ना के कोई भी शब्द नहीं फूट पा रहे थे। लेकिन भगवन के कृपा की चाहत या फिर कहें जनता के निर्णय में ईश्वर का आदेश है। यह समझ कर रमेश बाबू सभी लोगों के साथ गेट से बाहर निकल कर मंगरू की झोपड़ी की तरफ बढ़े तो लोगों ने देखा मंगरू अपनी झोपड़ी में भगवान को भोग लगा रहें हैं। यह दृश्य बड़ा ही मार्मिक व अद्भुत था, यह एक भक्त और भगवान के मिलन का अद्भुत दृश्य था। जो अपने वहां आए हुए इतने लोगों से बेखबर था। भोग लगाने के बाद जैसे ही वह  प्रसाद लेकर बाहर बाटने जाने को हुए देखतें हैं कि भक्तों की भीड़ उनके सामने खड़ी हैं।यह देखकर वह हक्का बक्का, हत बुद्धि से खड़े हो गए। फिर अपने को सम्हालते हुए बोले आइए बाबू आप लोग बाहर इस दीवाल पर  ही बैठिए और कुछ मेरे पास आप लोगों बैठाने के लिए कुछ नहीं है। ये भोग का प्रसाद है इसे आप लोग ग्रहण करें।सभी लोगों ने थोड़ा थोड़ा प्रसाद ग्रहण किया। इसके पश्चात रमेश बाबू मंगरू के तरफ मुखातिब होते हुए बोले हम सभी लोग आप को अपने साथ भोजन करने के लिए आमंत्रित करने आए हैं। अब तक मुझसे जो भी गलती हुई उस अपने दिल से निकाल फेकिए और चलिए हम लोगों के साथ भोजन करिए। अब नकारने वाली कोई भी बात न बोलिएगा बस हम लोगों के ऊपर इतनी ही कृपा करियेगा। यदि आप  हम लोगों के साथ भोजन करते हैं तो हम लोगों के ऊपर आप की महान कृपा होगी।
    बाबू मैंने भगवान के सामने ये भोग लगा रखा है ये ही अभी ग्रहण करूंगा। आप लोग भोजन करें, इस अनुग्रह के लिए आप लोगों को बहुत बहुत धन्यवाद। मंगरू का बात समाप्त होते ही रमेश बाबू भक्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोले कि यदि आप लोगों की भी सहमति हो और मंगरू की भी सहमति हो तो इस भोग को भोजन में मिलाकर सभी लोग साथ में इस भोग को ग्रहण करें। भक्तों की तरफ से सहमति की आवाज आई तो रमेश बाबू ने मंगरू की तरफ मुखातिब होते हुए बोले कि अब आप इसके आगे कुछ न बोलिएगा। मंगरू अब चुप चाप खड़े हो गए,जैसे उन्होंने अपनी सहमति दे दी हो। रमेश बाबू ने भोग वाले प्रसाद को उठाया और मंगरू को साथ में लेकर सारे भक्त छत की तरफ बढ़े भोजन में भोग वाले प्रसाद को मिलाया गया। रमेश बाबू , मंगरू की तरफ बढ़े और उनको पहले भोजन करने का आग्रह किया। बाबू पहले आप लोग भोजन ग्रहण करें इसी में इस भोज का सम्मान है। तभी भक्तों के बीच से आवाज आई पहले आप शुरुआत करें तभी यह पाठ व भोज सफल होगा। अब मंगरू को कुछ कहते न बना वो रमेश बाबू के साथ आगे बढ़े और थोड़ा सा खाना लेकर किनारे हो गए। अब सारे भक्त भोजन लेकर भोजन करना शुरू कर चुके थे।सभी लोग अपार आनंद का अनुभव कर रहे थे। अब सारे गीले शिकवे दूर हो चुके थे, यह देख शायद ईश्वर भी इतने अभिभूत हुए की भंडारे में उपस्थित भक्तों के ऊपर हलकी हलकी पानी की दो चार बूदों को वर्षा कर अपने आशीष को वर्षा  दिया। सारे भक्तों को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे ईश्वर अपने झोली से फूलों की वर्षा कर रहे हैं।
   
 
    गोविंद प्रसाद कुशवाहा 

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